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________________ ३३.६ एि [14] ऍ पट्टएँ जाउ रणु घोरु । राइव-रावण-वल हुँ र- विवज्जिय रह रहा हूँ पर मिडिय मत माय को विबभदु भिडेंविण इच्छ की विसराकरिय करु भाषड् । कासु बाहु-दण्डु वाणग्गे । कासु इ वाण णिरन्तर लग्गा । जिंग्गुण जड् विधम्म- परिचत्ता | जच्च कहि नि रुण्डु रण भूमिहें। कासु शुभ-भत्रका अम्धार करण-ध-सर-पहर- णिड हुँ । सुरज णाएँ अणुरस-मिण हुँ । रहँ तुरङ्ग तरकहुँ । मत्त माय हुँ ॥१॥ समागमणु सहुँ सुरेहिं परिच्छ ४२ रण बहु-अवरुण्डन्त जावई ॥ ३ ॥ जिड भुजङ्गु गंगा विह ॥४॥ पचिव ण देवि ण फेण चि भग्गा ||५ वे नि वन्धु जे अवसर पत्ता ||६|| नीरिशु हुड णिय- सिरेण सु- सामिहें। माँ सीसु अन्धषिय | गयणहाँ गम्पि पडीवर वष्टिय ॥८ राहु-विम्बु ससि विश्वेंची बालीणउ । ॥९॥ घता केण चिसि दिष्णु लामि-रिपों उरु वाणहुँ हिंड सब्बु जिणों । सडनहुँ सरीरु जीविड कमी अइ-चाएं णासु होइ कहाँ ॥ १०॥ [६] को विगड वरविकासिणिएँ कुम्मयल-पओहरे हिं कर-किन्तुच्चाइय मिष्णु दन्ति-दन्तगँ लग्गड् । को वि जाहि-उप्परे लग्ग || । वें दिष्णु सिर-तउ || १ | को बिसुद्ध हासु विउ चिन्तन् "कि
SR No.090356
Book TitlePaumchariu Part 4
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages349
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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