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________________ घासतरिमो संधि का द्वार ही उखाड़ लिया हो। कहीं असिधाराओंसे मारकाद मची हुई थी। कहीं अधरोंसे मोती जैसे दाँत चमक रहे थे। कहीं रक्तकी प्रवाहिनी दौड़ रही थी। ऐसा लगता था मानो युद्ध पावस बन गया हो। धरतीके विस्तार और आकाशमें व्याप्त रक्तजल और अखोंकी आगसे युद्ध कभी जल उठता और कभी धुंआ उठता, ऐसा जान पड़ता मानो युगान्तका कालमुख ही हो ॥१-१०॥ ___ [१] युद्धकी धूलने सारे संसारको मैला कर दिया । वह सूर्यमण्डल तक पहुँच गयी । वहाँ वह सूर्य किरणोंसे संतप्त हो उठी। वहाँसे लौटकर वह छिन्न-भिन्नकी भाँति थकी-मादी दिशामुखोंमें फैलने लगो। देवताओंका मुख न देखने के कारण उसका मुख नीचा था । प्रलय धूमकेतुके समान, सब दिशाओंको उसने धूलसे भर दिया । लौटती हुई धूल ऐसी लगती मानो युद्धरूपी बैलकी जुगालीका झाग हो, अथवा लक्ष्मण, राम और रावणपर देवताओंने कुसुमरजकी वर्षा की हो, अथवा देववधुओंने आकाशके पात्र में रखकर रणदेवीके लिए घूम-समूह दिया हो । अथवा तीरोंके समूहसे निरन्तर क्षीण होता आकाश ही धूल होकर गिरा पड़ रहा था । अथषा स्वयं ही सूर्यकी किरणोंसे खिन्न और ऋषित हो प्रस्वेदकी तरह मानो वह धूल गजमदके तालाश्में पानी पी रही थी अथवा रक्तकी नदीके प्रवाहमें नहाना चाह रही हो । हाथियोंके कुम्भस्थलोंके मद जलकण उसे सींच रहे थे, चंचल चमर उसे हवा कर रहे थे। सैकड़ों प्रहारोंसे विंधे मृतकके समान, कोपाग्निके प्रहारसे दग्धके समान वह रण सहज ही उज्ज्वल हो उठा | मानो दुष्टताविहीन सजनका मुख हो ॥१-१०॥
SR No.090356
Book TitlePaumchariu Part 4
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages349
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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