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एण हृएण कष्णु सुहङत्तणु ।
तं शिसुर्णेवि पसमित कोवाण काल त्रिखहुएं
'चङ्ग मिच्चु देव पहूँ लद्धउ । सिर-विहीणु णउ लग्गइ काहुँ
पउमचरित
अयस - मारु केवल कुल लम् ॥२॥
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शिय-मासणें शिविट्टु मामण्डलु || ३॥ पर्माणि राहवु रामण-दुएं ||३|| जिह सु-कन्वें अवसद् णिवद्ध ||५|| तिह अवियद विषद् हुँ अण्णहुँ । ६ । लवण-रसेण समुद्र व खार ॥७॥ रण्ड जस लक्ष्य रोषाविय ॥८॥ बलु वुझउसइँ जें महारणे ||९||
आएं होहि तुहु मिलहुमार | अहवछ करूँ जि आवह पाजिय । एहिं जड़ों का अकारणें ।
जो एक सतीऍ
सो पहरण- लक्खे
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घत्ता
एही अवत्थ दरिघावइ ।
कड़ विहय जेव उडाव ||१०||
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|| दुधई || तुम्ह सिरुप्प लाई तोडेपिणु पीड रषि तस्थे । इन्द्रह- माशुक्रष्ण-वणवाहण मेल्लेसह सहत्थे ॥१॥
हिऍ वासुव बलए ।
लेसह सहूँ जे सोय भवलेवें ||२||
अहवह जद्द वि आउ सह झिजड़ | तुम्हारिसेंहिँ तो विजिल | श
किं नोईज सीह करतेंहि । किं खज्जोऍहि किड रवि णिप्पहु । किं सरिसोर्ह कुछइ सावरु | किं चाकिजाइ विभ्झ पुलिन्दे हि ।
किं वसिकिज गरुतु यहिं ॥४॥ किं चप्प-तिहिं धरिद्द हुवहु ||५|| किं करेहिं छाइब ससहरु ||६|| हासद शह तुम्हें हिं कु गरिन्दे हि ' ॥७॥
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