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________________ तितरियो संधि कतारको दूर हटा रहा था। दोनों ओर विशाल पटे लटक रहे थे । मदजलकी धाराएँ बह रही थीं। कानोंके चनर हिलडुल रहे थे, दोनों आँखें मुँदी हुई थीं । सुन्दर गेय के समान उसका कण्ठ था। उसकी पोठपर भ्रमरियाँ मँडरा रही थीं । उससे विशाल चित्र बँधे हुए थे । राजाकी भाँति उसे पट्ट बँधा हुआ था। पहाड़की तरह उसका शरीर विशाल था, महार्णवकी भाँति गम्भीर था । महामेघ को तरह उस की ध्वनि गम्भीर थी । यमकी तरह वह अत्यन्त भीषण, मनकी तरह अत्यन्त वैगशील और पूर्व की तरह उसे सब अलंकृत उस कृष्णवर्णके हाथीपर इस प्रकार बैठा, मानो उन्नतमेघों में बिजलीकी शोभा विलसित हो ॥१-१० ॥ · [ ८ ] शत्रुका क्षय करनेवाला रावण सीता देवीके निकट गया। वह बहुरूपिणी विद्याका ध्यान कर रहा था। कभी दिन दिखाई देता था और कभी रात । कभी चाँदनी और कभी मेका अन्धकार | एक ही क्षण तूफान और जलधारा दिखाई देने लगती । एक पलमें बिजलीके गिरनेकी आवाज सुनाई देती और दूसरे ही पलमें गज, सिंह और बाघकी गर्जना । एक पलमें गर्मी सर्दी और वर्षा और दूसरे पलमें शान्त ज्वालाका आकाशतल । एक क्षण में धरती काँप उठती और पहाड़ हिल जाता, दूसरे क्षणमें समुद्रका जळ उछल पड़ता । यह सब देखकर जनककी बेटी चन्द्रमुखी सीतादेवीने त्रिजटासे पूछा, "ये अचरज भरी बातें क्यों हो रही हैं, क्या किसीने संसारका संहार कर दिया है।" यह सुनकर त्रिजटादेवीने कहा, "अपने शरीर में बहुरूपिणी विद्याका प्रवेश कर, रावण तुम्हें देखने आ रहा है" ।। १-२ ।। २०
SR No.090356
Book TitlePaumchariu Part 4
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages349
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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