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हरियो संधि
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महीने में जगह-जगह फूल दिखाई दे रहे थे । बनोंमें नये फल पक चुके थे, आसका एक-एक पेड़ बौर चुका था । लाल कमल और कनेरने नयी शोभा धारण कर ली थी । कमल-कमल पर हंसों की शोभा थी। भोरे मधुमें सराबोर हो रहे थे, कोकिल-कुल वासन्ती तराना छेड़ रहा था, कीरोंके झुण्ड जहाँ-तहाँ उड़ रहे थे। दक्खनपer हिलकोरे ले रहा था, मधुकरियाँ मीठी-मीठी बातों में व्यस्त थीं, अनुरक्त तीतर पक्षियोंको तृप्ति नहीं थी । पलाशवृक्षों में तोतोंका नाम भी नहीं जाना जा सकता था, जिसमें कामदेव के वशीभूत होकर सीता देवीका शरीर शीत से कॉन रहा था। सगे प्रिय कैसे रह सकते हैं जब कि कोई दूसरा अत्यन्त उन्मुक्त प्रेमक्रीड़ा कर रहा हो, और फिर, जनों के मनको मस्त करनेवाला, सुहावना मधुमास किसे याद नहीं आता ?
॥ १-१० ॥
[ २ ] कहीं पर फुला हुआ लाल-लाल पलाश पुरुष ऐसा लग रहा था मानो अंगार हो, मानो दावानल उसके बहाने यह खोज रहा था कि कौन मुझसे जला और कौन नहीं जला । कहीं पर माधवीलता अपने घर आते हुए मधुकरको रोक नही थी, "हटो हटो तुम गन्दे हो, दूसरी पुष्पवतीने तुम्हें छू लिया है, कहीं पर आमकी खिली हुई मंजरी ऐसी लगती थी मानो उसने वसन्त पताकाको धारण कर लिया है। कहीं पचनसे हिलती-डुलती नागकेशर ऐसी लगती थी मानो सारी दुनियामें केशर फैल गयी हो । कहीं पर नये भ्रमरकुल ऐसे लगते थे मानो वसन्त लक्ष्मीके काले केशपाश हों, कहीं-कहीं पर दुर्जनोंके मुखकी तरह अत्यन्त कठोर नागरमोथा दिखाई दे रहा था, और कहीं पर नारियल श्री (लक्ष्मी) फलकी तरह वृद्धिंगत जान पड़ते थे। उस