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. असष्टिमी संधि प्रवृत्तियोंपर जिन्होंने प्रतिबन्ध लगा दिया है। दुष्कर्मों के इंधनको जिन्होंने जलाकर खाक कर दिया है। राजा भरतने देव. ताओंके स्वामीकी इस प्रकार वन्दना की, मानो इन्द्रने कैलास पर्वतपर प्रथम जिनकी वन्दना को हो ॥१-१०॥
[६] जिनभगवानकी वन्दनाके बाद, उसने महामुनिकी वन्दना की। जन महामुनिकी, जो इस प्रकारके धर्मकी दिशाएँ बताते हैं। जो दुस्सह परिषहोंका भार सहते हैं। जो पाँच महाव्रतोंका भार सहन करते हैं। तप गुण संयम और नियमों का जो पालन करते हैं। जो तीन गुप्तियोंको धारण करते हैं और शान्तिशील हैं। जिन्हें तीन शल्ये नहीं सतातीं। जो समस्त कषायोंसे दूर हैं । जो संसारके समुद्र में नहीं डूबते। जो वृक्ष के नीचे पावस काट लेते हैं। जो कड़कड़ाती, आँखें बन्द करनेषाली ठण्डमें बाहर सोते हैं, जो गर्मी में आतापनी शिलापर सप करते हैं, और खुले में चान्द्रायण तप साध लेते हैं । जो भयंकर भरघटोंमें भी बीरासन और साह आसनोंमें ध्यानमग्न रहने हैं। जो धीरतामें सुमेरु पर्वत और गम्भीरतामे समुद्र हैं। चार झानोंके धारी मुनिवरको प्रणाम करके भरसने पूछा, "विझल्याने ऐसा कौन-सा तप किया जिससे वह मनुष्यकी व्याधि दूर कर देती है" ॥१-१०॥
[७] यह सुनकर महामुनिने बताना शुरू कर दिया, उन मुनिने, जो अज्ञानकी रातका अन्त कर चुके हैं, कहा, "सुनो, पूर्व विदेह में ऋद्धिसे भरपूर पुंडरी किणी नगर है। उसमें त्रिभुवनआनन्द नामक राजा था । वह लीला पुरुषोत्तम पक्रवर्ती था। उसकी अनंगसरा नामकी उन्नसपयोधरा सुन्दर कन्या थी।