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________________ १६० कुमुअ-महकाय सत्-अमघण्टा | पउमचरिउ रम्म सार मारिच सारण- सुमेणाहिवा । सुन पचण्डालि सम्झन्छ- दहिमुह शिवा ॥१३॥ घत्ता भुअणेफेक पहाणार्हे । गणगणेपणु राणा हैं ॥ १२ ॥ विहि माहि सुग्गी अमिया ॥१०॥ अनेक मि के सक्किय केण वि समरे जोवित जमह [ 8 ] केण वि को विदओ 'मरु सम्मुहु याहि थाह' । क्रेण वि को विसु समरण 'रहरु चाहि वाहि ॥॥१॥ केण त्रि को वि महा-सर-जाएँ । छाइड जिह सु-कालु पुकाळें ||२|| केण वि को त्रिभिष्णु सच्छ-स्थलें । पडिउ धुलेवि को विमति मण्डलें ॥३॥ केण वि कहाँ विसरासणु ताडिद । णं हेहा मुदु हिपबर पाहिङ ॥ केण त्रिकों विकउ णीवति । केण वि कहाँ वि महदुर पाडित । केण वि दन्तिदन्त उप्पाहि । केण वि झम्प दिष्ण रिज- रहबरें | क्रेण चि कहाँ षिसी अच्छोडिड चलि जिह दस दिसेहिं आवट्टिङ ॥ ५ ॥ णं भउ माणु महत्फर साहि ॥ ६ ॥ नाव जसु अप्पण समावि || || गरुडें जिह भुङ्ग भुषणन्तरें || ४ || णं अवराह रुख फलु सोहि ॥ I घन्ता ferg fear हिट थिरु । पन्हों उरु सामियहाँ सिरु ॥१०॥ [10] केण वि कहाँ वि सुक पण्णी पारवर पुनणिजा केण वि गुलगुल म्ति मायकी केण वि सीह विजा ॥१॥ I i
SR No.090356
Book TitlePaumchariu Part 4
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages349
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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