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________________ सिसत्तरिमो संधि २९९ में हाथी घुसा हो, या दर्पणमें किसी श्रेष्ठ नरकी छाया पड़ी हो, या सरोवरमें चन्द्रमाका प्रतिविम्य हो, अथवा पूर्व दिशामें दिनकरको प्रतिमा हो। गन्धामलकसे उसने अपने केश सुवासित किये, फिर शत्रुकी तरह उन्हें अलग-अलग कर बाँधा और सजित किया। फिर आनन्दके साथ वह स्नानपीठपर जाकर बैठ गया। नट, कवि और वन्दीजन उसका जय-जयकार कर रहे थे । स्फटिक मणिकी वेदीपर बैठा हुआ वह ऐसा जान पड़ रहा था मानो हिमशिखरपर मेघ गरज रहा हो या पाण्डुशिला पर तीर्थफर हो, या पूर्णिमाके ऊपर कृष्णपक्ष स्थित हो। स्त्रियाँ मंगलकलश अपने हाथों में लेकर उसके निकट इस प्रकार पहुँची मानो उन्नत मेघोंसे युक्त दिशाएँ महीघरके पास पहुँची हों ॥ १-२ ॥ [३] प्रमु रावणका अमिपेक प्रारम्भ होनेपर स्वर्णिम कलशोंसे जलधारा छोड़ी आने लगी। बड़े-बड़े नगाड़े बज उठे। काँछ बाँधकर योद्धा गरज उठे । फहीपर वन्दीजन सस्वर गानसे अंकृत मंगलोंका उच्चारण कर रहे थे । कहीं पर उत्तम बाँसकी बनी वीणा बजानेमें निपुण मनुष्य, किन्नर, गन्धर्य और विद्याधर गा रहे थे। कहीपर वन्दीजनौने स्वर्ण माणिक्यके समूहसे देहलीको भर दिया था। कहीपर चन्दन, कपूर, कस्तूरी और केशरकी कीचड़ एकमेक हो रही थी। कहीं पर अभिषेकशिलाकी जलधाराके प्रवाहसे लोग दूरसे ही भीग रहे थे। कहीं पर नट, छत्र, फम्फाव और धन्दीजन, सौभाग्यशाली वीरोंकी नामावलीका उच्चारण कर रहे थे । इस प्रकार अनानन्ददायक कलशोंसे रावणका अभिषेक हो रहा था। जिन भगवानके अभिषेककी भाँति देवता 'जय-जयकार' कर रहे थे ॥ १-२॥
SR No.090356
Book TitlePaumchariu Part 4
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages349
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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