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________________ सप्तवण्णासमो संधि गजवके गण्डस्थल काट डालता, कुबेर और इन्द्रको थर-थर कँपा देता, शरणागतके भयको दूर करता, दुर्दम दानवेन्द्रोंको डरा देता, देवताओंकी सुन्दर स्त्रियोंके साथ रमण करता, दान और युद्धमें स्वरा मचाता उस रावणको विभीषणने या कहते हुए सुना। तब रावणके मुखको देखकर कुपित मन विभीषण बोला, "मृत्यकाल पास आने पर सब का चित्त उलटा हो जाता है" ॥१ [४] विभीषणको फिर भी इस बातका बहुत संताप था कि भाईने उसकी बात क्यों नहीं मानी ? राजा क्यों अपना बदनामी करा रहा है, और इस प्रकार जहरीली दवा प्रविष्ट कराना चाहता है ! जो तुमने विदेहराज जनककी कन्याका नगरमें प्रवेश कराया है, वह तुमने अपने ही लोगोंके लिए उनकी होनहारको प्रवेश दिया है। यह (अशोक) वनमें अच्छी भली सीता देवी नहीं बैठी हुई है, यह सबके हृदयमें भालेकी नोक लगी हुई हैं ! यह सीता देवी नहीं, परन् शोकसंपदा है ! लंकापर तो यह गाज ही आ गिरी है ! यह सीता देवी नहीं, किसी श्रेष्ठ सिंहकी दाह है, या किसी गजवरके गण्डस्थलकी खीस है ! यह सीता देवी नहीं, यमराजकी जीभ है और है तुम्हारे उद्यम एवं यशकी हानि । हे भाई, तुम रामको मना लो, युद्ध छोड़ दो | तोरणांसे सजी लंका नगरीको फलने-फूलने दो, स्वानको सम्पदाकी नरद्द सीता देवी न कभी तुम्हारी थी, न अब है, और न आगे कभी होगी ॥१-८॥ ५] यह सुनकर इन्द्रजीत अपने मनमें भड़क उठा । इन्द्र और वैजयन्तको चूर-चूर करने वाला, रत्नाश्रवके कुलका अभिनन्दन करने वाला और रावणकी नजरको साधने बाला ! जिसने प्रहार कर हनुमान तक को रोक लिया था। जो आगके
SR No.090356
Book TitlePaumchariu Part 4
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages349
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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