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________________ दुरूहस्मिो संधि २११ सुमेरुपर्वत दलमल कर दिया जाय, क्या कामधेनु दुहकर दी जाय, क्या यनको जंजीरोंसे बाँधकर लाया जाय, क्या इन्द्रको चाँधकर लाया जाय, क्या रति स्वभाववाला काम लाया जाय, क्या कुबेरकी सम्पदा, या सर्वोपायसिद्धि नामकी विद्या दी जाय । क्या देवता और असुरोंके साथ तीनों लोकोंकी सेवा कराऊँ । हे राजन, मैं केवल एक चक्रवर्तीके सम्मुख अपने आपको समर्थ नहीं पाती" ॥१-११॥ [१३] यह सुनकर देवताओंको सतानेवाला, पुण्य मनोरथ, रावण उठ बैठा । उसने शान्तिनाथ भगवानकी तीन परिकमाई दी ही थी कि इतने में कुमारने मन्दोदरीको मुक्त कर दिया 1 अंग और अंगद भाग गये, सेना भी तितर-बितर हो गयी। यह बात रामके कान तक जा पहुँची। किसीने जाकर कहा, “हे परमेश्वर, रावणको इच्छा पूरी हो गयी है । उसे विद्या उपलब्ध हो चुकी है। अब वह निवृत्त और धीर है। अब बह, वीर, देवताओंसे भी निश्चिन्त है। नहीं मालूम अब क्या होगा । हे देव, सीतादेवीकी आशा छोड़ दीजिए।" यह वचन सुनकर कुमार लक्ष्मण इतना कुपित हो गया, मानो प्रलयकालमें सूर्य ही उग आया हो। उसने कहा, "जाओ मरो, यदि तु में शक्ति नहीं हैं, मैं अकेला लक्ष्मण आशा पूरी करूँगा। कहाँको विद्या, और कहाँ की शक्ति । कल तुम उसका अनस्तित्व देखोगे। हे दशरथनन्दन, मैंने जो प्रतिमा की है, वह समुद्र के समान अलंघनाय है। दोनों तरकस जलकी भाँति हैं. धनुषकी तट लहरियोंसे यह प्रतिज्ञासमुद्र भयंकर है, मैं अपने तीरोंके समुद्र में उस दुष्टको डुबाकर रहूँगा" ! ५-११ ॥ [१४] अपनी बहुरूपिणी विद्याके साथ, निशाचरराज रावण ऐसा लगता धा, मानो सपत्नीक इन्द्रराज ही हो । उसने आकर
SR No.090356
Book TitlePaumchariu Part 4
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages349
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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