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________________ २०४ किं रवि रिक्ख ससि निष्प बहु-विसुण डिड्डु स- मोलिउ णाईं स-तार बहु-मणि-कुट्टिमु नाइँ विस दुक्ख-पइट वहि णाएँ विरुद्ध-प्रण पउमचरिउ चिन्ताविय 'केस किरन्द-ड-मगेण वन्ति । फिर फलिह-प्रहेण समुच्चलन्ति । मरगय-विदुम-मेणि णिएबि । पेक्यवि आलेक्खिम-सप्प सयहूँ । पहें लगा नीलमणि-सार-भूएँ । पुणु राय सन्ति मणि हेण । सूरकन्सि-कुष्टिम-पण । सहचरिउ घर विश्वमवाहरु घन्ता पण त्रि जे जियन्ति बावारें । अवसे जम्ति सण-वस्थारें ॥११॥ [२] रावण - पङ्गणु । सस्य - शहङ्गणु ॥ १ ॥ वहु- रयणुज्जलु | स्वायर-जल ॥ २ ॥ पण दया करें ॥ ४ ॥ कद्दम भइयऍ पईसरन्ति ||४|| आयासासङ्कऍ पुणु वलन्ति ||५|| पर दैन्ति ण 'किरणावलि' मणेवि ॥ ५ ॥ 'मज्जेस हुँ' मनेंबिण दिम्ति पराई ॥ ७ ॥ चिन्तविट 'पडेस अन्धकूएँ || ८ || ऑसरिय विलेस किं दद्देण ॥९॥ सङ्क्रिय 'दशेस हुभवद्देण ' ॥ १०॥ चत्ता लसिकरणुवङ्ग-तारा । जम-सणि- राहु-केट अङ्गारा ॥ ११ ॥ [ 1 ] सुइ-वय- वन्धुरु | मोतिय-दन्तुरु ॥। १॥
SR No.090356
Book TitlePaumchariu Part 4
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages349
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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