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________________ दुसत्तरिमी संधि मी सिद्धिके लिए भिरप्निल शा। मानदेशाला चित्त एक क्षणके लिए भी जब नहीं डिगा, तो अंगद आगकी भाँति अल उठा, मानो उसमें घी पर गया हो। इसने ईर्ष्यासे भरकर मन्दोदरीको ऐसे बाहर निकाला, मानो हाथीने कल्पवृक्षकी डाल काट दी हो, या सिंहने इरिणीको पकड़ लिया हो, या क्रुद्ध राहुने शशिके बिम्बको निगल लिया हो, या गरड़राजने नागराजको दबोच लिया हो, या महान् आगम प्रन्थोंने लोकोंको अपने वशमें कर लिया हो !" परन्तु इससे भी रावण हिला-डुला नहीं। धरतीकी भाँति वह एकदम अडिग और और अटल था | तब परमेश्वरी मन्दोदरीने कहा, "अरे देखते नहीं इसने मेरे बाल पकड़ लिये हैं। मुझ महादेवीके हृदय में असह्य जलन हो रही है ? हे पाप, तुम्हारा यह पाप, कल अवश्य फल लायेगा, दशानन कल समूची सेनाको नष्ट कर देगा।" यह सुनते ही तारानन्दन कुड़मुड़ा उठा । उसने भत्सेनाभरे शब्दों में कहा, "अरे कल क्या, आज ही मैं रावणके देखते देखते तुम्हें सुप्रीषकी महादेवी बना दूंगा!" ||१-१२॥ __ [१२] यह कहकर दुश्मनने ललकारना शुरू कर दिया, "हे रावण बचाओ अपनेको, मैं कहता हूँ। मैं हूँ वही अंगद, तुम लंकेश्वर हो, यह रही मन्दोदरी, और यह है वह अवसर!" जब इससे भी रावण क्षुब्ध नहीं हुआ तो विद्याका ( बहुरूपिणी ) आसन हिल उठा। वह अन्धकार फैलाती हुई आयी ! वह बहुरूपिणी विद्या थी, और नाना रूप धारण कर रही थी। वह आकर, इस प्रकार स्थित हो गयी, मानो सिद्धके आगे सिद्धि आ खड़ी हुई हो। वह बोली, "क्या आशा है देव ? क्या धरती वशमें कर दी जाय, क्या दिग्गजोंका झुण्ड भेंट किया जाय, क्या नागका मणिरत्न लाया जाय, क्या
SR No.090356
Book TitlePaumchariu Part 4
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages349
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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