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सप्तवण्णासमो संधि करने लगी। पण्डितों, सामन्तों और मन्त्रियोंसे घिरा हुआ विभीषण जा रहा था। उस समय वह ऐसा लग रहा था,जैसे राषणका यश और मुख मैलाकर रामके सम्मुख जा रहा हो॥१-९||
[.] विभीषणने देखा कि इंसद्वीपमें रामकी सेना ठहरी हुई है। अश्वों, गजों और अस्त्रोंसे युक्त है। रथों और योद्धाओंके नामसे मकर, और नगाड़ों एवं भरीस भयावह ! जब लक्ष्मण ने सूर्यमण्डल में सेना देखी तो उसने अपनी नजर तलवारकी नोक पर डाली। शत्रुओंके लिए दुनिवार, रामकी दृष्टि भी शत्रुओंके सिर काटनेवाले तीरों सहित अपने धनुपपर चली गई । परन्तु इतने में, रावणके भाई, महापुण्यशाली विभीषणने अत्यन्त विनयके साथ, अपना महाबल नामका दूत भेजा। उसके हाथमें दण्ड था। वह वहाँ गया जहाँ लक्ष्मण के साथ राम थे। उसने, युद्धमें संहारक तीर छोड़नेवाले रामसे प्रणामपूर्वक निवेदन किया, "विभीषण शक ही बात आपसे कहना चाहता है, और वह यह कि आजसे वह तुम्हारा अनुचर है। उसने बहुतेरा मना किया। परन्तु रावण नहीं मानता उसने अपने मनमें लङजा और मानका भी परित्याग कर दिया है । जिस प्रकार इन्द्र परम जिनेन्द्रका भक्त है, उसी प्रकार आजसे विभीषण तुम्हारा भक्त होगा।" ||१-९॥
[१०] उस योद्धा इतके शब्द सुनकर चे सब राजा इकटूटे हो गये जो उस राजन्य समूहमें वहाँ थे। इसी बीच, रामके मन्त्री मतिकान्तने सभी विचारशील सामन्तोंके सम्मुख यह निवेदन किया, "हे राम, इस बातको निश्चित समझा जाय कि रावण चाहे अन्न सीता देवीको वापस भी कर दे, तब भी निशाचरोंका विश्वास नहीं करना चाहिए । इसका चरित कौन