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________________ चउसञ्चारमो संधि [२] इसी बीच असं कितने ही अपशकुन हुए। उसका इवासे उत्तरीय उड़ गया, आतपत्र मुड़ गया। हा-हा शब्द सुनाई दे रहा था, एक अत्यन्त काला नाग रास्ता काट गया । इन सब अपशकुनोंको देखकर नतसिर मन्त्रियोंने मन्दोदरीसे जाकर निवेदन किया, "हे माँ, आर जायें। ऐसे श्रेष्ठ पुरुषरत्नको नष्ट नहीं होने देना चाहिए । हो सकता है वह तुम्हारा वचन किसी प्रकार मान ले। बुद्धि देकर समझाइए उन्हें । इस प्रकार कहकर मन्त्रिवृद्धोंने देवीको राजी कर लिया। वह भी हड़बड़ी में रावणके पास इस प्रकार गयी, मानो सिंहके भय से हथिनी हाथी के निकट गयो हो, मानो स्वयं इन्द्राणी इन्द्रके पास गयी हो, मानो रतिमाला कामदेव के पास गयी हो। कंपा देनेवाले अपने प्रियको उसने प्रणाम किया और तब प्रणय कोपकर उसने रोते-विसूरते हुए निवेदन किया, "हे परमेश्वर, आप मूर्ख क्यों बनते हैं ? मोहान्धपमें क्यों गिरना चाह रहे हैं ? सोताके खोदे शरीरके कारण नरककी महानदी में मत गिरो। लो बोलो, हे राजन् , तुम क्या चाहते हो, मैं क्या हो जाऊँ, क्या लक्ष्मी, रति या देवांगना ? ||१-८11 [३] यह सुनकर रावणने उत्तर दिया, "रम्भा और तिलोसमासे क्या, अप्सरा उर्वशी और लक्ष्मी भी मेरे लिए किस कामको | सीता या रतिसे भी मुझे क्या लेना देना । कमलों जैसी आँखोंवाली तुमसे भी क्या प्रयोजन है। हे प्रिये, तुम जाओ। मैं भाईके पराभवसे दुःखी हूँ, मैं रामपर थरी देनेवाली तीरवृधि करूँगा । लक्ष्मण को दुवारा शक्ति मारूँगा, अंग और अंगदको यमपुरीमें भेज दूंगा। यानर वंशके प्रदीप सुत्रीवके मस्तकपर मैं वदण्डसे चोट पहुँचाऊँगा, चन्द्रोदरके पुत्रपर चन्द्रहास, पवनपुत्रके रथपर वायव्य अस्त्र, भयभोषण
SR No.090356
Book TitlePaumchariu Part 4
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages349
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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