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परमचरित
[१०] बयणेण तेण भरहही तणेण । बोलिजह जणयहाँ पन्दणेण ॥१॥ 'इन मामण्डल डावन्त हु । उह अजाउ रहसुलिय-रेहु ।। तिपिण पि आइय कोण जेण। सुणु भक्तमि किं वहु-विन्धरण ।।३॥ सीयह कारण रोसिय-मणा। रणु घटाइ राहच-रावणाहूँ ।।४।। लक्रमणु सस्तिएँ विणिमिण्णु तेरधु । दुबरु जीवइ ते आय एन्धु' ॥५॥ तं वयणु सुणे वि परिपीलिएलु । णं कुलिस-समाहउ परिड सेल ।।६।। गं 'पवण-काले सग्गही सुरिन्दु । उम्मुछिड़ कह वि कह विरिन्दु ।।७।' दुक्ला उरु पाहावणहि लग्गु । पुण्ण-कस्सएँ हरि व मुअन्तु सगु!1८11
पत्ता 'हा पइँ सौमित्ति मरन्तऍण मरइ निरुत्तर वासरहि । मत्तार-विवणिय गारि जिह अज्ज अण्णाहीह्रय महि ॥९||
[1] हा मायर एकसि देहि पाय। हापई विणु जय-सिरि विहव जाय ॥॥ हा मायर महु सिरे पविड गयणु । हा हियउ फुव दक्वहि चयणु ।।२।। हा भायर वरहिण-महुर-त्राणि । महु णिवटिओऽसि दाहियात पाणि ||३|| हा कि समु जल-णियहु खुट्छ। हा किह दिइ कुम्म-कमा फुटु ।।४।। हा किह सुरवा लच्छिएँ विमुक्छ । हा किह जमरारहों मरणु दुम् ।।५।। हा किह दिणयस कर-णियर-चतु । ठा किह अण दोहग्गु पतु ॥६॥ हा चलि हुभा केम मेरु । हा केम जाउ गिद्धणु कुवेरु ॥७॥
धत्ता हा णिविमु फिह घरणिन्दु थिउ प्पिप्प? सस्मि सिहि सायलउ । टलटलिहूई केम महि कम समीरणु णिचलउ ॥८॥