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________________ एक्कुणसत्तरीमा संधि २२३ से नर्मदा निकली हो, मानो श्रेष्ठ कविसे शब्दमाला निकली हो, मानो तीर्थकरसे दिव्य वाणी निकली हो। वह शक्ति, आकाशमें धकधकातोजाही रही थी कि हनुमानने उसे ऐसे पकड़ लिया मानो श्रेष्ठ नरने वझ्याको पकड़ लिया हो, मानो समुद्रने विशाल नदीको पकड़ लिया हो । काँपती हुई वह अमोघ शक्ति बोली, "मत पकड़ो, शीघ्र ही नष्ट हो जाओगे। मैं दुष्ट सौतके सम्मुख नहीं रुक सकती, यह रहे, मैं अपने घर जाती हूँ । हृदयसे निकली हुई, मैं यह सब सहन नहीं कर सकती, मुझे पकड़नेसे क्या होगा, पति द्वारा मुक्त सभी कुलवधुओंको अपने कुल 'बरम शरण मिलता है ।।2-11 १८]क्या तुम मेरी शक्ति नहीं जानते, मेरा नाम अमोघशक्ति है। कैलास पर्वतके उद्धारके अवसरपर धरणेन्द्रने मुझे भयानक रावणको सौंप दिया था। संग्राम काल में, मैं लक्ष्मणपर छोड़ी गयी थी। मैं उसके मुखपर उसी प्रकार पहुँची, जिस प्रकार बिजली पहाइपर पहुँचती है। लेकिन विशल्याका तेजमैं सहन नहीं कर सकी, और नष्ट हो रही हूँ, तुम खेद क्यों करते हो। इसके सहारे, इस और दूसरे जन्मोंमें परमधार घोर वीरने निराहार साठ हजार वर्षों तक तपश्चरण किया।" तब हनुमान्ने कहा, "तुम यह बचन दो, कि वापस नहीं आऊँगी, तो मैं तुम्हें छोड़ता हूँ।" इसपर विद्याने कहा, "को विया दिया, अब तक जैसा आहत करती रही हूँ वैसा अब नहीं करूंगी।" यह सुनकर हनुमानने उसे मुक्त कर दिया। वह भी घबराकर, अपने घर पहुँच गयी। इधर रामने सेना सहित, सहर्ष विशल्याके दर्शन किये। कल्याण और शान्ति करती हुई विशल्यादेवीने राम, लक्ष्मण और सीतादेवीका दुःख दूर कर दिया। वह राषण लका और उसके राज्यके लिए होनहारके रूपमें वहाँ पहुँची॥१-१४॥
SR No.090356
Book TitlePaumchariu Part 4
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages349
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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