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________________ 1 1 दुसत्तरिम संधि २९३ देखा कि उसका अन्तःपुर उन्मन है। उसके हार टूट-फूट चुके हैं, और वह ताराविहीन आकाशकी भाँति है । अन्तःपुरके मध्य में उसे लक्ष्मीसे भी अधिक मान्य मन्दोदरी दिखाई जिसे अवदने हाल ही में मुक्त किया था। उस समय वह ऐसी दिखाई दी, मानो मदगल गजने कमलिनीको छोडा हो, यह जिनागमने किसी खोटे तपस्वीको वाणीका विचार किया हो, या गरुडराज नागिनपर झपटा हो, या मेघ दिनकर की शोभापर टूट पड़ा हो, या आग प्रवर महाटवीपर लपकी हो, या चन्द्र प्रतिमाको महामहने मसित किया हो। विद्या संग्राहक रावणने मन्दोदरीको अभय वचन दिया। उसने कहा, "मैं अपने जैसा अकेला हूँ। मेरे समान दूसरा कौन है, जिसके पास बहुरूपिणी विद्या हो । हे नितम्बिनी, जिसने तुम्हारे साथ ऐसा बर्ताव किया है, समझ लो उसका इतना ही जीवन बाकी है। यदि वे आदमी होते तो उस समय मेरे पास आते कि जब मैं नियम में स्थित था। जिस घमण्डीने तुम्हारे सिरमें हाथ लगाया है, कल देखना मैं उसकी पत्नीकी क्या हालत करता हूँ” ।। १-११॥ [१५] यह कहकर दानवोंका संहार करनेवाला रावण हर्ष के साथ यहाँसे चल दिया। चारों ओर 'जय जय' की गूँज थी। सगुण यह जैसे ही चला, कल-कल शब्द होने लगा, मानो समुद्र में जल बढ़ रहा हो। रावण के इस प्रकार प्रस्थान करते ही, भेरी, मृदंग, दड़ी, दर्दुर, पटह, त्रिविला, ढड्ढड्ढरी, झल्लरी, भम्भ, भम्मीस और कंसालका कोलाहल होने लगा । मुरच, तिरिडिकिय, काहल, ढष्ट्रिय, शंख, धुमुक्क, ढक्क और श्रेष्ठ हुड्डुक्क, पणव, एक्कपाणि आदि वाद्य वाज उठे । और भी दूसरे वाद्य थे, उन सबको भला कौन जान सकता है
SR No.090356
Book TitlePaumchariu Part 4
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages349
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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