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________________ अड़सठवीं सन्धि राम अपने भाईके वियोगमें करण स्वरमें रो रहे थे ।इतनेमें राजा प्रतिचन्द्र उनके पास आया मानो वह कुमार लक्ष्मणके लिए उच्छ्वास हो। [१] कसे हुए दोनों तूणीरोंसे उसका शरीर पीड़ित हो रहा था ।बहुत-सी बजती हुई वण्टियोंसे वह मुखर हो रहा था। खिंचा हुआ धनुष उसके कन्धोंपर था। प्राण लेनेवाले लम्बेलम्बे तीर उसके पास थे। वह बड़ेसे बड़े युद्धका भार उठा सकता था। उसने बड़े-बड़े शत्रुओंके वक्ष विदीर्ण कर दिये थे । उसकी मुजाएँ गजशुण्डकी तरह भारी थीं। उसका सिर मोरछत्रके समान था। वह वहाँ गया जहाँ जनकसुत भामण्डल था। हाथमें करवाल लिये हुए वह न्यूह द्वारपर जाकर खड़ा हो गया। उसने निवेदन किया, “योद्धाओंमें श्रेष्ठ हे भामण्डल, तुम सम्मान, दान और गुण-समूह के घर हो । हे विद्याओंके परमेश्वर, मैं तीन माहमें यह अवसर पा सका हूँ। यदि तुम रामके दर्शन करा दो, तो मैं लक्ष्मणको जीवित कर दूंगा।" यह वचन सुनते हो, भामण्डल अपने-आपको एक क्षणके लिए मी नहीं रोक सका। वह तुरन्त उसे रामके पास ले गया। उसने भी वहाँ जाकर निवेदन किया, "ज्योतिषियोंने कहा है, कि चन्द्रमुखी मोरपंखोंके समूहके समान चोटी रखनेवाली विशल्या के स्नान-जलसे ही लक्ष्मण दुबारा जीवित हो सकेंगे"॥१-१०॥ [२] सुनिए, मैं बताता हूँ । ऋद्धियों, वृद्धियों और जन-धनसे परिपूर्ण देवसंगीत नामका नगर है। उसमें शशिमण्डल
SR No.090356
Book TitlePaumchariu Part 4
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages349
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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