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[६८. अट्टसहिमो संधि] माइ-विभोएं कालुण-सरु रण राहवु रोवइ जाउँ हिं। गं प्रसासु जणाणहों परिचन्दु पराइस ता हिं॥
[ ] आवीलिय-दिछ-तोणा-जुअलु। वह रणझणन्त-कितिणि-मुहलु ॥१॥ मण्डलिय वण्ड-कोवण्द-धरु । पाणहर-पईहर-गहिय-सरु ॥२॥ परियढिय-रण-मर-पवर-धुरु। वर-वइरि-पहर-कप्परिय-उरु |॥२॥ वेषण्ड-सोण्ड-भुपदण्ड-थिरु। मोरङ्ग-प्रत्त-अणुसरिस सिरु॥॥ गउ तेत्तहें जेत्तहें अणय सुउ। थिउ चूह-बारें कावाल-भुउ ॥५॥ 'अहो अहाँ भामण्डक मर-तिलय । सम्माण-दाण-गुण-गण-णिलय ॥३॥ विजा-परमेसर भणमि पहुँ। तिहुँ मासहुँ अवसरु लधु म१७॥ जह परिसावाहि रहु-गन्दणहाँ। सो जीविउ देमि जणाणहाँ' ॥८॥ सं वयण सुर्णेवि असहन्तऍण। जिउ रामही पासु तुरन्तऍण ||९||
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जोइहिं बुडचई ससिमुगिहें वरहिण-कलाव-धम्मेलहें। जीव सक्षणु दासरह पर म्हवण-जलेण पिसलहें ॥१०॥
[२] सुणु देव देवसीय-पुर। बहु-रिद्धि-विवि-जण-धण-पउरें ॥1॥ ससिमाल अधि पराहिवइ । सुष्पह-महवि मराल-गइ ॥२॥