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________________ तरिम संधि २५६ अपने पतिसे पूजित विमान में ऐसे बैठ गयी मानो कमल में विजयशीला शोभा लक्ष्मी विराजमान हो। कोई स्त्री अपने प्रियसे बात कर रही थी, कोई-कोई पत्नियाँ दीपको तरह आलोकित हो रही थीं। बाल सिंह के समान नागरिकोंको शान्तिजिनालय ऐसा दिखाई दिया, मानो आकाश रूपी सरोवर में रहनेवाले चन्द्रमारूपी हंस ने कमल काटकर नीचे गिरा दिया हो ।। १-२ ।। [५] उस मन्दिरके शिखर पवित्रता में सूर्य के प्रकाशको फीका कर देते थे, वह शान्ति जिनका घर था, जो जन्म-जरा और मृत्युका निवारण करता था, जो हवा के कम्पनको दूर कर देता था, जो मार्ग से अनविदूर होकर भी पुरुषोंसे परिपूर्ण था, जो भ्रमरोंके बहाने कह रहा था कि संसारमें घूमना असत्य है, चन्द्रमा के समान, जिसकी मृगमयता बढ़ती जा रही थी ( मृगलछिन और आत्मज्ञान ), जो इतना ऊँचा था, कि आकाशतलको तोड़ने में समर्थ था, अथवा जो अपनी किरणोंसे सूर्य के रथ पर बैठना चाह रहा था, अथवा जो स्वच्छ मेघोंको भलिन बना रहा था, अथवा दिशावछयका त्याग कर रहा था, मानो वह अपना धरतीका घर छोड़ रहा था, अथवा जो सुप्त जल कमलकी भाँति हँस रहा था, जो सर्व सुखवादी धरतीकी रक्षा कर रहा था, अथवा जो पाताललोक या स्वर्गलोकको पकड़ना चाहता था । पुण्य पवित्र और विशाल वह जिनालय सब लोगोंको शान्ति प्रदान कर रहा था, केवल एक वह अशान्तिदायक था, वह था तसे च्युत और दूसरोंकी स्त्रियों का संग्रहकर्त्ता लंकाधिराज रावण ।। १-२ ।। [६] राबणने शान्ति के निवास स्थान, शान्ति जिनालय में प्रवेश किया। वहाँ उसने महान उत्सव किया, उसने एक विशाल मंडप बनवाया। उसमें नैवेद्य और घर बिखरे हुए थे, तोरण
SR No.090356
Book TitlePaumchariu Part 4
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages349
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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