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________________ ३२१ --- -- -- उसत्तरिमी संधि [५] मन्दोदरीका इस प्रकार अपने पक्ष की निन्दा करना, और शत्रुपक्षको प्रशंसा करना रावणको अच्छा नहीं लगा। उसके दशों सिर जैसे आगसे भड़क उठे । पवनसे प्रदीन आगकीभाँति उनसे सैकड़ों ज्वालाएँ फूट पड़ी। उसकी आँखें लाल-लाल हो रही थीं, होठ फड़क रहे थे, वह दोनों हाथ मल रहा था, गाल हिल-डुल रहे थे, भौहें टेढ़ी थीं, और वह धरतीको पीट रहा था। उसने कहा, "यदि दूसरा कोई यह बकवास करता तो मैं उसका सिर तालफलकी भाँति धरतीपर गिरा देता । सू मेरी प्रिया होकर भी प्रणयसे चूक रही है, मेरे पाससे हट जा, सामने खड़ी मत हो। अब इस समय मैं उससे सन्धि क्यों न कर, शत्रुने जो खर-दूषणके युद्धमें कोतवालको मार गिराया, उद्यान उजाड़ दिया, आवास नष्ट कर डाला, उसकी स्त्रीके आगमनपर, भाई धरसे चला गया। पहली ही भिड़न्त में जिन्होंने हस्त और प्रहस्तका काम तमाम कर दिया । इन्द्रजीत और मेघवाहनको बन्दी बना लिया। अब तो यह काम, एकदम दुष्कर और असम्भव है। अब तो उसके और मेरे बीच युद्ध ही एकमात्र विकल्प हैं । इस समय तुम्हारे वचनोंसे, दोनों में-से एक बात होनेपर वैभवके साथ सीता वापस की जा सकती है, या तो राम लक्ष्मण नष्ट हो जायें, या मेरे प्राण निकल जायें ।। १-८॥ [६] यह कहकर, उसने रणभेरी बजवा दी। नगाड़े बज उठे। शंख फूंक दिये गये और महाध्वज उठा लिये गये। अश्वोंसे जुते हुए रथ सजने लगे। अजेय हाथियोंपर अंधारी सजा दी गयी । युद्धसे सन्तुष्ट सेना मिली, और उसमें कोलाइल होने लगा। नगाड़ोंकी आवाजसे सारा संसार गहरा
SR No.090356
Book TitlePaumchariu Part 4
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages349
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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