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________________ पद्मचारित युद्ध काण्ड ससावनवीं सन्धि संस द्वीपमें रामकी सेनाको स्थित देखकर निशाचरसमूहमें नोभकी लहर दौड़ गयी । रावणका हृदय पर्वत शिखरकी तरह पलभरमें दो टूक हा गया। [१] तुरहीका भयंकर शब्द सुनकर लंका नगरी ऐसी क्षुब्ध हो उठी, मानो समुद्रकी वेला हो! इस समय तक यह अनेक लोगोंको विदित हो गया। राजा विभीषण भी मन-हीमन खूब दुःखी हुआ । उसे लगा, मानो कुलपर्वत वन से आहत हो गया है, हँसती-खेलती लंका नगरी व्यर्थ ही नष्ट होने जा रही है. कल मैंने उसे मना किया था, परन्तु वह नहीं माना। और अब भी, उसे समझाना अत्यन्त कठिन है ? फिर भी मैं प्रेमसे उसे समझाऊँगा। वह खोटे राहे पर है ! सीधे रास्तेपर लाऊँगा | शायद रावण किसी तरह शान्त हो जाये । परस्त्रीचोर वह पापसे भरा हुआ है । इस समय भी यदि वह मेरा कहा नहीं करता नो यह निश्चित है कि मैं शत्रुसेना में मिल जाऊँगा ! क्यों कि अपहरण की हुई भी, दूसरेकी स्त्री संसारमें अपनी नहीं होती। सजन भी यदि प्रतिकूल चलता है तो वह काँटा है, शत्रु भी यदि अनुकूल चलता है तो वह सगा भाई है ! क्यों कि दूर उत्पन्न भी दवाई शरीरसे रोगको बाहर निकाल फेंकती है ! ।।१-६||
SR No.090356
Book TitlePaumchariu Part 4
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages349
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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