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________________ तिसप्तरिमो संधि ३१३ दयिता इसलिए कहते हैं क्योंकि वह प्रिंयके 'दैव' को छीन लेती है, वह तीन प्रकारसे शत्रु होती है, इसलिए तीमयी कहलाती है। धन्या इसलिए है कि अपकारसे हमें कष्ट पहुँचाती है । जाया इसलिए कि जारके द्वारा ले जायी जाती है । धरतीके लिए वह 'मारी' है इसलिए उसे कुमारी कहते हैं। मनुष्य नसमें रतिसे नृप्त नहीं होता इसलिए उसे 'नारी' कहते हैं। कल मैं इन्द्रकी तरह युद्ध में राम और लक्ष्मणको बन्दी बनाऊँगा और तब उन्हें सीतादेवी सौंप दूंगा, जिससे मैं दुनियाकी निगाहमें शुद्ध हो सकूँ" || १-९॥ [१४] यह कहकर, रावण स्नेह से परिपूर्ण अपने अन्तःपुरमें उसी प्रकार गया जिस प्रकार, राजाहस हसिनियों के झुण्डमें जाता है या जैसे हाथी हथिनियों के समूह में, चन्द्रमा तारासमूह में, भौंरा कमलिनीके मकरन्दमें प्रवेश करता है। उसने वहाँ प्रणयिनियों के साथ प्रणय किया, माननी स्त्रियोंके साथ मान किया। किसीको करधनीको डोरसे बाँध दिया, किसीको लीला कमलसे आहत कर दिया। इस प्रकार वह विविध विनियोगों और शृंगारसे रात भर भोग भोगता रहा। उसने समझ लिया कि सीतादेवी उसके लिए अनिष्ट है । रावणको लगा जैसे उसके सिर में पीड़ा उठ रही है। ठीक इसी समय एक भारी आघात हुआ, उससे धरती काँप उठी। आकाशमें देवसाओंने घोषणा कर दी कि लो लंका नगरी नष्ट हुई। हे रावण, तुम मूर्ख क्यों बने हुए हो, परस्त्रीके रमण करने में कौन-सा सुख है ? क्या तुम अब इन्द्र की तरह अपने राज्यका भोग नहीं करना चाहते ॥ १-६ ॥
SR No.090356
Book TitlePaumchariu Part 4
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages349
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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