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जंगवन्तु घलु - मह
पउमचरिउ
घन्ता
मारुइ डिम्ब जहिं जे जहि । मणिरन्तर तहि जे तहिं ॥१॥
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जं जिर्णेत्रिण सचि वर भहिं । वेढा गिरि - सिहर-गहिर - कुम्मत्थकेहिं । छप्पयार-मोहहिं । तण्डविय कण्ण- उधुअ-कोहिं । बं वेदिक रण-सुवण- जाउ । जहिँ जम्ब गांलु सुसेणु हंसु । सन्तामु विराहिउ सूरजोति । चन्दप्पहु चन्दमरोधि रम्भु ।
आहिं नहिं
यि गुण हिं
मार गय घडेहिं ॥१॥ अणवस्य - गलिय गण्डरले हिं ॥२॥ घण्टाकार भयङ्करेहिं ॥३॥ सुकुसेहिं मय-मिरेहिं ॥४॥ तं धाउ काय-भड - हाउ ॥५॥ गउ गवट गवक्खु बिसुद्ध - चंसु ||६|| पीहरु किरु कच्छिभुति ॥ ० ॥ सद्दूल विउलु कुलपवणथम् ||८||
वत्ता
मारुद्द उब्वेद्दाचियत ।
जीट व भव मेला बियर ||९||
[ ३ ]
पेलि
रण- रसिऍ हिं बेह। विद्वएहि । पडिवक्तु काहिं ॥१॥ गासइ बिहडफडु गलिय-खग्गु । धूरन्तु परोप्पर चलण-मन् ||१|| मज्जन्तउ पेक्खि विनियय सेण्णु । रावणु जयकारेंवि कुम्मयष्णु ॥३॥ भाइ मय मीणु भीम-काउ । णं राम-वहीं खय-कालु आज १३४ ॥ परिसर भूमि ण माइ । गिरि मन्दरु थाहाँ चकिउ गाई ग
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