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________________ घउसत्तरिमा संधि २२३ गया। बहुरूपिणी विद्यासे राघणने अपना मायावी शरीर बना लिया। उसके महारथ और अश्व सजा दिये गये | उसके रथ के ऊँचे पहिये आकाशमें भी नहीं समा पा रहे थे। ऐसा लगता था जैसे दूसरा मन्दिर ही उत्पन्न हो गया हो। उसके महारथमें एक हजार हाथी जोत दिये गये, और उसके साथ दस हजार पद रक्षक थे। राषण जय-जय शब्द के साथ जस महारथमें ऐसे जा बैठा, मानो विशाल पहाड़की चोटोपर सिंह चढ़ गया हो। रावण अपने दमों मुग्बोंसे भयंकर लग रहा था, मानो भुवनकोश दिशामुख ही जल उठे हों। उसके विविध हाथों में विविध अस्त्र थे, जो ऐसे लगते थे मानो मायासे निर्मित ऐरावत हाथी हों, मानी दसों लोकपालोंका ध्यान कर विधाताने उन्हें दुनियाके विनाशके लिए छोड़ दिया हो । विश्व भयंकर वह कहीं भी अच्छा नहीं लग रहा था, ऐसा जान पड़ता था मानो यमने अपना दण्ड छोड़ दिया है। स्वेतपद वाला ध्वजदण्ड निरन्तर फहरा रहा था। यह क्रूर लंकेश्वर सुभट ग्थरूपी जहाजमें बैठकर नगरके समुद्रको पारकर शीघ्र शत्रसेनाके तटपर जा पहुँचा ।। १-१० ।। [७] उसका रथ अस्त्रोंसे भरा हुआ था। सम्मतिको उसने अपना सारथि बनाया, वह बहुरूपिणी विद्यासे निर्मित था। रोमाचित होकर रावणने अपना कवच पहन लिया, परन्तु उसमें उसका शरीर नहीं समा रहा था। युद्धमें हर्पावेगसे अपने बाहुन दण्डको ठोककर, दुर्ललित राणने अस्त्रोंका आलिंगन कर लिया। पहले हाथ में उसने धनुष लिया, दूसरे हाथमें तीर, तीसरे हाथमें उसने गदासनी ली जो गजोंके लिए काल थी। चौथे हाथ में शंख था और पाँचवेंमें आयुध विशेष था । छठे में तलवार और सातवें हाथमें उत्तम वसुनन्दी थी। आठवें हाथ
SR No.090356
Book TitlePaumchariu Part 4
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages349
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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