________________
३०
पउमचरि
जो ण खलिड देवहिँ दाणवेहि । तहों कवणु गहणु किर माणचे हिं ॥३॥
जर होह सन्धि गरुडोरगा हुँ ।
जड़ होइ सम्भि हुमबह-पयाहुँ । जय हो सन्धि समि कञ्जयाहुँ । जड़ हो सन्धि खर- कुञ्जराहुँ । जड़ होइ सम्धि सम्यरि-दिणाहुँ ।
सुर-कुलिस-विहाय महाणगा हुँ ॥४॥ पश्चाणण-मत्त महागया हूँ ||५|| दिणयर करोह- चन्दुअथाहुँ ||६|| उदयकाल - पहण - अलहराहुँ ||७| जइ होइ सम्धि धम्मह - जिणा हुँ ||८||
धत्ता
अगड (?) घ पणस नायणहुँ ।
छलियवरवर-अध्यहुँ दूर-बरध्यहुँ जड़ सन्धि पहाव को विघव तो रण राहक- रावण ॥९॥
।
संणिसुण व समरें अभङ्गएण । 'भो रावण किं गलगज्जिए भसीय ण देन्हों वहा किं जो सो सम्बुकुमार-णासु किं ओ सो चन्द्रगही पचम्बु । किं जो सो मसान्तकाछु । कि जो लो पवज्जाणभङ्गु ।
[१२]
पुणु पुणु वि पोल्लिड अङ्गपूर्ण || 10 गिफ्फार्येण परक्कम वज्जिएण ॥२॥
। किं जो सो सज्जन-हिषय बहु ||३|| किं जो सो पर-गय-सूरहासु ॥ ४ ॥ किं जो सो खर-व-बकि विरन् ॥५॥ कि जो सो विशिय कोवालु ||६|| किं जो सो हउ बलु चास्तु ॥७॥