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एक्कासत्तरीमो संधि ब्रह्माके आसनकी भाँति भ्रमरोंसे मुखरित थे, सत्तियोंके चरितकी भाँति अडिग थे, विद्याधरोंकी भाँति नये यौवनसे युक्त थे, जिन भगवान्की श्रीकी भाँति जो भामण्डलसे सहित थे, मुखोंकी तरह भारी-भारी ठुड्डीसे युक्त थे, अतिथियोंकी भाँति जाने की इच्छा रखते थे। वे ऐसे मणिमय विमानोंमें बैठ गये, मानो भ्रमर कमलों में जा बैठे हों। मनके समान गतिवाले उन विमानांके चलनेपर लवण समुद्र इस प्रकार दिखाई दिया मानो आकाशरूपी राक्षसने धरतीके शवको बीच में से फाड़ दिया हो ।।१-२॥
[३] उन्हें रत्नाकर दिखाई दिया, रत्न उसकी बाँहें थीं। वह समुद्र विन्ध्याचलकी भाँति सवारि (हाथी पकड़नेके गड्ढों सहित, और सजल ), छन्दके समान सगाह ( गाथा छन्दसे युक्त, जलचरोंसे युक्त), सज्जनके समान अथाह, जहाजके समान भयंकर, भण्डारीके समान बहुत-से रत्नोंका संरक्षक, सुभग पुरुषकी भाँसि सलोण और सुशील (श्रासे युक्त), सुप्रीवकी भाँति इन्द्रनीलको प्रकट कर देता है, जिनपुत्र भरत चक्रवर्तीकी माँति जो बसेलु ( संयम धारण करनेवाला और धन धारण करनेवाला) है। मध्याह्नकी भाँति वेला ( तट और समय) जिसके ऊपर है। तपस्वीकी भाँति, जो समय (सिद्धान्त और मर्यादा) का पालन करता है। दुर्जन पुरुषकी भाँति जो स्वभावसे खारा है, जो गरीवकी पुकारकी भाँति अप्रमेय है, ज्योतिषकी भाँति, जो मीन और कर्क राशियोंका स्थान है, महाकाव्यकी रचनाकी भाँति जो शब्दोंसे गम्भीर है, सोनेके प्यालेकी भाँति जो पीतमदिर है ( समुद्र मन्थनके समय निकली हुई सुरा, जिससे पी ली गयी है )। उस समुद्रको पार कर जावे हुप जहाज, उन्होंने देखे, जिनमें बिना पालके लम्बे मस्तूल थे।