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________________ एकहरिमो संधि २५३ हे श्रेष्ठ प्रमा, हे सर्व मित्र, अपने जन्म, जरा और मृत्युका अन्त कर दिया है। आप जयश्रीके निकेतन हैं, आपकी शोभा अलंकारोंसे बहुत दूर है, सुर और असुरोंको आपने सम्बोधा है, अज्ञानियोंके लिए, आप एकमात्र प्रमाण हैं। हे गुरु, आपकी क्या उपमा हो, आप महाकरुण और आकाशधर्मा हैं। अस्त्रविहीन आप कुमार्गको कुचल चुके हैं, आप शिव हैं या अग्नि, हरि हैं या ब्रह्मा, चन्द्र हैं या सूर्य, या उत्तम इन्द्र हैं। महापापोंसे डरनेवाले आप अद्वितीय वीर है। आप कलाभागसे (शरीर ) रहित होकर, सुमेरके समान धीर हैं, विमुक्त होकर भी मुक्तामालाकी तरह निर्मल हैं, ग्रन्थमार्गसे (गृहस्थसे ) बाहर होकर भी ग्रन्थों (धन, पुस्तक ) के आश्रयमें रहते हैं, महा वीतराग होकर भी सिंहासन (मुद्रा-विशेष) में स्थित हैं, भौंहोंके संकोच के बिना ही, आपने शत्रुओं (कर्म) का नाश कर दिया है, समान अंगधी होकर भी आप देवाधिदेव हैं, जीतनेकी इच्छासे शून्य होकर भी, सर्वसेवारत हैं, प्रमाण ज्ञानसे हीन होकर भी सर्व-प्रसिद्ध हैं । जो अनन्त होकर भी सान्त हैं, और सर्वज्ञात हैं, मलहीन होनेपर भी, आपका नित्य अभिषेक होता है। विद्वान होकर भी, आप लोकमें ज्ञान, अजानकी सीमासे परे है। सुराके संहारक होकर भी नाना सुराओंके ( देवियोंके ) अधिपति हैं। जटाजूटधारी होकर भी जटाओंको उखाड़ डालते हैं, मायासे विरूप रहकर भी, स्वयं विक्षिप्त रहते हैं, आपका आगमन ज्ञान शोभित हैं, पर स्वयं आप अदृश्य हैं। आप महान् गुरु ( भारी, गुरु) छोकर भी, स्वयं निर्भर ( परिग्रह हीन ) हैं। आप अनिर्दिष्ट ( मृत्युरहित, समवशरणसे जाने जानेवाले), होकर भी दुम्मर (मरणशील, मृत्युसे दूर ) है। आप पर (शत्रु, महान् ) छोकर भी,
SR No.090356
Book TitlePaumchariu Part 4
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages349
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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