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________________ एकसष्टिमी संधि सम्मान दान और ऋणके भारसे सन्तुष्ट कोई एक योद्धा अभीतक मन ही मन पराउ, रसा था वा मुलक गगों प र कि वह अब अपने स्वामीके लिए अपना सिर दे सकेगा ॥१-६।। [४] कहीं पर भयंकर संघर्ष मचा हुआ था। सिर, वक्ष और शरीरोंके टुकड़े-टुकड़े हो रहे थे। नरेन्द्र समूहका विदारण हो रहा था। अश्वोंका मार्ग रद्ध हो गया था दिशाओं के मार्ग रथोंसे पटे पड़े थे । रिक्त हो कर हाथी घूम रहे थे । वीर पूरे वेगसे लड़ रहे थे। अत्यन्त जनतासे वे जोर-जोरसे चिल्ला रहे थे। एक दूसरे पर चक्र और सब्बल फेंक रहे थे। त्रिशूल और शरिशयोंसे युद्धस्थल व्याप्त था। योद्धा घावोंसे जर्जर थे। उनके बाहुओं और शवोसे धरती पट चुकी थी। हका और इछ अन छोड़े जा रहे थे। वे एक दूसरेपर आक्रमण कर रहे थे। आसपास हड़ियाँ ही हड्डियाँ बिखरी हुई थी। वे उनके खण्ड-खण्ड कर रहे थे। योद्धा धराशायी हो गये । उनकी शिखाएँ सुन्दर दिखाई दे रही थीं। अश्वोंका रफत रिस रहा थापक्षियोंके झुण्ड उसमें सराबोर हो रहे थे। कहीं आहत अश्व और हाथी धरती पर पड़े हुए थे। कहीं कान्तिमान देवता आघातोंसे अत्यन्त दारुण और आरक्त अत्यन्त भयंकर जान पड़ रहे थे । कहीं पर यश समूहसे मण्डित ध्वजार विद्ध हो रही थीं। युद्धकी उस पहली भिड़न्तमें ही राबवकी सेना उसी प्रकार नष्ट हो गयी, जिस प्रकार दुर्विदग्धके मानसे किसी प्रौढ़ विलासिनीकी रति समान हो जाय । १-१४ ।। [५] राघवकी सेना, रावणकी सेनासे, इस प्रकार भग्न हो गयी मानो दुर्गतिसे सुगतिका मार्ग नष्ट हो गया हो। मानो कलिके परिणामसे परमधर्म नष्ट हो गया हो, या मानो कठोर तपःसाधनासे मनुष्य जन्म नष्ट हो गया हो। यह देखकर कि
SR No.090356
Book TitlePaumchariu Part 4
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages349
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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