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दुसतरिम संधि
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तुम शतपत्र ले लो, हे कुसुमिते, तुम कुसुमसे पूजा करो, हे मणिदीपे, तुम मणिदीप स्थापित करी, हे कर्पूरी, तुम कपूर जला दो, हे विद्ययी, तुम विद्युद्माला चढ़ा दो, मुक्तावली, तुम मोसी की माला चूर कर शीघ्र ही रांगोळी पूर दो, हे मरकते, तुम मर कत वेदीपर चढ़कर कमलों से उनका परिमार्जन करो, हे लवली, तुम चन्दनका छिड़काव करो, हे गन्धावली, तुम गन्ध लेकर आओ, हे कुंकुमलखे, तुम केशरका पुट लेकर आओ, हे आलापिनी, तुम कुछ भी आलाप करो, हे किन्नरी, तुम अपना किन्नर ( वीणा विशेष ) ले लो, हे तिलकावली, तुम अपने तिलकपद रखो।' वे इस प्रकार लीला करती हुई समय बिता रही थी कि इतने में कुमार वहाँ आ पहुँचे । अंग और अंगदको देखकर रावणका युवतीजन सहसा आशंका में पड़ गया, मानो हाथी और इथिनियों का समूह सिंहको देखकर गलित मान हो उठा हो ॥१- १४ ||
[८] तब कपिध्वजी शान्ति जिनालय में पहुँचे । प्रदक्षिणा देकर उन्होंने जिन भगवान्की बन्दना की। फिर वे रावणके पास पहुँचे, मानो सिंह के पास हरिण पहुँये हों । रावणके हाथ से अक्षमाला छीनकर सुग्रीवसुतने उससे कहा, "हे राजन, तुमने यह क्या होंग कर रखा है, तुम तो ऐसे अचल हो जैसे पत्थरका खम्भा हो, यह कौन-सा वप है, कौन-सा धीरज है, कौन-सा चिह्न है, वह कौन-सी विद्या है, यह कौन-सा ध्यान है, तुम लोगों में व्यर्थ भ्रान्ति क्यों उत्पन्न कर रहे हो । सोचो, दूसरेकी स्त्रीका अपहरण करनेसे तुम्हें शान्ति कैसे मिल सकती है ? अरे क्या तुम इन्द्रजीत और भानुकरणके दुःखके कारण एक भी मुखसे नहीं बोल पा रहे हो ? क्या तुम राम और लक्ष्मणसे बचकर शान्तिनाथ भगवान्के मन्दिर में छिपकर