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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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RRRRRRRRRRREAREDREARRARRAN
AUKaliyYHMSIRVAILANGANA
ANILANI
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Prevees
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भेट! भेट !! भेट !!! __परोपकाराय सतां विभूतयः श्री जैन हितोपदेश.
भाग २-३ जो. ___ नीति अने वैराग्यना विषयथी भरपुर.
शांतमूर्ति मुनिराज श्री वृद्धिचंद्रजी शिष्याणु व मुनि कर्पूरविजयजी विरचित.
स्वधी भाइओने वांचवा भगवा निमित्ते. श्रीवीसनगर निवासी परी.गोकळभाइ मुळचंदनी दीकरी बेन चंदनबेन तरकथी भेट.
छपाची प्रसिद्ध कता. श्री जैन श्रेयस्कर मंडळ-म्हेसाणा.
सीटी ग्रीन्टींग प्रेस-दाणापीठ-अमदावाद. वीर संवत् २४३४. सने १९०८. विक्रम संवत १९६४
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प्रवाना.
काल दुनियामा बहुधा जनस्वभावतुं वलण संस्कृत अने मागधी भाषामा लखायेला कठीन शास्त्रीय विषयो तरफ न दोरातां स्वभाषामां लखायेला सरल विपयो तरफ दोरावा लाग्यु छ तेथी करीने दिवसे दिवसे शास्त्र संबंधी उच्च ज्ञान हीन, हीनतर थतुं जाय छे. ज्यांमुधी गुजराती भाषामा अनेक ग्रंथो बहार पड्या नहोता, त्यांसुधी उच्च तत्वज्ञान प्राप्त करवानी उमेद धरावनाराओ संस्कृत तथा प्राकृत भाषाओनो अभ्यास करी ते द्वारा उच्च ज्ञान मेळवता हता पण तेया मनुष्यो संख्यामां थोडा अने कोइक ठेकाणे जोवामां आवता. ज्यारे गुजराति भाषामां कथारूपे, नाटकरूपे, के तत्वज्ञानरूपे अनेक ग्रंथो वहार पडया, त्यारे लोकोन शास्त्रीय कठीन भाषा तरफ दुर्लक्ष थयु अने तेथी ते द्वारा उच्च तत्वज्ञान मळतुं हतुं ते बंध थयु. तथी शान सवधी गूढ रहस्योने स्वभापामां वहार पाडवा जरूर जणाइ. वांचवानो शोख वधतो गयो तेम तेम भिन्न भिन्न विषयोना पुस्तको बहार पडता गया. पण तेमां धर्मर्नु स्वरूप समजाववाने योग्य ग्रंथो बहुज थोडा छे. तेथी जमानाने अनुसरती भाषामां वधारे पुस्तको वहार पडवानी आवश्यकता नणायाथी अमारा तथा बीजा सज्जनोना आग्रहथी मुनि महाराज श्री वृद्धिचंद्रजीना शिष्य शांतपुर्ति सुनिमहाराज श्री कपुरविजयजीए मध्यम तथा कनिष्ट पंक्तिना अभ्यासीयोने अल्प भी धर्म तत्वनो
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( ४ )
घोष थाय एवा हेतुथी जैन हितोपदेश नामना पुस्तकनी रचना सरल अने रसीली भाषामां करछे. जेनो पहेलो भाग अमारा तरफ - थी अगाउ प्रसिद्ध करवामां आव्योछे. ते पुस्तक विशेष प्रकारे जन प्रिय थइ पढयुं छे: जेना परिणामे, आ. वीजा तथा त्रीजा ' भागनुं पुस्तक अमारा वांचक वर्ग समक्ष मूकवा अमो भाग्यशाली थया छीए.
आ जैन हितोपदेशनुं पुस्तक पोताना नाम प्रमाणे पोतानुं गांभीर्य महत्व अने बोधकत्व जणावे छे वळी आ पुस्तकनो क्रम ओवीतो सरलताथी गोठववामां आव्यो छे के माये उत्तम, मध्यम अने कनिष्ट ए वर्गना वांचक अधिकारीओ स्वस्व बुद्धि अनुसारे निःशंकपणे तेनो लाभ लइ शकशे ए निर्विवाद छे; सिद्धांत रूप समुद्रने पार उतारवा माटे नौका तुल्य आ ग्रंथ रत्ननुं एकजवार अवलोकन करवाथी तेनी खरी उपयोगीता सज्जनो सहजे समजी शकशे.
श्री जैन हितोपदेश भाग २ जानी शरुआतमां मंगलाचरणरूपे सांप्रतकाळमां विचरता श्री सीमंधर जीननी स्तुति कठिण शब्दनी फुटनोट साथै आप्या वाद श्री गणेंद्र मुनि विरचित सुभाषित रत्नावळी ग्रंथमांथी धर्म नीति अने शुभ व्यवहारने उपयोगी जुदा जुदा ४५ विषयो उपर स्फुटपणे विवेचन कर्यु छे, उक्त विषयोनुं अत्र दिग्दर्शन करवा करता एकज वखत तेने वांची मनन करवानुं काम अमो aianiदनेज सोंपीए छीए. त्यार पछी सुमति अने चारित्र राजना सुखदायक संवादमां पतित चारित्र धारीने पंच महाव्रतम पुनः स्थिर करवा माटे करेला रसिक बोध नोवेलरूपे अपेल छे. पछी 'धर्मनी कुंची' ए विषयमां धर्मरत्नने लायक जीवना ३५ गुणोनुं प्रथम सामान्यथी अने पछी विशेषथी विवेचन आप्युं छे अने अंतमां परमात्म छत्रीसी अने अमृतवेलीनी सझाय आपवामां आवी छे,
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( ५ )
श्री जैन हितोपदेश भाग श्रीजामां श्रीमद् हेमचंद्राचार्य विरचित शासन नायक वीराधिवीर श्री वर्द्धमान जीनना स्तोत्रनो सारांश, मंगळाचरणरूपे आपीने प्रथम ज्ञानसार सूत्र (अष्टकजी ) ना मूळ श्लोको तेना रहस्यार्थ साथे आपल छे जे एवी तो सरलताथी स्फुटपणे लखायेल छे के साधारण ज्ञानवाळाने पण ते सहज रीते समजमां आवी शके तेम छे पछी वैराग्यसार अने उपदेश रहस्य ए नामना विषयम वैराग्य अने उपदेशमय बावतनो सारो समावेश करवामां आव्यो छे. त्यारपछी आध्यात्मिक विषयनी पुष्टीकारक अध्यात्म गीता, संयम, वत्रीसी, अने क्षमा छत्रीसी कठीन शब्दनी फुटनोट साथ आपी ग्रंथनी समाप्ती करवामां आवी छे.
दरेक जैनशाळाना वाळकोने क्रमसर वांचनमाळा चलाववानी आवश्यकता आपणी कोन्फरन्स तरफथी जे स्वीकारवामां आवी छे ते वांचनमाळानी गरज आ पुस्तकनो पहेलेथी क्रमसर अभ्यास करवाथी केटलाक अंशे सरशे - एम अमारु निष्पक्षपात्तपणे मानवुं छे. तेथी तेनो घटतो उपयोग करवा अमे सहु सज्जनोने, साग्रह विज्ञप्ति करीए छीए.
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पूज्य मुनिश्रीना प्रयास माटे असे अंतःकरणधी आभार मानवा साथै उक्त ग्रंथरत्ननो लाभ लेइ तेओ साहेवना परिश्रमने सर्व भव्यात्माओ सार्थक करो एम इच्छी अत्र वीरमीए छीए.
आ ग्रंथ छपाववाने आश्रयदाता, सद्गृहस्थोनो अंतःकरणथी आभार मानी तेमनुं अनुकरण करवा अन्य धनिकोने नम्रविज्ञप्ती करीए छीए. इतिशम्, ली. प्रसिद्ध कर्त्ता.
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अनुक्रमणिका.
श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. १ सद्भाषितावळी.... .... .... ? थी १२४
१ शिष्ट सेवित सन्मार्गर्नु सेवनकर २ शिष्ट निंदित पाप कार्यनो परिहार कर .... ३ निर्मळ श्रद्धान कर .... ४ मिथ्यात्वनो त्याग कर ६ सदाचारनुं सेवन कर .... ७ इंद्रियोनुं दमन कर ८ स्त्रीनो संग-परिचय तज .... ९ विषय रसनो त्याग कर .... १० श्री वीतराग देवनी भक्ति कर. ११ सद्गुरुर्नु सेवन कर ..., १२ तप करवामां यथाशक्ति प्रयत्न कर १३ जीवाने वश कर .... १४ राग द्वेषनो त्याग कर .... १५ क्रोधादि कषायने दूर कर .... १६ अहिंसा व्रतनो आदर कर ... १७ सत्य वस्तुनुं पालन कर १८ अदत्तनो त्याग कर
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(७) १९ ब्रह्मचर्य सेवन कर .... २० परिग्रह मूर्छानो परिहार कर.... २१ वैराग्य भाव धारण कर .... २२ गुणी जनोनो संग कर .... २३ श्री वीतरागने ओळखी वीतरागर्नु सेवन कर. २४ पात्रापात्रने समजी सुपात्रे दान दे. २५ जरुर जणाय त्यांज जिनालय जयणाथी कराव २६ निर्मळ भावनाओ भाव २७ रात्री भोजननो त्याग कर .... २८ मोह मायाने तजीने विवेक आदर. २९ खोटी ममतानो त्याग कर .... ३० संसार सायरनो पार पामवा प्रयत्न कर ३१ धैर्यने धारण कर. .... ३२ दुःखदायी शोकनो त्याग कर. ३३ मननी मेल दूर कर. .... ३४ मानव देहनी सफलता करी ले. • ३५ प्राणान्ते पण व्रत-भंग करीश नहि ३६ मरण वखते समाधि साचववा खूव लक्ष
राखजे .... .... ३७ आ भव परभव संबंधी भोगाशंशा करीश नाहि. ३८ स्वकर्तव्य समजीने स्वपरहित साधवा तत्पर रहे. ३९ पंच परमेष्ठि महामंत्रनुं निरंतर स्मरण कर....
18-10-10-100
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(८)
गर्नु सेवन कर .... ४१ वैराग्य भावथी लक्ष्मी विगेरे क्षणिक पदार्थों
नो मोह तनी दे ... ४२ सारभूत एवा सद्विवेकज सेवन कर .... ४३ धर्मरुपी संवल बने तेटलं साथे लइ ले .... ४४ मनुष्य भव फरी फरी मळयो मुश्केल छे एम समजी शीघ्र स्वहित साधि ले ....
११४ ४५ पुरुपार्थ वडेज सर्व कार्य सिद्ध थाय छे माटे
पुरुषार्थनेज अंगीकार कर. ....। २ सुमति अने चारित्र राजनो सुखदायक संवाद....१२४थार ५० ३ धर्म रत्ननी प्राप्तिने माटे अवश्य प्राप्त करवा यो
ग्य गुणो अथवा धर्मनी खरी कुंची ....१६८यार ४ धर्मनी दश शिक्षा.... ५ परमातम छत्रीशी.... ६ अमृतवेलीनी सझ्झाय
श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. १ ज्ञानसार सूत्र .... २ वैराग्य सारने उपदेश रहस्य .... ३ अध्यात्म गीता .... ४ क्षमा छत्रीशी .... ५ यति धर्म वत्रीशी..
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मंगलाचरणरूप.
श्री सीमंधर' जिन स्तुति, प्रभु नाथ तुं तिलोकनो', प्रत्यक्ष त्रिभुवन भाण; सर्वज्ञ सर्वदशीं तुमे, तुमे शुद्ध सुखनी खाण जिनजी विनती छे एह. १
जि० २
जि० ३
जि० ४
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जि० ६
जि०७
१ महाविदेह क्षेत्रमां विचरता जिनवर २ त्रण लोकनो. ३ सर्व वस्तुने सर्वथा साक्षात देखवावाळा. ४ प्रभात समये ५ नैगमादिक सात नयो. ६ सुंदर मंगलकारी. ७ अकृतार्थ- निष्फळ. ८ गयेलो काल.
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प्रभु जीव जीवन भव्यना, प्रभु मुझ जीवन प्राण; ताहरे दर्शने सुख लहुं, तुंहि जगत स्थिति जाण, तुज विना हुं बहु भव भम्यो, धर्या देश अनेक निज भावने परभावनो, जाण्यो नही सुविवेक, धन्य तेह जे नित्य प्रहसमे", देखे जे जिन मुख चंद; तुज वाणी अमृत रस लही, पामे ते परमानंद. एक वचनं श्री जिनराजनो, नयगम' भंग प्रमाण; जे मुणे रुचिथी ते लहे, निज तत्त्व सिद्धि अमान. जे क्षेत्र विचरो नाथजी, ते क्षेत्र अति सुपसथ्य; तुजं विरह जे क्षण जाय छे, ते मानीयें अकयथ्थ.. श्री वीतराग दर्शन विना, वीत्यो जे काल अतीत, ते अफळ मिच्छा दुक्कडं, तिविहं तिविहनी रीत.
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( २ )
जि० ९
जि० १०
जि० ११
प्रभु वात मुज मननी सहु, जाणोज छो जिनराज; स्थिर भाव जो तुमचो' लहुँ, तो मिले शिवपुर साथ जि० ८ प्रभु मिळे हुं स्थिरता लहुं, तुज विरह चंचळ भाव; एकवार जो तन्मय रमुं, तो करूँ अंचल स्वभाव. प्रभु अछो क्षेत्र विदेहमां, हुं रहुं भरत मझार; तोपण प्रभुना गुण विषे, राखुं स्वचेतन सार. जो क्षेत्र भेद टळे प्रभु, तो सरे सघळां काज; सन्मुख भाव अभेदता, करी वरुं आतमराज. पर पुंठ इहां जेहनी, एवडी जे छे स्वामः हाजर हजूरी ते मळे, नीपजे ते केटलो काम. इंद्र चंद्र नरेंद्रनो, पद न मागुं तिल मात्र; मागुं प्रभु सुज मनथकी, न वीसरो क्षण मात्र. ज्यां पूर्ण सिद्ध स्वभावनी, नवी करी शकुं निज रिद्ध; त्यां चरण शरण तुमारडो, एहिज मुज नवनिध'. म्हारी पूर्व विराधना', योगे पडयो ए भेद; 'पण वस्तु धर्म विचारतां, तुज मुज नहिं छे भेद. - प्रभु ध्यान रंग अभेदथी, करी आत्मभाव अभेद; छेदी विभाव अनादिनो, अनुभवं स्वसंवेद
जि० १२
जि० १३
जि० १४
जि० १५
१०
जि० १६
१ तमारो- तमारी जेवो. २ मळे-प्राप्त थाय. ३ मोक्ष सहायी, अंते सखार. ४ भेदभाव रहित ५ स्वामी ६ रिद्धि. ७ निधि. ८ कसूर. ९ विरुद्ध भाव, विषय कपायादि. १० स्वरुप - आत्मभाव, आत्म दर्शन - साक्षात्कार,
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...३.).... विनवू अनुभव मित्रने, तु न करीश पर रस चाह'; शुद्धात्म रस रंगी थइ, करी पूर्ण शक्ति अवाह. "जि० १७ जिनराज सीमंधर प्रभु, ते लह्यो कारण शुद्ध
: हवे आत्म सिद्धि' निपावची, शी ढील करीए बुद्ध. जि० १८ कारणे कार्य सिद्धिनो, करवो घटे न विलंब; साधवी पूर्णानंदता, निज कर्तृता अविलंय. निज शक्ति प्रभु गुणमा रमे, ते करे पूर्णानंद, गुणगुणी भाव अभेदी, पीजीये शम-मकरंद. जि. २० प्रभु सिद्ध बुद्ध महोदयी, ध्याने थइ लयलीन निज़ देवचंद्र पद आदरे, नित्यात्म रस मुख पीन. जि. २१
इति.
१ चाहना अभिलाषा. २ निर्मळ स्वभावमा मा. शान्तरस लिमग्न. ३ अबाध-विन रहिन. ४ स्वभाव पूर्णता. ५ शान्तरस. ६ महा भाग्यरन, ७ एकाग्र. ८ सहन स्वभाव-परमात्म भाव. ९ पुष्ट मत्त.
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सुभाषित रत्नावली.
प्रस्तावना. विदीत थायके 'सुभाषित रत्नावली' नामनो एक संस्कृता पधात्मक ग्रंथ श्री गणेंद्र कृत प्रथम मारा जोवामां आव्यो. तेनी फक्त. एकज श्रत मळवाथी अने ते पण अत्यंत अशुद्ध होवाथी उक्त ग्रंथना मूळ साथे तेनुं भाषांतर करवा जे प्रथम विचार प्रभव्यो हतो ते नेवा रुपमां अमलमा मूकी शक्यो नाहि. परंतु तेनी शरुआतमा सार रुपे जे श्लोको दाखल कर्या छे ते साथे थोडाक बीजा श्लोकोर्नु भाषांतर आदिमां कायम राखीने बाकीना विषयोनुं विवेचन कंइक स्वतंत्र रीते स्वक्षयोपशमानुसारे करवू दुरस्त धारी उक्त ग्रंथमा कहेवा धारेला विषयो पैकी बनी शक्या तेटला लगभग ४५ विषयो। दाखल करवामां आव्या छे. वर्तमान समयने अनुसारे जिज्ञासु भाइ व्हेनोने उक्त विषयो संबंधी संक्षेपथी बोध पूर्वक शुभ क्रिया रुचिनी ऋद्धि थाय अने एम यथाशक्ति ज्ञान अने क्रियाना संमेलनथी वीतनाग प्रभुनी पवित्र आज्ञानुसार स्वहित आचरवा तेओ समर्थ थाय एवी सदबुद्धिथी प्रेराइने आ प्रस्तुत प्रयत्न करवामां आव्यो छे. आवा शुभाशययुक्त प्रयत्ननी सार्थकता करवा भव्य भाइ व्हेनोने कंइक साग्रह भलामण करूं तो ते कंइ खोटुं कहेवाशे नहि. वर्तमानकाळे कंइक जागृत थती जिज्ञासा स्वक्षयोपशमानुसार लखी ते जिज्ञासु वर्ग समक्ष मूकवाने जेय हुं स्वकर्तव्य समजुं छं तेम तेनो . यथाशक्ति आदर करवा रूप निज कर्तव्य करवाने कृतज्ञ भाइ व्हेना चुकशे नहि एम समजीने प्रस्तुत ग्रंथ संबंधी प्रस्तावना पूर्ण करुं छु।
शुभं स्यात् सर्व सत्त्वानाम्. सन्मित्र कर्पूरविजयजी.
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श्री जैनहितोपदेश भाग रजो.
सद्भाषितावली.
श्री गणेन्दै विरचिता पीठिका. जिनाधीशं नमस्कृत्य, संसारांबधितारकं ।। स्वान्यस्य हित मुद्दिश्य, वक्ष्ये सद्भाषितावलीम् ॥१०॥ धर्मत्वं कुरु दुस्यजं, त्यजं महापापं बुधै निदित, . सम्यक्त्वं भज शर्मदे, सज महामिथ्यात्व मूलंच सच्छास्त्रं पठ वृत्त माचर, जयं पंचेन्द्रियाणां च भो, नारी संगमपि स्वयं यज, सदा कामं कलंकास्पदम्॥२॥ दृष्ट्वा स्त्री सुशरीर रूपमतुलं मध्ये विचारं कुरु श्री तीर्थेश्वर पाद-सत्कमलयोः सेवां सदा सद्गुरौ ।। बाह्याभ्यंतर सत्तपः कुरु सदा जिहां वशे चानय, भ्रात स्त्वं त्यज देव राग सहितान् सर्वान् कषायांश्चवाश
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___ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. . सर्वेषु जीवेषुदयां कुरुत्वं, सत्यंवचोब्रूहि धनं परेषां ॥ वाऽब्रह्म सेवांत्यज सर्वकालं, परिग्रहं मुंच कुयोनिद्वारं ४ वैराग्य सारंसज सर्वकालं, निग्रंथ संगं कुरु मुक्ति बीज विमुच्य संगंकुननेषुमित्र, देवार्चनं त्वं कुरु वीतरागे।५। दानं त्वं कुरु पात्रसारमुनय चैत्यालयं भावनां, रात्रौ भोजनवर्जनं त्यजमहागार्हस्थ्यभावसुहृद् ॥ देहं त्वं त्यज भोग सारमंपिवै संसार पारं व्रज, धीरत्वंकुरु मुंच शोकमंशुभं शौचं च नीरंविना ॥६॥ सारं त्वं कुरु देहमेव सफलं धृत्वाव्रतं मा त्यज; . सन्यांसे मरणं च भोगविषये चाशामिहाऽमुत्र च ॥ मध्यस्थं हितमेव जाप्य जपनं रोगस्य निर्नाशनं; . "जीवस्या शरणं चलंच विभवं सारं विवेकं भज ॥७॥ संबलं कुरु वै धर्म, मानुष्य दुर्लभं भवेत् ॥ अयोग्यं च परित्यज्य, मुक्ति योग्य समाचर ॥ ८ ॥
If इंति पीठिका ।।
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. सुभाषित रत्नावली. मुख.प्रवेश. संसार समुंद्रथी तारणहार श्री जिनेश्वर देवने नमस्कार करी स्व"परना हितने माटे हुँ सुभाषित रत्नावळीनी व्याख्या करंर्छ । भोभद्र ! तुं धर्म आचरण कर, ज्ञानीए निंदेलां महापानी
"त्याग कर, सुखदायी समकीतनुं सेवन कर, महा दुःखदायी मिथ्यात्वनो त्याग कर, उत्तम ज्ञाननो अभ्यास कर, वतन सेवन कर अने पांचे इंद्रियोनुं दमन कर, स्त्रीना संगनो पण त्याम कर, तेमज सदोष काम सेवानो सर्वदा त्याग कर. २. १.३ " ___ स्त्री संबंधी सुंदर देहनु अतुल रुप देखीने भोभद्र ! तुं मनाँ निर्दोष विचार कर.श्री तीर्थकर देवनां चरण कमळनी सेवा कर, सद्रुनी सदा भक्ति कर. बने प्रकारना शुद्ध तपनुं सेवन कर. अने जीभने वश कर, तेमज हे भाइ ! राग द्वेष. सहित सर्व कवायनो तुं (काळजीथी) त्याग कर. ३. "
__ हे भंद्र ! तुं सर्वे जीवोमां दया भाव राख्य, सत्य वाणी रद, परधन अने अब्रह्म सेंवानो सर्वथा त्याग कर, तेमज दुर्गतिदायक परिग्रह मूछाने त्यज. ४ ___ सर्वदा श्रेष्ठ वैराग्यने भज; मुक्तिदायक निग्रंथ मुनिनो संग कर, अने दुर्जनोनो संग त्यजी दे; हे मित्र! तुं वीतराग देनी भावथी भक्ति कर..५
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
वळी पात्रापात्रनो विवेक राखीने तुं दानदे, जिन चैत्य -कराव, रुडी भावना भाव, रात्रिभोजननो त्याग कर, तेमज हे मित्र तुं संसारिक मोहने त्यजी दे; केवळ भोगना साधनरूप एवा देहनी - सूर्छा त्यज, अने संसारनो पार पाम. तेमज धीरपणुं धारणकर दुःखदायी शोकने त्यज अने मननो मेल दूर कर. ६
M
श्रेष्ठ एवो मानव देह पामीने सारां व्रत नियम पाळी. तेने सफळ करवो, व्रत भंग नहि करवो; समाधिवाळु मरण कर, आ भव परभव संबंधी भोगाशंसा तजी देवो; मध्यस्थ रही स्वपर हित साधनुं, परमेष्ठिनो जाप जपवो; धर्म रसायण सेवयुं वैराग्य भावना भाववी, लक्ष्मी विगेरे क्षणिक वस्तु उपरथी मोह त्यजी देवो अने सारभूत एवा विवेकने भजवो.
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हे सुभग ! तुं धर्मरुपी संबल ( भातुं ) साथै लइले, फरी फरी मनुष्य भव पामवो दुर्लभ छे, माटे अयोग्य आचरण त्यजी दइ जेथी जन्म मरणनो अंत आवे एवं योग्य आचरण सेवीले. ८
" इति प्रस्तावना. "
धर्म कुरु.
'धर्मं करोति यो नित्यं स पूज्य त्रिदशेश्वरैः ॥ लक्ष्मीस्तं स्वयमायाति, भुवन त्रय संस्थिता ॥९॥
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ नो. धर्मवतोहि जीवस्य, भृत्यः कल्पद्रुमो भवेत् ।। चिंतामणिः कर्म करः, कामधेनुश्च किंकरी ॥१०॥ धर्मेण पुत्र पौत्रादि, सर्व संपद्यते नृणां ।। गृह वाहन वस्तूनि, राज्यालंकरणानि च. ॥ ११ ॥ वरं मुहूर्त मेकंच, धर्म युक्तस्य जीवितं ॥ : तद्धीनस्य वृथा वर्ष, कोटा कोटि विशेषतः ॥ १२ ॥ यम दम समयातं, सर्व कल्याणे बीजं । सुगति गमन हेतु, तीर्थनाथैः प्रणीतं;॥ भवजलनिधियोतं, सार पाथेय मुच्चै, स्त्यज सकल विकार, धर्ममाराधय त्वम् ।। १३ ॥
पापंत्यज. पापं शत्रु परं विद्धि, श्वभ्र तिर्यगगतिप्रदं ।। रोग क्लेशादि भांडार, सर्व दुखाकरं नृणाम् ॥ १४ ॥ जीवतोऽपि मृता ज्ञेया धर्म हीनाहि मानवाः॥ मृता धर्मेण संयुक्ता, इहा मुत्र च जीविताः॥१५॥ पापवतो हि नास्त्यस्य, धन धान्य गृहादिकं ॥ .
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१० . श्री जैनहितोपदेश भागा जो वस्त्रालंकार सदस्तु, दुःख क्लेशानि, संति च.॥१६॥ मित्र शत्रु: च विज्ञेयो, पुण्य पापे शरीरिणां.॥ . जीवेन बजतः सार्ध, सुखदुःखफलप्रदम् ।। १७ ॥. सकल भव निदानं, रोग शोकादि बीजं ॥.. नरक गमन हेतु सर्व दारिद्र मुलम् ॥ . इह परभव शत्रु, दुःख दानैक दक्षं ॥ ... . त्यज मुनिवर निन्धं पाप बीजं समस्तम् ॥ १८ ॥
. १ शिष्ट सेविन सन्मार्गनुं सेवन कर.
जे नित्य स्वकर्तव्य समजीने सन्मार्ग- सेवन करे छे ते इंद्रोने पण मान्य थाय छे, अने सकल लक्ष्मी तेने स्वयं आवी मळे छ. पुन्यशाळीने पगले पगले निधान छे. ९ सन्मार्गगामी-धर्मी जीवने कल्पवृक्ष सेवक - थइने रहेछ, चिंतामणि. रत्न तेनुं चिंतित कार्य साधी आपे छे, अने कामधेनू तेना सकल मनोरथ पूरे छे. १९ धर्म सेवनवडे प्राणीओने पुत्र पौत्रादिक प्राप्त थाय छे तेमज राज्यना अलंकारभूत एवां घर वाहन विगेरे वस्तुओ पण सहजे मळे छे. ११ धर्मे करीने युक्त एंवा जीवनुं वे घडी जेटलुं पण जीवतर लेखे छे, अने धर्महीन. जीवनुं तो कोटा कोटी कल्प, मुधीनुं पण जीवन
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.: श्री.जैनहितोपदेश भाग २ जो. .. ११ नकामुं छे. १२ ते माटे हे भव्य ! यम-महाव्रतादि अने दम-इंद्रियदमन आदिथी युक्त, सर्व कल्याणचें मूळ कारण, सद्गति गमननुं हेतु, भव समुद्रथी पार-पमाडवाने प्रवहण तुल्य अने भवान्तरमां सार शंवलरूप एवा ऋषभादिक तीर्थनाथोए प्रगट करेला धर्मनुं तुं सर्वविकार रहितपणे सेवन कर. १३
२ शिष्ट निंदित पाप कार्यनो परिहार कर, . .प्राणीयोने नर्क तिर्यंच गति आपनार, रोग शोकादि दुःखना निधान. अने सकल क्लेशनां स्थानरूप पापने तं परम शत्र समज. १४ धर्महीन मानवोने जीवता छतां पण मूआ मानवा, अने. धर्मे करी युक्त मानवो भूभा छतां आलोक अने परलोकमां जीवताज; जाणवा. १५ पापवंत प्राणीने धन धान्य गृहादिक तथा वस्त्र अलं. कारादिक शुभवस्तु प्राप्त थइ शकती नथी, तेने तो केवळ दुःख अने क्लेशन प्राप्त थाय छे. १६ पुण्य अने पार प्राणीयोना मित्र अने शत्रु छे, एम जाणवू, केमके मुख दुःख फळने आपनारा ते वंने प्राणीनी साथेज जाय छे. १७ भव भ्रमणना निदानरूप अने रोगः शोकादिकना बीज रुप नर्क गमनना हेतु रूप अने सर्व दारिंद्रना मूळरुप आ भव अने परभवना' शत्रुरूप अने दुःख देवामां एकारुप एवां समस्त पापनां निंद्य कारणोने हे मुत्रत ! तुं तजीदे. समस्त पापकार्यथी तदन अलगा रहे, एज.सार छे.........
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२२ श्री जैनहितोपदेश भाग २ नो,
सम्यक्त्वं भज. सम्यग् दर्शन संशुद्धः सत्य मानुच्यते बुधैः ॥ . सम्यक्त्वेन विना-जीवः पशुरेव न संशयः ॥ १९ ॥ सम्यक्त्व युक्त जीवस्य, हस्ते चिंतामणिर्भवेत् ॥'. कल्पवृक्षो गृहे तस्य, कामगव्यनु गामिनी ॥२० ।। सम्यक्त्वाऽलंकृतो यस्तु, मुक्ति श्री स्तं वरिष्यति ।। स्वर्गश्रीः स्वय मायाति, राज लक्ष्मी सुखी भवेत् ॥२१॥ यत्र कुत्रापि सद् दृष्टिः पूज्यः स्याद्भवनैरपि ॥ सम्यक्त्वेन विना साधुः निन्दनीयः पदे पदे ॥२२॥ सकल सुख निधानं, धर्म वृक्षस्य बीजं ॥ जनन जलधि पोतं, भव्य सत्खैकपात्रं ।। दुरित तर कुठारं, ज्ञान चारित्र मूलं ।। त्यज सकल कुधर्म, दर्शनं त्वं भजस्व ॥ २३ ।। भाषा बुद्धि विवेक वाक्य कुशलः शंकादि दोषोषितः। गंभीरः प्रशमश्रिया परिगतो वंश्येन्द्रियो धैर्यवान् ।
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. ............निश्चयो विरतितो, भक्तिश्च देवे गरा, बौचित्यादि गुणैरलंकृत तनुःसम्यक्त्व योग्यो भवेत२४
३ निर्मळ श्रध्धानकर.. तव श्रद्धायी संस्कार पामेला जीवोज साचा गणाय एम समयना जाण कहे छे, शुद्ध श्रद्धा दिनाना जीव तो केवळ पशु रुपज छे. एमां संशय नथी. समकितवंत .जीवना हाथमाज चिंतामणि रत्न छे, तेना आंगणामांज कल्पवृक्ष उन्यो छे. अने कामधेनु तो तेनी सहचारिणीज छे. जे सम्यकत्व भूषणथी भूषित छे तेनेज मुक्ति कन्या वरनारी छे, स्वर्ग लक्ष्मी तो तेने स्वयं आवी मळे छे. अने राजलक्ष्मीनुं तो कहेjज शुं ? समकीतवंत जीव सर्व रीते सुखीज थाय छे. समवित दृष्टि जीव त्रणे भुवनमां गमे त्यां पूजानिक थाय छे अने समषित गुण विनानो ते पगले पगले निंदापात्र बने छे. २२
“वीतराग प्रमुना एकांत हितकारी वचननुं सावधानपणे श्रवण करीने मां कृत्याकत्य, त्याज्यात्याज्य अने हिताहितना निर्णय पूर्वक श्रद्धा-आस्ता वेसवी तेनु नाम समकित छे." शंका, कंखा, फळ संदेह, मिथ्यात्विनी प्रशंसा, अने तेनो परिचय ए पांच दूषणों समक्तिचंतने दूर करवानां छे. अने शुद्ध देवगुरु तथा धर्म-तीर्थनी
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१४ श्री जैनहितोपदेश भाग २, जो भक्ति प्रभावनादिक उत्तम भूषणो तेणे. यत्नथी धारण करवानां छे. शम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा अने, आस्तिकता रूप पांच लक्षण पण समकितवंत जीवमा अवश्य होवां जोइये. एटले के अपराधि उपर पण क्षमा, अविकारी एवा मोक्ष सुखनी अभिलाषा; संसारथी विरक्तता, दुःखी उपर दया अने वीतरागना वचननी पूर्ण प्रतीति एथी समंकीत ओळखाय छे." एम समजीने हे भद्र! तुं सकल सुखद् निधान, धर्मक्षनु बीज, भवनिधि पार पमाडनारं पोत, भव्यतावंतनेज प्राप्त थनारं, पाप तस्नु उच्छेदनाएं अने ज्ञान-चारित्रनु मूळ ए, समकित सकल कुधर्मना त्याग पूर्वक तुं अंगीकार कर. २३
भापा, बुद्धि, विवेक अने वाक्यमा कुशळ, शंकादि दोषरहित, गंभीर, समतावंत, जितेन्द्रिय, धैर्यवान् , तत्त्वग्राही, देव-गुरु भक्त, अने उचितता विगेरे गुणोथी भूषित एवो भव्य आत्माज समक्ति पामवाने अधिकारी छे. २४ .
४ मिथ्यात्वनो त्याग कर. अज्ञानथी अथवा सम्यग ज्ञाननी खामीथी सत्यासत्य या तचातत्व संबंधी शुद्ध समज विनानी अथवा कदाग्रहवाळी विपरीत बुद्धिनु नाम मिथ्यात्व छे, तेथी जीव सत्य मार्गने त्यजी असत्य मार्गे दोरवाइ जाय छे. अथवा सत्य मार्गने सारीरीने समजी शकतो नथी, तेमज फचित गाढ मिथ्यात्व योगे सन्मार्गने त्यजी असत् मार्गनु
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. स्थापन करवा भारे परिश्रम करी अनेक भोळा जीवोने उन्मार्गे खेंची जाय छे. सत्य मार्गमा खोटी शंकाओ करवाथी अथवा मिध्यात्विओनो परिचय करी तेमनां परस्पर असंबद्ध वचन सांभळवाथी या तेमनी प्रशंसा करवाथी समकितवंत जीवने पण उक्त महा दोषनी प्राप्ति थइ जाय छ, के जेने पछीथी हठावी काढवा भारे परिश्रम करवानी खास जरूर पडे छे. उक्त मिथ्यात्व योगे जीवो भिन्न भिन्न विपरीत करणी करवामा प्रवर्ते छे. तेथी उक्त दोषना प्रकार तथा तेना स्वामीने जाणवानी जरुर छे.
मिथ्यात्वना प्रकार तथा उक्त दोषने
. सेवनारनां नाम. १ आभिग्रहिक-परीक्षा रहित केवळ स्वसम्य प्रमाणे एकांत वादी दर्शनो.
२ अनभिग्रहिक-विवेक शून्यपणे सत्यासत्यने समज्या विना सर्व दर्शनने समान समजनार.
३ सांशयिक-सत्य सर्वज्ञ वचनमां (न्याय विरुद्ध) शंका घारनार यूढात्मा.
४ अनाभोगिक-उपयोग शून्यपणे मूछित दशामा वर्तनार एकेंद्रिय, विकलेंद्रिय विगेरे.
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१६ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
५ आभिनिवेशिक-जाणी जोइने हठ कदाग्रहथी सत्य वस्तुनो अनादर करीने असत्य वस्तु (धर्म) नो स्वीकार करी तेज स्थापन करनार निन्हवो चिगेरे.
उक्त मिथ्यात्व महा दोषथी भरेला जीवो सत्य धर्मने सेवी शकता नथी. जेम ज्वरातुर जीवने दूध साकर भावतां नथी तेम मिथ्यामतिने सत्य धर्म रुचतो नथी. जेय रोगीने कुपथ्य व्हालुं लागे छे तेम तेने कुधर्म प्रिय लागे हे, छतां परोपकारकनिष्ट सदैव समान सद्गुरु मिथ्यामतिने वारवा अने शुभ मतिने धारवा भव्य जीवोने नीचे मुजब हितोपदेश आपे छे-हे भव्यो ! सकल पापनु मूळ, दुःख वृक्षनु वीज, नगृहनु द्वार, स्वर्ग, अपवर्गनु भारे विघ्न, परम पुरुष निंद्य, अने मृढ लोकोए सेवित एवा सकल असार मिथ्यात्व वीजनो तमे त्याग करो के जेथी समकित अमृतनु सेवन करी तमे अक्षय सुखना अधिकारी थाओ."
सम्यग् ज्ञाननु सेवन कर. जेना वडे (आत्म) वस्तु धर्मनु यथार्थ भान थाय अने अज्ञान अंधकार दूर थाय तेमज जेथी तत्काळ मिथ्यात्व भ्रमने दूर करनार समकित गुण प्रगट थाय तेने ज्ञानी पुरुषो सम्यग् ज्ञान कहे छे. ..
सम्यग् ज्ञानीने गमे तेवु शास्त्र समपणे परिणये छे. गमे तेमां
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. १७ थी ते सार मात्र ग्रही शके छे. दुकाणमा प्राप्त परमार्थथी ते सुखें खपर हित साधी शके छे. अज्ञानी या शुष्कज्ञानी तेम. कदापि करी शकतो नथी. . ___ सम्यग् ज्ञानीने सम्यग् ज्ञानना वळथी समजायेला राग द्वेषादिक अंतरंग शत्रुवर्गने दमवा मुख्य लक्ष रहे छे. तेनी सकल करणी तेवा मुख्य लक्षथीज प्रवर्ते छे, तेथी तेने आ दृश्य दुनीया केवळ स्वार्थमय भासे छे. जे एक वस्तुने संपूर्ण जाणे छे ते सर्व वस्तुने संपूर्ण जाणे छे, एटले के जे सर्व भावने सर्वथा जाणे छ : तेज एक भावने संपूर्ण जाणी. शके छे. आ वातनी खात्री सम्यम् ज्ञानथी सारी रीते थइ शके छे. माटेज सत्समागम करीने या परोपकारशील महा पुरुष प्रणीत परमागमनी सहाय मेळवीने सम्यग् ज्ञाननो खप को करवो योग्य छे. एवा खपी पुरुषोज परम पदना अधिकारी थइ शके छे. जेम पूर्वे एक पण पदनु सम्यग् रीत्या श्रवण, मनन अने निदिध्यासन करवाथी कइक भाग्यवंत भव्योनु क-' ल्याण थयु छे, तेम सर्वकाळे थइ शके तेम छे. ज्यारे एक पण पद संबंधी सम्यग् ज्ञाननो आवो अपूर्व महिमा छे तो पछी तेवां अनेक पदवाळा सम्यग् ज्ञानतुं तो कहेज शुं? . . . . .,
ज्ञानी पुरुषों सम्यग् ज्ञानने अंपूर्व अमृत, अपूर्व. रसायण अने.. . अपूर्व ऐश्वर्य कहिने बोलावे छे. अने ते यथार्थ छे, केमके तेथीज:
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'श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. आत्मा परमपदनो भोगी थइ शके छे.
सम्यग् ज्ञानयुक्त आत्माज स्वर्ग अने मोक्ष संबंधी लक्ष्मीनो अधिकारी थाय छे. पण अज्ञान अने अविवेकात्मातो दुःखमय सं-, सार सागरमांज भ्रमण करे छे.
ज्ञानवंत-विवेकी गमे त्यां कर्म-मुक्त थाय छे, त्यारे अज्ञानी माणी ज्यां त्या कर्मथी बंधाय छे.
__ज्ञानहीन पाणी पुन्य, पाप, गुण अवगुण, तथा त्याज्यात्याज्य 'विगेरेना-विवेकने जाणी शकता नैथी. जेम जन्मांध जीव सूर्यना स्वरुपने जाणी शंकता नथी तेम अज्ञांनी अविवेकी जीव पण हिताहित, उचितानचित, तेमज भक्ष्याभक्ष्य पेयापेय संबंधी गुणदोषनु यथार्थ स्वरुप समजाने समर्थ थइ शकतो नथी. . उक्त हेतु माटे सम्यग् ज्ञान- जेम बने तेम आराधन करवा शास्त्रकार आपणुं लक्ष खेंचवा भार दइने कहे छ के
हे भन्यो ! निर्मळ गुणर्नु निधान, समस्त विज्ञानतुं बीज मुमुक्षुजनोए सेववा योग्य, सर्व तत्वप्रकाशक, पापतरुनु निकंदक अने मनरुप मदोन्मत्त हाथीनो गर्व गाळवाने केसरी सिंह समान, सर्वज्ञ भाषित सम्यग ज्ञानून तमे जरुर यथाशक्ति आराधन करो. तेनुं विराधन तो तमे कदापि करशों नहि.
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
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६ सदाचारनु सेवन कर, आचारनी शुद्धि करवी, सदाचरण सेवन कर, एज सम्यग् ज्ञान-दर्शन- फळ छे. सम्यग ज्ञान-दर्शन उतां सदाचार (सम्यक् चारित्र गुण) माप्त थयो नहि तो वांझीया वृक्षनी पेरे ते ज्ञान-दर्शनने अध्यात्मी पुरुषो नकामां कहे छे, एम समजी जेम वने तमे सव्रतो सेववा आत्मार्थी जनोए अहोनिश उजमाळ रहेवुन योग्य छे. दश दृष्टांतथी दुर्लभ मनुष्यदेह पाम्यानुं खरं फळ एजछे.
__शुद्ध चारित्र युक्त एक दिवसर्नु पण जीवित लेखे छे, परंतु चारित्रहीन कोटी वर्षतुं पण जीवन नकामुं छे. शुभकरणी विनाना दिवस मात्र वांझीया लेखवाना छे.
संघयण-शरीरवळ हीj छतांजे चारित्रने सम्यग् आचरे छे ते उत्कृष्ट शरीर वळनी अपेक्षाए सहस्त्रगणुं फळ पामे छे. संघयगर्नु वार्नु काढीने चारित्र गुणमां शिथिल थवाने वदले उलटो अधिक प्रयत्न करवो युक्त छे. छतां शिथिलताने भजनार प्रगट स्वपरना अहितनाज भागी थाय छे.
चारित्रवत व मर्यादाने सेवतो जे जे वस्तुने इच्छे छे तेने ते तत्काळ आवी मळे छे एवो सम्यग् चारित्रनो महिमा प्रगट छतां तेमां कोण प्रमादी यो?
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. - हीन संघयण छतां जे एक वर्षनी दीक्षा बरावर पाळवी ते उत्कृष्ट __ संघयणनी सहस्र वर्षेनी दीक्षा बराबर समजवी युक्त छे. एम विचा
री तप, जप, ज्ञान, ध्यान विगेरे सदनुष्ठानमां सदा सावधानपणे वर्तवामांज स्वपरहित समायेलं जाणवू.
चारित्रथी चलायमान थइ भ्रष्ट थयेलो जीव जीवतो छतो मूआ बरोवर छे. अने चारित्र संयुक्त आत्मा मूआ छतां उभय लोकमा अमर थइ रहे छे. उक्त हेतुथी चारित्र गुणनी पुष्टि माटे शास्त्रकार भार मुकीने उपदिशे छे के
"सकल मदरहित, देवमान्य, सर्व तीर्थनाथोए सादर सेववायोग्य महा गुणसागर पंडितोए सेवित, मुक्ति सुखन अवध्य वीज, निर्मळ गुणनिधान, सर्व कल्याण, मूळ कारण, अने सकळ विकाररहित ए, निर्मळ चारित्र हे भव्यो ! तमे भावथी भजो, जेथी अक्षय अनंत सुखने तमे सहजे वरो."
७ इंद्रियोर्नु दमन कर. . नायक एवा मने रेला इंद्रिय-चोरोए धर्म धन- हरण करीने बापडा लोकोने आकुळव्याकुळ करी मूक्या छे. तेथी तेमने वश करवाने भगीरथ प्रयत्न करवानी जरुर छे. अन्यथा ते सर्वने वश करी जीवनी भारे दुर्दशा करशे.
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
जेम इंधनथी अनि तप्त थतो नथी अने गमे तेटली नदीयोथी पण दरीयो पूरातो नथी तेम विषयमुखथी कदापि पण इंद्रियो तृप्त थवानी नथी. एम मध्यस्थपणे विचार करी विवेकथी संतोषत्ति धारवी योग्य छे.
जेणे वैराग्य खड्गथी इंद्रिय चोरोने हण्या छे तेनोज खरेखर मोक्ष थाय छे. वाकी वीजा कायाक्लेशो वडे | वळवार्नु छ ? माटे प्रथम मन अने इंद्रियोनेज वश करी लेवानी जरुर छे. ते विना करवामां आवती कष्टकरणी कष्टहरणी थवानी नथी.
मननो जय करीने जेमणे इंद्रियानो निग्रह को नथी तेमणे साधु-मुद्रा धारण करीने केवळ पोताना आत्माने ठग्योज छे. एम निश्चय समजवु.
जे पोतानी इंद्रियोने पण जीतवाने समर्थ थइ शकता नथी तेमनी दीक्षा के तपस्यामां कांइ माल जेवू नथी. इंद्रियोना गुलाम 'थइने उलटा ते धर्मनी अपभ्राजना रुप महा अनर्थने पेदा करे छे. 'माटे दीक्षा ग्रहण का पहेलांज योग्य विचार करवानी जरुर छे, दीक्षा लीधा बाद तो इंद्रियो उपर संपूर्ण काबु राखवा अहोनिश लक्षं राखी रहेवानी खासे जरुर छे. केमके विरक्त आत्माने पण ते विषयपासमा पाडी नांखतां चूकती नथी.
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__ २२ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
इंद्रियरुपी दुर्धर चोरो जीवनां व्रतज्ञानादि गुण रत्नथी भरेला जगतारक भांडने क्षणवारमा स्खलना पमाडे छे. तेथी जे मुनीश्वरो संनद्ध थइने महाव्रतरुपी वाणो सावधानपणे ग्रही मर्यादामां रह्या छतां ध्यानरुप तीरथी तेमने मर्ममा हणे छे, तेओज मुखसमाधे, मोक्षपुरीमा जइ शके छे.
८ स्त्रीनो संग-परिचय तज. स्त्री केवळ काम विकारर्नु घर छे, एम समजी साधु जनोए तेनी संगति वारवी योग्य ज छे. भला भला पण साधु स्त्री संगतथी निशान चूकी गया छे. तेथी ब्रह्मचारीजनोए स्त्रीओना परिचयथी दूर रहेवू ज हितकारी छे. एम वर्तवाथी ज नवकोटि शुद्ध ब्रह्मचयंनी रक्षा थइ शके छे.
दुनियामां गहनमा गहन स्त्री चरित्र ज छे. तेथी जेम वने तेम साधु पुरुषोए तेनाथी चेततां रहेवानी जरुर छे. जेवो मूषकने माजोरी तरफथी भय राखवानी जरुर छे. तेम ब्रह्मचारी साधुने पण स्त्री समुदाय तरफथी भय राखवानी जरुर पडे छे, स्त्रीजनोनो परिचय साधु जनोने हितकारी नथी ज ए निर्विवाद सिद्ध छे.
अग्निथी लालचोळ थयेली लोहमय पूतली आलिंगन कर सारु पण नर्कना द्वारभूत नारीना नितंवर्नु सेवन कर सारं नीज..
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श्री जैनहितोपदेश,भाग.२ जो.
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स्त्रीने एक दूझती विषनी वेल छे एम समजीने तेनाथी दूर
रहेढुं.
• खीनां मोहमय वचन विलास या हावभावथी 'लोभाइ प्रबळ' कामथी पीडित थइ अंते आप खुद चालनार साधु : ब्रह्म व्रतथी भ्रष्टः थाय छे..
स्त्रीना चिर परिचयथी साघु कुलबालुकनी पेरें मार्ग भ्रष्ट थइने महा विडंबना पात्र थाय छे, अने क्षणिक सुखने माटे अक्षय. मुखथी चूकी जाय छे. तेथी आत्मार्थी साधु जनोए स्त्री संगथी दूर रहे, ज युक्त छे.
ज्यारे चित्रादिमां निर्माण करेली नारी पण मननो क्षोभ करे छे तो पछी साक्षात् जीवती ज्योत (महामाया) नारी साथसंसर्ग वार्तादिक करतां केम कायम रही शकाय ए जरूर विचारवा. जेवू छे,
सर्प, व्याघ्र, चौरोदिकनी साथे सहवास करतां एटलं नुकशान नथी जेंदखें स्त्रीनी. साथे क्षणमात्र रहेता संभवे. एम समजीने शाणा साधुओए क्षणमात्रः पण स्वच्छंदपणे स्त्रीनो संग या परिचय: . करवो योग्य नथी.
. . .,
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. सापणी स्पर्श करीने करडे छे अने नारी तो दूरीज डंस मारे छे. तेथी एम समजाय छे के दृष्टि विष सर्पनी जेम तेनी दृष्टिमांज झेर रहेलुं छे. एवी स्त्रीन नाम सांभळतांज स्थानान्तर चाल्या जवू जोइए. .
सर्व रीते संयम प्राणने हरनारी होवाथी नारीने शास्त्रकारे प्रत्यक्ष राक्षसी कहीने बोलावी छे. छतां तेनो विश्वास करनार साधुना चरित्र विषे वधारे शुं कहेवू ? स्त्रीसंगी साधु जरुर संयमथी भ्रष्ट थइ जाय छे.
सारांश ए छे के भवभीरु होवाथी जेओ भगवंतनी आज्ञा मुजब स्वीना अंगोपांगने पण दृष्टि दइने नीरखता नथी, विकार बुद्विथी (पशु वृत्तिथी) तेनी साथे वात पण करता नथी, अने मनथी विषय सुखनी भावना करता नथी, एम सर्वे रीते सावधान थइने ब्रह्मचर्य- पालन करे छे तेज महात्माओ आ दुस्तर भवोदधिने सहजमां तरीने अक्षय सुखना अधिकारी थाय छे. एवा महाशयो नांज शुद्ध चरित्र अनुकरण करवा योग्य छे. वळी कडं छे केनचराजभयं न च चोरभयं, इहलोक सुखं परलोक हितं ॥ वर कीर्तिकरं नरदेवनत, श्रमणत्व मिदं रमणीयतर.॥१॥
जेने नथी तो राज भय अने नथी तो चोरभय, आ लोकमां
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. २५ पण मुखकर अने परलोकमां पण हितकर, श्रेष्ट एवी कीर्ति-कौमुदीने विस्तारनार अने जेने नर देवादिक नमेला छे, ए, आ प्रगट अनुभवातुं साधुपगुंज श्रेयाकारी छे माटे तेमां विशेषे आदर करवो.
९ विपय रसनो त्याग कर. जाणे केवळ नर्कनुज स्थान न होय ! एवी असार निंदनीय, अशुचि अने दुगधी एची स्त्रीनी योनिमां कामांन्ध माणस कीडानी पेरे क्रीडा करे छे. भवभीर विवेकात्मा तो स्वाममां पण तेनो संग इच्छतो नथी.
चामडाथी वीटेला हाडपिंजरवाळा अने दुर्गधी एवा श्लेष्मादिकथी भरेला कामिनीना मुखने कामान्ध माणस श्वाननी परे चाटे छे ____ मांसना लोचा जेवा स्त्रीनां स्तनो अने विष्टादिथी भरेला कुमाकुळ स्त्रीना उदरमा कामांन्ध माणस कागडानी जेग क्रीडा करे छे.
गोरी चामडीथी वीटेखें अने वस्त्राभरणयी भूषित करेलुं स्त्रीतुं रुप जोइने हे ! भद्र ! तुं विवेकथी विचारकर. पण तेमां पतंगनी पेरे तुं एकाएक झंपलाइ पडीश नहि. नहितो छेवट पश्चाताप करीश. स्वभाविक रीतेज आधिक अशुचिथी भरेला अने अनेक द्वारथी अशु
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. सापणी स्पर्श करीने करडे छे अने नारी तो दूरथीज डंस मारे छे. तेथी एम समजाय छे के दृष्टि विष सर्पनी जेम तेनी दृष्टिमांज झेर रहेलुं छे. एवी स्त्रीचं नाम सांभळतांज स्थानान्तर चाल्या जवू जोइए. .
सर्वरीते संयम प्राणने हरनारी होवाथी नारीने शास्त्रकारे प्रत्यक्ष राक्षसी कहीने बोलावी छे. छतां तेनो विश्वास करनार साधुना चरित्र विषे वधारे शुं कहेवू ? स्त्रीसंगी साधु जरुर संयमथी भ्रष्ट थइ जाय छे.
सारांश ए छे के भवभीरु होवाथी जेओ भगवंतनी आज्ञा मुजव स्त्रीना अंगोपांगने पण दृष्टि दइने नीरखता नथी, विकार वुद्धिथी (पशु वृत्तिथी) तेनी साथे वात पण करता नथी, अने मनथी विषय सुखनी भावना करता नथी, एम सर्व रीते सावधान थइने ब्रह्मचर्य- पालन करे छे तेज महात्माओ आ दुस्तर भवोदधिने सहजमां तरीने अक्षय सुखना अधिकारी थाय छे. एवा महाशयो नांन शुद्ध चरित्र अनुकरण करवा योग्य छे. वळी को छे केन चराजभयं न च चोरभयं, इहलोक सुखं परलोक हितं ॥ वर कीर्तिकरं नरदेवन, श्रमणत्व मिदं रमणीयतरं ॥१॥
जेने नथी तो राज भय अने नथी तो चोरभय, आ लोकमां
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. पण सुखकर अने परलोकमां पण हितकर, श्रेष्ट एवी कीर्ति-कौमुदीने विस्तारनार अने जेने नर देवादिक नमेला छे, एवं आ प्रगट अनुभवातुं साधुपणुंज श्रेयाकारी छे माटे तेमां विशेष आदर करवो.
- ९ विषय रसनो त्याग कर. जाणे केवळ नर्कनुंज स्थान न होय! एवी असार निंदनीय, अशुचि अने दुर्गंधी एवी स्त्रीनी योनिमां कामांन्ध माणस कीडानी पेरे क्रीडा करे छे. भवभीर विवेकात्मा तो स्वममां पण तेनो संग इच्छतो नथी. ____ चामडाथी वीटेला हाडपिंजरवाळा अने दुर्गंधी एवा श्लेष्मादिकथी भरेला कामिनीना मुखने कामान्ध माणस श्वाननी पेरे चाटे छे ___ मांसना लोचा जेवा स्त्रीनां स्तनो अने विष्टादिथी भरेला कृमाकुळ स्त्रीना उदरमा कामांन्ध माणस कागडानी जेग क्रीडा करे छे.
'गोरी चामडीथी वीटेखें अने वस्त्राभरणी भूषित करेलं स्त्रीनुं रुप जोइने हे ! भद्र ! तुं विवेकथी विचारकर. पण तेमां पतंगनी पेरे तुं एकाएक इंपलाइ पडीश नहि. नहितो छेवट पश्चाताप करीश. स्वभाविक रीतेज आधिक अशुचिथी भरेला अने अनेक द्वारथी अशु
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. सापणी स्पर्श करीने करडे छे अने नारी तो दूरथीज डंस मारे छे. तेथी एम समजाय छे के दृष्टि विष सर्पनी जेम तेनी दृष्टिमांज झेर रहेलं छे. एवी स्त्रीनुं नाम सांभळतांज स्थानान्तर चाल्या जवू जोइए. .
सर्व रीते संयम प्राणने हरनारी होवाथी नारीने शास्त्रकारे प्रत्यक्ष राक्षसी कहीने बोलावी छे. छतां तेनो विश्वास करनार साधुना चरित्र विष वधारे शुं कहेवू ? स्त्रीसंगी साधु जरुर संयमथी भ्रष्ट थइ जाय छे.
सारांश ए छे के भवभोरु होवाथी जेओ भगवंतनी आज्ञा मुजव स्वीना अंगोपांगने पण दृष्टि दइने नीरखता नथी, विकार बुदिथी (पशु वृत्तिथी) तेनी साथे वात पण करता नथी, अने मनथी विषय सुखनी भावना करता नथी, एम सर्व रीते सावधान थइने ब्रह्मचर्य, पालन करे छे तेज महात्माओ आ दुस्तर भवोदधिने सहजमां तरीने अक्षय सुखना अधिकारी थाय छे. एवा महाशयो नांज शुद्ध चरित्र अनुकरण करवा योग्य छे. वळी कह्यु छ केनचराजभयं न च चोरभयं, इहलोक सुखं परलोक हितं ॥ वर कीर्तिकरं नरदेवनत, श्रमणत्व मिदं रमणीयतरं॥१॥
जेने नथी तो राज भय अने नथी तो चोरभय, आ लोकमां
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. २५ पण सुखकर अने परलोकमां पण हितकर, श्रेष्ट एवी कीर्ति-कौमुदीने विस्तारनार अने जेने नर देवादिक नमेला छे, एवं आ प्रगट अनुभवातुं साधुपगुंज श्रेयाकारी छे माटे तेमां विशेष आदर करवो.
९ विषय रसनो त्याग कर. जाणे केवळ नर्कनुंज स्थान न होय ! एवी असार निंदनीय, अशुचि अने दुर्गंधी एवी स्त्रीनी योनिमां कामांन्ध माणस कीडानी पेरे क्रीडा करे छे. भवभीरु विवेकात्मा तो स्वममां पण तेनो संग इच्छतो नथी.
चामडाथी वीटेला हाडपिंजरवाळा अने दुर्गंधी एवा श्लेष्मादिकथी भरेला कामिनीना मुखने कामान्ध माणस श्वाननी पेरे चाटे छे
मांसना लोचा जेवा स्त्रीनां स्तनो अने विष्टादिथी भरेला कुमाकुळ स्त्रीना उदरमांकामांन्ध माणस कागडानी जेम क्रीडा करे छे. ___गोरी चामडीथी वीटेखें अने वस्त्राभरणथी भूषित करेलुं स्त्रीतुं रुप जोइने हे ! भद्र ! तुं विवेकथी विचारकर. पण तेमां पतंगनी पेरे तुं एकाएक इंपलाइ पडीश नहि. नहितो छेवट पश्चाताप करीश. खभाविक रीतेज अधिक अशुचिथी भरेला अने अनेक द्वारथी अशु
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२.६
श्री जैनहितोपदेश भाग २- जो.
चिने वहन करतां छतां चामडाथी मढेला स्त्रीना देहनुं अंतर स्वरुप विचारीने तुं विवेकथी तेनो परिहार कर.
"I
कामान्ध माणस काभराग़ने वश थयो थको दोषाकुळ खीमां गुनोज आरोप कर्या करे छे, अने विषयरसना त्यागी एवा विवेकी हंसनी पण हांसी करी स्वउत्कर्ष बताववा मागे छे. पण अंते तो काच ते काच अने मणि ते मणिज छे.
घुघूड दिवसे देखतुं नथी अने कागडो रात्रे देखतो नथी पण कामांन्ध तो रात्रे के दिवसे कंइपण देखी शकतो नथी. मोह महा मदिराना जोरथी तेनी शुद्धबुद्ध खोवाइ जवाथी ते मूच्छितप्रायः थइ जाय छे.
कामान्ध माणस जिह्वा अने कामने वश पडयो जे जे पापकर्म करे छे तेनां अगण्य फळ ते नरकादिक गतिमां जइने भोगवे छे.
कामान्ध माणस सुख, दुःख, हिताहित, पुण्य, पाप तेमज समीपस्थ वध, बंध अने मरणने पण जाणी शकतो नथी, तेने दुर्गतिनो डर होतो नथी, तेथी ते निःशंकपणे पशुक्रीडा (मैथुन - पशुक्रिया ) करवामांज मशगूल रहे छे. अने सांढनी जेम स्वच्छंदपणे म्हालवामांज सार समजे छे:
तिल मात्र सुखने माटे कामान्ध माणस. सारां व्रतने तजीदे. छे..
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
२७
अने आ लोक अने परलोकमां मेरु जेवडां मोटां दुःख माथे
व्होरी ले छे,
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विषम एवा काम-वाणथी पीडित थइ जे धर्मरूप चिंतामणिने तजी देछे, ते हतभाग्य अनेक जन्ममरण संबंधी दुःखने साधी दुर्गतिमां जाय छे.
१० श्री वीतराग देवनी भक्ति कर.
जे सुबुद्धि पुरुष एकाग्रचित्ते सदा वीतराग प्रभुनी सेवा करे छे ते स्वर्ग अने राज्यादि संबंधी सर्व सुखने भोगवीने अंते अक्षय पदने पामे छे.
वीतराग प्रभुने तजीने जे राग द्वेष युक्त देवने भजे छे ते दुर्मति चिंतामणि रत्नने त्यजीने धूळनुं ढेकुं हाथमां लेवा जेवुं करे छे.
जिनेश्वर देवनुं स्मरण मात्र करवायी रोग शोक भय क्लेश ग्रह साकिणि अने दारिद्रादिक सर्व दुःख दूर थइ जाय छे.
जे मुग्ध अनेक देव अने अनेक गुरुने सेवे छे ते कार्याकार्य संबंधी विचार शून्य उन्मत्त जेवो छे, एम जाणवुं.
भव्य कमळोने प्रबोध करनार, सर्व दुःखने दूर करनार, त्रिभु
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२८ . श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. वनपतिने सेववा योग्य, धर्म रत्नना सागर, स्वपरने अत्यंत हितकारी स्वर्ग अने मोक्षसुखना मुख्य साधनभूत अने सकळ गुणनानिधान एवा तीर्थनाथ श्री वीतरागप्रभुनी हे भव्यो ! तमे भावथी भक्ति करो जेथी अनुक्रमे सम्यग् दर्शन, ज्ञान अने चारित्ररुप रत्नत्रयीने पामी नेनुं सम्यग् आराधन करीने तमे अक्षय-अविनाशी सुखना संपूर्ण अधिकारी थाओ?
. ११ सद्गुरुर्नु सेवन कर, जे गुरु ज्ञान अने चारित्रथी युक्त छतां धर्मोपदेशक, निर्लोभी अने भव्य जीवोनो निस्तार करनार छे, तेज आत्महितैषीए सेवन करवू युक्त छे.
जे सद्गुरु स्वयं भवसमुद्र तरी शके छे तेज अन्य जीवोने 'पण तारी शके छे. जे पोतेज भवसागरमां डूबे छे ते परने शी रीते तारी शकशे ? एम विचारीने सदोष-सारंभी गुरुनो त्याग करवो.
. सद्गुरु सेवक सुबुद्धि पुरुष स्वर्ग अने मोक्ष संबंधी सुखने पामे छे. पण कुगुरुकामी दुर्बुद्धि तो नरक अने तिर्यच गतिनेज प्राप्त थाय छे.
जे निग्रंथ गुरुने तजीने कुगुरुनी सेवा करेछे ते घरना आंगणे “उगेला कल्पवृक्षने छेदीने धंतूराने वाववा जेवूज करे छे.
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. २९ __ मातापिता अने सर्व कुटुंबादिक; दुर्गतिमां पडता जीवनो उद्धार करवा असमर्थ छे. पण एक संद्गुरु, पवित्र धर्मनी सहायथी. अनेक भव्य जीवोने आ भवसायरथी तारवाने समर्थ थइ शके छे.
जेने स्वपर संबंधी सम्यग् विचार वर्ते छे, जे संसारना पारने. पामेला छे. वळी निरुपम गुणे करीने युक्त, ज्ञान विज्ञानमा दक्ष, जीतेन्द्रिय, भव्य जीवोने तारवा पोत समान, अने सकळ दोषरहित एवा सद्गुरुनी हे भव्यो! तमे भावथी भक्ति करो.
__ १२ तप करवामां यथाशक्ति प्रयत्न कर.
जे सुबुद्धि तपर्नु स्वरुप समजीने केवळ आत्मकल्याण माटे तेर्नु सेवन करे छे तेने अनुक्रमे सर्व कर्मनो अंत थतां मुक्तिकमळा पण, वरे छे तो पछी स्वर्ग संबंधी सुख अने राज्यंना सुखनुं तो कहेधुंज शृं? तेवा मुख तो प्रासंगिक होचाथी सहजे संपजे छे. ____ अनशन, ऊनोदरी वृत्ति संक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश अने संलीनतारुप वाहतप तथा प्रायश्चित, विनय, वैयावच्च, स्वाध्याय, ध्यान अने.काउस्सग्ग (समाधि.) रुप अभ्यंतर तपने.जे विवेकथी सेवे छे ते महाशयनी सकळ मनोरथमाळा फळीभूत थाय छे.. . . .
बाह्यतपथी जेम अभ्यंतरतपनी पुष्टि थाय तेम लक्ष राखवानी खास जरुर छे. वळी जेम धर्मसाधनमां वधारे सावधानपणुं रहे.
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२८ . श्री जैनहितोपदेश भाग २. जो.
वनपतिने सेववा योग्य, धर्म रत्नना सागर, स्वपरने अत्यंत हितकारी ___ स्वर्ग अने मोक्षसुखना मुख्य साधनभूत अने सकळ गुणनानिधान
एवा तीर्थनाथ श्री वीतरागप्रभुनी हे भव्यो ! तमे भावथी भक्ति करो जेथी अनुक्रमे सम्यग् दर्शन, ज्ञान अने चारित्ररुप रत्नत्रयीने पामी बेनुं सम्यग् आराधन करीने तमे अक्षय-अविनाशी मुखना संपूर्ण अधिकारी थाओ?
. ११ सद्गुरुर्नु सेवन कर, जे गुरु ज्ञान अने चारित्रथी युक्त छतां धर्मोपदेशक, निर्लोभी अने भव्य जीवोनो निस्तार करनार छे, तेनुंज आत्महितैषीए सेवन करवु युक्त छे.
जे सद्गुरु स्वयं भवसमुद्र तरी शके छे तेज अन्य जीवोने 'पण तारी शके छे. जे पोतेज भवसागरमां डूबे छे ते परने शीरीते तारी शकशे ? एम विचारीने सदोष-सारंभी गुरुनो त्याग करवो.
. सद्गुरु सेवक सुबुद्धि पुरुष स्वर्ग अने मोक्ष संबंधी सुखने पामे छे. पण कुगुरुकामी दुर्बुद्धि तो नरक अने तियेच गतिनेज प्राप्त थाय छे.
जे निग्रंथ गुरुने तजीने कुगुरुनी सेवा करेछे ते घरना आंगणे ___“उगेला कल्पवृक्षने छेदीने धंतूराने वाववा जेवूज करे छे.
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. - कर्मरुप पर्वतनुं भेदन करवा वजू समान, स्वर्ग अने मोक्ष सुख साधवाने मंत्र समान अने विषय विकारने हठाववाने श्रेष्ठ उपाय रुप एवा समाधिकारक तपनुं हे भव्यो ! तमे भावथी सेवन करो.
जे समतापूर्वक शुद्ध तपनुं सेवन करे छे ते चिलाति पुत्रनी पेरे स्वर्ग संबंधी मुखने पामी अंते दृढ प्रहारीनी जेम अविचळ मुखने पामे छे. अथवा नागकेतुनी पेरे कल्याण परंपराने सुखे साधी शके छे.
१३ जीहाने वश कर. रसनेंद्रियमां लंपट छतो जे मूढ भक्ष्याभक्ष्यनो ख्याल राखतो नथी ते कुबुद्धि अभक्ष्य भक्षणथी अधोगतिनेज पामे छे. .
आदु, मूळा, गाजर, पिंड, पिंडाल, सूरण, गरमर, नीलीगळो, वटाटा, सक्करकंद वगेरे सर्व भूमिकंद, कोमळ पत्र-फूल के फळं, विष, हिम, करा, अजाण्यां फळ, काचं मीठं, तिल, खसखस रात्रिभोजन, रिंगण, विंगण, बहुवीज 'फळ, तुच्छ फळ, वडवीज प्रमुख वे रात्री उपरांतर्नु दहि, त्रण रात्रि उपरांतनी छाश, कठोळ -साथे काचो गोरस (दूध, दहिं के छाश) मध, माखंण, वासी अन्न, घोल अथाणु अने संडी गयेली वस्तु विगैरे अभक्ष्यादिकंन
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. कषायनी मंदता थाय अने परिणामनी शुद्धि थाय तेम लक्ष राखीने तप करवो. समतापूर्वक तप करवाथी निकाचित कर्मना पण बंध तूटी जाय छे. विवेकयुक्त तप संयमथी गमे तेवां अघोर पापनो पण क्षय थाय छे. ___ जे करतां दुर्ध्यान थाय अथवा आगळ उपर धर्मसाधन अटकी पडे एवां अज्ञान तप घणा करवा करतां विवेकयुक्त स्वल्प तपथी विशेष हित थइ शके छे. जे स्वाधीनपणे तप संयमथी देहनु दमन करे छे तेने कदापि परतंत्रता संबंधी दुःख सहन करवू पडतुं नथी. पण शरीर-ममताथी जे कंइपण तप जप संयम सेवता नथी तेमने पराधीनपणे बहुज शोचवू पडे छे. अंते पण तप जप संयम विना सकळ दुःखनो अंत नथी तो पछी शा माटे प्राप्त थयेली शुभ सामग्रीनो लाभ लेवा चूक जोइये? पुण्य सामग्रीने पामीने तेनो सदुपयोग नहि करनारने तेवी सामग्री पुनः प्राप्त थवीज मुश्केल छे. माटे जेम वने तेम तेनो सदुपयोग करवोज युक्त छे.. .: च्यार ज्ञाने करी युक्त अने सुर-सेवित एवा तीर्थनाथ पण ज्यारे कर्म क्षयं माटे तप करे छे तो पछी सामान्य जनोएं ते शो माटे करवो न जोइये ? आत्म उन्नति माटे ते करंचानी खास आवश्यकता . . .. ... . . . . . . . . . .
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. ___ कर्मरुप पर्वतनुं भेदन करवा वजू समान, स्वर्ग अने मोक्ष मुख साधवाने मंत्र समान अने विषय विकारने हठाववाने श्रेष्ठ उपाय रुप एवा समाधिकारक तपनुं हे भव्यो ! तमे भावथी सेवन करो.
जे समतापूर्वक शुद्ध तपर्नु सेवन करे छे ते चिलाति पुत्रनी पेरे वर्ग संबंधी मुखने पामी अंते दृढ प्रहारीनी जेम अविचळ मुखने पामे छे. अथवा नागकेतुनी पेरे कल्याण परंपराने सुखे साधी शके छे.
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१३ जीहाने वश कर. रसनेंद्रियमां लंपट छतो जे मूढ भक्ष्याभक्ष्यनो ख्याल राखतो नथी ते कुबुद्धि अभक्ष्य भक्षणथी अधोगतिनेज पामे छे.
आदु, मूळा, गाजर, पिंड, पिंडाल, सूरण, गरमर, नीलीगळो, बटाटा, सक्करकंद वगेरे सर्व भूमिकंद, कोमळ पत्र-फूल के फळं, 'विष, हिम, करा, अजाण्यां फळ, काचुं मीठं, तिल, खसखस
रात्रिभोजन, रिंगण, विंगण, वहुवीज 'फळ, तुच्छ फळ, वडवीज प्रमुख वे रात्री उपरांतनुं दहि, त्रण रात्रि उपरांतनी छाश, कठोळ साथ काचो गोरस (दूध, दहिं के छाश) मध, माखंण, वासी अन्न, वोळ अथाणु अने संडी गयेली वस्तु विगैरे अभक्ष्यादिकंन
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
कषायनी मंदता थाय अने परिणामनी शुद्धि थाय तेम लक्ष राखीने तप करवो. समतापूर्वक तप करवाथी निकाचित कर्मना पण बंध तूटी जाय छे. विवेकयुक्त तप संयमथी गमे तेवां अघोर पापनो पण क्षय थाय छे. __जे करतां दुर्ध्यान थाय अथवा आगळ उपर धर्मसाधन अटकी पडे एवां अज्ञान तप घणा करवा करतां विवेकयुक्त स्वल्प तपथी विशेष हित थइ शके छे. जे स्वाधीनपणे तप संयमथी देहनु दमन करे छे तेने कदापि परतंत्रता संबंधी दुःख सहन करवू पडतुं नथी. पण शरीर-ममताथी जे कंइपण तप जप संयम सेवता नथी तेमने पराधीनपणे बहुज शोचवू पडे छे. अंते पण तप जप संयम विना सकळ दुःखनो अंत नथी तो पछी शा माटे प्राप्त थयेली शुभ सामग्रीनो लाभ लेवा चूक जोइये ? पुण्य सामग्रीने पामीने तेनो सदुपयोग नहि करनारने तेवी सामग्री पुनः प्राप्त थवीज मुश्केल छे. माटे जेम वने तेम तेनो सदुपयोग करवोज युक्त छे. .. " च्यार ज्ञाने करी युक्त अने सुर-सेवित एवा तीर्थनाथ पण ज्यारे कर्म क्षय माटें तप करे छे तो पछी सामान्य जनोएं ते शो माटे करवो न जोइये? आत्म उन्नति माटे ते करंचानी..खास आवश्यकता छ।। ... ... ... .. . . . . . . . .
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. कर्मरुप पर्वततुं भेदन करवा वजू समान, स्वर्ग अने मोक्ष मुख साधवाने मंत्र समान अने विषय विकारने हठाववाने श्रेष्ठ उपाय रूप एवा समाधिकारक तपनुं हे भव्यो ! तमे भावथी सेवन करो.
जे समतापूर्वक शुद्ध तप, सेवन करे छे ते चिलाति पुत्रनी पेरे स्वर्ग संबंधी मुखने पामी अंते दृढ प्रहारीनी जेम अविचळ मुखने पामे छे. अथवा नागकेतुनी पेरे कल्याण परंपराने मुखे साधी शके छे.
१३ जीहाने वश कर. रसनेंद्रियमा लंपट छतो जे मूढ भक्ष्याभक्ष्यनो ख्याल राखतो नथी ते कुबुद्धि अभक्ष्य भक्षणथी अधोगतिनेज पामे छे. __ आदु, मूळा, गाजर, पिंड, पिंडालु, सूरण, गरमर, नीलीगळो, बटाटा, सकरकंद वगेरे सर्व भूमिकंद, कोमळ पत्र-फूल के फळं, विष, हिम, करा, अजाण्यां फळ, काचुं मीठं, तिल, खसखस रात्रिभोजन, रिंगण, विंगण, बहुवीन 'फळ, तुच्छ फळ, वडवीज प्रमुख वे रात्री उपरांतनुं दहि, त्रण रात्रि उपरांतनी छाश, कठोळ साथे काचो गोरस (दूध, दहिं के छाश) मध, माखणं, वासी अन्न, घोळ अथाणुं अने संडी गयेली वस्तु विगेरे अभक्ष्यादिकन
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. खरुप समजीने सुवुद्धिजनोए तेनो त्याग करवो योग्य छे. केमके क्षणिक विषय मुखनी खातर तेथी असंख्य के अनंत जीवोनो विध्वंस थाय छे.
एक तलमात्र भूमिकंदमां पण अनंत जीवो रहेला छे. तेथी पशुनी पेरे विवेक रहित तेवी अभक्ष्य, अनंतकाय वस्तुओने प्रमाण रहित खानार माणसो अनंत जीवोनो संहार करी क्षणिक तृप्ति मेंळवी अधोगतिने पामी अनंत जन्म मरण संबंधी दुःखने प्राप्त थाय छे,
तिलमात्र मुखने माटे मेरुथी पण मोटुं दुःख मूर्ख लोको अज्ञानताथी मागी लेछे जिह्वेद्रियने वश करी अभक्ष्य मात्रनो त्याग करनार मुबुद्धिजनो सर्वत्र सुखी थाय छे. .
रस लंपट जीवो अनेक व्याधिओने भोग थइ पडे छे तेम जीतेंद्रिय कदापि थइ पडतो नथी. एम समजीने पण अभक्ष्य भक्षगथी सदंतर दूरज रहेवा प्रयत्न करवो.
औषध उपचारनी खातर मध, माखण विगेरे अभक्ष्य वस्तु वापरी खानारने पण परिणामे अहितज कहेलुं छे. तेथी तेवा विषम संयोगोमां विवेकी माणसोए विशेष सावचेत रहेवू योग्य छे. (युक्तछे.)
- पवित्र दीक्षा ग्रहण कर्या छतां रसनेंद्रियने वश थइ यथेच्छित. भोजन करनार भिक्षु मंगू आचार्यनी पेरे विडंबनापात्र थाय छे..
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
तेथी उभय लोकनां सुखने इच्छता आत्मार्थी जीवोए जीहाने जेम वने तेम विवेकथी वश करवा सतत प्रयत्न करवो युक्तज छ.
जेम कुपथ्य भोजनथी माठां परिणाम आवे छे तेम तेवां विवेक विनानां रागद्वेष युक्त स्वार्थी वचनोथी पण विपरीतज परिणाम आवे छे एम समजीने स्वपरने हितकारी सत्य अने प्रिय वचनज प्रसंगोपात बोलवानी टेव पाडवी. जरूर विनानु, नगर विचार्य, स्व.
छंदपणे बहु वोलवानी (टेवथी जीव घीवार जीवना पण जोखममां आवी पडे छे एम विचारीने शाणा माणसोए हित, मित, प्रिय, एबुं सत्य पण प्रसंगोपात जरूर जेटलुज नम्रपणे बोलवानी टेव राखवी. आथी सर्व कोइने संतोष मळ्वानो सारो संभव रहे छे. रांगद्वेष रहित मध्यस्थपणे विचारीनेज प्रसंगोपात प्रिय अन्ने सत्य वचन वदवाथी ते परने पण प्रायः हितकारजि थाय छे.
१४ राग द्वेषनो त्याग कर.... .. अनादि कुकर्मना योगथी जीवने रागद्वेषरुप भारे दुस्तर विकार थया छे, जेथी जीव एकने देखी राजी थाय छे अने वीजाने देखी कराजी थाय छे, तेमज ते चेपी रोग अनेक भव संतति सुधी चाल्या करे छे. . २ ., , ",
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. उक्त महाविकारथी जीवने स्वपरनुं यथार्थ भान थई शकतुं नथी. तेथी तेने गुणदोष संबंधी उलटुं अवलुज भान थाय छे. रागी दोषं न पश्यति-विषय मुखमां मग्न थयेलो जीव स्त्री आदिक पदार्थोमा रहेला दोषोने तेमज तेमना संग-परिचयथी भावी दोषोने नहि समजंतां उलटा तेमां गुणनोज आरोप करीने अंध प्रवृत्ति कर्या करे छे. एवीज रीते इर्ष्या-द्वेषथी जेनुं अंतःकरण कलुषित थई गयुं छे तेनी मति पण विपरीतज दौरावाथी सामामां गमे तेवा सद्गुणों छतां अने तेवा सद्गुणी-समर्थनी साथे द्वेषबुद्धि राखवाथी भाची अनर्थने ते मूढात्मा समजी शकतो नथी, एटलंज नहि पण सामानामा रहेला सद्गुणोने ते जडमति केवळ दोषरुपेज लेखे छे अने तेने तृणनी जेम गणी मिथ्याभिमानी तेनी साथे वर बांधीने उलटो अनर्थज पेदा करे छे. वडना बीजनी पेरे आगळ जता तेनी परंपरा वधतीज जाय छे. एम समजीने शाणा माणसोए जेम बने तेम शीघ्र उक्त महा विकारोने उपशमाववा अवश्य उद्यम करवो घटे छः
रोग अने द्वेष हलहिलं झेर करतां पण अधिक दुःखदायी नींव छै. ___जो समतां भावित सत् पुरुषोनी सोवत करीने तेमनी हित शीलामणयी पोतानी अनादिनी भूल समजवामां आवे अने तेथी
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
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पोताना विकाराने वारवाने जोइतो प्रयत्न करवामां आवे तो अनुक्रमे सतत शुभ अभ्यासना वळथी आपणामां जड घालीवेसेला राग द्वेषादि विकारोनो समूळगो अंत आवी शके. पण ज्यां सुधी उक्त महा विकारोनो अंत न आवे त्यां सुधी तेमनुं उन्मलन करवा अडरा प्रयत्न कर्याज करवो जोइए.
राग अने द्वेषथी अंघ थयेला प्राणीयोनी प्रायः अधोगतिज थाय छे. एवा अंध जीवोने खरी आंख आपनारा अलौकिक शस्त्र वैद्य समान कोइक सत् पुरुषनो समागम भाग्योदये थइ आवे अने जो तेमनी सम्यग् उपासना करवामां आवे तो सदुद्यमना स्वादिष्ट फळ रुपे आपणा अनादिना महा विकारो नष्ट थर आपणने समता रुपी दिव्य चक्षुनी स्वतंत्र प्राप्ति थइ शके.
१५ क्रोधादि कषायने दूर कर.
क्रोध, मान, मायां, अने लोभ ए च्यार कषाय छे. अमीति लक्षण क्रोध, अहंभाव लक्षण मान, दंभ लक्षण माया, अने असंतोष लक्षण लोभी अनुक्रमे मीति, विनय, मित्राइ, अने सुख शान्तिनो नाश याय छे. माटे समजु माणसने ते अवश्य परिहरवा योग्यज छे,
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
द्वेष या इर्ष्या थकी क्रोध अने मान पेदा थाय छे तेमज काम या रागान्धताथी माया अने लोभ पेदा थाय छे अने जेम जेम तेमने तेथी पोषण मळतुं जाय छे तेम तेम तेओ वृद्धि पामता जाय छे.
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बाह्य अने अंतर वे प्रकारना शत्रुओमां अज्ञानी लोको जेना प्रति बैरभाव राखे छे ते बाह्यशत्रु छे, अने ज्ञानी पुरुषो जेमनो क्षय करवा अहोनिश यत्न कर्या करे छे ते अंतरंग शत्रुओ - काम, क्रोधादिक छे. बाह्यशत्रु उपर कषाय करवो ते अप्रशस्त छे. अने अंतरंग शत्रुओ उपर कषाय करवो ते प्रशरत कषाय कहेबाय छे, प्रशस्त कषायना योगे अप्रशस्त कषायनो अनुक्रमे अभाव थाय छे, तेथी प्रशस्त कषाय अप्रशस्त रागादिने दूर करवा अमोघ उपाय तुल्य छे.
अंते तो सर्व प्रकारना कपाय सर्वथा परिहरवाथीज परमपद प्राप्त थाय छे, ज्यां सुधी लेश मात्र राग, द्वेषादिक विकार होय त्यां सुधी वीतरागता होइ शके नहि अने ते विना अक्षयपदना अधिकारी थइ शकायज नहि. माटे वीतराग दशाने प्रगट करवा रागद्वेष अने कषाय मात्रनो क्षय करवाने सतत प्रयत्न करवो जोइये,
क्षमा गुणवडे क्रोधनो, विनय-नम्रता गुणथी माननो, सरलता - गुणथी- माया- कपटनो, अने संतोष गुणथी लोभनो पराजय करवो. कर्तुं छेके --
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. क्षमा सार चंदनरसें, सिंचो चित्त पवित्र दया वेल मंडप तळे, रहो लहो मुख मित्र. देत खेद वर्जित क्षमा, खेद रहित सुखरांज; तामे नहि अचरिज कछु, कारण सरिखो काज.
क्षमा खड्गः करे यस्य, दुर्जनः किं करिष्यति।। अतृणे पतितो वह्निः स्वयमेवो पशाम्यति.
मृदुता कोमळ कमलथे, वज्रसार अहंकार; छेदतहे एक पलकमे, अचरिज एह अपार.
माया सापणी जगडसे, ग्रसै सकळ गुणसार; समरो रुजुता जांगुली, पाठ सिद्ध निरधार.
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कोउ सयंभू रमणको, जो नर पावै पार; सोभी लोभ समुद्रको, लहै न मध्य प्रचार. मन संतोष अगस्तिकुं, ताके शोष निमित्त नितु सेवो जिनि सो कियो, निजवल अंजलि मित्त.
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
पूर्वोक्त वे प्रकारना कषाय समजवानु फळ ए छे के जेनाथी भव संतति वधे एवा"अप्रशस्त कषायथी दूर रहेवा माटे प्रथम तो प्रशस्त रागादिक सेवां. एटले के शुद्ध देव, गुरु अने धर्म प्रति प्रेमभाव धारण करवो ने वधारवो. ते एटले सुधी के संसार संबंधी खोटो राग समूळगो नष्ट थइ जाय. अने आत्म-गुणगें आपपने सहज भान थाय अने छेवटे वीतरागदशा, प्रगट करवाने सर्व प्रमाद दोपनो परिहार करीने सम्यग् ज्ञान, दर्शन अने चारित्रना दृढ अभ्यासथी आपणे सर्वथा निष्कषायपणुं पामीये. ___ जेओ शुद्ध देव गुरु धर्म उपर निर्मळ राग करवाने वदले उलटो कराग-द्वेष पेदा करे छे ते हतभाग्योने भविष्यमां अनंत भव भ्रमण करवू पडशे. अने तेमने प्राप्त सामग्री पुनः पामवी दुर्लभ थइ पडशे.
जेओ पाते गुणी छतां गुणवंत उपर राग धरशे तेओ अवश्य उभय लोकमां मुख अने यशना भागी थइ अंते अक्षय पदने पामशे.
दीक्षा ग्रहण करीने जे क्रोधादि कषायने सेवशे-हितकारी वचन कहेनारनी उपर कोपशे, तपश्रुतनो गर्व करशे अथवा पूजा प्रतिष्ठादिकथी मनमां अभिमान धरशे, खरा गुण विना खोटो आडंवर रची दंभवृत्ति चलावशे अने वस्त्र पात्र पुस्तक या शिष्य शिष्याओनो खोटो लोभ राखशे. तेमनी उपर ममता धारण करशे तो
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श्री जैनहितोपदेश
। २ जो..
ते स्वचारित्रने निष्फळ करीने अंते अधोगतिने पामशे. सहज सुखदायी चारित्रने धारीने जे भवभीरु साधुओ राग द्वेषादिक दुष्ट विकारना उत्पादक अनुकूळ या प्रतिकूळ कारणो मळतां छतां निरतिचारपणे स्वसंयमने पाळे छे तेज खरा धीर वीर साधुओ छे एमः निश्च जाणवू. कर्जा पण छे के:-विकारहेतौसतिविक्रियते, येषां न चेतांसि त एव धीरा:-राग द्वेष या कामक्रोधादि विकार ऊपजे, एवा कारण विद्यमान छतां जेमनां चित्त जराए क्षोभ पामवां नथी तेज धीर-चीर पुरुषो छे.
१६ अहिंसा व्रतनो आदर कर. प्रमाद युक्त आचरणथी स्वपर प्राणनो नाश करवो तेनुं नाम हिंसा छे. मद्य, विषय, कषाय, निद्रा, अने विकथा ए पांच प्रमाद जीवोने दुर्गतिमा पाडनार छे तेथी ते अवश्य वयं छे. सर्व प्रमाद रहित थइने "आत्मवत् सर्व भूतेषु" सर्व प्राणीने स्वसमान लेखनार महाशय अहिंसा व्रतने यथार्थ पाळी शके छे. ____ सर्व जीवने अभय दान देनार जेवो कोइ उत्कृष्ट पुण्यवान् नथी. केमके सर्व दान करता अभय दान चहीयातुं छे.
दुनियामां वहालामा व्हाली चीज पोताना प्राणज. गणाय छे. तेथी कोइ क्षुद्र जीवना पण पिय प्राण अपहरवा यन्न करचो नहि.
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. सर्वे जीवितज इच्छेछे, कोइपण मरणने इच्छतुज नथी. एम समजी निग्रंथ पुरुषो अहिंसाव्रतनो अत्यंत आदर करे छे. ___ मनथी, वचनथी, के कायथी हिंसा करवा कराववा के अनुमोदवानो सावधानपणे त्याग करवाथीज अहिंसावतर्नु पूर्ण रीते पालन थाय छे.
जे जेवा मंद के उत्कृष्ट परिणामथी परने परिताप करे छ ते तेनो तेवोज अल्प के अधिक विपाक भोगवे छे. तथा कोइ रीते कोइने पण पीडा ऊपजे एबुं मनथी, वचनथी.के कायाथी, करवू, करावq के अनुमोदयूँ नहि. केमके जेई वीज वावीये तेज फळ पाभीये. कळी आपणने दुःखमान अनिष्ट छतां जो आपणे अन्यने आपणा तुच्छ स्वार्थनी खावर जाणी जोइने असमाधि उपजाविये तो पछी तेना बदला तरीके आपणने पण असमाधिज पेदा थाय तेमां आर्थर्य शुं ? तथा उत्तम रस्तो एज छे के सारा के नरसा अजुकूळ के प्रतिकूळ संजोगोमां सहनशीळपणुं धारण करीने कोई जीवने कंइपण असमाधि नहि करतां बनी शके तेटली समाधि करवा प्रयत्नशील था. आवा कठीण पण सीधे रस्ते चालनार सत्पुरुषने कदापि कंइपण कष्ट प्राप्त थवानु नथी, एटलुंज नहि पण ते सत्पुरुष पोताना सदाचरणथी श्रेष्ठ सुखनोज अधिकारी थवानो.
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
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शरीर संबंधी अनेक प्रकारना व्याधि, निर्धनता, परतंत्रता, अनं चैर, विग्रह विगेरे सर्व हिंसानां फळ समजीने सुबुद्धिजनोए अहिंसानोज आदर करवो.
आरोग्य, सौभाग्य, स्वामित्व, अने समाधि प्रमुख अहिंसानां फळ समजीने शाणा माणसोए अहिंसाव्रतनोज अत्यंत आदर क वो युक्त छे.
१७ सत्य व्रतनुं पालन कर.
प्रिय अने हितकारी वचनने ज्ञानी पुरुषो सत्य कहे छे, अने सत्य छतां अप्रिय, कटुक अने अहितकारी वचन असत्यज कर्तुं छे. तथा वक्ताए वचन व्यवहारमां विशेषे विवेक राखवानी जरूर छे.
आंधळो, लुच्चो, लवाड, चोर, दुष्ट, धीठ विगेरे वचनो रागद्वेषादिक विकारथी उच्चरायेलां होवाथी ते प्रसंगे असत्य ठरे छे.
वैर, खेद, अविश्वासादि अनेक दोषो असत्य बोलवाथी उद्भवे छे. तेमज आलोकमां वमुराजानी पेरे अपवाद अने परलोकमा अनर्थ परंपराने पामे छे.
असत्य बोलनारने पोताना वचनपर प्रतीति बेसाडवा अनेक कुतर्को करवा पडे छे तेथी तेनु मन महा माठा ध्यानमांज मग्न रहेछे.
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४२ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जा.
सत्य बोलनारनुं मन निर्भय रहे छे, तेथी तेने खोटा संकल्प विकल्प करवा पडता नथी. सत्य वचनमा टेक राखनारने देवता पण सहाय करे छे.
सत्य वचन क्षीरसमुद्रना जळ जेवू मीटुं छे तेथी सत्यनुज पान करनारने खारा समुद्रनां जळ जेवां असत्य वचनथी कदापि संतोष वळतोज नथी.
असत्य भाषणथी भोळा लोकोने अवळे रस्ते दोरनार जेवो कोइपण विश्वासघाती-महापापी नथी. तेथी सभासमक्ष भाषण करनारे पोतानी जवाबदारी सारी रीते विचारी राखवानी जरुर छे. केमके तेना उपर लाखोगमे माणसोना भविष्यनो सवाल रहेलो छे. ___ सत्यना रागीए लक्षमा राखq जोइये के दुनियामां असत्य बोलवानां कारण मात्र क्रोध, मान, माया, लोभ, भय के हास्यज होय छे, अने जेम बने तेम काळजीथी तेवां कारणाने दूर करीने सत्यज वचन वदवू एवा सत्यवादीनो सुयश कालिकाचार्यनी पेरे चिर स्थायी रहे छे.
- सत्यनी खातर पोताना प्रिय प्राणने पण गणे नहि तेज सत्य धर्मनो अधिकारी छे. एम समजीनेज युधिष्ठिर प्रमुखे प्राणांत मुधी ते व्रतनुं पालन कर्यु छे.
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. जे माणस विवेकथी विचारीने प्रसंगोपात, हित, मित, भाषणधी सर्वने प्रिय लागे एवं सत्य वचन बोले छे, तेनुं वचन सर्व मान्य थवाथी अंते ते अभीप्सित कार्य मुखे साधी शके छे..
तोतडी जीभ, मूंगापणु, मुखपाकादि रोग, मूर्खता, दुःस्वर अने अनादेयवचनादिक सर्व असत्यनांज फळ समजीने तेनाथी मुबुद्धिजनोए दूर रहेg. तेमज बीजा पण योग्य जीवोने दूर रहेवा प्रेरणा करवी.
चोखी जीभ, सुस्पष्ट भाषित्व, निर्दोषता, पांडित्य, सुस्वर, अने आदेयवचनादिक सर्व सत्यनांज फळ समजीने शाणा माणसोए सदा सत्यनोज पक्ष करीने सत्यवतनुं पालन करवा उजमाळ रहे.
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१८ अदत्तनो त्याग कर, साक्षात् अन्यायथी दावपेच करीने पराइ वस्तु छीनवी लेवी, तेम करवा वीजाने उरकरणी करवी, तेने सहाय आर्पवी, जाणी जोइने चोराइ वस्तु लेवी, थापण ओळववी, अने विश्वासघात क-- रवो ए वधा चोरीना पेटामां आवी जाय छे. एम समजीने दक्ष. नीतिवंत अनें दयाल श्रावके तेनाथी बीलकुल दूरज रहे.
दस माण उपरांत पैसाने लोको अगीयारमो प्राण लेखे छे तो
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'४४ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. एवा प्राणप्रिय द्रव्यर्नु अपहरण करनार माणस पराया प्राणना हरण करनार करतां पण अधिक पातकी ठरे छे, अने तेथी ते आलोकमा प्रत्यक्ष वध बंधनादिक पामीने परभवमां नरकनो अधिकारी थायछे.
मुमुक्षु साधुने तो एथी पण अधिक बारीकीथी अदत्तनो त्याग करवानो छे. तेने तो मनथी पण अदत्त लेवानो सख्त निषेध कहेलो छे.
स्वामी अदत्त, जीव अदत्त, तीर्थकर अदत्त, अने गुरु अदत्त एम च्यार प्रकारचें अदत्त सर्वथा तजी साधुने महानत पाळवानुं छे. तमा जेटलो जेटलो अनादर कराय छे तेटलं तेटलं महावत दूषित -थतुं जाय छे. तेथी तेनुं स्वरुप यथार्थ समजीने सुसाधु जनोए अदत्तथी सर्वथा दूर रहेवा यत्नवंत रहेवानी अवश्य जरुर छे.
आहार, पाणी, औषध, भेपन, वस्त्र, पात्र, अने रहेठाण विगेरे तेना धणीनी रजा शिवाय लइ वापरवाथी स्वामी अदत्त लागे छे.
घर धणीये आप्या छतां जो ते ते वस्तु सचेत (सजीव) अथवा अचेत (निर्जीव) नहि थयेली एवी मिश्र छती लइ वापरवामां आवे तोते लेनार अने वापरनार साधुने जीव अदत्त लागे छे.
द्रव्य, क्षेत्र, काळ, अने भावने प्रधान करीने प्रवर्तती एवी प्रभु आज्ञाने प्रमाण करवाने वदले स्वच्छंदपणे व्यवहार चलाववाथी
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
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आप खुद वर्तनथी तीर्थकर अदत्त लागे छे.
तेमज गीतार्थ गुरु महाराजनी तेवीज हितकारी आज्ञाने अवगणी आप मते चालनार साधुने गुरु अदत्त लागे छे.
अदत्तनुं स्वरुप सम्यग् विचारीने जे भवभीरु जनो तेनाथी अलगा रहेशे ते स्वर्गादिकनी संपदाने साक्षात् पामी अंते अविचळ - सुखना अधिकारी थाशे.
१९ ब्रह्मचर्यनुं सेवन कर.
देवता, मनुष्य अने तिर्यच संबंधी विषय भोगोथी विरमीने सहज संतोपधारी, धर्मध्यानमां निमग्न रहेतुं तेनुं नाम ब्रह्मचर्य छे.
मनथी पण उक्त विषयाने नहि इच्छवारुप महाव्रत मुमुक्षु पुरुषोने होय छे, अने यथासंभव सामान्यपणे तो ते व्रत गृहस्थ श्रावकोने पण होय छे, मुनियोमां स्थूलभद्रादिकनां अने गृहस्थोमां विजय शेठ अने विजया शेठाणी तथा सुदर्शन शेठ विगेरेनां तेमज अनेक सता अने सतीओनां दृष्टान्तो जग जाहेर छे,
अनादिनी विषय वासना भाग्ययोगे सर्वथा अथवा अंशर्थी उपशान्तं थये छते उक्त महात्रत सर्वथी के देशथी उदय आवे छे. उक्त महाव्रतना दृढ अभ्यास पूर्वक भावनाथी तेनी सिद्धि थतां ते
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
महाशयने सहज संतोष जन्य अनंत सुख व्यापी जाय छे अने एवा स्वाभाविक सुखमां निमग्न थयेला योगी पुरुषने कदाच अप्सरा चलायमान करवा यत्न करे तो ते तद्दन निष्फळ जाय छे. एवा स्वाभाविक आत्म सुखनीज कामनाथी जे महाशयो उक्त महाव्रतने सेवे छे ते सकळ सुरासुरने मान्य थइने अक्षयसुखना अधिकारी थाय छे.
उक्त महाव्रतनी रक्षा माटे प्रथम नव ब्रह्म-वाडो पाळवानी जरुर रहे छे. माटे ते वाडोनुं स्वरुप समजी दरेक मुमुक्षुए तेनो खप करवो युक्त छे. १ वसति-स्त्री, पशु, पंडक विगेरे रहे त्यां ब्रह्मचारीने रहेवू
कल्पे नहि. २ कथा-कामकथा करवी घटे नहि. ३ निषद्या-स्त्री विगेरेनुं आसन शयन विगेरे वापरतुं नहि. ४ इंद्रिय-स्त्री आदिकनां अंगोपांग रागवुद्धिथी नीरखवां नहि. ५ कुडयंतर-भीत अथवा पडदा पासे स्त्री आदिकनो वास
तनवो. . ६ पूर्वक्रीडा-पूर्व अवतीपणे करेली काम क्रीडा संभारवी नहि. - ७ 'प्रणीत भोजन-रसकसवाना घेवर प्रमुखनुं स्निग्ध भोजन
• करचुं नहि..
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
८ अतिमात्राहार - प्रमाणयी वधारे लखुं भोजन पण करवुं नहि. ९ विभूषा - स्नान, वस्त्रालंकारथी के तैलादिकना मर्दनथी ब्रह्म चारीने स्वशरीरनी शोभा करवी कराववी नहि.
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ए प्रमाणे अखंड ब्रह्मचर्यने पाळीने पुर्वे अनेक शुद्धाशयो जेम अक्षय सुखने पाम्या छे तेम वर्तमान अने अनागत काळमां पण पवित्र पुरुषार्थ फोरवनारा अनेक महाशयो ए निर्मळतने निरतिचारपणे पाळीने आत्मोन्नति करी अन्यने दृष्टांतरुप थइने अंते अक्षय संपदाने वरशे.
२० परिग्रह - मूर्च्छानो परिहार कर.
सचेत, अचेत, के मिश्र एवी अल्प मूल्य के बहु मूल्यवाळी वस्तु उपर मूर्च्छा थवी तेने ज्ञानी पुरुषो परिग्रह कहे छे. ते परिग्रह वे प्रकारनो छे.
धन, धान्य, रुपुं, सोनुं, द्विपद, चतुष्पद विगेरे वाह्य परिग्रह छे. तथा वेदोदय ३, हास्यादि ६, मिथ्यात्व अने कषाय ४ मळीने १४ प्रकारनो अभ्यंतर परिग्रह कह्यो छे.
ए बन्ने प्रकारनो परिग्रह सर्वथा परिहरे ते निर्गमुनि -- कहवाय छे.
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
अंतरनो परिग्रह तज्या विना बाह्य परिग्रहना त्याग मात्रथी कंइ कल्याण नथी. शुं कांचळी मात्र तजवाथी सर्प निर्विष्ट थइ शके छे ?
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बने प्रकारना परिग्रहने तृणवत् तजीने जे संसारथी न्यारा र हीने संयमने साधे छे तेनां चरणकमळने त्रणे जगत पूजे हे.
परिग्रह एक एवा प्रकारनो ग्रह छे के जेना योगे आखी जगत् पीडा पाये छे, परिग्रह ग्रहथी घेलो थयेलो साधु पण जेम आवे तेम लव्या करे छे,
जेम अत्यंत भारथी जाझ जळमां डूबी जाय छे तेम परिग्रह ग्रहथी ग्रस्त थयेलो जीव पण आ भयंकर भवसायरमां डूबे छे.
जेम जेम जीवने दैववशात् लाभ मळतो जाय छे तेम तेम तेनेो लोभ वथतो जाय छे, अने ते एटलो वधो के तेनी कंइपण हद रहेती नथी, जेथी ते अनेक प्रकारना पापारंभ करीने पण पैसा पैदा करवा प्रयत्न कर्या करे छे, तेथी जिन शासनानुयायी दरेक आत्मार्थी जीवने उचित छे के तेणे ' पाणी पहेलांज पाळ' नी पेरे प्रथमथीज परिग्रहनुं प्रमाण करीने रहेवुं. अने नियमित धनधान्य - नीतिथीज पैद्रा, करवा खास लक्ष राखनुं, भाग्यवशात् विशेष द्रव्यनी प्राप्ति थइ तो सद्गुरुनी सलाह मुजव पुण्यक्षेत्रमां तेनो विवेकथी व्यय करीने कृ
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. तार्थ था, ए प्रमाणे जे शुभाशय मूर्छाने मारे छे ते उभयलोकमां अवश्य सुखी थाय छे.
'इच्छा तो आकाशनी जेवी अनती छे एम निश्चयथी समजीने अनहद एवा लोभनो निग्रह करवा परिग्रहनुं प्रमाण तो अवश्य करवं. अन्यथा मम्मणशेठ विगैरेनी पेरे निर्मर्याद लोभतृष्णाथी-माठा हाल थशे.
परिग्रहलु प्रयाण करीने यथाप्राप्तमां संतोष वृत्ति धारवाथी उभय लोकमां केवु मुख मळे छे, तेने माटे आनंद कामदेवादिक अनेक श्रावकोनां अने पुणीया श्रावक विगैरेनां दृष्टान्त ज़ग प्रसिद्धछे.
धमनां साधनभूत वस्त्र, पात्र अने पुस्तकादिक उपगरणो, परिग्रहरुप नथी पण जो मूच्छों राखीने तेमनो सदुपयोग करवामां न आवे तो ते सर्व परिग्रहरूप थइ पडे छे. केमके मूर्छा एंज परिग्रह छ एम ज्ञातपुत्र श्री महावीर स्वामीए कहेलुं छे माटे मूळ तजीने जम तप जप संयमवडे देहने सार्थक करवामां आवे छे, तेम धर्मोपगरणने पण ते ते धर्म कार्यमां मूर्छा रहित उदार दीलथी उपयोग पूर्वक वापरी सार्थक करवा ए वीरपुत्रोनी फरज छे.
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५० श्री जैनहितोपदेश भाग २. जो.
__२१ वैराग्य भाव धारण कर. संपदोजल तरंग विलोला, यौवनं त्रिचतुराणि दिनानि। शारदाश्रमिव चंचल मायुः, किं धनैः कुरुत धर्ममनिन्द्या। ____ लक्ष्मी जळतरंगनी जेवी चपळ छे, यौवन अल्प स्थायी होवाथी अस्थिर छे, अने आयुष्य शरदनां वादळां जेवू चंचळ छे. माटे हे भव्यो ! तमे क्षणिक धननो लोभ तजीने सर्वोत्तम एवा वीतराग भापित धर्मज सेवन करो. ___ रागीना उपर रहेनारी या स्वार्थ पूरता कृत्रिम रागने धरनारी एवी नारीने कोण सहृदय पुरुष वांछे ? तेतो विरागी उपर पूर्ण प्रेमने धरनारी एवी मुक्तिकन्यानेज वांछे छे. ___ दुनियामां सर्व कोइ स्वजनवर्गादिक स्वार्थनिष्ठज छे. एम मुस्पष्ट समज्या छतां कोण सहृदय पुरुप तेमां निष्कारण मग्न थइ रहे ? ज्यारे मोह मायानो पडदो दूर खसे छे त्यारे अखंड साम्राज्य सुखने साक्षात् सेवनारा चक्रवर्ती सरखा सिंह पुरुषो पण पूर्ण वैराग्यथी आ पोद्गलिक सुखनो त्याग करीने सहज आनंदने साक्षात् अनुभववाने श्री वीतराग देशित चारित्र धर्मनो स्वीकार करीने तेने सिंहनी परे पाळवा प्रवृत्त थाय छे.
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. दुःखगर्मित, मोहगर्मित अने ज्ञानगर्भित एम वैराग्य त्रण प्रकारनो छे. ए त्रणे प्रकारमा ज्ञानगर्भित वैराग्यज शिरोमणि छे. .
जेम हंस क्षीर नीरने स्वचंचुथी जूदां पाडी क्षीरमाननुं ग्रहण करी ले छे. तेम ज्ञानगर्भित वैराग्यवंत-विवेकात्मा शुद्ध चारित्रना वळथी अनादि कर्ममळने दूर करी शुद्ध आत्मत्त्व (सहजानंद मुख) ने साक्षात् पाये छे. ___ रागद्वेषादिक दुष्ट दोषोने दूर करवाथीज शुद्ध वैराग्य प्रगटे छे, अने उक्त वैराग्यना दृढ अभ्यासथी रागद्वेषादिक विकारो समूळगा नाशे छे, त्यारेज आत्मानी सहज वीतराग (परमात्म) दशा साक्षात् प्राप्त थाय छे. __ आवा वीतराग परमात्मानां वचन सर्वथा प्रमाण करवा योग्यज होय छे. आ दुःखमय असार संसार मध्ये श्री वीतराग देशित धर्मनु सेवन करी लेवू, एज सारभूत छे, छतां पण प्रमादवशवी जनो सत्य-सर्वज्ञ देशित धर्मर्नु यथार्थ सेवन करी शकताज नथी, जेथी पूर्व पुण्योदये प्राप्त थयेली आ अमूल्य तकने गमावी ते वापदाओने पाछळथी बहु शोचवू पडे छे.
समतासागर सत्पुरुषोना सदुपदेशनुं विधिवत् श्रवळ मनन करवाथी भव्य जीवोने पूर्वोक्त उत्तम वैराग्यनो अपूर्व लाथ मले छे.
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__ ५२ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
विरक्त भावे रहेतां विशाळ राज्यादिक भोगो पण वाधकभूत थइ शकता नथी. पण अन्यथा तो गाढमोहथी आत्मा मलीन थया विना रहेतोज नथी. विरक्त पुरुष छती वस्तुए अनासक्त रहे छे, भने मूढात्मा तो तेमां सदाकाळ आसक्तज रहे छे. शुद्ध वैराग्यनीज खरी बलिहारी छे, खरा वैराग्यथी चक्रवतीने स्वराज्य तजवू लगारे मुश्कल नथी. पण मोहग्रस्त भीखारीने तो एक रामपात्र (शकोरु) तजवू पण भारे कठण थइ पडे छे. शुद्ध वैराग्यवंत निष्कलंक चारित्रने पाळी सर्व दुःखने शमावी अंते अक्षय सुखने वरे छे.
२२ गुणीजनांनो संग कर. निर्गुणी एवा खल या दुर्जनोनो संग त्यजीने हे भव्य तुं तारूं स्वहित साधवाने सद्गुणी-सज्जनोनो सदा समागम कर.
सद्गुणीनी सोवतथी निर्गुण पण गुणवंत थाय छे अने नीच एचा निर्गुणीनी सोवतथी सद्गुणी पण निर्गुणी थइ जाय छे. जुओ! मलयागिरिना संगथी सामान्य वृक्षो पण चंदनताने अने मेरुगिरिना संगथी तृण पण सुवर्णताने भजे छे. तेमज लीमडाना संगथी आंवा अने कोळाना संगथी कणकनो वाक विनाश पामे छे.
साधु पुरुपो सदुपदेशवडे सामाना अज्ञान अंधकारनो नाश
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. करौ तेनै सत्य वस्तु भान करावे छे, जेथी वेनो मोह भ्रम दूर नासे छे.
गुणीजनो निर्गुणीजनोने पण सद्गुणी करवा इच्छे छ, गुणीमाथी गुण ग्रहण करे छे, सद्भूत गुणतुं गान करे छे अने पोताना गुणोनो पण गर्व करता नथी. एवा सद्गुणीनो संग महा भाग्य योगेज थाय. .
गुणीजनो मनथी वचनथी अने कायथी नि:स्पृहपणे परोपकार करे छे. __ सद्गुणीना संगथी सामानां पापनो लोप थाय छे, धर्माचरण करवामां निर्मळ मंति विस्वरे छे, वैराग्य प्रगटे छे, स्नेहराग विघटे छे, सर्व इंद्रियो उपर काबु मळे छे, शोक क्लेश अने भयादिक दुःखनो जय थइ शके छे अने संसारनो पार थाय छे. एम समजीने ख चरित्रने निर्मळ करनार एवा सत्पुरुषोनी सोबत तुं निरंतर कर. पात्रापानी योग्य कदर गुणी पुरुषज करी शके छे पण निर्गुणी करी शकतो नथी. तेथी जो सामामां पात्रता हशे तो ते तेने स्व समान करवा पण भूलशे नहि. परंतु जो पात्रतानी खामी जणाशे तो प्हेलं लक्ष सामाने पात्रता प्राप्त कराक्वा दोरशे, अने वे योग्यज. छे. केमके सुपात्रमांज करेलो श्रम सार्थक थाय छे कडं पण छे के "पात्रापात्रनो विवेक शिखवाने गाय अने सपनो मुकावलो करवो.
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५४ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. गायने तृण-भक्षणथी दूध थाय छे अने सापने दूध पावाथी पण झेरज थाय छ." सुबुद्धिजनोए तो सर्वथा प्रथम • पात्रताज प्रगट करवा लक्ष दोरवातुं छे.
२३ श्री वीतरागने ओळखी वीतरागर्नु सेवन कर.
जेने संक्लेशकारी राग, शान्ति भंजक द्वेष अने सम्यग् ज्ञानाच्छादक तथा विपरीत चेष्टाकारी मोह सर्वथा नष्ट थया छे, अने त्रिभुवनमां जेनो महिमा गवायो छे तेज खरा महादेव छे. जे वीतराग, सर्वज्ञ, अक्षय सुखना स्वामी, क्लिष्ट एवां कर्मथी मुक्त अने सर्वथा देहातीत-जन्म मरणथी रहित थया छे. जे सर्व देवोना पूज्य छ, सर्व योगीयोना ध्येय छे अने सर्व नीतिना कर्ता छे तेज खरा महादेव छे. ए प्रमाणे श्रेष्ठ चरित्रवाळा जेमणे सर्व दोष रहित मोक्ष मार्ग प्रकाशक शास्त्र प्ररुप्यां छे तेज परम देव परमास्मा छे.
सदा सावधानपणे तेमनी आज्ञानों अभ्यास करवो एज तेमनी आराधनानो खरो उपाय छे. अने ते पण शक्तिना प्रमाणमां करवाथी अवश्य फळदायी निवडे छे. छती शक्ति गोपवीने प्राप्त सामग्रीनो जोइए तेवो सर्वज्ञ आज्ञाने अनुसार सदुपयोग नहि करनार प्रमादशील जनोने श्री वीतराग सेवानो यथार्थ लाभ मळी शकतो
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. नथी. जेम परोपकारशील एवा कुशल वैद्यनां निःस्वार्थ वचनानुसारे वर्तन करनार व्याधिग्रस्त जनोना व्याधिनो अंत आवे छे, तेम परमात्म प्रभुनां एकांत हितकारी वचनने परमार्थथी अनुसरनार भव्य जीवोनां भवदुःखनो जरुर अंत आवे छे.
. एवी रीते परमशांत, कृतकृत्य, अने सवज्ञ-सर्वदर्शी ? एवा वीतराग परमात्माने सम्यग् भक्ति-भावथी सदा नमस्कार थाओ !
मोह माया तजीने जे प्रसन्नचित्तथी परमात्म प्रभुनी पूजा सेवा करे छे ते सर्व अघन टाळी अंते अनघ एवा अक्षयपदने वरे छे. जे उपर मुजव परमात्मानुं स्वरुप सद्बुद्धिथी विचारीने विवेक पूर्वक तेमनी पवित्र आज्ञाने यथाशक्ति आराधवारुपी उपासना निष्कपटपणे करे छे ते अनुक्रमे दृढ अभ्यासना योगथी सर्व दुःखनो अंत करीने पोतेज परमात्मपदने वरे छे.
२४ पात्रापात्रने समजी सुपात्रने दान दे.
जे संसारथी उदासीन थइ सर्वज्ञ वीतराग वचनानुसारे सर्व आरंभ परिग्रहनो त्याग करी पांच महाव्रतोने धारण करीने स्व कतेव्य सावधानपणे साधवा उजमाळ रहे छे ते जैनशासनमा सुपात्र कहेवाय छे तेथी विरुद्ध वर्तन करनार प्रमादी, स्वच्छंदी या दंभी
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
डोळघालुनी कुपात्रमां गणना थाय छे. कल्याणार्थीए कुपात्रनी उपेक्षा करीने प्रतिदिन सुपात्रनीज पोषणा करवी युक्त छे.
सुपात्रमां पण न्यायोपार्जित द्रव्यवडे विवेक पूर्वक क्षेत्र कालादि विचारीने करेलो व्यय अत्यंत हितकारी थाय छे.
सुपात्रने कुपात्र बुद्धिथी के कुपात्रने सुपात्र बुद्धिथी दीधेलुं दान दूषित छे.
पात्रापात्रनी योग्य परीक्षा पूर्वक सुपात्रने स्वल्प पण आपेलुं विवेकवाळु दान अमूल्य थइ पडे छे, विवेक विना तो ते विशेष पण फलीभूत थतुं नथी.
स्वाभाविक प्रेम, उल्लास, उदारता, अने अकुंठित भावना विगेरे विवेक युक्त दाननां भूषण छे, तेथी दाताने अत्यंत लाभ थायंछे.
स्वाति नक्षत्रनुं जळ जेम जूदां जूदां फळ आपे छे, तेम गमे ते सारं द्रव्य पण पात्रताना प्रमाणमांज फळीभत थाय छे. माटेज पात्रापात्र संबंधी विचार प्रथम कर्तव्य छे. सुपात्र दानथी शाळीभ
नी पेरे विशाळ भोग पामी पछी स्वर्ग या मोक्षनां मुखं प्राप्त थाय छे. अरे तेनी अनुमोदना मात्रथी मृगला जेवां मुग्ध प्राणी पण साक्षात् दातारनी पेरे स्वर्ग गति पामे छे. तो पछी परम प्रेम पूर्वक पवित्र चारित्रपात्र साधुजनोने जे सदा उल्लसित भावे दान दे छे,
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. अने अन्य देनारनी अनुमोदना करे छे तेमनुं तो कहेधुंज शुं ? तेतो तेमना पवित्र आशयथी अक्षय सुखनाज अधिकारी थाय छे. तेथी शास्त्रकारे योग्यज कहुं छे के हे भव्यो! तमे अनेक गुणनिधान स्वर्ग मोक्षदायक सकल सुखकारक, पाप ओघ निवारक, स्वपर हितदायी, अने सर्व संतोषकारी एवं अक्षय सुखहेतुक दान निग्रंथ मुनियोने सदा आपो.
२५ जरुर जणाय त्यांज जिनालय जयणाथी
कराव. कोइक भाग्यशाली भव्यनुज द्रव्य जयणाथी जिनालयमां
वपराय छे.
नईं जिनालय करवा करतां जूनुं समराववामां सामान्य रीते आठ गुणुं फळ शास्त्रकारो कहे छे. शुद्ध समजथी तो ते करतां अनंतगणुं फळ मळे छे..
न्यायोपार्जित न्यवाळो, उदार आशय, मोटी लागवगवाळो, शास्त्र नीति प्रमाणे चालनारो, भवभीरु श्रावकज जिनालय कराववानो अधिकारी छे. केमकें तेज तेने जयणा पूर्वक निर्विघ्ने करावी साचवी शके छे.
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५८ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
जिनालय करावतां कोइपण जीवने लगारे किलामना उपजाववी नहि. तेमां उत्तमोत्तम वस्तुओ वापरवी, अने कारीगरोना कामनी विशेष कदर करवी. नीच जातिना लोकोने या मद्यमांस भोजीने तेमां कामे लगाडवा नहि. दयाना काममां पूरती काळजी राखवी.
चैत्य पूर्ण थये छते तेमां विलंब रहित विधिवत् जिनर्विवनी स्थापना करवी. बिंब प्रतिष्ठादिक सत् क्रिया यथायोग्य सुविहित साधु पासे कराववी. सूरिमंत्रादिकथी प्रतिष्ठित प्रभु प्रतिमामां अपूर्व चैतन्य प्रगटे छे, जेथी भव्य जीवोने दर्शन करतां शाक्षात् समवसरण- भान थाय छे, अने प्रभु महिमाथी पूजा भक्तिमा भाविक जीवो तल्लीन थइ जाय छे.
प्रभु प्रतिमा शास्त्रोक्त नीति मुजव प्रमाणमा नानी या मोटी कराववामां आवे छे. जेने देखतांज भव्य जीवोने प्रभुनी पूर्व अवस्थानुं यथार्थ भान थइ आवे छे, जेथी तेओ छमस्थ, केवळी, अन र्वाण अवस्थाने जूदी जूदी रीते भावी शके छे.
स्नानार्चनवडे छद्मस्थ अवस्था प्रातिहार्यवडे केवळी अवस्था, अने पर्यकासने काउस्सग्गमुद्राथी पभुनी निर्वाण अवस्था भावी शकाय छे.
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. जिनबिंब युक्त जिनालय ज्यां सुधी स्थिर रहे त्यां सूधी अनेक भव्य जीवो उक्त भावना बड़े महान् लाभ उपार्जन करी अनेक भव-- संचित कर्मनो क्षय करीने नागकेतुनी पेरे अविचळ पदवी वरे छे.
आथी केवळ जश कीर्ति माटे जरुर विना नवां जिनालय करखा करतां जीर्ण जिनालय सपराववानी केटली बधी जरुर छे ते स्पष्ट समजी, अल्प द्रव्यथी, अल्प श्रमथी अने अल्प वखत्तथी अचिंत्य लाभ लेवाने अने एम करीने अक्षय नामना मेळवयाने आत्मार्थी जनोए झुलवू जोइतुं नथी. ज्यां मुधी पूर्व पुण्योदये लक्ष्मी साध्य छे, त्यां मुधीज तेवू महत्त्वनुं काम स्वतंत्र पंण बनी शके तेम छे. एम जाणी विचारमांज वखत नहि गाळतां आवां परमार्थ कार्यमांज तेने सफल करवो योग्य छे. जीर्णोद्धार करावनार महाशय पोताना आत्मानोज उद्धार करे छे एटलुज नहि पण अनेक भव्यात्माओनो पण उद्धार करे छे. ते वात उपरली हकिकत समभावे विचारतां स्पष्ट मालम पडशे.
पूर्वे पण की भूपति, अमात्य अने श्रेष्टीलोकोए आवा जीर्णोद्धार करीने स्वपर उद्धार कर्याना दाखला शास्त्रमा मोजुद छे.
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
२६ निर्मळ भावनाओ भाव. निर्मळ मनथी दान, शीळ, के तप विगैरे धर्मकरणी यथाशक्ति करतां अथवा नहि करी शकाय तेने माटे शोच पूर्वक अभ्यास करतां या तो कोइ महाशयने विधिवत् धर्मकरणी करतां देखीने मना जे शुभमाव पेदा थाय ते विगेरे भावना कहेवाय छे. उक्त भावना वडेज करेली करणी सफळ थाय छे, अभिनव भाव पेदा थाय छे अने अंते भव भ्रमणनो अंत आवे छे.
मैत्री, मुदिता, करुणा, अने माध्यस्थ्यरुप भावना चतुष्टय दरेक 'कल्याणार्थी जनोए प्रत्यहं भाववा-आदरवा योग्य छे, तेथी उक्त चारे भावनाओ, स्वरुप कंइक संक्षेपथी पण जाणवानी जरुर छे.
१ मैत्री-सर्व कोइ मारा मित्र छे, कोइ मारा शत्रु छेज नहि. 'सर्व कोइ सुखी थाओ ! कोइ दुःखी नज थाओ! सर्व कोइ सुखना मार्गे चालो ! कोइपण दुःखना मार्गे नहि चालो ! सर्व कोइ सत्य
सर्वज्ञ भाषित धर्मनुज शरण ग्रहो ! कोइपण अधर्म या कुधर्मना पा__ समां नहि पडो ! एवी पवित्र बुद्धि सर्व प्रति राखवी ते मैत्री०
२ मुदिता-या प्रमोद-मेघमाळांने देखी जेम मोर केकारव करे छे, अने चंद्रने देखी जेम चकोर खुशी थाय छे तेम गुण महो
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- श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. ६१ दयने देखीने भव्य जीवो अंतरमा आल्हाद पामी उल्लसित थाय ते मुदिता०
३ करुणा-कोइ दीन दुःखीने देखी स्वशक्ति अनुसारे सहाय अर्पि तेनुं देखीतुं दुःख दूर करवा, अने धर्महीन जीवोने यथायोग्य हितोपदेश दइ धर्म सन्मुख करवा उचित सहाय आपी धर्मना अधिकारी वनाववा प्रयत्न करवो ते करुणाभावना कहेवाय छे. , ४ मध्यस्थ-देव गुरु धर्मना निंदक, नास्तिक, निर्दय निष्पतिकार्य (जेने कोइ रीते हितोपदेश लागे नहि एवा अनार्य) जीवो उपर पण द्वेष नहि करतां कर्मनी विचित्रता मात्र विचारी तटस्थ रही स्वकर्तव्य करवू पण नाहक रागद्वेषथी कर्मबंध थाय तेम नहि कर तेनुं नाम मध्यस्थ भावना छे.
अथवा भव वैराग्यने करनारी अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व आदि द्वादश भावनाओ भव्य जीवोए निरंतर भाववा योग्य छे. उक्त भावनाओना वळ थकी भरत महाराजा मरुदेवादिक अनेक भावित आत्याओ परमपदना अधिकारी थया छे. तथा दरेक मोक्षार्थी जनोए उक्त भावनाओनों प्रतिदिन परमार्थथी अभ्यास करचो योग्य छे.
पूर्वोक्त भावना विना करवामां आवती धर्मकरणी. पण अलूणा.
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
धान्यनी पेरे लूखीज लागे छे अने भावना युक्त ते अमृत समान स्वादिष्ट लागे छे. एथीज कनुं छे के तद्हेतु अने अमृत क्रिया शीघ्र मोक्ष सुख अर्पे छे.
२७. रात्रि भोजननो त्याग कर.
सूर्य अस्त थया पछी अन्नादि भोजन मांस समान अने जळ पानादि रुधीर समान कां छे तेथी ज्ञानी पुरुषोने ते वर्ज्यज छे.
दिवसमां पण भोजन करतां अनेक सूक्ष्म जीवो उडतां भोजनमां आवी पडे छे तो पछी रात्री वखते तो तेवा असंख्य जीवो भोजनमां आवी पडे एमां तो कहेवुज शुं ? आथीज रात्रि भोजन वर्ज्य छे. दिवसमां पण रसोइ करतां उपयोग नहि राखवाथी या भोजन करती वखते गफलत करवाथी कोइ झेरी जीव के तेनी झेरी लाळ मांहे पडया होय तो तेथी भोजन करनारना जीवनुं पण जोखम थाय छे.
जो दिवसमां पण बेदरकारीथी आटलो भय रहे छे तो रात्रिमां एवा अवनवा वनावो स्वभाविकज बनवा पूरतो भय राखवो जोइये. जो भोजनादिक करतां भोजनमां जू अवी जाय तो जळोदर रोग पेदा थाय, जो करोळीयो वगेरे आवे तो लूता ( कोढ ) आदिक
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
६३
रोग पैदा थाय, जो कीडी या धनेडा विगेरे क्षुद्र जीवो आवे तो बुद्धि नष्ट थाय, मांखी आवे तो वमन थाय, वाळ आवे तो कंठ (स्वर) भंग थाय, अने झेरी जीवोनां विष गरलादिक आवे तो पोताना त्राण पण जाय. एम समजीने स्वदेहनी रक्षा माटे पण रात्रि भोजननो सर्वथा त्याग करवो उचित छे, परमार्थ बुद्धिथी तेनो त्याग करवाथी तो असंख्य जीवोने अभयदान देवाना अनंत पुन्यना भागी थइने उभयलोकमां उत्कृष्ट सुख पामी शकाय छे, आर्थी रात्रि भोजननो सर्वथा त्याग करवा शास्त्रकारोए भार दइने कर्तुं छे.
शास्त्र संबंधी पवित्र आज्ञानो भंग करीनेज मूढमतिजनो रात्रिभोजन कर्या करे छे, तेओ पुण्य सामग्रीने निष्फळ करीने, करेला क्लिष्ट कर्मना योगथी भवान्तरमां घूड, नोळीया, साप, मार्जार, अने गरोळी जेवा नीच अवतार पामी नरकादिकनी महाव्यथाने पामे छे, रात्रि भोजनने शास्त्र नीतिथी तजनार भाइ व्हेनोए सूर्य अस्त पहेलां वे घडीथी मांडीने सूर्योदय पछी वे घडी सुधी भोजननो त्याग करवो जोइये, अने एम करवाथी एक मासमा १५ उपवासनो लाभ सहज मळी शके छे. तेमज जो 'गंठसहियं ' प्रमुख पञ्चख्खाण पूर्वक प्रतिदिन एकाशन अथवा व्यशन करवामां आवे तो एक मासमा २९ या २८ - उपवासनो अवश्य लाभ मळे छे.
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६४ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
२८ मोह मायाने तजीने विवेक आदर. ___ 'हुँ अने मारू' ए मोहना मंत्री जगत् मात्र आंधळु थइ गयुं छे. परंतु 'नहि हुँ अने नहि मारं' ए प्रतिमंत्र मोहनो पण पराजय करवाने समर्थ छे.
शुद्ध आत्म द्रव्य एज हुँ छु अने शुद्ध ज्ञानादि गुण एज मारुं धन छे. ते शिवाय हुं अने मारूं कंइ नथी, एवी शुद्ध समज मोहर्नु निकंदन करवाने समर्थ छे. तेथी दरेक मुसुक्षुए एज आदरवा योग्य छे.
नाना प्रकारना राग द्वेषवाळा विकल्पो वडे जेणे मोह मदिरार्नु पान कयु छे ते पोतानुं भान भूलीने अनेक प्रकारनी विपरीत चेष्टाओने वश थइ चारे गतिमां भमतोज फरे छे, अने विडंबना पात्र ज थाय छे. तेथी मोह मायामां नहि फसातां तेनोज क्षय करवा यत्न करवो युक्त छे. मोह मायाने सर्वथा जीतनारा अप्रमत्त मुनियोज जगतमां शिरसा वंद्य छे. सर्वथा मोह रहित वीतराग मुनियोज परम शान्त छे.
वज्रबंधन करतां पण रागवंधन आकरुं छे अने तेने माटे प्रवळ वैराग्यनी पुरती जरुर छे. वैराग्यव.. गमे ते, राग बंधन दूर थइ जाय छे.
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श्री जैनहितोपदेश -भाग २ जो. . ६५ अज्ञान-अविवेक ए मोह बंधननु, अने ज्ञान-विवेक ए वैराग्य __दशा प्रगट करवानुं प्रवळ कारण छे. - पूर्वे जीवे जेवो शुभाशुभ अभ्यास कर्यो होय छे तेवोज तेने जन्मांतरमा उदय आवे छे, एम समजीने सदा शुभज अभ्यास सेवको . अने अशुभ अभ्यास त्यजी देवो युक्त छे.. . जे लक्षपूर्वक सदा शुभ अभ्यासचेंज सेवन करे छे, तेने पूर्व सेवित अशुभ कर्मोनो आपोआप अनुक्रमे अंत आवे छेज. . जेम निर्मोही-मोहरहित महा पुरुष वस्तु स्वरुपने जाणी जोइ शक छे तेम मोहाधीन-मूढात्मा कदापि जाणी शकतो नथी. तेतो. वेभानताथी छता गुणमा दोषनो अने छता दोषमा गुणनो आरोप करी ले छे. आवो विभ्रमकारी मोह दूर करवा मुमुक्षुओ सतत उद्यम करवो युक्त छे. मोहनो क्षय करवामांज तेमना चारित्रनी सफलता रहेली छे, एम समजीने जेम रागादिक विकारोनो लोफ थाय तेम तेओ प्रमाद रहित परमार्थ पंथमा प्रवर्तवां प्रतिदिन प्रयन 'ल शील रहे छे. अने अन्य आत्मार्थी जनोने पण उक्त सन्मार्गमा ज प्रवतांववा उपदिशे छ. . . . . . .
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"६६ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो...
२९ खोटी ममतानो त्याग कर.. नित्य मित्र समो देहः स्वजनाः पर्व सन्निभाः॥ जुहार मित्र समो ज्ञेयो, धर्मः परम बंधवः
जितशत्रु राजाने सुबुद्धि नामा प्रधान छे. बुद्धि निधान होवाथी ते राजाने बहु वल्लभ छे, छतां क्वचित् 'दैववशात् तेना उपर कुपित थयाथी तेणे कोइक मित्रनुं ज्यां सुधीमां राजानो कोप शान्त थइ जाय त्यां सुधी शरण लेवानुं धार्यु. तेने नित्य मित्र, पर्व मित्र, अने जुहार मित्र नामना'त्रण मित्र छे. प्रथम नित्य मित्र पासे गयो तो '" अति परिचयात् अवज्ञा" ए न्यायथी तेनी वात हसी काढ चाथी ते पछी पर्व मित्र पासे गयो. तेणे कंइक प्रथम तो आश्वासन
आप्यु पण सत्यवात निवेदन करीने दाद मागतां तेणे पोतानुं असा'मर्थ्य जणाव्यु. छेवट प्रधान कंटाळीने जुहार मित्र पासे आव्यों तो तेणे पोताना उदार स्वभावने अवलंबी प्रधानने असाधारण आवकार आपीने भारे आश्वासन पूर्वक जणाव्यु. के मित्र ! आज तमे कंड भारे आपत्तिमा आवी. पडया छो एम तमारी मुखमुद्रा उपरथी हुँ समजी शकुं छु. तेथी कहुछ के तमे निश्चित थइने जे दुःखनुं कारण होय ते मने शीघ्र जणावो. आथी-प्रधानने घणी हिंमत आवी, अने सत्य हकीकत निवेदन करवाथी तेणे कयु के भाइ ! लगारे फीकर
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो..
करशो नहि. ज्यां सुधी मारा खोळीयामां प्राण छे त्यां सुधी तमारो वांको वाळ करवाने कोइ समर्थ नथी. तमे सुखेथी अहिं रहो. आवा आवकारवाळा आश्वासनथी अत्यंत खुशी थयेलो प्रधान जूहार मित्रमुंज शरण करीने रह्यो. काळ जतां राजानो कोप पण उपशांत थयो, अने प्रधाननी भीति नष्ट थइ गइ. पण आवेली विपत्तिमां तेने मित्र संबंधी यथार्थ अनुभव थइ आव्यो. आपणे पण आमांथी बहु सरस शिखामण लेवानी छे. यमराजाने जितशत्रु राजा समान समजबो, अने आत्माने मुबुद्धि प्रधान समान समजवो, तेमज देहने नित्य मित्र समान, स्वजन वर्गने पर्व मित्र समान अने परम उपगारी धमैने जुहार मित्र समान समजवो. ज्यारे यमराज कुपित थाय छे, अने कोइनो अवसान वखत आवे छे त्यारे ते गाभरो वनीने पोताना वचाव माटे वहु बहु फांफां मारे छे. परंतु ते सर्वे निष्फळ जाय छे. प्रतिदीन यन्त्रपूर्वक पाळी पोषीने पोटो करेलो देह तेने लगारे सहाय देतो नथी, तेमज वळी -प्रसंगे पोषवामां आवता स्व. जनो पण तेने मुखथी मीटुं वोलवा उपरांत कंइपण विशेष सहाय करी शकता नथी. परंतु जुहार मित्रनी जेम अल्प परिचित छतां ऊदार आशयवाळो धर्मज केवळ परम उपकारी बघुनी परे परमः सहायभूत थाय छे. एम समजीने शाणा माणसोए दुष्ट देहादिकनो मोह तजीने एकांत हितकारी परम गुणनिधान:सद्गतिदाता धर्मनोज आश्रय करवो युक्त छ, तेनी उपेक्षा करी देहादिक उपर
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६८ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जां. ममता राखवी केवळ अनुचितज छे. विवेकी हंसो तो. देह ममत्वने. तजीने निर्मळ धर्म रसायणन पान करे छे.
___३० संसार सायरनो पार पामवा प्रयत्न कर, · नर्क, तिर्यंच, मनुष्य अने देवता संबंधी ८४ लक्ष जीवायोनीथी अति गहन अने महा भयंकर भवसायरने तरी पार पामवु अति अवश्यतुं छे, . दुर्बुद्धि, मत्सर अने द्रोहरुपी तोफानथी संसारसायस्मा खच्छंदपणे परिभ्रमण करनार लोकोने भारे संकट सहन करईं पडेछे. • कषायरुपी पाताल कळशा, कामरुपी वडवाग्नी, स्नेहरुपी ईधना अने घोर रोगशोकादि रुप मच्छ कच्छपथी आकुळ एका अज्ञानमय तळावाला संसार समुद्रना मार्गो दुःखना डुंगराओथी आसपास रंधायेला छे. ए सर्व विषम संयोगोमांथी सहजमां पसार थइ .जवू
बहुँ दुर्लभ छे, तेथी तेनी पार जवाने इच्छनारे अत्यंत काळजी - रोखवानी जरुर छे, संकट समये हिंमत हारी जनार प्रमादीजनो
भवनी पार पामी शकता नथी. पण गमे तेवा विषम संयोगोने समभावे भेटी पुरुषार्थ योगे पोतानो मार्ग कापे छे तेज अंते भवनो अंत करी शके छे.
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. खरा हिंमतवान पुरुषो आपत्तिने संपत्तिरुप देखीने मुखे उल्लं.घी जाय छे. पण पुरुषार्थ हीन जनो तो प्राप्त संपचिनो पण सदुप,
योग करी शकता नथी. एटलुंज नहि पण उलटो तेनो दुरुपयोग करीने दुःखी थाय छे.
जेम राधावेध साधनार माणसने राधावेध साधता बारीक उपयोग राखवो पडे है, वेम दरेक मुमुक्षु जनने पण अवश्य राखवानो छे. ___ सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन (श्रद्धा) अने सम्यग् वर्तन-सदाचरण (ए रत्नत्रय) आ संसारसायर तरीने पार पामवानो अकसीर उपाय छे.
जन्ममरणजन्य अनंत दुःख जळथी आ संसार समुद्र भरेला छे. छतां तीर्थकर जेचा निपुण नियोमकनी सहायथी तेनो सुखे पार 'पामी शकाय छे. ____ दृढ संकल्पथी संसार सागरनो पार पामवानी पवित्र बुद्धिर्थी
सर्वज्ञ वचनानुसारे सदुद्यम सेवनार सत्पुरुष जरुर संसारनो पार 'पामे छे. उत्तम प्रकारनी क्षमा, सरलता, नम्रता, निर्लोभता, उपरांत 'तप, संयम, सत्य, शौच, निर्ममता अने ब्रह्मचर्य रुप दशविध यति'धर्मनुं यथार्थ सेवन करनार शीघ्र मोक्ष सुख साधी शके छे. शुद्ध
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७.
श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
यति धर्मनी अनुमोदना पूर्वक यथायोग्य सहाय अर्पनार संविज्ञ पक्षीय साधु या श्रावको पण निर्देभाचरणथी अनुक्रमे संसार समुनो अंत करी अक्षय सुखने साधी शके छे.
३१. धैर्य धारण कर. ( HAVE PATIENCE )
समतानां फळ मीठां छे, अने ते अनुभव गम्य छे. कंइपण सत् कार्य धीमेथी पण दृढताथी करनार अंते अवश्य फतेहमंद नीवडे छे, ते अधीरजथी एकाएक करनार भाग्येज फतेह मेळवे छे. नियम वगरनी उतावळ उलटी नुकसानकारी निवडे छे.
दीर्घदृष्टि जनो कोइपण महत्त्वनुं कार्य प्रथम नाना पायाथी शरु करे छे अने अनुकूल सामग्री मळतां तेने उत्साह पूर्वक आगळ वधारे छे.
अदीर्घदृष्टि ज़नोने तो तेवो पूर्वापर विवेक नहि होवाथी अनुकूल सामग्रीना विरहे उत्साहभंगथी आरंभेलुं गमे तेवुं महत्त्वनुं कार्य पण छोडी देवुं पडे छे.
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व्यवहारिक कार्यनी पेरे कोइपण धार्मिक कार्यमा पण आत्मार्थी पुरुपे अभ्यास पूर्वक हिंमतथी आगळ वघवानी जरुर छे.
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. ७१ . धर्मार्थी माणसे प्रथम पात्रता मेळववाने माटे मार्गानुसारी थकुं: युक्त छे. अने अक्षुद्रतादिक उत्तम गुणोनो अखंड अभ्यास करीने: क्षुद्रता, निर्दयता, शठता, अप्रमाणिकता, अनीति, अन्याय, असत्या. अहंकार, कृतघ्नता अने स्वार्थ अंधता विगेरे अनार्य दोषोने प्रथमः जरुर देशवटो देवो जोइये.
आ प्रमाणे अनुक्रमे अधिकार पामीने सत् समागमनी टेव पा-- डीने तेमांथी वखतो वखत मध्यस्थपणे सत्यने समजी सत्य ग्रहण. कर जोइये. आ प्रमाणे वधती जती सत्य तत्त्वरुचिथी अने तत्त्व ज्ञानथी सम्यक्त्व अपरनाम समकित या सम्यग् दर्शननी प्राप्ति थाय छे. आनुं नामज तत्त्व श्रद्धा, तत्त्व दर्शन या विवेक ख्याति कहेवाय छे.
तत्त्व श्रद्धारुपी विवेक दीपक घटमां प्रगटया पछी अनुक्रमे. तत्त्वाचरण-सन्मार्ग सेवन करवा माटे सतत प्रयत्न करवो जोइये, अने तेवो दृढ अभ्यास करीने सद्गुरु समीपे समकित मूळ उक्त अहिंसा, सत्य, अस्तेयादिक व्रतो यथाशक्ति आदरवां जोइये. तेमां पण प्रथम मांस, मदिरा, शीकार, परदारा गमन, वेश्यागमन, चोरी, अने जूगाररुप सप्त व्यसनोने तो उभयलोक विरुद्ध जाणीने अवश्य परीहरवां जोइये. तेमज मध, मांखण भूमिकंद अने रात्रिभोजन: विगेरे पण वर्जवां जोइए.
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श्री जैनहितोपदेश भाग २- जो.
सुश्रावके अनुक्रमे सद्गुरुं समीपे पांच अणुव्रत, त्रण गुणवत अने च्यार शिक्षावत मळीने द्वादश व्रत संबंधी दृढ नियम लेवो जोइये. आवा व्रतधारी श्रावकोए प्रभुनी पवित्र आज्ञाने अनुसरी वो तटस्थ अने न्याययुक्त - निष्पक्षपात व्यवहार चलाववो जोइए के ' ते प्राय: सर्व कोइने प्रिय थइ पडया विना रहेज नहि. निपुण श्रावक न्यायनो एवो नमूनो होवो जोइये के कोइ पण सहृदय पुरुष तेनुं अनुमोदन या अनुकरण करवा चूके नहि.
७२
आवा सुश्रावको जरुर स्वपरनी उन्नति पूर्वक पवित्र जिनशासननी उन्नति पण करी शके छे, अने अनुक्रमे सत् चारित्रने सेवी अक्षय मुखना अधिकारी थइ शके छे.
शम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा अने आस्तिक्य लक्षण सम्यकत्व पूर्वक द्वादश व्रतधारी श्रावको, धर्म आराधक थइने आनंद, कायदेवनी पेरे एकावतारी थइने अंते शास्वत सुखने पामी शके छे,
केटलाक भवभीरु महाशयो संसारनी असारता विचारीने, पूर्वोक्त तोनुं यथार्थ पालन करी, मुनि योग्य महाव्रत लेवा उजमाळ थाय छे.
महात्रत लेवाना अथींजनोए प्रथम तेनुं स्वरुप यथार्थ पीछाणीने थोडो वखत पण पहेलां तेनो अभ्यास पाडीनेज ते लेवां योग्य छे.
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श्री. जैनहितोपदेश भाग २ जो.
७३
अननुभवीपणे महावत लेवाथी क्वचित् परीषह उपसर्गादिकयी पड़ी जवानुं वने छे, तेम अनुभवी महाशयथी महानत लीधा वाद प्राय: पडी जवा वनतुं नथी. '
मन, वचन, के कायाथी कोइपण जीवनी हिंसा राग के द्वेष वडे जाते करवी नहि, वीजा पासे कराववी नहि अने करनारने सारा जाणवा नहि ते प्रथम महावत छे..
क्रोध, मान, माया, लोभ, भय के हास्यथी कंइपण असत्य (अप्रिय-अहितकारी) वचन कदापि कहेवू, कहेवरावq के अनुमोदq नहि. ते वीजुं महावत कहेबाय छे.
कोइपण प्रकारे देवगुरु के स्वामीनी आज्ञा विरुद्ध कोइनी कंइपण वस्तु अन्न, पान, वस्त्र, पात्र, औषध, भेषज के स्थानादि कदापि लेवी लेवरावची के अनुमोदवी नहि. तेमज मन वचन अने कायाथी सचेत (सजीव) के मिश्र (जीवमिश्र) एवी उपरली बस्तु कदापि कोइ आधे तोपण ग्रहण करवी नहि ए त्रीजु महावत छे.
देव मनुष्य तिर्यंच संबंधी मैथुन मन वचन के कायावडे कदापि सेक्यु नहि. अन्यने सेववा प्रेर नहि. तेमज सेवनारने सारा जाणवा पण नहि ए चतुर्थ ब्रह्मचर्य नामे महाव्रत कहेवाय छे.. ...
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७४ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
धर्मोपकरणादिक केवळ धर्म निर्वाहने माटेज जरुर जेटलां राखी तेनो यथार्थ उपयोग करवा उपरांत कोइ पण वस्तु अल्प मल्यवाळी या बहु मूल्यवाळी होय तेना उपर मूर्छा करवी नहि. निःस्पृहता राखवी, अने परस्पृहा तजी देवी ते परिग्रह त्याग नामे पांचमुं महाव्रत छे. ____ उक्त पंच महाव्रत उपरांत मुनिए रात्री भोजननो सर्वथा त्याग करवानो छे. जेथी षटरस पैकी कोइपण वस्तु-अन्न पानादिकनो सर्वथा निषेध सूर्यास्त पहेलां (बे घडीथी) सूर्योदय पछी (वे घडी) सुधी मुनिने माटे निश्चित होवाथी तेवो पण अभ्यास प्रथमथीज कर्तव्य छे. मुनिने उत्तम प्रकारनी क्षमा, मृदुता, रुजुता, अने संतोषादि दशविध यतिधर्म बहुज बारीकीथी निरंतर आराधवा योग्य छे.
समतादिक श्रेष्ट धर्मना सेवनथी मुनिजनो शीघ्र मोक्ष मुखने प्राप्त थाय छे. तेथी अंतरमां मोक्षार्थीजनोने एलुंज शरण योग्य छे.
३२ दुःखदायी शोकनो त्याग कर. इष्ट वस्तुना वियोगथी के अनिष्ट वस्तुना संयोगथी बहुधा मुग्ध अज्ञानी जनोने जे अंतरमां दुःखकारी मोह पेदा थाय छे अने रुदनादिक विविध चेष्टाओ करावे छे तेनु नाम शोक कहेवाय छे.
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. ७५ सम्यग् ज्ञानी-विवेकी आत्माने उक्त मोह-शोक एटलो सतावी शकतो नथी. कचित् क्षणमात्र अवकाश मेळवी ज्ञानीने पण शोक छळवाने जाय छे, परंतु अंते तो विवेक योगे तेनोज पराजय थायछे.
जे जे कारणो मुग्ध अज्ञानी जनोने मोह-शोकनी वृद्धीनां छे. ते ते ज्ञानी-विवेकीने मोहादिकनी हानिनां एटले के वैराग्य वृद्धिनां. ज थाय छे.
पूर्वे अनेक सतीओ विगेरेने एवां कारणो संसार चक्रमां अने. कशः मळ्यां छे.. पण परिणामे तेवां कारणोथी तेमने लाभज थयोछे.
तेवा ज्ञान विवेक के वैराग्यनी गंभीर खामीथी आज काल मुग्ध अज्ञानी लोको उक्त मोह-शोकने वश पड़ी भारे दुःखी थायः छे, थता देखाय छे, एटलुंज नहि परंतु पोतानी अनार्य टेवथी अन्य जनोने पण दुःखी करे छे.
मूर्ख मावापो दीर्घदृष्टिनी खामीथी या स्वार्थ अंधताथी वाळलंग्न, कजोडां, कन्याविक्रय अने विधर्मीनी साथे पोतानां पुत्र पुत्रीने परणाववाथी तेमने जन्मांत दुःख दरियामां डूवाववाना पातकी थाय, छे. उक्त दुःखनो अंत बहुधा मावापनी समज सुधरवाथी आववा संभवे छे. कंइ पण आपत्ति आवी पडतां धीरजथी तेनी सामा थइने तेनो.क्षय करवाने बदले मुग्ध जनो अधीरां थइने उलटयं वधारे
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७६
श्री जैनहितोपदेश भाग- २. जो.
दुःखी थाय छे, तेनो श्रेष्ट उपाय ए छे के तेवे वखते हिंमत नहि हारतां धीरजथी आवेली आपत्तिनी सामा थनुं, एटले के युक्तिथी आवेली आपत्तिने उल्लंघी जवा जेटयुं डहापण वापरवा भूलवुं नहि.
.- जे आवेली गमे तेवी आपत्तिने हिंमतथी अने डहापणथी उल्लं'घी' जाय छे, जे तेवे वखते धीरज राखीने स्वधर्म - न्याय, नीति, सत्य, प्रमाणिकता विगेरेने तजतो नथी तेने अंते आपत्ति संपत्ति रुप थाय छे. त्यारे जे प्रथमथीज आपत्तिने संपत्तिरूप मानीने भेटे छे अने स्वधर्म - कर्तव्यमां सदा चूस्त रहे छे तेनुं तो कहेवुज शुं ?
·
केटलाक मुग्ध अज्ञानी लोको मूएलानी पछवाडे बहु बहु - शोक - विलाप करे छे अने एम करीने उभय अर्थथी चूके छे तेमज स्वपरनी नाहक पायमालीना कारणिक थाय छे, ते खरेखर धिकारपात्र छे.
सूली माणस स्व स्वकरणी प्रमाणे परलोक गमन करी सुख दुःखना भागी थाय छे अने एज नियम हवे पछी परलोक गमन करनार हाल जीवता माणसने माटे छे तो मरनार माणसनी शुभा- शुभ करणी उपरथी घडो लइने स्वचरित्रनो भविष्यने माटे विचार. करवाने वदले नाहक अरण्यमां रुदननी पेरे मरनारनी पछाडी, आक्रंदनादिक करवाथी शुं वळवानुं छे ? तेथी तो नथी थवानुं मरनारनुं हित के नथी थवानुं हाल जीवतानुं हित, पण गैरफायदो अने
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•७७
श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. अन्याय तो प्रगटज छे. रुदनादिक करनार पोताना व्यवहारिक अने धार्मिक कर्तव्यथी चुके छे. अने. अन्य प्रेक्षक-कौतुकी जनोने पण चुकावे छे. केटलीक वखत तो आवी चेष्टाओ केवळ रुढीनी खातरज करवामां आवे छे. गमे तेम होय पण तेवा व्यर्थ परिश्रम अने काळ व्ययथी प्रगट गेरफायदोज छे. शिवाय रुदनादिक विरुद्ध चेष्टाथी मरनारनी गति कदापि मुधरती नथी, तेथी केवळ अज्ञानता अने मोहनी वळताथी स्वार्थ अंध वनीने अथवा अंध परंपराथी चालती आवेली रुढीने अनुसरी आवी अनर्थकारी करणी करवामां आवे छे एम स्पष्ट मालम पडे छे. . वीजें जो मरनार माणस मंगळमय धर्मनुं आराधन करीने सद्गतिमां सिंघाव्यो होय तो तेवा मंगळमय समये सगा संबंधीओए हर्षने स्थाने शोक करवो ए केटलो वधो अनुचित अने अन्याय मरेलो छे, ते आपोआप पोतानी स्वार्थ अंधताने दूर करी मध्यस्थपणे शान्त चित्तथी विचारी जोतां स्वभाविक रीते मालम पडी
आवशे.
३३ मननो मेल दूर कर. काम क्रोधादिक अथवा रागद्वेषादिक अंतर विकारोने उपशमावी अथवा क्षय करी देवाथीज चित्तनी शुद्धि करी कहेवाय छे. . .
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७८ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. ___ ज्यां सुधी मननो मेल धोयो नथी त्यां सुधी गमे तेटला जळ स्नानथी पण पवित्र थवानो नथी. जे मन शुद्ध-निर्मळ थयुं छे तेज खरो पवित्र छे..
जे समता कुंडमां स्नान करीने पोताना पापमळने पखाळी नांखे छे. अने फरी मलीनताने पामताज नथी. ते विवेकात्माज परम पवित्र छे.
जे कोई अंतर शुद्धि करवाना उच्च उद्देशथी शास्वनी पवित्र नीतिपूर्वक प्रवृत्ति सेवे छे, ते पोताना पवित्र लक्षथी चित्तनी शुद्धि करी शके छे.
उक्त लक्ष पूर्वक शुद्ध देव गुरुनी पूजा करवानी अभिलाषावाळा सद्गृहस्थने जयणा पूर्वक जळ स्नान करवानी पण शास्त्रमा संमति छे.
तेथी अधिकार परत्वे गृहस्थलोको वडे एवा पण पवित्र हेतुथी जो जयणा पूर्वक जळस्नान करवामां आवे तो ते पण तेमने हितं. कारी कहेलुं छे.
परंतु एवा उच्च उद्देशविना खच्छंदपणे अनेकवार जळनान करवामां आवे तो ते जळमध्यवर्ती मच्छनी पेरे कइपण परमार्थयी हितकारी थइ शकत नथीः आथी आत्मार्थीजनोएं अंतरमळ साक
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.. · करवानोज मुख्य उद्देश मनमांःस्थापी राखीने स्वस्व अधिकार प्र. माणे क्रियाकांड करवो घटे छे. निर्दभ धर्मसेवीनो सरल आशय शीघ्र सफळ थाय छे.
सकळ धर्म साधनमा समता-रागद्वेष रहित वृतिनी प्रथम जरुर छे. ____ गमे ते दर्शनमा समताभावीनी सिद्धि अवश्य थवानी छे. केम के ते समदृष्टिथी रागद्वेष तजीने गमे त्यांची तत्त्वमुंज ग्रहण करे छे. मिथ्याआग्रही-कदाग्रहीजनो एम कदापि करी शकता नथी. ते तो
उलटा परनिंदादिकमां उतरी पोतानुं सर्वस्व वगाडी संसार चक्रमां .पुनः पुनः भटक्या करे छे, तेमनुं अंतर विष नहि टळवाथी तेमने -वारंवार जन्म मरणना फेरा करवा पडे छे. ते उपर एक कडवी तुंबडीनुं दृष्टांत लक्षमां लइ राखq बहु उपयोगी छे.-एकदा कोइ दृद्ध डोशीना पुत्रने अडसठ तीर्थमा जइ न्हावानो विचार थयो. पुत्रमा पात्रतानी मोटी खामीथी माता तेना कामने अनुमोदन आ-पती नहती, पण प्रथम तेनामां कोइ रीते पात्रता आवे ते जोवाने 'आतुर हती. पुत्र तो जूवानीना मदमा मातानां हितकारी वचनोनो पण अनादर करतो हतो. छेवट ज्यारे ते अडसठ तीर्थमाँ जवाने तैयार थयो त्यारे माताए. तेने मधुर वचनथी कह्यु के बेटा आ मारी कडवी तुंबडीने पण तीर्थ करावतो.. आवजे, मातानं आ वचन तेने
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८० श्री जैनहितोपदेश भाग-२.जो. कठण नहि लागवाथी मान्य राख्युं अने मावाए आपेली कडवी तुबडी साथे लइने ते तीर्थ करवा निकळ्यो, लौकिक रुढि मुजब बधा तीर्थमा स्नान करी माताए साथे आपली तुंबडीने पण स्नान करावीने अनुक्रमे पोते पोताने स्थाने आव्यो. अने ते तुंबडी माताने पाछी सोपी. माताए तेनी समक्ष तपास करीने कई के भाइ ! अडसठ तीर्थमां न्हाया छतां तुंबडीनी कडवाश गइ नहि. आ प्रगट दाखलाथी लेने सरस वोध मळ्यो तेम दरेक धारे ते तेमाथी आवो वोध मेळवी शके के अधिकार योग्यता विना जेम स्वभावेज कडवी तुंबडी अडसठ तीर्थना जळमां न्हाया छतां पोतानी खभाविक कडवाशने तजी मोटी थइ शकी नहि, तेम कोइपण · पात्रता माटे पूरतो. प्रयत्न करीने पात्रता पाम्या विना गमे तेवी उत्कृष्ट करणीवडे पोतानामां जड घालीने रहेला एवा काम क्रोधादिकं अथवा रागद्वेषादिक . दोषोने कदापि दूर करू शकेज नहि. माटे मननी शुद्धि करवाना अर्थीजनोए अंतरनो मेल साफ करवाने प्रथम क्षुद्रतादिक दोषोनुं विरेचन करीने योग्यता मेळववानी अति आवश्यकता छे. अने एम सावधानता पूर्वक उपाय करवाथी अंत समता जेवा श्रेष्ट रसायणथी चिंत्त शुद्धि संहजमां साध्य थई शके छे.' -
:
. जेम निर्मळ वस्त्र उपर- जोइए एवो रंग चढी शके छ, . अने अठारीमठारीने, साफ करेली भीतो उपर. आवेहूव चीतामण उठी
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जोः शके छ तेम निर्मळ चित्तवाळाने शुद्ध. धर्मनी यथार्थ प्राप्ति थइनके छे.
जैम निर्मळ आदर्शमा वस्तुनुं यथार्थ प्रतिबिंब पडे छे तेम शुद्ध-निर्दोष चित्तमां पण शुद्ध तत्त्व धर्मर्नु यथार्थ संक्रमण थइ शकेछ:
जेम निपुण वैद्य रोगीने प्रथम विरेचनादिकथी अंतरशुद्धि करवाज फरमावे छे, तेम सद्गुरु पण शुद्ध धर्मार्थी जनोने प्रथम मननो मेलज साफ करी लेवानी भलामण करे छे. अने खरुं हित पण एमज संभवे छे.
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___३४ मानव देहनी सफळता करी ले. बुद्धेःफलं तत्त्व विचारणं च, देहस्य सारं व्रत धारणं च।। वित्तस्य सारं किल पात्र दानं, वाचः फलं प्रीतिकरं
नराणाम् ॥१॥ तत्त्वातत्त्व; सत्यासत्य, गुणदोष, हिताहित, लौभालाभ, भक्ष्याभक्ष्य, पेयापेय अने उचितानुचित विगेरेनो विचार करीने सारभूतं , तत्त्व ग्रहण-सेवन कर एज सद्बुद्धि पाम्यान फळ छेः . .
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८२ श्री जैनहितोपदन भागे २ जो.
— दश दृष्टांते दुर्लभ मानव देह, आर्यक्षेत्र, उत्तम कुळजातिमा जन्म, इंद्रिय पटुता, शरीर नीरोगता, सद्गुरु योग, निर्मळ बुद्धि धर्मरुचि अने तत्व-श्रद्धादि शुभ सामग्री महा भाग्ययोगे पामीने पांचे प्रमाद त्यजी उल्लसित भावथी सिंहनी पेरे शूरवीरपणे आहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अने निष्परिग्रहतादिक महाव्रतोतुं खरुप यथार्थ समजीने अभ्यास पूर्वक तेमनो स्वीकार करवो अथवा परिणामनी मंदता योगे समकित मूळ श्रावकनां वार व्रत पैकी बनी शके तेटलां समजीने तेवां पण व्रत धारण करवां. ए आ उत्तम मानव भव पाम्यानुं फळ छे. सप्त व्यसन, रात्री भोजनादिक अभक्ष्य भक्षण, अने भूमिकंदादिक अनंत जीवात्म वस्तु, अणगळ जळपान विगेरेन. तो दरेक शाणा माणसे अवश्य वर्जन करबुज जोइये. प्रारब्ध योगथी प्राप्त थयेली लक्ष्मीनुं फळ ए छे के तेनो उदार आ. शयथी परमार्थ दावे पुण्यक्षेत्रमा उपयोगमा करचो. यशकीर्तिनीज खातर दान पुण्य नहिं करता केवळ कल्याणार्थे करवामां आवतुं पात्रदान परिणामे अनंतगणुं उत्तम फळ आपी शके छे. अने वचन शक्ति पाम्यानुं उसम फळ ए छे के सर्व कोइने प्रीति उपजे एवं मिष्ट-मधुर अने हितकारीज वचन वदवू. कदापि पण कोइने अप्रीति के खेद उपजे एवं कडवं के अहित वचन कहेवू नहि. परने मिय एवं प्रसंगने लगतुं हित-मित भाषण करनारज सत्यवादी होवाथी प्राय: सर्व कोइने मान्य थइ शके छे.
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
८३
आ प्रमाणे टुंकाणमां कहेली हकीकत लक्षमां राखीने विवेकथी वर्तनार पोताना शुभ चरित्रथी स्व मानव भव सफळ करी शके छे. अथवा पूर्वे प्रसंगोपात बतावेली मैत्री मुदिता करुणा अने मध्यस्थ भावनाथी पण मनुष्य देहनी सफळता थइ शके छे. हुंकाणमां यथाशक्ति तन, मन, धनधी स्वपर हित साधी लेवुं एज आ मनुष्य भवनुं रहस्य छे. तेमां उपेक्षा करवी ए मूळगी मूडी खोवा जेवुं छे. थी जेम वने तेम प्रमाद रहित स्वपरहित साधवा सदा तत्पर रहेतुं सहृदय जनोने उचित छे.
सद्विवेकथी स्व कर्तव्य समजीने जे शुभाशयो शुद्ध अंतःकरणथी तेनुं सेवन करे छे, ते मनुष्य छतां देवी जीवन गाळे छे; पण जे स्व कर्तव्य समजताज नथी अथवा तो समज्या छतां तेनी उपेक्षाज करे छे; ते तो मनुष्य रुपे पशु जीवनज गाळे छे एम कहेवुं युक्तते.
जे पारकी निंदा करवामां मुंगो छे, परस्त्रीनुं मुख जोवामां अंध छे अने परद्रव्य हरण करवामां पांगळो छे, तेशे महापुरुषज स्वोकर्मा जय पामे छे. जेना घटमां विवेक दीपक प्रगटयो छे तेज लोकमां खरो पंडित छे, तथा जेणे मद्य, विषय, कषाय, निद्रा अने विकथारुप पांचे प्रमादने वश कर्या छे एत्रो अप्रमादी पुरुषज जगतर्मा 'खरो शूरवीर छे.
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८४
श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
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३५ प्राणान्ते पण व्रत भंग करीश नहिं
प्रथम आपगायी सुखे पाळी शकाय एवीज प्रतिज्ञा या व्रतनयनलेवा योग्य छे, अने ते लीघा वाद तेने प्राणान्त सुधी पा.ळवां जरूरनां छे.
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जो प्रथम ग्रहण करवामां आवता व्रत नियमनुं स्वरुप यथार्थ समजी लेवामां आवतुं होय अने तेनो जरूर जेटलो अभ्यास पण करवामां आवतो होय तो घणुं करीने व्रत भंगनो प्रसंगज आवत्रा पामे नहि.
आत्म कल्याणने माटे जे जे सारां व्रत ग्रहण करवां योग्य छे
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ते वधानुं स्वरुप संक्षेपथी के विस्तारथी प्रथम सद्गुरु समीपे समजी लड़ तेमांथी आपणे सुखे पाळी शकीये एवां तेमने निरंतर संभारी संभारीने काळजी पूर्वक वो जोइए.
व्रतज- ग्रहण करीने पाळवा प्रयत्न क
जे व्रत - पच्चख्खाण उपयोग शून्य या समज्या विनाज लेवामां आवे ते दुःपञ्चखाण होवाथी- निष्फळ छे. तेथी तेवां व्रत लोघां होय या न होय तोपण प्रसंगोपात या च्हाइने सद्गुरु पासे ज जइ त ते व्रत संबंधी जरुर जेटली समज लइने जो सारी रीत सावधान थइन ते पावामां आवे तो पोताना प्रयत्नना प्रमाणां जरूर लाभ माप थड़ शकेन. परंतु केवळ गतानुगतिकपणे संमूहिमनी पेरेज
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श्री - जैनहितोपदेश भाग २ ' जो.
वामां आवे तो
कष्ट सहन कर्या छतां जोइये एवं फळ
कदापि थइ शकेन नहि. जे जे व्रतनुं पालन प्रीतिथी रुचिथी कर-: वामां आवे छे तेनुंज फळ सारुं बेसे छे. - अरुचियी करवामां आवती गमे ते क्रियानुं परिणमन सारुं थइ शकतुंज नयी. तेथी चित्तनी प्रसन्नता माटे भय (चित्तनी चंचळतां ) द्वेष ( अरुची ) अने खेद . ( क्रिया करता थाकी जनुं ते) दोषने दूर करवाने प्रथम प्रयत्न कवो जोइये. वस्तुनुं स्वरूप यथार्थ समजायाथी अने तेमां पोतानुं मन धायार्थी उक्त दोषो सहजमां दूर थइ शके छे, पछी खरी लहेजती पाळवामां आवता तोथी आत्माने यथार्थ लाभ थाय छे. आ लोकना के परलोकना सुखने माटे करवामां आवती क्रियाने विष या गरल समान कही छे, क्रियानां फळ हेतु समज्या विना केवळ देखादेखीथी करवामां आवंती क्रियाने ज्ञानी पुरुषो अननुष्ठान कहे छे. ते ते क्रिया संबंधी फळ हेतु, विगेरेने समजी केवळ कल्याणने माटेज करवामां आवती धर्मक्रियाने तदूहेतु कहे छे, तेमज ज्यारे दृढ अभ्यासथी उक्त क्रिया मन वचन अने कायानी एकताथी अवचक पणे धाय छे त्यारे तेमां अमृतनी जेवो स्वाद आववाथी ज्ञानी पुरुषो तेने अमृत क्रिपा कहे छे; नव्हेतु, अने अमृत क्रियाज आत्माने मोक्षदायी छे, वाकीनी त्रण तो भव भ्रमणकारीज कहेली छे. एटलो अधिकार अनि उपयोगी होवाथी प्रसंगोपात कहेवामां आव्यो छे.
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भाव, अने संघयण विगेरे विचारी स्वशक्तिना प्रमाणमां समज पूर्वक सद्वतोने धारण करीने जे तेमनुं अखंड पालन करे छे तेमनुज जीवित सफळ छे, परंतु जे कंइ पण पूर्वापर विचार कर्या विना विवेक शून्यपणे व्रत लइने विराधे छ । तेपर्नु जीवित केवळ निष्फळ छे. व्रत खंडीने लुहारनी धम्मणनी जेम जीवनने गाळनार जेवो कोइ कमनशीब नथी. व्रत खंडीने जीवनार करतां व्रतने अखंड राखीने मरनार माणस घणो उत्तम छ, केमके अनेक भव भ्रमण करतां पवित्र व्रत पालननी रुचि थवीज मुश्केल छे तो तेने प्राणान्त मुधी अखंड पालन करवानी प्रवळ कामनानुं तो कहेज शृं?
: ग्रहण करेला पवित्र व्रतोन अखंड पालन करीने परलोक गमन करनार माणसो पोतानी पाछळ अखंड कीर्ति अने अमूल्य दृष्टांत - मुकता जाय छे, जेने अनुसरीने अनेक आत्महितेच्छक जनो सन्मागर्नु सारी रीते सेवन करे छे. भरतेश्वर, बाहुबली प्रमुख अनेक : सताओना अने बाली, सुंदरी प्रमुख अनेक सतीओना एवा . उत्तमोत्तम दाखला जगतमां प्रसिद्धज छे. ___ हाय तो स्त्री होय या तो पुरुष होय पण पुरुषार्थ परायणतायीज सव्रतोनी समज मेळवीने ते तेमनुं विधिवत् पालन करी - शके छे, अने एम विधिवत व्रतनं अखंड पालन करीने स्वजीवन
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. सफळ करे छे. एवी सद्बुद्धि सर्व कोइने जागृत याओ ! अने व्रत भंग करवा या कराववा संबंधी कुबुदिनो सर्वथा अंत आवो एज इट छे. .
३६ मरण वखते समाधि साचववा खूब लक्ष राखजे. ___ जीवने जीवित पर्यंत जेवा शुभाशुभ अभ्यासनी आदत होय छ तेवीज तेनी शुभाशुभ असर तेना मरण समये समाधिना संवंधमां थाय छे. एम समजीने शाणा भाइ व्हेनोए जीवित पर्यंत शुभ अभ्यासनीज आदत पाडवी उचित छे. सारां कारण सेववाथी कार्य पण सारंज थाय छे. एवा निश्चय अने श्रद्धापूर्वक मरण वखते समाधि इच्छनार जनोए जीवित पर्यंत शुद्ध भावनाथी शुभ करणी करवा परायण रहेवु जरुरनुं छे, सतत लक्षपूर्वक खंतथी सत् करणी करनार सत्पुरुषो अध्यवसायनी विशुद्धिथी अंने समाधियुक्त मरण करी सद्गतिना भागी थाय छे.
__जो तुं जन्म मरणना दुःखी त्रास पाम्यो होय तो श्री वीतराग वचनानुसार निर्दोष धर्मर्नु आराधन करीने जेम समाधि मरणनी प्राप्ति थाय तेम खास लक्ष राख. समाधि मरणथी जीवित पर्यंत करेला धर्मनी सार्थकता थाय छे. गमे तेटला उंडा कूवामांथी जळ काढवाने माटे लांची दोरी साये लोटो विगेरे कुवामां नाखतां
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८ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. दोरीनो अमुक छेडानो भाग हाथमा मजबुत रीते पकडी राखवामा आवे छे अने जो ते जुक्तियी जाळवी शके छे तो पहेला लोटा साये अभीष्ट जळ मेळवी शके छे पण जो छेवटना भागमा कंइपण गफछत करे छे तो ते सर्वने गमावी पोताना जानने पण जोखममां नांखे छे, तेम समाधि मेळवी पोतानो जन्म मुधारवाने आखी जिंदगीना मोटा.भाग मुधी यत्न कर्या छतां जो छेवटना भागमा गफलत-वेदबकारी करवामां आवे तो पोताना चळंचित्तथी ते अभीष्ट समाधिने अंत वखते मेळववा भाग्यशाली थइ शकतो नथी, परंतु दुषित थयेलां मन, वचन, अने कायाथी उलटी असमाधि पेदा करीने अधोगतिने "पामी जन्म मरण जन्य अनंत दुःखनोज भागी थाय छे. माटे राग द्वेषादिक अंतर विकारो जेम निर्मूळ थवा पामे 'तेम यत्नथी जीवित पर्यंत निष्काम चित्त राखी व्यवहारिक नैतिक अने धार्मिक जीवन गाळवामां आवे अने कदापि पण खइष्ट कार्यमा गफलत थवा न पामे तो छेवट अंत समये समाधि प्राप्त थया विना रहे नहि. एम समजीने कोण विवेकीनर स्खइष्ट कार्यनी उपेक्षा करी स्वच्छंद वर्त"नथी संसार परिभ्रमण पसंद करे वारु ? अथवा खरेखरूं तत्त्व रहस्य शास्त्रकारोए कहुं छे के "जेवी गति एवी मति अने मति एवी गति" आ मार्मिक वचन बहु बहु मनन करवा योग्य छे. अने टुंकाणमा सर्व हितोपदेशना सार रुप छे.
समाधि मुग्वना कामी जनोप आराधना प्रकरणादिकमा क
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. हेलां च्यार शरणां, दुष्कृतनिंदना, सुकृत अनुमोदना सर्व जीव साथे खामणा, संलेखना, पंचाचारनी विशुद्धि तथा नवकार महामंत्रादिकनुं लक्ष पूर्वक स्मरणादिक दश अधिकारो बहु सारी रीते समजवा, आदरवा. अने आराधना अथवा पुन्य प्रकाशना स्तवनथी पण उक्त अधिकार सारी रीते समजी शकाय तेम होवाथी अंत स‘माधिने इच्छावाळा भाइ व्हेनोए तेनुं निरंतर श्रवण मनन करीने तेमा रहेला परमार्थ- परिशीलन कर, युक्त छे.
गमे तेवा संयोगोमां पोतानुं खरं निशान नहि चकनार दृढ अभ्यासी अंते समाधि मरणने पामी अक्षय मुखनो अधिकारी थइ शके छे.
३७ आ भव परभव संबंधी भोगाशंसा करीश नहि.
आ लोक अथवा परलोकना सुखनी इच्छाथी करवामां आवती धर्म करणी अल्प फळदायी थाय छे, पण जो तेज करणी केवळ “पारमार्थिक मोक्ष सुखने माटेज सहेतुक समजीने विवेकथी करवामां
आवी होय तो तेथी मुख्यपणे मोक्षनो अने गौणपणे सामान्यतः 'स्वर्गादिक मुखनो सहेजे लाभ मळे छेज. मनना परिणाम मुजव सामान्य विशेष फळनी प्राप्ति थाय छे. माटे जेम बने तेम नवळा परिणामने मनमा अवकाश आपको नहि. कढाच तेवो परिणाम भयो
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श्री जैनहितोपदेश भाग जो. तो तेने दुर करी देवा घटतो प्रयत्न करवो, अने शुभ भावनाने शीघ्रस्थान आपq. खेडुत लोको खेड करी खातरं नांखीने जेम धान्यना मोटा पाकने माटे धान्यनां वीज वावे छे, पण केवळ पलाल (घास) ने माटे वावता नथी, छतां धान्यनी निष्पत्ति साथे पलाल पण साज पाके छे; तेम मोक्षने माटे करवामां आवती करणीयी प्रसंगोपात स्वर्गादिकनां सुख पण मळे छे, केवळ स्वर्गादिक मुखने माटेज धर्मकरणी करवानी जरुर नथी. छतां तेवां क्षणिक सुखनी बुद्धिथीज जो धर्मकरणी करवामां आवे तो तेनुं फळ पण मायः तेटलुंज अल्प मळे छे.
आलोक परलोक संबंधी सुखनी बुद्धिथी मोह अने अज्ञान गर्मित करेली करणी गमे तेवी कठण होय तोपण तेथी प्रायः परिणामे हित यतुं नथी पण उलटुं भारे नुकसान थाय छे. केमके तुच्छ आशंसा पूर्वक करेली कठण क्रियाथी क्वचित् देवगति पण मळे छे, परंतु पाछळथी पूर्व पूण्य क्षयानंतर तेनो अधः पात थया विना रहेतो नथी तेथी ज्ञानी पुरुषोए तेवी विष या गरल क्रियानो मंडूक-चुर्णना न्यायथी निषेध करेलो छे. जेम एक मंडूकी (संमूर्छिम देडकी)ना चूर्णमाथी लाखो नवनवी मंडूकीओ पेदा थाय छे तेम तुच्छ भोगाशंसाथी करेली करणीवडे लाखोगमे नवनवा भोगायतनो (देहो) धारण करी जन्ममरणजन्य अनंत दुःखना अनेकशः भागी तुं पडे छे. परंतु जेम दग्ध थयेला ते मंडूकीना चूर्णमाथी एक पण नवी
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श्री जनहितोपदेश भार्ग २ जो. मंडूकी पेदा थइ शकती नथी तेम विवेक पूर्वक भोगाशंसा तजीने निष्कामपणे जो तहेतु अने अमृत क्रियाने सेववामां आवे छे तो तेथी अंते.भवनो अंत करीने परम समाधिमय मोक्ष सुखनी प्राप्ति
थाय छे.
३८ स्व कर्तव्य समजीने स्वपर हित साधवा तत्पर रहे.
जे शुभाशय प्रथम स्वहित यथार्थ समजीन आदरे छे, तेमांज अहोनिश सावधान रहे छे, तेज महाशय कालांतरे परहित साधवाने समर्थ थइ शके छे. पण जो पहेलो पोतानुं खलं हितज शुं छे ते पूरे जाणतो के आदरतो नथी तो ते परहित शी रीते साधी शकशे? पोते निर्धन छतां अन्यने शी रीते धनाढ्य करी शकशे ? पोतेज द. रिआमां डूवतां छतां अन्यने शुं तारी शकशे ? माटे व हितने यथार्थ समजीने साधनारज परहितने पण परमार्थथी जाणी समजीने साधी शकवानो ए वात निःसंशय सिद्ध छे.
___ज्ञानी-विवेकीजनो स्वहितनी पेरे परहितने पण व कर्तव्यज समजे छे, अने तेथीज तेओ निरभिमानपणे स्वहित समजीनेज परहित करे छे.
तत्त्वदृष्टि महापुरुषो कदापि पण 'हु अमुकर्नु हित करंर्छ' 'मारा विना अमुकनु हित थइ शकशे नहिं ' एबुं कर्तृत्व-अभिमान
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९२ श्री जैनहितोपदेश भाग. जो. लावता नथी. स्वहित अने परहित तेमने मन एक छे, जूदा भासतां नयी, तेथी तेवा मिथ्याभिमानने मनमा आववा अवकाश पण मळतो 'नथी. खेरुं कारण तो ए छे के तेमने तेमनुं खरं हित यथार्थ समजायुं अने अनुभवायुं छे. तेथी स्वहितने सहायभूत सर्व सात्विक विचार या भावनानेज तेमना मनमा स्थान मळे छे पण तेमां विनभूत बाधक एवा कोइपण क्षुद्र विचार के भावनाने स्थान मळी शकतुंज नथी अने ते तेवा तत्त्व दृष्टि विवेकी जनोने केवळ उचितज छे.
आ उपरथी ए वात सिद्ध थाय छ के स्वपर हितैषीए प्रथम स्वहितज सारी रीते समजीने आदर अने अनुभवq योग्य छे. __ स्वहित पण साध, सहेज नथी. केमके ते योग्यतावंतनेज प्राप्त थाय छे. __ स्वहित साधवाने योग्यता मेंळववा माटे नीचे वतावेला गुणोनो खास अभ्यास करवानी जरुर छे. तेवा सद्गुणो मेळव्या विना बाधकभूत दोषो दूर थताज नथी, जेथी जीव स्खहित साधवाने अशक्तअयोग्य थाय छे तेथी प्रथम आत्महिनैपीए नीचेनी हकिकत ध्यानमा लेवी जरुरनी छे. तेनुं यथार्थ परिशीलन करवाथी आत्मा जरूर स्वाहित साधी शके छे. - १. अक्षुद्र-पारको छिद्र नोवानी कुठेव त्यज्याथी अने स्य
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श्री जैनहितोपदेश भाग-२ जो. दोषने नीरखी सुधारवानी सारी टेव पडवायी आत्मामां गंभीरता नामे सद्गुण प्रगट थाय छे.
रुपं निधि-पांचे इंद्रियो परवडी अने देह नीरोगी होवाथी शरीरसौष्टव गुण लाभे छे. विषय लोलुपता तजीने मन अने इंद्रियोने नियममा राखवाथी अने आरोग्यताना नियमोने पण लक्ष पूर्वक पाळेवार्थी उक्त गुण प्राप्त थइ शके छे. 'शरीर माद्यं खलु; धर्म साधन'-शरीर' ए धर्म साधनोमांर्नु एक अति अगत्यर्नु साधन होवाथी तेनी योग्य संभाळ लेवानी सर्व कोइनी प्रथम फरज छे।
३. सौम्यता-जेम चंद्रने देखी सर्व कोइने शीतळता वळे एवी प्रकृतिनी सहज शीनळता सात्विक विचार, सात्त्विक भाषण, सात्विक कार्योवडे सहज सिद्ध थाय छे. सहज शीतळ स्वभाववाळा माणसो सर्व कोइने अभिगम्य थाय छे. तेवी ठंडी प्रकृति प्राय: सर्व कोइने प्रिय होवाथी ते सर्वना विश्वासपात्र थइ पडे छे,
४. जनप्रिय-लोक प्रिय गुण सर्व कोइने वल्लभ थवाय एवां सत्कार्य-सुकृत करवाथी अने आलोक परलोक विरुद्ध दुष्कृत तजवाथी प्राप्त थइ शके छे, आ गुणथी माणस धारे एवां मोटा कार्य करी शके छे. . ५, अक्रूर-तामसी प्रकृति तजीने क्षमा, नम्रता तथा अनुकंपादिक गुणनो अभ्यास करवाथी क्रूरता-कठोरता दोष दूर थाय
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श्री जैनहितोपदेश माग २ जो. छे. अने हृदयमां, वचनमा, अने कृतिमा सहज कोमळता प्रगट थाय छे. . ६. भीरु-धर्मी माणसोनी संगतिथी अथवा धर्म शास्तुं श्रवण मनन करवायी या तो पूर्वना शुभ संस्कारथी जीवने स्वभाविक रीते पापनो या परभवनो डर लागे छे. कंइ पण अनीति के अन्याय करतां मन झट दइने संकोचाय छे, अने पापथी तरत विरम छे. उक्त गुणथी पोताना पूज्य वडील जनोनुं मन पण न दूभाय एवी : काळजी रखाय छे.
७. अशठ-शठता (छळ प्रपंचादिक कपट वृत्ति) तज्याथी ए गुण प्राप्त थाय छ, सरल स्वभाव धारवाथी स्वव्यवहार पण सरल करी शकाय छे. कपटी माणसोने तो कपट करीने पोतानो दोष गोपववाने माटे बहु वक्र व्यवहार चलाववो पडे छे. सरल स्वभाविने तेम करवानी कंइ जरुर रहेती नथी. केमके सरल स्वभाविनां वचन उपर सर्व कोइने विश्वास आवे छे. कल्याण पण एवा सरल स्वभावीनुंज थाय छे, कपटीनुं यतुं नथी.
८. दाक्षिणतावंत-स्व इच्छा होय या न होय पण कंईक लाभालाभ विचारीने वडीलनी अथवा समुदायनी तीत्र इच्छाने मान आपीने कंइ कार्य करवानी पद्धति लोक मान्य होवाथी तेथी कचित् सारो लाभ पण मळे छे. परंतु उक्त दाक्षिणता कंइक मर्यादासर
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो०
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होवी जोइये. विवेक विनानी दाक्षिण्यतायी विपरीत परिणाम पण आवे छे ए बात भूलवी जोड़ती नथी, विवेकथीज स्वपर हित साधी शकाय छे.
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९. लजालु - उत्तम कूळनी अथवा धर्मनी मर्यादा पाळनार माणसोना परिचयथी या पूर्वना शुभ संस्कारथी लज्जानो गुण लाभी शके छे. ए गुणथी कंइपण खोदुं काम करतां जीव डरे छे अने शुभ काममां पराणे प्रवृत्ति करवा दोराय छे. एवी लज्जानी दरेकने आवश्यकता छे.
१०. दयाळ - क्षमा, सहनशीलता अने दुःखी लोकोनी दाझ दीलमां धरवाथी अथवा नीच निर्दयजनोनो सहवास तजीने उदार आशयोनी संगति करी तेमना जेवा सद्गुणोनो अभ्यास करवाथी सर्व प्रति दयाभाव रहे छे.
११. समदृष्टि - मध्यस्थ - आंधळा राग के द्वेष तजीने निष्पक्ष पातपणे सत्यासत्य संबंधी तोल करवानी देववाळाने ए गुण प्राप्त थइ शके छे.
१२. गुणरागी - गमे तेमां रहेला सद्गुण प्रत्येना साचा प्रेम थीज उक्त गुण प्राप्त थाय छे, गुणरागथी गुणनी अने गुणद्वेषयी दोपनी प्राप्ति थाय छे, निर्गुणना रागथी पण दोषनीज पुष्टि थाय छे केमके केवळ रागअंध दोषने पण गुणज मानी, ले छे. अने द्वेष
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जोः अंध पण गुणने दोषज मानी ले छे.: विवेक शून्यपणे रागादिक करतां उलटुं विपरीत परिणामजं आवे छे, 'माटेज: ज्ञानी पुरुषोः परीक्षा पर्वकज सदगुणना रागी थवानं फरमावे छे. जेथी सकळ दोपने अनुक्रमे दूर करीने सद्गुण संपन्न थवाय छे.
१३. सत्यवादी-जेने असत्य अहित अप्रिय भाषणः हलाहल . झेर जेवू लागे छे, अने सत्य हित अने प्रिय वचन अमृत जेवू मिष्ट लागे छे तेज परमार्थी सत्यवादी थइ शके छे. ते सत्यनी खातर प्राण पाथरशे.
१४. सुपक्ष-जेनां सगां संबंधी निर्मळ बुद्धिनां, मायालु, धर्मशीळ अने टेकीलां होय तेमज बीजांने पण तेवांज थवा प्रेरणा करता होय ते मुपक्ष (समर्थ पक्ष-वळवाळो) होवाथी सर्व कार्यमां फतेहमंद नीवडे छे.
१५. दीर्घदशी-कंइपण कार्य सहसा नहिं करतां तेनुं भावी परिणाम विचारीने विवेकथी करवा योग्य कार्य करे ते दीर्घदर्शी समयज्ञ कवाय छे.
१६. विशेषज्ञ-जे खरं स्वहित शुं छे अने ते शी रीते साध्य थइ शके छे ए तथा गुणदोष, लाभालाभ हिताहित, द्रव्य, क्षेत्र, काळ, अने भावने सारी रीते समजीने वीजाने समजावी शके ते विशेषज्ञ गणाय छे..
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श्री जैवाहिन्नपदेश भाग जो १५. सानुगत-शिष्ट सदाचारी सत्पुरुषोना पगले चालनार.. पोते पण अनुक्रमे सत्. चारित्रना परिशीलनथी सारी पंक्तिमा आनी ___ १८. विनयवंत-पद, अहंकारादिक दोषने त्यजीने संत पुरु
पोनी सेवायी या साधुजनोनी हित शिखामणने हृदयमा धरवायी विनय जनता आवे छ __. १९. कुतजाण-करेला गुणना जाण माणसो पोताना उपकारी माता, पिता, स्वामीके गुवोदिकना वनी शके तेटला गुणानुवाद क-. रवा चूकता नथी. कृतज्ञ माणस उपकारीना हितने माटे बने तेटलो स्वार्थनो भोग आपे छ. . .
- २०. परहितकारी-सहुने स्वहित व्हावं छे एम समजीने स्वहितनी परे परहित करवामां पण जेने प्रीति छे ते मनथी, वचनयी के कायाथी कोइर्नु अहित थाय एवां कार्ययी दूर रहेवानोज अने हित थाय एवांज शुभ कार्यमा जोडावानो प्रयत्न करे छे.
२१. लन्धलक्ष-सर्व बाबतमा जेनी दृष्टि आरपार प्होंची शके छे एवो चकोर पुरुष सुखेथी स्वहित समजीने तेने विवेकयी साधी शके छे. उक्त २१ गुणयी भूषित भव्य स्वहित साधवाने संपूर्ण अ. धिकारी छे. स्वहित साधवाना अनेक मार्ग पूर्वे प्रसंगे प्रसंगे वताव्या छे, एम जेणे यत्नयी स्वहित-स्व कर्तव्य साध्युं छे तेने परहित पण
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. सुभाध्यन छे. ते परहितने स्वहित-स्व कर्तव्य समनीने सुखे साधी
के छे. पंग जे स्वहित-स्व कर्तव्यनेज समजता नथी के सेवता नयी ते बापडा निर्धननी पेरे परहित तो भी रीतेज शाधी शके वारू ? '
___३९ पंच परमेष्टि महामंत्रनुं निरंतर स्मरण कर. :
_ 'अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, अने साधु ए पांच परमेष्टि छे.
जेमणे रागद्वेष अने मोहादिक अंतरंग शत्रुगणनो सर्वथा उच्छेद करी सर्वज्ञ सर्वदर्शी संपूर्ण सहजानंदि अने सर्वशक्तिमान थइ निदोष वचनवडे अनेक भव्य जीवोनो उद्धार कर्यो छे ते अरिहंत देव कहेवाय छे. जेमणे सर्व पाती अघाती कर्मोनो सर्वथा अंत करीने आत्माना स्वभाविक अनंत गुणोने प्रगट करी लोकना अग्र भागे स्थिति करी छे ते सिद्ध परमात्माना नामथी ओळखाय छे.
. पंचेंद्रिय निग्रह, नवविध ब्रह्मगुप्तिना धारक, च्यार. कषायथी मुक्त, पांच महाव्रत युक्त, पंचाचार पाळवाने समर्थ पांच समिति: अने त्रण गुप्तिना पालक. एम ३६ प्रधान गुणोवडे अलंकृत आचार्य भगवंत होय छे. “तेमनों वचन तीर्थकरना वचननी पेरे मानजीय थाय छे.
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भी जैनहितोपदेश भाग २ जो. सांगोपांग आगमने अर्थ रहस्य युक्त. जाणता छता, अन्य शियोने पठाववामा कुशल अने प्रमाद रहित. मूळ-उत्तर व्रतने पाळ
बामां तत्पर . छता, शिष्य समूहने धर्मशिक्षा देवा चतूर एका __ भविष्यमा आचार्यपद पामवाने योग्य धर्मगुरु उपाध्यायना. नामथी
ओळखाय छे. ..
बाह्यांतर परिग्रहथी मुक्त मुमुक्षु जनो जैन दर्शनमां साधु, श्र___ मण अने निग्रंथादिना नामथी ओळखाय छे, तेओ अहोनिश प्रमाद __ रहित धर्मसाधनमा तत्पर छता स्वहित पूर्वक परहित साधे छे. अहिं
सा, संयम अने तप लक्षण चारित्र धर्ममां सदा सावधानपणे वर्तता , भव्य जीवोने सन्मार्ग वतावे छे. .
शुद्ध आत्म धर्मथी अलंकृत होवाथी उक्त पंच परमेष्टी जगतमा. सारभूत छे, जेमां अरिहंत अने सिद्ध शुद्ध देवपदे, आचार्य, उपाध्याय अने सर्व साधुजनो शुद्ध गुरुपदे तेमां सारभूत रहेला दर्शन, ज्ञान, चारित्र अने तप शुद्ध धर्मपदे वर्ते छे. एवो शुद्ध धर्म दरेक आत्म व्यक्तिमां शक्तिरुपे रहेलो छे. अने तेन शक्तिरुपे रहेलो शुद्धधर्म परमेष्टी पुरुषोनी पेरे परम पुरुषार्थ योगे प्रगट थइ शके छे. परमेष्टी पुरूपाने ते अगट थयेल छे. आपणा प्रत्येक आत्मामां शक्ति रुपे रहेला ते शुद्ध धर्मने प्रगट करवानी पवित्र वुद्धि-निष्टाथी जो पूर्वोक्त पंच परमेष्टि भगवंतनुं तन्मयपणे भजन, स्मरण, रमण, पूजन करवामां आवे तो आपणामां शक्तिरुपे रहेलो शुद्ध दर्शन, ज्ञान, चारित्र अने
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ܘܘܢ
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श्री जैनहितोपदेश भाग र जो. तप लक्षण धर्म अवश्य अंगटभावने पाम ए वात निसंभव छ. माटे आपणे शुद्ध देव गुरु अने धर्म संबंधी सद्गुरूं-समीपे सारी समज' मेळवी, तेनुं मनन करी, तेवा पवित्र लक्षयीज जगतमा सारभूत एवा पंच परमेष्टी महामंत्रनुं अहानिश रटण करवू युक्त छ एम पवित्र लक्ष पूर्वक परमेष्टि महामंत्रनुं अहोनिश रटण करता आपणे पण अंते कीट भ्रमरीना न्यायी परमेष्टीरुप 'थइने अविनाशीपदना अवश्य अधिकारी थेइ शकी.
४० धर्म रसायणर्नु सेवन कर. . . इदं शरीरं परिणाम दुर्बलं, पतत्यवश्यं श्लथ सन्धि जर्जर।। किमोषधैः क्लिश्यसि मूढ दुर्मते, निरामयं धर्म
- रसायनं पिव ॥१॥ गमे तेटलुं पाब्यु पोष्युं छतां परिणामे दुर्बळ एबुं आ शरीर, तेना सांधा नरम पडवाथी जाजरे थयु छतुं अंते अवश्य (एक दिन) पडवाज छे, तो हे मूढ दुर्मति ! तुं शा माटे अनेक जातना औषध भेषज करीने देहनु दमन करे छे ? केवळ नीरोगी अने निरुपम एवा धर्म रसायण मुंज तुं अहोनिश पान कर. धर्म रसायणविना कदापि तारा जन्म, जरा अने मृत्युरुपी भाव-रोगोनुं निकंदन थइ अकशेज नहि. जन्म जरा अने मृत्यु एज प्राणीयोना खरेखरा रोग
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भी नैनहितोपदेन भाग १ मो. १११ छे, अने.धर्मरसायनवडेज. ते दूर यइ. शके तेम छे. तो....पछी. जन्म, भरणजन्य अनंद दुःखथी उद्विग्न थपेला मुमुक्षु जनोए. तेनुं पान करखा मा.माटे. दील करवी जोइये ? वीरमभुए गौतमः स्वामीने पण पूर्वे को छे के गोयम म कर प्रमाद " पु: वचन, बहु बहु मनन करवा योग्य छे........ ---
- - ... आपणा साचा अर्थमा स्वार्थमा अनादर करचो, स्वहितथी
- - - - चुकवू, स्व कर्तव्यथी भ्रष्ट थवं, अने नहिं करवा योग्य करवाने तत्पर थवं, तेनुं नाम ज्ञानी पुरुषो प्रमाद कहें छे. टुंकाणमा सर्वज्ञ प्रभुनी अति हितकारी आज्ञानी उपेक्षा करीने स्वच्छंद वर्तन कर तेर्नु नामज भमाद छे. मय, विषय, कषाय, निद्रा, अने विकथा मळीने प्रमादना मुख्य पांच भेद-छे, जे धर्मार्थीजनोए अवश्य परिहरवा योग्य छे. असमादी पुरुषा धर्मर्नु यथार्थ सेवन, करी शके छ. प्रेमादशील जनो जरुर स्व कर्तव्य कार्यथी चूके छे. .. - उपशम श्रेणि उपर आरुढ थयेला, चौद पूर्वधरः साधुओ पण प्रमाद वशात् स्वस्थानथी चूकी पतित थाय छे तो वीजार्नु तेरों गजुं ? एम समजी जेम वने तेम प्रमाद स्थानने तजी- अममत्त य, 'जोइये. थोडा पण व्रण, रुण, के अग्मिनी परे प्रमादने पण वधतां चार लागती नथी तेथी ते ज्यां सुधी. निरवशेष नष्ट न थाय त्या मुधी तेनो विश्वास करचो भवभीरु जनोने उचित नथीज. .
शुद्ध भावना एजःखरूं रसायण छे. केपके तेना विना गमे
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
तेवी धर्म करणी पण फळीभूत यती नयी अने शुद्ध भावना मात्रयी सर्व करणी सफळ थाय छे. माटे उक्त भावनानो अवश्य अभ्यास करवो जोइये. 'भावना भव नाशिनी ' - भावना जन्म मरणनां दुःख मात्रनो अंत करे छे अने अक्षय अनंत सुख मेळवी आपे छे.
मैत्री, मुदिता, करुणा अने मध्यस्थता रुप भावना चतुष्टय परम हितकारी छे तेमज अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्वादिक द्वादश भावना पण भव भयने हरनारी छे.
शुद्ध भावना रहित क्रिया काचना कटका जेवी होवाथी त्याज्य छे. पण क्रिया रहित शुद्ध भावना तो अमूल्य रत्न जेवी होवाश्री सेव्य छे. शुद्ध भावना रहित अंध क्रियायी अहंकारादिक दोषो प्रभवे छे त्यारे केवळ शुद्ध भावनाथी तो शुद्ध गुणानु रागादिक सद्गुणो प्रगटे छे. शुद्ध भावनावंत - कदापि वीतराग देशित सन्मार्गनो अनादर करेज नहिं, एटलुंज नहि पण यथाशक्ति ज्ञान-क्रिया रुप मोक्ष मार्गनो आदर करे छे अने एज खरुं रसायण छे.
·
शुद्ध भावना युक्त धर्म क्रिया दूधमां साकर जेवी, उज्वळ, शंमां दूध जेवी अने सुवर्णमां जडेला साचा रत्न जेवी मनोहर थइ पडे छे, अने आत्म कल्याण पण एवी सतक्रियाथीज सांधी शकाय छे तेथी मोक्षार्थी सज्जनोए एवी सत्क्रियानोज खप करवो उचित छे, जेथी शीघ्र स्वमोक्ष थइ शके.
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श्री जैनहितोपदेश-भाग २ जो. १०१ . ' ४१ वैराग्य भावथीं लक्ष्मी विगेरे-क्षणिक
पदार्थोनो मोह तजी दे... -. : अनित्य अने असार क्षण विनाशी पदार्थोमा मोह बांधीने मुब-अज्ञानी जीवो. महा. दुःखी, थाय छे. ममतावडे ययेला मति भ्रमयी, मूर्ख जनो अनित्य वस्तुने नित्य, असार-अशुचि, वस्तुने सार-शुचि अने पराइ वस्तुने पोतानी मानी तेमा मुंझाइ.मरे छे. जो नीवने वस्तु स्वभावदुंज यथार्थ भान याय.तो खोटी वस्तुमा नाहक सुंझाइ मरवानो वखत आवेज नहि, माटे प्रथम मध्यस्थपणे वस्तु खरुप जाणीने विवेकयी बाधकभूत भावोनो त्याग करीने कल्याणकारी मार्गनुंज ग्रहण करवू जोइये... ........ . संपदो जल तरंग विलोला, यौवनं त्रिचतुराणिदिनानि।। शारदाभ्रमिव चंचलमायुः, किं धनैः कुरुत धर्म मनिन्द्यम्. - लक्ष्मी जळ तरंगनी जेवी चंचळ छे, यौवन वय शीघ्र चाल्युंजाय
छ, अने आयुष्य शरद रंतुना वादळनी 'जेम अत्यंत अल्पकाळ टके एछे तो अस्थिर धनने माटे आटली दोडधाम करवानी शी जरुर छे?
आटला अल्प समयमां बनी शके तेटली त्वराथी अहिंसादिक शुद्ध निर्दोष धर्मनन सेवन कर, खास जरुरतुं छे. केमके सर्व इच्छित वस्तु
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३४ी जनहितोपदेश भाग जो. धर्मयीन प्राप्त थइ शके छे. शुिद्ध धर्मसेवन: बिना भविष्यका कंइपण सुखनी आशा राखवी व्यर्थन छे. अने. धर्म सेवनथी सर्व प्रकारनु सुख स्वतः प्राप्त थाय छे. ..ज्या सुधी जीव मसारना मोहमय संबंधमान रच्यो पच्यो रहे
छे त्यासुधी ते मोह मायाना जोरथों संसारना स्वरुपने यथार्थ समज्या विना, स्वहित साधवाने कइपण शक्तिवान् 'थइ शकतो नयी. ज्यारे जीवने संसार संबंधी दुःखनो..खरों ख्याल आवे छे त्यारेज तेथी छूटवाने कॅइक साधननी शोध करे छ, अने भाग्ययोगे सत्संग बडे धर्म स्वरुप समजवाने तेमज समजीने तेने सेवाने ते समर्थ
'थइ शके छ, संसारर्नु स्वरुप विचारीने तेनों खरी ख्याल लाववाने ___ माटे ज्ञानी पुरुषोए अनित्य, अशरणादिक बार भावनाओं शाखमा : कही छे तेनु यथार्थ मनन करता भरत, भरुदेवी, नमि राजर्षि,..: 'मुख अनेक भव्य जीवो मुक्तिपदने पाम्या छे. माटे उक्त भावना• ओर्नु स्वरुप लेश मात्र बतावद् अत्र दुरस्त घायु छे. .'
१. अनित्य देह, लक्ष्मी अने कुटुंब विगैरे सर्व संयोगिक वस्तुओनो वियोन धया विना रहेवानो नथी. सर्व अंतक काळ सर्व
परिभ्रमण करी रखो छे. कालने काळनो भय छे एम समजीने
..
जीघ्र स्वहित साध.
२. अमरन-वजन देह के लक्ष्मी पैकी कोइपण परभव मतां
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श्री जैनहितोपदेश भागमो . १०५ जीवने सहायभूत थइ कता नी. देह के कुटुंबने गमे तेटली पोष्या छतां अंते आपणां यतां नयी. स्वायों नित्यं मित्रनी परे ते छेनटे छह दे छे. तेथी जूहार मित्रनी जेवा परम उपकारी. धर्मनुज शरण करतुं
योग्य छे..... ।
... -३.-संसार-आप आपणां कर्मानुसारे सर्वे जीवो नर्क, तिर्यत्र . मनुष्य अने देव गतिमां गमन करे छे, जेणे जेवू.शुभाशुभ कर्म जेवा
भावधी कर्यु: होय छे, तेने तेवू. शुभाशुभ फल तेवी. रोते भोगवन -पडे छे. विविध कर्म वशात् जीवो नटवर विविध चेष्टाओ करे छे. कर्मने: वशवर्ती जीवानी तेत्री विचित्र अवस्था जोइने तत्त्व दृष्टि.मुंआइ जता-नयीं, कारण के तत्त्व दृष्टि पुरुषो तेनां मूळ कारणने सारी रीते. समनता होवाथी मन.समाधान करी शके छ, अतव दृष्टि जनो.एवी रीते मन- समाधान करी शकना नथी, तेथीन दुःखमय संसारमा पण रच्या पंच्या रहे छे..
४- एकत्व-जीव एकलोज आवे छे अने एकलोज़ जाय छे. साये फक्त पुण्य अने पापज- रहेवाथी जीव तदनुसारे मुख दुःखने 'पामे छे. जीव जेबा जेवां कर्म करे छ, ..तेवां तेवांन आ भवमा के परभवमा फळ भोगवे छे. तेमां कोई कंइ पण मिथ्या करी शकतुं नथी. आता आणे मारु सुधार्यु अथवा आणे मारु बगाडयु. एम जीव मुग्धताथी मानी बेसे छे. तथा एकनी उपर राग अने बीजा उपर
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१०६ .श्री जनहितोपदेश भाग-२ जो. देश करीने. नाहक दुःख पेदा करे छ, तत्त्वयी ज़ोता आपणुं सुधारनार के बगाडनार आपणेज छीये . . . ' :
५. अन्यत्व-देह, लक्ष्मी के कुटुंबने आत्मानी साथे अत्यंत संबंध नथी, फक्त अल्प काळने माटे संयोग संबंध थयेलो छे के हे. नो अवश्य वियोग थानो छे. अरे नित्य मित्र समान देह पण अंते आपणु यतुं नथी तो अन्यनुं तो कहेज शृं? वळी देह लक्ष्मी विगेंरेनो अने आत्मानो स्वभाव भिन्न भिन्न छे. देह, लक्ष्मी विगेरे जड वस्तुओ छे, त्यारे आत्मा चैतन्य युक्त छे. देह विगेरे वस्तुओ क्षण विनाशी छे अने आत्मा तो अचळ अविनाशी छे एम समजी देहादिक संबंधी मिथ्या मोह तजीने निर्मळ ज्ञान, दर्शन, अने चारित्रादिक आत्मानी सहज संपत्ति संप्राप्त करवा प्रयत्न करवो जोइये.
६. अशुचि-आ शरीर मळ मूत्रादिक महा अशुचिथी भरेलु छ पुरुषने नवद्वारे अने स्त्रीने द्वादश द्वारे अशुचि वहेती रहे छे. तेमज सडन, पडन अने विध्वंसनज जेनो धर्म छ एवा आ जड देहमा कोण विवेकशील मुंझाय? आवा असार अस्थिर अने अशुचिमय देहनी खातर कोण तत्वदृष्टि पुरुष पापनो पोटलो शिरपर उठावे ? आवा अशुचिमय देहमा विवेकी हंस तो राचेज नहि, केवळ निर्विवेकी-मूंड जेवाज राची शके, अने तेनी खातरं अनेक पाप करीने पण खुशी थाय.
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पण खेशी शाय ...
"
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. श्री जैनहितोपदे भाग र जो. १०७
आश्रव-हिंसा, असत्य, अदेत, अवस, अने असंतोष ममुंख तथा विषय केपायादिक संबंधी सर्व विरुद्ध क्रिया आत्माने सहजानंद सुखमा अंतरायभूत होवायी आश्रव संज्ञाथी ओळखाय छे. कइक सारा आशयथी मन, वचन, अने कायावडे क्रिया करवायी पुण्याश्रव अने माग आशयथी पापाश्रव थाय छे. पुण्याश्रवयी कइक सुखनी प्रतीति.अने पापाश्रवयी दुःखनीज प्रतीति थाय छे. सोनानी के.लोढानी बेडी जेवा बने आश्रयोने विवेकी पुरुषं संबर बड़े छेदी शके छे.
. ८ संवर-आलोक के परलोक संबंधी भोगाशंसा तजीने केवळ आत्म कल्याणार्थ शुद्ध चारित्र धर्मनु सेवन करीने आश्रवनो अटकाव करवो तेनुं नाम संवर छ. गमे तेवा अनुकूल के प्रतिकूळ परीषहो सहन करवा, प्रवचन माता- यथार्थ पालन कर. क्षमादिक दशविध यतिधर्मनु सेवन कर. मैत्री, मुदितादिक भावना चतुष्टय अथवा अनित्यादिक प्रस्तुत भावनानु विवेकथी परिशीलन करवू, अने सामायकादिक चारित्र मार्गनुं निष्कपटपणे सेवन करवं ए संवर सर्व मुर्खकारी छे, 'एम' समजी यथाशक्ति । तेमा उद्यम करवों, अथवा तेवा सन्मार्गनी बनती सहाय के अनुमो दना करवीज उर्चित छे. संवर योगे चिलांतिपुत्र दृढप्रहारी अने कडराजा जेवा निर्दय जीवोनां पण कल्याण थयां छे.. संवर विना कदापि आ दुःखमय संसारनो छेडोपामी शकाय नहि..
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१०४ श्री जैनहितोपदेश भाग २जो. ५ : निर्जरा-जेथी पूर्व संचित, कर्मनो लय करी-प्रकाप, एटले के आत्माने कर्मयी जुदो पाडी मुक्त करी काय तेनु नाम निर्जरा छे. तेवी निर्जरा समतायुक्त तप करवायी थाय छे. उक्त तपना छ वास अने छ अभ्यंतर मळीने १२ वार भेदं छे. विवेकशी करवामां आवतों बाह्य तप अभ्यंतर तपनी पुष्टि करी आत्माने .अत्यंत निर्मळ करें छे.. तेथी: दरेक आत्मार्थी-जनोएं ते अवश्य आदरवा योग्य छे. अनशन-उपवासादि, ऊंनोदरी-अल्प: भोजन, वृत्ति संक्षेप-नियमित भोगोपभोग, रस त्याग-अमुक रसनी, लोलुपतानो त्याग, कायक्लेश-केश लोच, आतापनादि, अने. संलीनता-आसनजय प्रमुख ए बाह्य तपना ६:छ भेद छे..तेमज प्रायश्चित-पापनी आलोचना, विनय-गुणानुराग, वैयाकृत्य-सेवा भक्ति, स्वाध्याय, ध्यान, अने, काऊसग्ग-देहादिक परथी मूर्छानो त्याग ए प्रमाणे अभ्यंतर तपना छ भेद. मळी तपना बार भेद कह्या, छे. जेम प्रबळ अमिना तापथी सुवर्णनी शुद्धि थाय छे तेम पूर्वोक्त परम पुरुष प्रणीत तपना सम्यग् आराधनथी आत्मानी. विशुद्धि थई शके छे, एम समजीने उक्त तप, सेवन करवा सावधान रहे.., .. , १० लोक स्वभाव-उर्ध्व;; अधो. अने तीर्थी लोक स्वरुप शाखमां जेवू कडं-छे तेवुः विचारवं. प्होळा न करीने अने केडे हाथ दइने उभेला पुरुषनी जेवी आकृति संपूर्ण लोकनी कहेली.छे. अर्ध्व लोकमां चराचर ज्योतिष् चक्र, बार देवलोक, नव वेयक,
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श्री जनहितोपदेश भांग जो.. पाँच अनुत्तर विमान तथा सिदसौला रहेली 2. अयो लोकमां व्यतर, प्राणज्यतर,२०, भुवनपति, सजासात नर्क वीओ रहेली में, अंने तीछ लोकमाँ असंख्याता दीप तथा असंख्याता सिमंद्र, जंबुद्वीपनी फरता क्लयाकारें आवी रहेंला छे. आभावनाथी-सम: कितनी हताथाय छे................:, .. .. .११ बोधि दुर्लभ-इंद्र के चक्रवर्ती जेवी संपत्ति करता पण जीबने आ संसार चक्रमा भमतो समकित रत्ननी प्राप्ति थवी परम दुर्लभ छे. शुद्ध देवगुरु अने धर्मर्नु स्वरुप. यथार्थ जाणवायी अने जाणीने तेने सम्यग् आदरवायीज सम्यक्त्व गुणनी प्राप्ति थह शके छ, समकितवंतनीज सर्व करणी लेखे पडे छे-मोक्ष महाफळने आपे छ, एम समजीने मोक्षार्थी सज्जनोए प्रथम समकितनीज भावना हद करवानी जरूर छे. शम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा, अने आस्तिकता ए पांच समकितनां श्रेष्ट लक्षण छे. समकितवंतनुं ज्ञान यथार्य होय छे. तेथी ते हिताहित, लाभालाभ, अने भक्ष्याभक्ष्यादिने यथार्थ समजे छे. - १२ अरिहंत भाषित धर्म-राग, द्वेष अने मोहादिक सर्व दोष रहित सर्वज्ञ प्रभुनी सातिशय वाणीयी अनेक जीवोना हृद्गत संशयोनो उच्छेद थइ जाय छे अने तेथी, अनेक भव्यो सपरहित साधवाने सन्मुख थाप केएकांत हितकारी प्र.
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२१० भी जैनहितोपदेन भाग २ मो. भुनी वाणी भव्य चकोरोने अमृतथी पूर्ण मीठी लागे के सेषी तेनो कदापि अभावो थतोज नथी. पुष्करावर्त मेघनी जेवा प्रभुना हितोपदेशथी भव्य जीवो पोतानु खरं हित: यथार्थ समनीने सेवी शके छे, अने तेथीज तेओ सर्व पाप क्रियानो अनुक्रमे परीहार करीने निष्पाप एवा मोक्ष मार्गन आराधन करवा उनमाळ याय छे. विश्व जनोने पवित्र शासनना रागी करवानी अपूर्व भावनाधीन अरिहंतपणुं प्राप्त थइ शके छे, अने ते, परमपद प्राप्त करीने ते महानुभाव पूर्व भावनानुसारे त्रिभुवनवर्ती जनोने पवित्र हितोपदेश आपी तेमने साक्षात् शासनना रागी करे छे. तेथी सिद्ध थाय छे के पूर्वोक्त सद्भावना आपणी भविष्यनी उन्नतिनां अवंध्य वीजरुप'छे. वर्तमान काळमां रसायन शास्त्रीओ पण अनुकूळ भूमिमां वांववा योग्य बीज-वस्तुओनों विविध भावना (संस्कार ) दइने वावी ते वडे इच्छित फळने मेळवी शके छे तो सर्वज्ञ सर्वदर्शी-सर्वशक्ति संपन्न-पूर्णानंदी परमात्मा प्रणीत पवित्र भावना भावित जनो स्वपुरुपार्थ योगे केम अभीष्ट फळ मेळवी न शके ? अवश्य मेंळवी शेकेज. फक्त पूर्वोक्त भावना शुद्ध हृदयथीज भाववी जोइये अने एम'थाय तोज ते शुद्ध भावनाना वळथी भव्य जीवो आ भयंकर भव दुःखनो सर्वथा अंत करीने अक्षय सुखने मुखे साधी शके. . . ,
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श्री जैनहितोपदेव भाग २ जोर १११ ४२ सारभूत एवा सद् विवेकज सेवन कर. : ... . . “सदसद् विवेचनं विवेकः' . .. . . - “सत्यासत्यनो सम्यग् विचार पूर्वक निर्णय करलो के आतो तस्वभूतज छे अने आ अतत्त्वरुप छे. आतो संपूणज छे. अने आ-अपूर्ण छे. आतो आदरवा योग्यज छे, अने आ तजवा योग्य छे. आतो हितकारीज छे, अने आ अहितकारी छे. आq कार्वज उचित छ, अने आबु अनुचित छ, आमांज लाभ समायेलो छे, आमां नथीज अथवा गेरलाभ छे आतो गुणवानज छे अने.आ नधी. अथवा दोषवान् छ, आची वस्तुओज भक्ष्य छे अने आवी अभक्ष्य छे. आवी वस्तुओज पेय (पीवा योग्य ) छे अने आवी अपेय छे. आवा लक्षणवाळा जीवज होय छे, अने आवां लक्षण विनाना अजीवज होय छे. आनुं नामज पुण्य, अने आनुं नाम ते पाप, आनुं नाम ते आश्रव अने आनुं नाम संवर, आवा 4रिणामथी कर्मनो बंध थाय छे, अने आवा परिणामथी निर्जरा अथवा कर्मक्षय मोक्ष थाय छे. आवी रीते आत्महित संबंधी कंइक वारीकताथी अवलोकन करतां विवेक दीपक प्रगटे छे. जे अनादि अज्ञान अंधकारनो नाश करी नांखे छे अने घटमां समाधिकारक ज्ञान प्रकाशने विस्तारे छे. ..
अंतर राग, द्वेष, अने मोहादिक महा विकारोने लक्षमा राखीने
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११२ः . श्री जनहितोपदेश भाग र मा. जेम निर्विकारता प्राप्त थाय तेम मध्यस्थपणे विचार पूर्वक वर्तदायी अने समताभावित सत् पुरुषोना सतत, समागमयी अनादि अविवेकना पण अंत अवि छे अने हिताहित यथार्य भान करावनार विवेकनो उदय धाय छे.. जेने विवेकनी खेवना नथी तेने ते प्राप्त पण थतों नथीः ', ".:. :: ..."
सद्विवेके जागवार्थी जीवने सत्य वस्तुचें यथार्थ भनि यता खोटी असत्य वस्तु उपरथी सहेजे अभाव-अरुचि पैदा थाय के अने तेम थवाथी साची वस्तु उपर जोइए - तेवीं रुचि, प्रीति अने श्रद्धा जागवाथी तेनो सचोट स्वीकार थई शके छे. अभ्यास अभ्यासने वधारेज छे तेथी विवेकवंत 'आगळ उपर गुणमा सारो वधी शके छे. विवेक शून्यने एवो संभवज नथी. माटे प्रथम रागद्वेषादिक अंतर विकारोने हठावी मध्यस्थतादिक गुणनो अभ्यास करीने आस्मार्थीजनोए विवेक जगाववानी जरुर छे. श्रीमद् यशोविजयजी महाराजाए यथार्थ कयुं छे के-रवि दूजो तीजो नयन, अंतर भावि प्रकाश । करो धन्ध सब परिहरी, एक विवेक अभ्यास ॥ अंतरमा प्रकाश करीने पोतानी गुण-संपत्तिने प्रगट वतावनार विवेक बीजो सूर्य अने त्रीजु लोचन छे. एम समजीने शाणाजनोए ओर उपाधिने तजीने एक विवेकनोज अभ्यास करवो उचित छे. विवेकथी सर्व गुणनी सहजे प्राप्ति थशे, पण प्रथम अविवेकनां कारणो सदंतर दर करवां जोइये.
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श्री जैनहितोपदेश भांग जो.. ११३ ४३ धर्मरुपी संबल बने तेटलं साथे लइ ले.. , जीवने भवांतर जतां कोइपण परमार्थी सहायभूत होय तो ते. केवळ धर्मज छे. अने तेथी दरेक कल्याण-अर्थीए ते अवश्य आरा:धवा योग्यज छे. उक्त धर्म साक्षात् करवायी, कराववाथी के अनुमोदवाथी. आराधी शकाय छे, परंतु शक्ति छतां तेनी उपेक्षा करवाथी अथवा गमे तेवां कल्पित कारणो वडे तेनी मर्यादा उल्लंघवाथी विराधना थाय छे.
जेम दूर गामांतर जतां देहना निर्वाह माटे प्रथमथीज भातानी सगवड करी राखवामां आवे छे तेम भवांतर जतां जीवे जरूर धर्म संबल प्रथमथीज तैयार करी राखq जोइये. धर्म संबल विना जी.--. बने भवांतरमा भारे विपत्ति सहन करवी पडे छे. अने धर्म संवल. वडे सुखे समाधिये सर्व संपत्ति साधी शकाय छे. ___ आ भयंकर भवाटवीमां शुद्धाशय युक्त करेलो धर्म एक उत्तमोत्तम भोमिया तरीके भारे उपयोगी थाय छे. यावत् ते क्षेमकुशळे मोक्ष नगरे प्होंचाडी दे छे., .
अहिंसा (स्वच्छंदपणे कोइना प्राण नहिं लेवारुप दया), सत्य (हित मित अने प्रिय भाषण), अस्तेय (अनीतिथी कोइन केइपण' हरण नहि करवा रुप प्रमाणिकता), ब्रह्मचर्य (विषय व्यावृत्तिरुपा
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११४ श्री जैनहितोपदेवा भाग २ जो. सदाचार ), अने असंगता मूर्छारहित प[, सहज' संतोष, (निःस्पृहता) विगेरे सव्रतो. सारी रीते सेवन करवाथी सद्गतिनी अवश्य प्राप्ति थाय छे. एम सर्व शास्त्रकारो एके अवाजे कहे छे. आ शिवाय ' अहिंसा परमो धर्मः'ए मुद्रालेख खास लक्षमा राखीने, मांस, मदिरा, मध, माखण, मूलक-मूळादिक भूमिकंद रिंगण विंगण आदिक कामोद्दीपक अने बहुवीज फळ तथा रात्रिभोजन विगेरे अनेक अभक्ष्य वस्तुओर्नु पण शास्त्रकारोए वर्जन करवा भार दइने को छे. आ प्रमाणे अहिंसादिक महा व्रतोने पुष्टिकारी जे जे नियमावळी शास्त्रकारोए धर्मनी वृद्धि माटे वतावी छे. ते ते लक्षमा लइने दरेक धर्मावलंबी सज्जनोए तेनो यथाशक्ति अमल करवो खास 'अगत्यनो छे. केमके यथाशक्ति यतनीयं शुभे-स्वपर हितकारी शुभ कार्यमां छती शक्ति नहि गोपवतां यथाशक्ति यत्न करवो ए आपणी फरजज छे.
४४ मनुष्य भव फरी फरी मळवो मुश्केल छे, एम
समजी शीघ्र स्वहित साधीले. मनुध्य भवनी दुर्लभता एटला माटे स्वीकारवामां आवी छे के . ते वीना कोई पण वीजी गतिमां सम्यग् ज्ञान-क्रियानु अथवा सम्यग् दर्शन, ज्ञान अने चारित्र रुपी रत्नत्रयीनुं यथार्थ आराधन
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
करीने कोइ पण जीव कदापि पण ते ज भवमा सर्व घाति-अघाति कर्मनो सर्वथा अंत करीने अक्षय अविनाशी.एवं मोक्ष सुख साधवाने समर्थ थइ शके नहि अने तेथी ज आवो मनुष्य भव देवने पण दुर्लभ कह्यो छे. अर्थात् सम्यग् दृष्टि देवो पण मोक्ष गतिना द्वार रुप मनुष्य भवनी इच्छा करे छे अने तेवो मानव भव पामीने तेने सार्थक करवा समजमां आव्या बाद बनतो प्रयत्न पण करे छे.
तेवो मानव भव साक्षात् पामीने मोक्षार्थी जनाए मोक्ष साधनमा क्षण मात्र पण प्रमाद करवो योग्य नथी. प्रमादज प्राणीयोनो कट्टामा कहो दुश्मन छे, जेथी लोको प्राप्त सामग्रीने पण निष्फळ : करी नांखे छे.
प्रमादने परवश पडी जे लोको मानवभवने निष्फळ करे छे तेमने आ संसार चक्रमां परिभ्रमण करतां ते पुन: प्राप्त थवो अति दुर्लभ छे.
आथीज उत्तराध्ययन सूत्रमा आ मानवभव दश दृष्टांत दुर्लभ कयो छे. एटलुंज नहि पण भगवान् श्री वीरप्रभुए पोताना मुख्य शिष्य श्री गौतम- गणधरने संबोधीने प्रगट रोत कमु छ के 'एक - क्षणमात्र पण प्रमाद नहि करवो'-आ व क्य केटलुं वधु अर्थ सूचक । छे ? तेमाथी आपणने केटलो वधो वोध लेवानो छ ? छतां जो आ-. . पणे सुखशील थइने प्रमादाचरण नजशं. नहिं तो छेत्रट आपणने के. टखें वधुं शोचवू पडशे? तेनो ख्याल पृण आवदो अत्यारे मुश्कलंछ: -
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
ज्ञानी पुरुषो यथार्थ कहे छे के क्षणिक सुखने. माटे लावा काळचें मुख खोइ देवू जोइये नहिं. पण प्रमादने परवश पडेला प्राणीयो एमज करे छे.
'क्षण लाखेणो जाय '-आ अमूल्य मानवभवनो वखत एळे. गुमावांनो मथी. सारां मुकृतोवडे ते शीघ्र सफळ करी लेवानो छे...
धर्महीन मानवनो भव निष्फळ जाय छे अने धर्म युक्तनो हे सफळ थाय छे. धर्महीन माणसो भवान्तरमा भारे दुःखना भागी. थाय छे, अने धर्मचूस्त माणसो अक्षय सुखना अधिकारी थइ शके छ. 'देहे दुःखं महाफलं -स्वाधीनपणे आत्म कल्याणने माटे देहर्नु दमन करवू बहु हितकारी छे, अन्यथा पराधीनपणे तो दमाबुंज पडशे, अने एम करतां पण अभीष्ट सुखनी प्राप्ति थइ-शकशे नहि. स्वाधीनपणे तो देहने दमवाथी यथेष्ठ सुख मळी शकशे.
देहस्य सारं व्रत धारणं च '-यथाशक्ति सव्रत धारण करकयोज आ मानवदेहनी सार्थकता शास्त्रकार स्वीकार छे, ते विना ता *अजागल स्तनस्येव, तस्य जन्म निरर्थकम् '-बकरीना गकामांना आंचळनी पेठे तेनो जन्म मात्र निरर्थकज छे. जेओ केवळ विषयकषायादि प्रमादने वश थइ पोतानो मानवभव व्यर्थ गुमावे छे, तेओ सोनाना थाळमां कस्तूरीने बदले धूळ भरे छे, अमृततुं पान करवाने वृद्ले तैना बडे पादशोच करे छे, श्रेष्ट हाथीनी पासे लाकडां.
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. बहावे छे, अने चिन्तामणिरत्नने कागडाने उडाडवा माटे हाथमाथी फेंकी देछे.-आवी मूर्खाइ करे छे. वळी जे स्वच्छंद वर्तनथी क्षणिक मुखने मादे अमूल्य मानवभवने हारे छे ते मध्य दरियामां. एक फलकने माटे तारक वहाणने भागी,नांखे छे, एक खींटीने माटे,आखा महेलने पाडी नाखे छे, अने एक दोराने माटे मोतीनाहारने तोडी नखि छे, आम आप डहापण करीने अंते पश्चातापनाज भागी थाय छे. आवो पश्चाताप करवानो प्रसंग न आवे माटे स्वाहित समज पूर्वक साधवाने सावधान थइ रहेवू जोइये. शास्त्रकार योग्य फरमावे छे के ज्यां सुधीमां जरा आवी पीडे नहिं, विविध व्याधिओ वृद्धिगत थाय नहिं, अने इंद्रियोनुं वळ घटे नहिं त्यां सुधीमां वने तेटलं धर्मसाधन करी लेवू. पछी परवशपणे साधन कर भारे सुश्कल थइ पडशे.
४५ पुरुषार्थ वडेज सर्व कार्य सिद्ध थाय छे माटे
पुरुषार्थनेज अंगीकार कर. पुरुषार्थहीन एवा प्रमादी लोकोना मनना विचार सनमांज रही जाय छे. परंतु पुरुषार्थ युक्त प्रयाद रहित पुरुषोना सात्विक विचार जोइने तेनी भाग्यदेवी पण एवाज़ विचार करे. छे, तेथी ते प्रायः -सफलज थाय छे. .
पुरुषार्थवंतने दुनियामां कंइपण असाध्य नथी.
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११८ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. . पुरुषार्थवंतने मिथ्या आडवर रचवानी जरुर नथी, तेमज. तेने तेवो आडंबर प्रियं पण होतो नथी. तेओं करे छे घणु अने बोले छे थोडं. तेओ जे कंइ स्वपर हितकारी कार्य करे छे.ते फक्त स्वकर्तव्य समजीनेज करे छे. तेथी तेमने स्वोत्कर्ष के परापकर्ष करवाना वक्र व्यवहारमा उतरवू पडतुं नथी, अने सार पण एज छः __पुरुषार्थवंतज सत्य धर्म शोधन या दोहन करीने तेनु, यथार्थ सेवन करी शके छे. पुरुषार्थहीन लोको तो अंध श्रद्धाथी केवळ जूनी रुढीने अनुसरीनेज चालवावाळा होय छे, तेथी तेमां कंइ विशेष लाभ मेळवी शकता नथी. पुरुषार्थ विना कोइपण कार्य परिपूर्ण था शकतुं नथी. पूर्वोक्त पांचे प्रकारना प्रमादने तजीने सावधानपणे स्वपरहित साधनारज पुरुषार्थवंत कहेवाय छे. अने उक्त प्रमादने पराधीन थइ पडेला लोको पुरुषार्थहीन कहेवाय छे.
- पुरुषार्थज माणसनुं खरं जीवन छे, तेथी पुरुषार्थहीन माणस पशु समानज छे. पुरुषार्थहीन, मनुष्यभव पामीने उलटुं लेवानुं देवु करे छे.
· पुरुषार्थवंत पोताना पवित्र-वर्तनथी आ भू लोकमां पण दैवी जीवन जीवीने अंते अक्षय सुखना अधिकारी थाय छे. ' आपणे धारीये तो पूर्वोक्त प्रमादने तनी खरो- पुरुषार्थ धारी आपणा प्रमादी बंधुओने पण. पुरुषार्थवेत करी शकीये. पण ते स्व
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.. ११९ स्तथीन-साक्षात् रहेगीए रहेवार्थाना नहिं के केवळ लूखी कहेगी मात्री...
आपणे धारीये तो आपणे पोतेज सत्या पुरुषार्थी अरिहंतः सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय के साधुपदने साक्षात् पामी शकीये, तेममा तेवी पवित्र पट्टी पामीने अन्य अधिकारी जीवोने-तेवाज करी शकीये. जे जे पूर्वोक्त पवित्र पट्टीने प्राप्त थया-छे ते ते सर्व. सत्य पुरुषार्थने. साधीनेज तो आपणे पण पुरुषार्थवडे तेवा केम थइ शकिये नहिं ? पुरुषार्थवडेन पूर्वे अनेक साधु साध्वी, श्रावक, अने श्राविकाओ प्रसिद्धिमा आन्या छे, तेथी पुर्वोक्त प्रमाद रहित थइने स्व स्व कर्तव्य कर्म करवाने सावधान रहे एज आत्म उन्नतिने मादे प्रथम आवश्यक छे. एज खरो धर्म छे. अने एज सत्य साधन छे.. ___ एकाअप्रमत्त पुरुषार्थवंत - पुरुषोज ; खरेखर स्वपरहित साधी, सके छे, पण प्रमादशील एवा पुरुषार्थहीन जनो कंइ.हित साधी) গন্ধরা সখী,
पुरुषार्थवंत- गृहस्थ प्रोतार्नु गृहतंत्र, न्याय नीतिने. अनुसरी प्रमा-: णिकपणेन चलावे छे त्यारे पुरुषार्थहीन तथा विरुद्धवर्ती अप्रमाणिक:. पणेन चलावे छे. पुरुषार्थवंत सुख-दुःखमा समभावे, रहे.छे, त्यारे, पुरुषार्थहीन हर्ष-विवाद धारःछे. पुरुषार्थवंत. हिंमती अने. श्रद्धायी.. विपत्तिनी सामा थइ लगार पण स्वधर्म कर्तव्यथी चूकता नथी, पण
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“श्री जैनहितोपदेश भाग जो. 'पुरुषार्थहीन तो तेवे वखते दीनता धारण करीने कर्तव्य भ्रष्टज थाय छे. पुरुषार्थहीन कर्तव्य कर्मनो अनादर करीने सुखशील. थइ, अर्थ या कामनोज आदर करे छे. पुरुषार्थवंत तो. गमे तेवा संयोगोमा प्रमाद रहित धर्मनेज़ प्रधान पद आपे छे. . - पुरुषार्थवंत साधुज अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य अने असंगनादिक महानतोने अखंड-अतिचार रहित पाळीने स्व. चारित्रने उज्वळ करे छे त्यारे पुरुषार्थहीन साधु वेवां महाव्रत लइने स्वच्छंद वर्तनथी तेमने खंडी विराधी स्वचारित्रने कलंकित करी अंते अधोगतिनाज भागी थाय छे. . . .
पुरुषार्थवंत साधुन विविध प्रकारना अभिग्रहने निःस्पृहताथी अखंड पाळी नाना प्रकारांनी लंब्धियोने पेदा करे छे, पण तेनों क'दापि गेरं उपयोग करता नथी. पुरुषार्थहीनमा तेथी-विपरीतज 'जोवामां आवशे. ..
.. .. पुरुषार्थवंत साधुज सम्यग् ज्ञान अने सम्यक् क्रियांनी यथायोग्य' सहायथी रनत्रयीन आराधन करीने अल्प काळमां अक्षय अ. ‘विनाशी पदने पामे छे. अने पुरुषार्थहीन साधु तो मोक्षना साधन भूत ज्ञानक्रियामांना कोइनी इच्छानुसार उपेक्षा करी रत्नत्रयीने विसंधी पूर्वोक्त प्रमादने परवश पड़ी दीर्घकाळ संसार परिभ्रम
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श्री जैनहितोपदेश भाग-२,जो. १२१ - . सत्य पुरुषार्थवंत साधुन छिद्र रहित. प्रवहणनी पेरे आ संसार समुद्रने सुखे तरी जइ स्व परनो उद्धार करी शके छे. पुरुषार्थहीन तो पथ्थरनी पेरे स्वपरने डूवावेज छ. . . . . . . - कोइपण मोक्षार्थीए पूर्वोक्तं पुरुषार्थवंत पुरुषोनोज आश्रय करवों योग्य छे. केमके तेथी एवो पुरुषार्थ पामवो सुलभ थइ पडेछे.
पुरुषार्थवंत पुरुपनी वृत्ति सिंहनी जेवी अने पुरुषार्थहीननी वृत्ति श्वाननी जेवीज होय छे. पहेलानी वृत्ति उंची अने वीजानी केवळ. नीची होय छे. . . .
पुरुषार्थवंत गमे तेवी विवम स्थितिमा पण सिंहनी जेम स्व इष्ट कार्य साये छे पग पुरुषार्थहीन तेम कदापि करी शकतोज नथी. सिंहने कोइर बाग म.यु होय तो ते तेनुं उत्सत्ति स्थान शोधीने तेनेज मारेछ. परंतु वे न तो तेने मारवामां आवेला पायाग विगेरेनेज काटवा (करडवा)जाय छे..
एवी रीत कंपण दुःख उत्तन थतां पुरुषार्थवंत तेनु खरं कारण तपसीने ते कारणनेन दूर करे छे त्यारे पुरुषार्थहीन-कायर माणत तो तेनी कंइपण आगळ पाछळ तपास-नहि करतां ते दुःख उपरज रोप करे.,..अने.. एम करवाथी कंइ मुख तो. मळतुं नथी पण उलटुं दुःखज वृद्धि पामे छे.
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१२२ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जोः
सर्वज्ञ-सर्वदर्शी भगवान् कहे. छे के कोइ कोइनु बगाडतुं के सुधारतुं नथी. वीजा तो केवळ निमित्त - मात्रज छे. पोतेज करेला कर्मानुसारे प्राणी दुःख सुखने पामे छे. तेमां अन्य उपर. अज्ञानपणे आरोप मूकवो मिथ्या छे. एम समनीने खरा पुरुषार्थवंत पुरुषो प्राप्त दुःखना मूळ कारणभूत कर्मने लक्षमा राखीने तेनेज निर्मूळ करवा प्रयत्न करे छे, अने तेज युक्त छे, छतां कायर अज्ञानी माणसो तेम करी शकता नथी. ___ पुरुषार्थवंत स्त्री. पुरुषज परमार्थभूत एवा मोक्ष मार्गने साधी. शके छे अने धर्म एन खरो पुरुषार्थ छे. एम समजी मोक्षार्थी जनोए. सर्वज्ञ भाषित धर्मर्नु यथाशक्ति आराधन करवा अवश उजमाळ रौq युक्त छे. • पूर्व पुन्ययोगे मनुष्य भवादिक शुभ सामग्रीने पाम.ने अने सद् गुर्वादिकनों विशिष्ट योग पामीने जे खहित साधी लेवानी उपेक्षा करे छे तेना पाछळथी केवा हाल थशे ते संबंधी श्री धनेश्वरमुरी' महारान.श्री शचुंजय महात्म्यमा आ प्रमाणे कहे छ:
धर्मेणाधिगतैश्वर्यो, धर्म मेंव निहन्ति यः ॥ कथं शुभायति भर्भावी स.स्वामिद्रोहपातकी ॥१॥
. धर्मना.प्रभावेन सर्व संपदाने पाम्या छतांजे नराधम धर्मनोज - लोप करें छे ते स्वामीद्रोही पापी भविष्यमा केवी-रीते मुखी- यह
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श्री जैनहितोपदेश: भाग- २. जो.
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शकशे ? आ. भवमां पण अत्यंत हितकारी धर्मेनी कृपाथीज सर्व-साहेवी पामीने जो तेज परोपकारी धर्मनोः ध्वंस करवामां आवशे तो स्वामीद्रोह करनार - ते. नीच पापीतुं कल्याण पछी शीः रीते थइ शक शेखरु जोतां एवा पापी धर्म द्रोहीतुं भविष्यः सुधरवुः खरेख दुःशक्यज- छे:
•
जे माणसने आवां हृदय वेधक शास्त्र वचनोथी पोतानां करेला पापोनो पुरेपुरी पश्चाताप थाय छे अने फरी एव पाप नहिं करवानी पवित्र बुद्धिधी सद्गुरु समीपे प्रायश्चित्त ( करेलां पापोनी शुद्धि) करवा इच्छा थाय छे, एवा पण योग्य जीव उपर कृपाळु धर्म महाराज जरुर कृपा कटाक्ष करे छे. एटले एवा जीवोनों पण उद्धार आवी रीते थइ शके छे.
परंतु पाप करीने खुशी थनारा, अथवा लोक रंजनने माटे फ क्त. मोठेथीज वळापो करनारा अथवा कपट रचनाथी स्वदोषने छुपा - वनारा एवा अयोग्य अने दंभीजनो उपर गुणइ अने गुण पक्षपाती धर्म महाराजानी मेहेरवानी भविष्यकाळमां पण कदापि होइ शकेज नहि.
י
एम- समजी नीच, नादान, अने निर्लज-एचा नालायकजनोनी संगति तथा तेमना - अनर्थकारी आचार विचारने तजी दड़ने, उदार, दया; अने लज्जाळु एवा सुपात्रनीज संगत- अथवा तेमना हितकारी
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: १२४ श्री जैनहितोपदश भागे. २. जो. .
आचार विचारने आदरी आपणे परम उपकारी धर्म महाराजनी कृपाथी प्राप्त करेल सर्व शुभ सामग्रीनी सफ़ळता करी. शकीये एवो सत् पुरुषार्थ सेववो एज आपणुं मुख्य कर्तव्य छे. सर्व प्रमाद रहित सत् पुरुषार्थ उपरज़ आपणी, आपणा साधर्मीओनी, तेमज समस्तजनोनी खरी उन्नतिनो आधार छे. ए वात खुब लक्षमा राखीनेज आपणुं व्यवहार तंत्र चलाव योग्य छे.
इत्यलम्.
• सुमति अने चारित्रराजनो सुखदायक संवादः __प्रेक्षक भाइयो अने ब्हेनो ? आजे हुँ तमने एक अतिवोधदायक संवाद संभळाववा इच्छंछ तेथी प्रथम तेमां खास उद्देश कराएलां पाबोनी तमने कंइक विशेष समज आपवी दुरस्त धारूं छु. अने आशा राखंछ के ते सर्व वात तमे लक्षमा राखी तेमांथी एक उत्तम प्रकारंनो वोध ग्रहण करशो. . - ___ एकान्त हितबुद्धिथीज मेराइने तमने आ वोधदायकं प्रबंध संभळाववा मारी खास उत्कंठा थइ आवी छे ते कंइक तमारा भाग्य. 'नीज भली निशानी होय एम ई मार्नु छ. हवे हुँ: मुहानी वात तमने . जणांq छु: दरेक आत्माने पोताना सारा नरसा चरित्र (आचरण) ना प्रमाणमा मतिर्नु तारतम्य होयज छे. छतां सामान्य रीते सारां
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श्री जैनहितोपदेशे भाग २ जो. १२५ । चरित्रवाळाने मुख्यताए सुमतिनो अने माठां आचरणवाळाने मुख्य-- ताए कुमतिनोज संग होय एम मनाय छे तेथी तेमनो अरसपरस प्र.
संगवशात् संवाद थयान करे छे, तेनी जीज्ञासु भाइ व्हेनोने कंइक __ झांखी आपवानी बुद्धिथी व क्षयोपशमानुसारे आ उल्लेख घडयो
छे. वीतराग प्रभुनां पवित्र वचनानुसारे विवेकयुक्त वर्तन करनार सत्चारित्रपात्र पुरुष जगत्मां एक महाराजाथी पण अधिक पूजायमनाय छे, तेथी तेवा चारित्रवंतने सत् (साचा) चारित्रराज कहेवामां कंइपण वाघ आवतो नथी. पण जेओ वीतराग वचनथी विरुद्ध वतेन चलावीने दंभ वृत्तिथी स्वदोष गोपववा माटे लोकमां पजावामनावा मोटे तथा स्वगौरव वधारवा माटे अहोनिश मथन करी जगतमा चारित्रवंत कहेवडाववानो दावो राखे छे तेओ तो केवळ नामनाज महाराजा कहेवाय छे. एवा दंभी चारित्रराजने होळीचा राजा इलोजीनीज उपमा घटी शके छे. आवी हलकी पायरीए पोतानी कुटिलताथी उतरवा करतां सरलताथी सत् चारित्रराजना सेवक थइ रहेवामांज खरी मजा छे. केमके 'सिद्धिः स्याद् रुजुभूतस्य' एवां आगम वचनथी सर्व दंभ रहित-रुजु-सरल पुरुषनीज सिद्धि थाय छे. आवी सिद्धांतनी वातने खास लक्षमा राखीने जगत् प्रसिद्ध ख स्वामी चारित्रराजनी आगळ उपर विडंवना न थाय एवा पवित्र उद्देशथी मुमति, चारित्रराजने संबोधन करे छे.
सुमति-स्वामीनाथ! हुं आपने लज्जायी कई हितकारी वात--
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. पण कहीं शकती नथी तोपण आजे नम्रपणे कंइक कहेवा धारु छ तेथी आप खोटुं नहि लगाडतां सार ग्रही मने उपकृत करशो, एवी मारा अंतरनी इच्छा पूर्वक करेली प्रार्थना स्वीकारी मने प्रसंगोपात बे बोल बोलवानी रजा आपशो ?
चारित्रराज-अहो सुमति ! माराथी आटलो अंतर राखवा, कंइ कारण नथी, तारे कहे, होयतो सुखेथी कहे, साची अने हितकारी वात कहेतां कोनो दिवस फर्यो छे के उलटी रीस चढावशे ?
सुमति-स्वामीनाथ ! हवे मने कंइक हिम्मत आवी छे तेथी। मारा मननी बात कहेवाने कंइक भाग्यशाळी थइ शकीश. नहितो-तो
चारित्रराज-तुं आज सुधी कहेवानो केय विलंब करी रही हती ?
सुमति--स्वामीजी! साचुं कहं छं के मारा अंतरमां जेवीने तेवी इच्छा छतां आपने एकान्ते कहेवानी मने जोइए तेवी तकन मळी शकी नथी ?
चारित्र-आज सुधी कहेवानी प्रवळ इच्छा छतां केम तक न मळी शकी? तेनुं कारण हवे संकोच राख्या विना कहे. हुं तारीउपर प्रसन्न छु.
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श्री जैनहितोपदेश-भाग २-जो. मुमति-आप मारा स्वामीनाथ मारी उपर सुप्रसन्न थया छ। तेथी हुँ मारूं अहोभाग्य मार्नुछु. आपनी तेवी प्रसन्नता सदा बनी रहे तेम खरा जीगरथी इच्छु छु, पण साचं कारण कहेता मन संको. चाय छे..
चारित्र--सुंदरी ! जराए संकोच राख्या दिना खरं कारण __ होय ते कहीदे.
सुमति-आज सुधी आप लांबो वखत थयां मारी उपेक्षा करीने मारी सपत्नी (शोक्य) कुमातिनेज व पड्या हता, ए वात | आप आटलामा विसरी गया के जेथी मारे माहे तेनुं कारण कहेवडावो छो! __ चारित्र-सुमति ! तारा स्थायी समागम विना सर्व कोइ कुमतिने वश पडीने खुवार थाय छे ते तो तने सुविदितज छे. .
सुमति-हा पण आपे तो चारित्र० नाम धारीने अने दुनियामां पण जेबोने तेवो दमाम राखीने मारी विगोषणा करी तेनु केम?
चारित्र-सुंदरी! तुं जे कहे छे ते सत्य छ, मारी दांभिक वृत्तिने संभारतांज हवे तो मने शरम आवे छे. पण जो तारो समागम थयो न होततो शुं जाणाये मारा शाए हाल थात, हशे पाछी. तेवी भूल न थाय माटे अने तारो समानम स्थायी बन्यो रहेशे तो. हुं मारु अहो भाग्य मानीश. हवे तारे जे कांइ .हितकारी 'चात कहे:
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१२८ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. वी होय ते खुल्ले मनथी कहे. व्हाली! साची वात कहेता कइ पण संकोच राखीश नहि.
सुमति-आपनाथी आवे प्रसंगे आंतरो के संकोच राखंबी तेने तो हवे हुँ स्वामीद्रोह के आत्मद्रोहज ले . वधारे शें कहुं ? ___चारित्र०-मुमति ? थोडा वखतना परिचयथी पण मने तारा सरल स्वभावनी खात्री थयेली छे के तुं जे कंइ कहीश ते एकांत हितकारीज हशे तेली सत्यताने माटे मने संदेह नयी, तेथी तारं खरं मंतव्य कहे.
सुमति में आज मुधी आपनी खरी सेवा बजाववानो लाभ मेळव्योज नथी तेने माटे शोचुछ पण हवे खरी सेवा बजाववानी सोनेरी तक हाथ आवेली जाणी मनमो घणोज हर्ष थाय छे ते आपने प्रथम जणाई छं.
चारित्र०—मारीज कसूरथी कहाके उपेक्षाथीन तुं माराथी आज मुधी दूर रही अने तेथीज तुं मने सवळे रस्ते दोरवानी तक न साधी शकी तेमां तारो तो तल मात्र पण वांक नथी. वांक मात्र मारा नसीवनोज छे के जेथी हुँ छती सामग्रीये तेनो लाभ लेवा अत्यार मुधी भाग्यशाली थइ शक्यो नहि. ते वातनो विचार कर-. तां बहुज शोच थाय छे पण तेवा शोच मात्रथी झुं सरे? हवे तो जाग्या त्योथी सवार.
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
१२९
: सुमति - आपनुं कल्याण थाओ ! खुद आपनो वांक काढवा करतां मारे तो मारी सपत्नि - कुमतिनोज बांक काढवो व्याजवी. छे. केमके जो आज सुधी तेणीये आपने भंभेर्या न होत अने माराथी विमुख कर्या न होत तो तो आपे क्यारनाए मारी सन्मुख जोइ मने आवकार आप्यो होत, पण मारी शोक्य स्वाधीनपणे एम थवा देज
केम ?
—
चारित्र : - मुमति ? तुं तो तारी वलीनताने उचितज कहे छे पंग वांक मात्र मारोज छे, केमके मारुं मन जो मारे हाथ होय तो कुमति वापडी शुं करी शके ? हुं पोतेज प्रमादशील होवाथी कुमतिने वंश पडी रह्यो हतो.
सुमति--साहेब सहीसलामत रहो ! हवे आपे आपनी गति जाणी छे तेथी फरी हुं इच्छं हुं के आप कुमतिना कवजामां 'आवशो नहि.
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- चारित्र - हवे तो में तेणीने देशवटो देवानोज निश्श्य क्यों है. सुमति — कुमतिनी गति एवी विश्चित्र छे के ते गमे त्यांथी गम तेवी रीते अंतरमां पेशी जीवती डाकणंनी जेम जीवनुं जोखम करेछे. मोटा योगी जनोने पण लोग जोइने छळे छे अने असंस्कारी आमाने तो क्षणवारमा उथलावीने उधो वाळे छे 'आवी तेंनी कुटीलता जग जाहेर छे, माटे क्षणवार पण तेनो विश्वास -करवी उचित नयीजे.
९
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१३२ . श्री जैनहितोपदेश भाग २ जोः
'' चारित्र०—मारांमां जेटली पात्रता हशे तेटला तों ते अवश्य फळदायी थशे साथे एवी पण खात्री छे के तारी सतत संगतिथी मारामां पात्रता पण वधती जशे, तथा पात्रताना प्रमाणमा - फळनी. अधिकता थतीज जाशे. ... सुमति–हुँ अंतःकरणथी इच्छु छु के आपने संपूर्ण पात्रताः प्राप्त थाओ, अने आप संपूर्ण मुखमय परमपदना पूर्ण अधिकारी थाओ! __ चारित्र-तारा मुखमांज अमृत वसे छे. केमके तारी सार्थना आ वार्ता विनोदमां मने एटलो तो स्वाद आवे छे के तेनी पासे स्वर्गनां सुख पणं नहिं जेवां छे. जेने तारो संग थयो नथी तेनुं जीच्युं हुं धूळ जेवू लेखं छु.
सुमति- म्हारी शोक्य-व्हेने जो आपने अनुभव सुखडी चखाडी नहोत तो आपने मारो स्थायी समागम करवानो विचारज क्यांथी थात ? केम खरुंने ? हुँ,धारु छु के.आप तेना स्वभाविक गुणोने स्वप्नमां पण भूलशो नहिं. सामी वस्तुथी संपूर्ण कंटाळ्या विना अमुकमां पूर्ण त्रीति बंधाती नथी. ... .. ... ., . ..
चारित्र-कुमतिथी हुँ रखूर्व कंटाळ्यो छु ए निर्विवाद छे, कुमतिना कुसंगवडेज हुँ आनी अनुपम मुख-संगतिधी चूक्यो छु तिथी ते वात हुं स्वप्न पण केम भूली शकुं! हंशे हवे एक क्षण
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श्री.जैनहितोपदेश भाग २ जो, १३३ पण मने तारो विछोह न पडो, एज मने इष्ट छे. एवी मारी अंतरनी इच्छा फळीभूत थाओ!
सुमति-स्वामीजी ! कुमतिना लांवा वखतना परिचयथी आपनी उपर जे जे विरुद्ध संस्कार वेसी गया होय ते ते सर्वे निर्मूळ थाय तेवो अनुकूळ प्रयत्न आपने प्रथमज सेववानी खास जरुर छे. कुमतिना कुसंगथी उद्भवेला माठा संस्कारोने निर्मूळ करवाना सतत प्रयत्नमां हुं पण सहायभूत थइश.
चारित्र०-केवा क्रमथी मारे उक्त संस्कारोने टाळवानो उ“पाय करवो जोइये ?
सुमति-वक्ष्यमाण (कहेवाता) क्रमथी तमनु उन्मूलन करवा -यत्न करवो जोइये.
१. क्षुद्रता-दोशदृष्टि तजीने अक्षुद्रता-उदार गुणदृष्टि आ
दरवी जोइये. २. रसगृद्धता-विषयलंपटता तजीने हित (पथ्य) अने मित
(अल्प) आहारथी शरीरने संतोषी आरोग्य अने श. रीर सौष्टव साचवg जोइये.
३. क्रोधादिक कषायना त्यागथी अने क्षमादिकना सेवनधी , सौम्यतावडे चंद्रनीपेरे शीतळ स्वभावी था जोइये ?
पा२१
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
चारित्र ०- प्रिये । तेणीने तिलांजलि देवानो मारो संपूर्ण विचार छे, पण ते पुनः मने छळी न शके एवा समर्थ उपाय तुं जाणती होष ते मने कहे के जेनो अभ्यास करीने हुं पुनः तेणीना पापी पाशमां आवी शकुं नहि, केमके जेम तुं कहे छे तेम प्रतीत छे के कुमतिनो स्वभाव कुटील छे.
"१३०
सुमति - जे कहेवानी मारी इच्छाज हती तेज बाबतनी आपश्री जिज्ञासा थयेली जोइने मारे तो दूधमां साकर भळ्या बराबर थयुं छे.
चारित्र ० - खरेखर आवुं उत्तम नाम धरावीने अने दुनिया आगळ आवो खोटो दमाम राखीने खरा चारित्र संबंधी गुण विना - केवळ दंभ - मायायी जीववा करतां तो मरकुंज मने तो हवे बहेतर लागे छे,
सुमति - स्वामीजी ! आप चतुर छो. खरा चारित्रना अर्थी दरेक शरूसने एटली चानक चढ्या विना ते पतित अवस्थाने तजी शकेज नहि.
•
चारित्र ० - पण प्रिये ! जे तुं मने हितकारी वचन कहेबा इच्छे छे से इने विलंब कर्या बिना कहे, केमके कं छे के 'श्रेय काममां बहु विघ्न आवे छे. '
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. . सुपति—आपनुं कहेषु यथार्थ छे अने तेथी आप साहेबनी आझाने अनुसरीने हुं मारुं कर्तव्य बजाववाने तत्पर थइछ. जे जे आ"मने मारी फरज विचारीने कहीश तेनु अपकपा करीने मनन करता रहेशो. . .
चारित्र-त्रिये ! तारां अमृत वचननुं हुं आदर पूर्वक पान करीश, अने ते वडे मारा त्रिविध तप्त आत्माने शान्त करीश ए निवे समजजे. . सुमति-आपना आत्माने सर्वथा शान्ति-समाधि मळो ! तेज असमाधिनां खरं कारणोनो क्षय थाओ! अने समाधिनां खरां साधन प्राप्त थाओ.
चारित्रल-मने खात्री थइ छे के तारो स्थायी समागमज सर्व समाधिनु मूळ कारण छे. अने तेथी असमाधिना सकळ कारणोनो 'स्वतः क्षय घइ जशे.
सुमति-आटला अल्प काळमां पण आपना अप्रतिम प्रेमनी मने जे प्रतीति थइ छे ते मेने आपना भविप्यना सुख-सुधारानी संपूर्ण आगाही आपे छे. हवे हुँ आपने मारा सद्विचारो रोशन करवानी रजा लहुछु. आशा छे के आपनी हदयभूमिमा रोपायला सद्विचारो अति अद्भुत फलदायक नीरडसे. .
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१३२ . , श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
' चारित्र०—मारामां जेटली पात्रता हशे तेंटला तों ते अवश्य फळदायी थशे साथे एकी दण खात्री छे के तारी सतत संगतिथी मारामां पात्रता पण वधती जशे, तथा पात्रताना प्रमाणमा' फळनी. अधिकता थतीज जाशे. .. सुमति हुं अंतःकरणथी इच्छु छु के. आपने संपूर्ण पात्रताः प्राप्त थाओ, अने आप संपूर्ण मुखमय परमपदना पूर्ण अधिकारी थाओ! ... चारित्र०–तारा मुखमांज अमृत बसे छे. केमके तारी सार्थना __ आ वार्ता विनोदमां मने एटलो तो स्वाद आवे छे के तेनी पासे स्वगनां सुख पणं नहिं जेवां छे, जेने तारो संग थयो नथी तेनुं जीहुं धूळ जेवू लेखं छु.
सुमति-म्हारी शोक्य-व्हेने जो आपने अनुभव सुखडी चखाडी नहोत तो आपने मारो स्थायी समागम करवानो विचारज क्याथी थात ? केम खस्ने ? हुँ,धारूं छु के.आप तेना स्वभाविक गुणोने स्वंभनमा पण भूलशो नहि. सामी वस्तुथी संपूर्ण कंटाळ्या विना अमुकमां पूर्ण नीति बंधाती नथी. ....... ... .. .
चारित्र०—कुमतिथी हुँ खूर्व कंटाळ्यो छु ए निर्विवाद छे, कुमतिना कुसंगवडेज हुं आंकी अनुपम मुख-संगतिथी चूक्यो छु तेथी ते वात हुं स्वप्नां पण केम भूली शकुं! हशे हवे एक क्षण
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श्री. जैनहितोपदेश- भाग २. जो,
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पण मने तारो विछोह न पडो, एज मने इष्ट छे: एवी मारी अंतरनी इच्छा फळीभूत थाओ !
सुमति -- स्वामीजी ! कुमतिना लांबा वखतना परिचयथी आपनी उपर जे जे विरुद्ध संस्कार बेसी गया होय ते ते सर्वे निर्मूळ थाय तेवो अनुकूल प्रयत्न आपने प्रथमज सेववानी खास जरूर छे. कुमतिना कुसंगथी उद्भवेला माठा संस्कारोने निर्मूळ करवाना सतत प्रयत्नमां हुं पण सहायभूत थइश.
चारित्र० - केवा क्रमथी मारे उक्त संस्कारोने टाळवानो उपाय करवो जोइये ?
सुमति - वक्ष्यमाण ( कहे वाता) क्रमथी तेमतु उन्मूलन करवा -यत्न करवो जोइये.
१. क्षुद्रता- दोशदृष्टि तजीने अक्षुद्रता - उदार गुणदृष्टि आदरवी जोइये.
२. रसगृद्धता - विषयलंपटता तजीने हित ( पथ्य ) अने मित ( अल्प ) आहारथी शरीरने संतोषी आरोग्य अने शरीर सौष्टव साचaj: जोइये.
३. क्रोधादिक कषायना त्यागथी अने क्षमादिकना सेवनथी सौम्यतावडे चंद्रनीपेरे शीतळ स्वभावी थावुं जोइये ?
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. जेथी कोइने स्व संगतिथी अभावो थवानो कदापि प्र
संग आवे नहि. ४. सर्व लोक विरुद्ध तजीने स्व पर हितकारी कार्य करवा.
वडे लोकप्रिय थर्बु जाइये. ५. मननी कठोरता तजी कोमळता आदरवी जोइये. ६. लोक अपवादयी तथा पापथी बी, जोइये. वडीलर्नु मनः
पण न दुभावq जोइये. ७. सर्व दंभ-मायाने मूकीने निर्दभी-निर्मायी-सरल स्व
भावी थर्बु जोइये. ८. आपणी इच्छा नहिं छतां वडीलनु मन प्रसन्न राखवाने
दाक्षिणता करवी जोइये. ९. स्वच्छंदता तजीने लज्जा राखवी जोइये. निर्मर्यादपणुं.
तनीने लज्जा मर्यादा सेववी जोइये. १०. निर्दयता तनीने दयाद्रता आदरवी जोइये. सर्व उपर अ.
मीनी नजरथी जो जोइये. द्वेष, मत्सर, इर्ष्यादिकनेर . दूर करवा ज़ोइये. . ११.- पक्षपान बुद्धिने तजीने निष्पक्षपातपणु आदर, जोइये.
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भी जैनाहितोपदेश भाग २ जो.. १३५ १२. सद्गुणी मात्र उपर राग धरवो जोइये. सद्गुण रागी
थइ रहेदूं जोइये. १३. प्राणान्त कष्ट आव्ये छते पण असत् भाषण नज करवू
जोइये. सत्यनी खातर प्राण अर्पण करवा जोइये, एकांत
सत्यप्रिय थर्बु जोइये. .१४. स्वसंबंधी वर्य पण धर्मनी तालीम लही सवळ थाय तेम
करवं जोइये. स्वपक्ष धर्मसाधन विमुख न रहे तेनी योग्य काळजी राखवी जोइये. अथवा आत्मसाधन सन्मुख थयेला स्वसंबंधी वर्गनीज योग्य सहाय लेबी
जोइये. १५. टुंकी दृष्टि तजीने करवामां आवता दरेक कार्य- केवु प
रिणाम आवशे तेनो पुख्त विचार करी शकाय एची दीर्घ दृष्टि राखवी जोइये. एकाएक वगर विचार्यु का
पण साहस खेडवु नहि जोइये. १६. ९ कोण हुँ ? मारी स्थिति केवी छे १ मारी फरज शी
छे? मारी कसूर केटली छ ? ते कसूर सुधारवानो उप्राय कयो छे ? तेमज आसपासना संयोगो केवा अनु-' कूल के प्रतिकूळ छे ? तेमाथी मारे शी रीते. पसार यह
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१३६ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
जवू जोइये ? ऐं आदि संबंधी विशेष जाणपणुं मेळवद्यु ! " , जोइये.
१७. एवो अनुभव मेळववाने शिष्ट जनो सेवन करवू जोइये. १८. गुण विशिष्टं एवा शिष्ट जनोनो यथायोग्य विनय कर
वो जोइये. १९. उपकारीनो उपकार कदापि भूलवो नहि जोइये. लाग
आवे तो तेनों योग्य बदलो वाळवा पण चूकवू नहि जोइये. एवी कृतज्ञता आदरी परम उपकारी-निष्कारण
बंधुभूत धर्मनो कदापि पण अनादर न ज करवो जो. . इये, किं तु धर्मनी खातर स्व प्राणार्पणं कर, जोइये. २०. बनी शके तेटलं परहित करवा तत्पर रहे जोइये. परनु
हित करतां आपणुंज हित थाय छे एवो दृढ निश्चय
करी राखवो जोइये. २१. सर्व उपयोगी बावतमा कुशलता मेळववी जोइये, अने
जरुर जणावां कोइ पण वावत अभ्यासना बळथी अल्प .: प्रयासे साधी शकावी जोइये. एवी निपुणता कहो के
। कार्य-दक्षता प्राप्त थइ जवी जोइयेः कुमतिना कुसंगथी ... पडेला माठा संस्कारोने हठावबा उक्तं २१ उपायो पैकी
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. १३७ :: सवळां के वनी शके तेटला योजवाने हुं आपने नम्र'. . पणे विनंति करुं छु. । ' चारित्र-अहो सुमति ! दुर्मतिने दूर करी दुष्ट संस्कारोने दळी नाखवा समर्थ संवोध, धारा वर्षाववाथी ते तो तारुं सुमति नाम सार्थक कर्यु छे.
सुमति-ख खामी सेवामां तन मन अने वचननो अनन्य भावे उपयोग करवो एज खरी पतिव्रताने उचित छे. तेवी पवित्र फरजो हुँ जेटले अंशे अदा करी शकुं तेटले अंशे हुँ पोताने कृतार्थ मानुं छं. पण जे तेथी विरुद्धवर्ती स्वस्वामीने अवलो उपदेश दइने अवळे रस्तेज दोरी जाय छे, तेवी स्वामीने संतापनारी कुमति स्त्रीने तो हुं स्वामीद्रोही के आत्मद्रोही मानुं छु. . . . .
चारित्र-खरेखर तारी जेवी सुशीला अने कुमति जेवी कुशीला कोइकज नारी हशे ? अहो ! जेओ वापडा सदाय कुमतिनाज पासमां पडया. छे तेमने, तो स्पप्नमां पण आवो सदुपदेश: सांभळवानों, अवकाशं क्याथी, मळे ? अरे ! एतो वापडी जीवता. पण मुवा बराबरज तो! . . .
.: • • सुमति ज्यां.मुघी कुमतिनो पल्लो पकडी राखे-छे, त्यां मुधी सर्व कोइ.एवीज दुर्दशाने प्राप्त थाय छे. ज्यारे तेनो कुसंग तज़े छे
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११८ श्री. जैनहितोपदेश भाग २ जो. त्यारेज ते कंइपण तत्त्वथी सुख पामे छे.. त्यां मुधी तो ते मूर्छितप्रायज रहे छे.
चारित्र०—तुं आवी शाणी अने सोभागी छता केवळ कुमतिनी कुटीलताथी कदर्थना पामता पामर प्राणीयोनो केम उद्धार करती नयी ? अहो एकान्त दुःखमांज डुबकी मारी रहेला तेवा अनाथ जीवोनो उद्धार करतां तने केवो अपूर्व लाभ थाय ?
सुमति-आपनी वात सत्य छे. पण अन्य तो निमित्त मात्र छ, पोतानो पुरुषार्थन खरो काम लागे छे. व पुरुषार्थज इष्ट सिदिमा प्रबळ कारणरुप छे. ते विना स्वेष्ट सिद्धि नथी. आवा सबबथीज लोकमां पण कहेवत प्रचलित छे के 'आप समान बळ नहिं अने मेघ समान जळ नहिं.' एम समजीने सर्व कोइये कुमतिनी कुटीलताथी यता अनेक गेरफायदाओनो विचार करीने तेनो कुसंग तजवा उद्यम करवो जोइये.
चारित्र०-ए कुमतिनो कुसंग तजवानो उद्यम करवा ते बापडाओने शी रीते अवकाश मळे ? केमके तदनुकूळ उद्यम कर्या विना कदापि तेना कुसंगनो अंत आवी शकतो नथी. माटे केवो संयोग पामीने ते कुसंग टळे ए मने कहे...
सुमति-कुमतिना कुसंगी विविध विडंबना युक्त जन्म मरणजन्य अनंत दुःखने सही अकाम निर्जरावडे जीवने क्वचित् सत्समा
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो गम योगे पूर्वे में आपने जेवो उपाय क्रम बताव्यों छे तेवोज क्रम प्राप्त थाय-समज पूर्वक तेनो स्वीकार थाय-त्यारेज जीव कुमतिनो संग तजवाने शक्तिवान् वने, ते विना कदापि ते तेनो संग तजी. सके नहि. - चारित्र०-सारे उपर बतावेलो उपाय क्रम जाणवा मात्रथी कंइ वळे नहिं शृं? समज पूर्वक तेनो स्वीकार करवायीज इष्ट कार्यनी संफळता थायें ?
मुमति-खरेखर उक्त क्रमनो सारी रीते आदर करवायीज इष्टः कार्यनी सिद्धि या शके छ, पण तेना जाणवा मात्रथी कंइ इष्ट सिदि थइ शकती नथी.
चारित्र-शाखमां ज्ञाननीज मुख्यता कही छे तेनु केम ?
सुमति ते वात सत्य छे पण तेनो अंतर हेतु ए छे के स्व क-- तव्य कार्यने प्रथम सारी रीते जाणी-समजीने सेव्यु होय तो तेथी शीघ्र शुभ फळनी प्राप्ति थइ शके छे. बिलकुल समज्या विना करेली अंधकरणी तो उलटी अनर्थकारी थाय छे. माटे समजीने स्व कर्तव्य करवाधीज सिद्धि छे.
चास्त्रि-अन्य धर्मावलंबी लोको तो ज्ञान मात्रथी पण सिद्धि, माने छे ?
समति-तेओनी तेवी मान्यता मिथ्या छे, तरतां आवडतुं होय,
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. पण तरवानी अनुकूल क्रिया कर्या विना सामे तीरे जइ शकातुं नथी ज तथा भूख लाग्ये छते भक्षण क्रिया कर्या विना शान्ति थती नथी, 'तैम खरा-चारित्रना अर्थीजनोने पण शुद्ध चारित्रनी अनुकूल क्रिया करवानी खास जरुर छे जेम बे चक्र विना गाडी चालती नथी तथा वे पांख विना पक्षी उडी शकतुं नथी तेम सम्यग् ज्ञान अने क्रिया विना कार्यसिद्धि थइ शकती नथी. आथी आपने समजायुं हशे के सम्यग क्रिया (सद्वर्तन) विनानुं एकलं ज्ञान लूलू-पांगळं छे. अने सम्यग ज्ञान (विवेक) विनानी केवळ क्रिया पण आंधळी छे, माटे मोक्षार्थीजनोए ते वनेनी साथैज सहाय लेवी जोइए.
चारित्र०-हवे मने समजायु के केवळ लूखी कथनी मात्रथी कार्य सरवानुं नथी. ज्यारे कथनी प्रमाणे सरस करणी थशे त्यारेज कल्याण थवानुं छे.. .
. . . • सुमति–आपनी आवी सहेतुक श्रद्धाथी हुँ वहु खुशी थाउछु, अने इच्छु छु के आपने वतावेलो उपायक्रम हवें सफळताने 'पामशे. परंतु कुमतिनो संग सर्वथा वारंवानो अने अक्षयं सुखना अवंध्य कारणभत सत्य चारित्र धर्मनी योग्यता पामवानो जे उपाय क्रम में आपने वात्सल्य भावथी बताव्यों छे तेनो पूर्ण प्रीतीथी आदर करवामां आप लगार पण आळस करशो नहिं एवी मारी विनंति. छ. . . . . . . ........
+ kthu ter: "
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श्री जैनहितोपदेश भाग र जोः १४१ • चारित्र-पाराज स्वार्थनी खातर केवळ परमार्थ दावे बताःवेला सत्यमार्गथी हु हवे चुकीश नहि, तुं पण तेमां सहायभूत थया करशें तो ते मार्गनुं सेवन करखं मने वहुं सुलटुं पडशे :
मुमति—आपने समयोचित सहाय करवी ए मारी पवित्र फरज. छे, एम हुं अंतःकरणथी लेखं छु, तेथी हुं समयोचित सहाय करची रहीश...................... : . . . . . . : - -: ‘चारित्र-ज्यारे-तुं मारे माटे आटली वधी लागणी धरावे छे. त्यारे हुँ हवेथी सन्मार्ग सेवनमा प्रमाद नहि करूं, तारी समयोचित सहाय छतां सत्मार्ग सेवनमा उपेक्षा करे तेना पूरा कमनीवज. - मुमति- आपने वतावेलो सन्मार्ग सेवननो क्रम जेओ वेदरकाजीथीं आदरताज नथी तो कदापि सत्य चारित्रना आधिकारी थइ शकताज नथी. परंतु तेनी योग्य आदर करनारा तो तेना अनुक्रमे
अधिकारी थइ शके छेज. माटे कदापि तेमां बेदरकारी करवीज नहिं. ... चारित्रः-उपरला सद् उपायने सेड्यावाद आत्माने शुं शुं करवू अवशिष्ट (वाकी) रहे छ ? अने उक्त उपायथी आत्माने शो साक्षात् लाभ थायं छे ? . .. . ... .. .. . ...: 'मुमति, उक्त उपायनी यथार्थ सेवन कर्या वाद पण आत्माने करवानुं बहुज वाकी रहे छे. आर्थातो हृदय-भूमिकानी शुद्धि थायछे,
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१४२ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. हृदय चोख्खु-स्वच्छ थया बाद तेमा चारित्र गुणना आधारभूत सद् विवेक प्रगटे छे. आ सद् विवेकनुं वीजु नाम समकित या, तत्त्वश्रद्धा छे. हृदय-भूमि शुद्ध थया बादज तेमा चारित्र-महेलनो सद्विवेक या समकित रुपी पायो नंखाय छे. तेना विना चारित्रमहेल टकी शकतोज नथी.
चारित्र०-उक्त रीते हृदय शुदि कर्यावाद जे सद्विवेक या संमकित पामq इष्ट छे तेनुं स्वरुप अने लक्षण जाणवानी मने अभिलाषा थइ छे, तेथी प्रथम संक्षेप मात्र तेनु स्वरुप अने लक्षण कथन करो.
' 'सुमति–'सदसद्विवेचनविवेकः' तत्त्वातत्त्वनी जेवडे यथार्थ समज पडे, गुण, दोष, हिताहित, कृत्याकृत्य, भक्ष्याभक्ष्य, अने पेयापेय विगैरेनी जेथी यथार्थ ओळखाण थाय, देव , गुरु अने धर्म संबंधी जेथी संपूर्ण निश्चय थाय, तेवो निर्णय-निर्धार कर्याबाद खोटी बाबतमां कदापि मुंझावाय नहि अने सत्य वस्तुनी खातर प्राण अर्पण करवा पण तैयार यवाय; आ उपरांत उपशम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा अने आस्तिकता ए पांच, समकितना खास लक्षण के 'ए लक्षणथी समकितनी खात्री थइ शके छे. ज्यांसुधी उपत्रमादिक लक्षण अंतरमा प्रगट थयेलां देखाय नहिं त्यांचंधी सद् विवेक या । समाकित प्रगट थयानी खात्री थइ-कती नथी तेयी पूर्वेला क्रमपी हृदय शुदि कयोंवाद सद् विवेक या समकित रंलना अयी जनार
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
उक्त उपशमादि गुणनो अभ्यास करवानी आवश्यकता छे. केमके कारणयी कार्य सिद्धि थायज छे एवो अचळ सिद्धांत छे.
चारित्र-संक्षेपयी नाम मात्र कहेला उपशमादिक लक्षणोर्नु कंडक स्वरुप समजवानी मारी इच्छा छे ते ९ धारु छ के तमे सफळ करतो. . चारित्रराजनो स्वहिन प्रत्ये विशेष आदर थयेलो जाणी सुमति तेनुं समाधान करे छे. • मुमति-आपनी आची अपूर्व जिज्ञासा थयेली जाणीने हुँ विशेषे खुशी थइ छु. अने उक्त पांचे लक्षणोनु अनुक्रमे स्वरूप कहुं छु ते आप लक्षमा राखवा कृपा करशो. केमके ए पांचे लक्षणथी लक्षित थयेलं समकित रबज सकळ गुणोमा सारभूत एटले आधारभूत छे.
चारित्र०-९ सावधानपणे समकितनां पांचे लक्षणर्नु स्वरूप सांभळवाने सन्मुख थयेलो छु. तेथी हवे तमे तेनुं निरुपण करो. , सुमति-उक्त पांचे लक्षणमा प्रधानभूत उपशमनु स्वरुप आ प्रमाणे छे. अपराधीनु.पण अहित करवा - मनयी पण प्रवृत्ति थाय नहिं एवी रीते क्रोधादि कपायाने अमावी दीधा होय, साध्य रष्टिथी सामान अंतरथी अहित नई करवानी पुदियी तेने योग्य शिक्षा
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
पण कराय, किंतु क्लिष्ट भावथी तो मन, वचन के कायानी प्रवृत्ति तेनुं अहित करवा माटे थायज नहिं ते "शम अथर्वा उपशम कहेंवायले :.: यतः - अपराधीशुं . पण नवी चित्त थक्री, चिंतविये प्रतिकूलं सुगुणनर.
●
चारित्र -- खरेखर उपशमनु आवुं अद्भूत स्वरूपं मनन करू बा जेवुंज छे. तेमां केवी. अद्भूत क्षमा रहेली छे, हवे बीजा संवेगनु स्वरुप कहो.
"
*****
सुमति - संसार संबंधी क्षणिक मुखने दुःख रूपज लेखाय भने चैवा कल्पित सुखमां मग्न नहि थातां केवळ मोक्ष सुखनीज चाहन वनी रहे. यथाशक्ति अनुकुळ साधनवडे, स्वभाविक सुख प्राप्त करव प्रयत्न कराय अने प्रतिकूळ कारणोथी डरता रहेवाय तेनु नाम संवेग छे.
1
፡፡
यतः- सुरनर सुख ते दुःख करी लेखवे, वंछे शिवसुख एक चतुरनर, "
1
1,7
चारित्र ० – अहो संवेगनुं स्वरूप पणं अत्यंत हृदयहारिक छे ते अक्षयं सुखमां अथवा अक्षय मुखना साधनमां केवीं रति करवी अने क्षणिक सुखमां के क्षणिक सुखनीं साधनमां केवी उदासीनता करवा वो छे. अहो ! "सत्य मार्ग दर्शकनी वलिहारी छे ! हवे त्रीजानिवेद कड़क स्वरूप कहो ?
-~
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श्री जैनहितोपदेश भाग-२ जो.. १४५० सुमति--जेम कोइने केदमांथी क्यारे छूटुं अथवा नरक स्थानमाथी.क्यारे नीसरं एवी स्वभाविक इच्छा- प्रवर्ते, तेम आ जन्म मरणनां प्रत्यक्ष दुःखथी कंटाळी तेथी सर्वथा मुक्त थवानी बुद्धिथी. पवित्र धर्म-करणी करवा स्वभाविक रीते मेराय ते निर्वेद नामे त्रीर्जु लक्षण छे. “यतः-नारक चारक सम भव उभग्यो, तारक जाणीने
धर्म सुगुणनर; चाहे नीकलवु निर्वेदते,त्रीजु लक्षण मर्म सुगुणनर."
चारित्र०-अहा ! आ निवेदनुं लक्षण विषय लंपट अनेकठगेर मनवाळाने पण वैराग्य पेदा करवाने समर्थ छे. तेथी चिर परिचित एवा विषय भोग उपर तेनुं अंतर स्वरुप विचारता स्वभा-- विक रीते तिरस्कार छुटे छे. परम उदासीन विना एबुं स्वरुप कोण प्रतिपादन करी शके वारु ? हवे अनुकंपानु कंइक स्वरुप बतावो. ____ मुमति, दुःखीतुं दुःख दीलमां धरीने तेनुं वारण करवा यथाशक्ति उद्यम करवो, धर्महीन या पतित जीवोने यथायोग्य सहाय आपीने धर्ममां जोडवा, तेमनी लगारे उपेक्षा नहि करतां जेम धर्मनी उन्नति. थाय तेम स्व शक्ति अनुसारे प्रयत्न करवो, ते अनुकंपा. कहेवाय छे. यतः-" द्रव्य थकी दुःखियानी जे दया, धर्महीणानीरे
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
भाव, सुगुण नर; चोथुं लक्षण अनुकंपा कही, निज शक्ते मन लाव सुगुण नर; श्रीजिन भाषित वचन विचारीये ॥४॥
चारित्र ० -- अहो ! आ लक्षणतो जगत् मात्रनो उद्धार करवा समर्थ छे. तेमां दर्शावेली दयाळुता केवी उत्तम छे ? एवी उत्तम अने निपुण दयाथीज जीवनुं कल्याण थइ शके छे. केवळ दया दया पो-कारवाथी कदापि कंइ पण वळवानुं नथी. अहो आ दुनियामां धर्मं चानुं काढीने पोतानो तुच्छ स्वार्थ साधवाने सेंकडो जीवोनो जान - लेवा वाळा केला बधा दीसे छे. ते बधा हवे तो मने धर्म-ठगज - मालम पडे छे. अहो दीन अनाथ एवा ते बापडाओना परलोकमां -शा हाल थशे ? उपरतुं अनुकंपानुं लक्षण तो मने अभिनव अमृत - जेवं, नवुं जीवन आपनारुं लागे छे. हवे अवशिष्ट रहेलुं आस्तिक्य वा प्रकार जोइये ते कंइक समजावो.
सुमति-- राग, द्वेष, अने मोहादिक दोष समूहथी सर्वथा मुक्त अने अनंत शक्ति संपन्न सर्वज्ञ सर्वदर्शी श्री जिनेश्वर प्रभु प्रणीत जीव अजीवादिक तत्वों स्वरुप समजीने तेनुं यथार्थ श्रद्धान कर. गमे तेवी कु -युक्ति कोइ करे तो पण शुद्ध तत्त्व मार्गथी. कदापि डगं - नहिं आवा तत्त्वाग्रह अथवा तत्त्व श्रद्धांनथी 'कुमतिनो सर्वथा क्षय थइ जाय छे.
- यत: - " जे जिन भाष्यं ते नहि अन्यथा, एवो जे दृढ रंग;
सुगुणनर;
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
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ते आस्तिकता लक्षण पांचमुं करे कुमतिनो ए भंग
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सुगुण०
चारित्र ० - अहा ! प्राणप्रिये ! सुमति ! आ - लक्षण - तो आडो आंकज छे, आवा परमात्माना वचनमांज प्रतीति राखवी, ते विनाना कपोल कल्पित वचनोनो विश्वास न ज करवो ए खरा परीक्षक काम छे केम ?
सुमति --मोटा मोटा गणाता पण अंध श्रद्धाळु खरी तत्त्व परी. श्रामां पास थइ शकता नथी. तेमने मिथ्यात्वनुं मोटुं आवरण आई आवतुं होतुं जोइये, नहिं तो डाही डमरी वातो करी जगतने रंजन करनारा छतां तेओ शुद्ध तत्त्व परीक्षामां केम पसार न थइ शके ? एज तेमनी अंध श्रद्धानी प्रवळ निशानी छे के साक्षात् साची वस्तु तजीने खोटीनेज झाले छे. शुद्ध देवगुरु अने धर्म संबंधी परिक्षामां पण अंध श्रद्धाळु मोटा भूलावामां पडे छे. तेथीज ते रागद्वेष अने मोहादि दोष युक्तने देव तरीके स्वीकारे छे. लोभी लालची अने असंबद्धभाषीने गुरु तरिके स्वीकारे छे. अने उक्त नायकोना कथेला मार्गने धर्म तरीके स्वीकारे छे. देवगुरु अने धर्म जेवा श्रेष्ठ तमा आवी गंभीर भूलने करनारा केवळ अंधश्रद्धाळुज कहेवाय माटे ते-मनुं खरं स्वरुप जाणवुं जरुरनुं छे.
चारित्र ० - तो मारा हितनी खातर शुद्ध देव गुरु अने धर्मं
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१४८ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. कंइक स्वरुप समजावशो तो मने अने मारा जेवा बीजा जीज्ञासुने पण कंइक लाभ था.
सुमति–प्रथम हुं शुद्ध देवतुं संक्षेपथी स्वरुप कहुं छु ते आप लक्षमा राखशो. जेनां नेत्र युगळ शान्तरसमां निमग्न होय, व. दन (मुखारवींद) सुप्रसन्न होय, उत्संग (खोळो) कामिनीना संगी शून्य होय, तेमज हस्तयुगळ पण शस्त्रवर्जित होय तोज तेने तेवी मः माण-मुद्राथी देवाधिदेव मानी शकाय. तात्पर्यके जेनामां राग, द्वेष, अने मोह सर्वथा विलय पाम्या छे तेथी उक्त दोषोनी कंइपण निशानी देखाती नथी एवा आप्त-महापुरुषनेज देवाधिदेव तरीके मानी शकाय. आ शिवाय उक्त महादेवने ओळखवाना अनेक साधन शास्त्रमा कह्यां छे. विशेष रुचि जीवे ते सर्वनो त्यांची निर्धार करी लेवो. ____ चारित्र०—अहो ! आईं अद्भुत देवतुं स्वरुप कोइकज विरला जाणता हशे, अने कदाच कोई जाणता हशे तोपण कुळाचार कहो के कदाग्रहने तजीने कोइकन तेनो यथार्थ आदर करता हशे. वहोळो भाग तो गतानुगतिक होवाथी स्व कुलाचारनेज वळगी रहेवामां सार माने छे. एवा वापडा अज्ञान लोको शुद्ध देवने क्यारे ओळखी शकशे ? तेमने ते ओळखावे पण कोण? खरेखर ते वापड़ा हतभाग्य छे तेथीज तेओ एवी करुणाजनक स्थितिमां पडया रहे छे. हवे शुद्ध गुरुनु स्वरुप कहो.
मुमति-जे अहिंसादिक पांच महाव्रतोने धारण करे छे, रात्री
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
भोजन सर्वथा तंजे छ, निःस्पृहपणे अन्य योग्य अधिकारीजनोने धर्मोपदेश दे छे, रायने अने रंकने समान लेखे छे, नारीने नागणी तुल्य लेखी दूर तजे छे, सुवर्ण अने पथ्थरने समान लेखे छे, निंदा-स्तुति सांभळीने मनमा हर्ष-शोक लावता नथी, चंद्रनी जेवा शीतळ स्वभावी छे, सायरनी जेवा गंभीर छे, मेरुनी जेवा निश्चळ छे, भा. रंडनी जेवा प्रमाद रहित छे, अने कमळनी जेवा निर्लेप छे जेथी राग द्वेष अने मोहादिक अंतरंग शत्रुओने जीतवाने पूर्वोक्त महादेवना वचनानुसारे पुरुषार्थ फोरव्या करे छे. एवा प्रवहणनी जेम स्व 'परने तारवा समर्थ सद्गुरु होय छे, एवा शुद्ध गुरुमहाराजनुं मोक्षार्थी जनाए अवश्य शरण लेवू योग्य छे.
चारित्र०-अहो प्राणवल्लभा ! सुमति ! सद्गुरुनु आवु यथार्थ स्वरुप सांभळीने लांवा वखतनो लागु पडेलो मारो मद-ज्वर शान्त थइ गयो छे. हवे मारां पडळ खूल्यां. शुद्ध चारित्र पात्र सद्गुरु
आवाज होय ते यथार्थ जाणवाथी मारो आगलो भ्रम भागी गयो 'छे, अने हुँ हवे खुल्लेखुल्लु कही देउं छ के हुं तो मात्र नामनोज चारित्रराज छु. अहो सुमति ! जो मने तारो समागम थयो न होत तो आ अनादि मायानो पडदो शी रीते दूर थइ शकत अने ते पडदो दूर थया विना मारा शा हाल थात ? हुँ दंभत्तिथी मुग्ध जनोने ठगीने केवो दुःखी थात ? अरे मायावी एवा मारा मिथ्यालंवनथी केटलो बधो अनर्थ थात ? हुँ कहुं.छं के तारु कल्याण थजो!
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श्री जैनहितोपदश भाग २ जो.
तुं कल्प कोटी काळ सुधी जीवती रहेजो ! अने- तारा सत्समागमथी क्रोडो जीवोनुं कल्याण थाजो ! हवे अनुकूळताए मने शुद्ध धर्मनु स्वरुप समजाववा श्रम लेजो.
मुमति - तमारी प्रबळ तत्त्व - जिज्ञासाथी हुं अत्यंत खुशी थइ छं. अने आपनी इच्छा अनुसारे शुद्ध धर्म तत्त्वनु स्वरुप समजाव - वाने यथामति उद्यम करीश, मने आशा छे के ते सर्व सावधानपणे सांभळी तेमांथी सार खेंची, तेनो यथाशक्ति आदर करीने आप मारो श्रम सफल करशो.
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चारित्र – हुं ते सर्व सावधानताथी सांभळी तेनों सार लइ यथाशक्ति आदर करवा चूकीश नहिं. तेथी हवे निःसंशयपणे धर्म तत्त्वनुं स्वरूप समजाववाने सन्मुख थाओ !
सुमति – “ अहिंसा परमो धर्मः " ए सर्व सामान्य वचन छे. ए वचन जेटलुं व्यापक छे. तेटलुंज गंभीर छे. सर्व सामान्य लोको तेनुं यथार्थ स्वरूप समजी शकता नथी. तेथीज तेओ तेमां क्वचित् भारे स्खलना पामे छे, अथवा तेनो यथार्थ लाभ लही शकता नथी. 'नहिंसा - अहिंसा. ' अर्थात् दया एटले कोइने दुःख नहिं देवं एटलोज तेनो सामान्य अर्थ केटलाक करे छे. परंतु ते करतां घणीज वधारे अर्थ - गंभीरता तेमां रहेली छे ते नीचेनी वातथी आपने रोशन थशे - " प्रमत्त योगात् प्राण व्यपरोपणं हिंसा. "
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श्री जैनहितोपदेश भाग र जो. अर्थात् कोइ पण प्रकारना प्रमादवाळा मन, वचन, के कायाना व्यापारथी कोइ पण वखते कोइ पण संयोगमां आपणा के पारका कोइना प्राणनो नाश करवो ते हिंसानो अर्थ छे. तेवी हिंसाथी दूर रहेवू-दूर रहेवा अनुकूळ प्रयत्न सेववो तेनु नाम अहिंसा छे. एवी निपुण अहिंसा, 'संयम' वडे साधी शकाय छे. अने एवो संयम, सर्वज्ञदर्शित इच्छा निरोधरुपी तपथीज साध्य थाय छे, माटेज.सिद्धान्तकारे सूत्रमा धर्मर्नु आवं स्वरुप वताव्यु छे के
धम्मो मंगल मुकिठ, आहिंसा संजमो तवो; देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो.
(दशवैकालिक) तेनो परमार्थ एवो छ के-अहिंसा संजम अने तप छे लक्षण जेनुं एवो धर्म उत्कृष्ट मंगलरुप छे. जेनुं मन महा मंगलमय धर्ममां, सदा वा करे छे. तेने देव दानवो पण नमस्कार करे छे. "दुर्गतिमां पडतां प्राणीने झीली लइने सद्गतिमा स्थापन करे तेज खरो. धर्म छे." अहिंसा, संजम अने तप, ए तेनुं असाधारण लक्षण छे.. तेथीज अहिंसादिकनुं सविशेष स्वरुप समजवानी खास जरुर छे.
चारित्र०-परम पवित्र धर्मना अंगभूत उक्त अहिंसादिकनुं स-- हज विशेष स्वरुप जाणवानी मने पण अभिलाषा थइ छ, तेथी हवे ते समजावो..
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१५२ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
सुमति-प्रथम हुं आपने 'अहिंसा' नु कंइक सविशेष स्वरुप' समजावु छु. में आपने पहेला पण जणाव्युं छे के 'प्रमत्त योगात् प्राण व्यपरोपणं हिंसा' तेथी तेमों कहेला प्रमत्तयोग शी रीते थाय ते पण जाणवू जोइये. 'मद्य' (Intoxication) विषय (sensual desires) कषाय (Wrath arrogance ete.) 'निद्रा ( Idleness) अने विकथा ( false gossips) वडे ' राग झेप युक्त कलुषित मन वचन अने कायानुं प्रवर्तन थाय ते प्रमत्त योग कहेवाय. एवा प्रमत्तयोगथी-आत्मा पोताना कर्त'व्यथी भ्रष्ट थाय छे. तेथी ते शास्त्र संबंधी विहित मार्गनो लोप करे छे. शास्त्रनो विहित मार्ग मूळ रुपमा आवो छे के
मातृवत् परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्टवत्;
आत्मवत् सर्व भूतेषु, यः पश्यति स पश्यति. परस्त्रीने पोतानी माता तुल्य लेखवे, परद्रव्यने धुळना ढेफां जेवू लेखवे अने सर्व प्राणी वर्गने आत्म समान लेखवे तेज खरो ज्ञानीविवेकी के शास्त्र श्रद्धालु छे, प्रमत्तयोगथी कोई पण पाणी आवा पवित्र मार्गथी पतित थाय छे, अने स्वपरने भारे नुकसान करे छे, तेनुं खरं नाम हिंसा छे. एवी हिंसाथी पापनी परंपरा वधती 'जाय छे अने तेथी संसार-संतति वधे छे. आथी पोताने तथा परने अधोगतिनुं वारंवार कारण वने छे. एवी दुःखदायक हिंसाथी दूर
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. रहेg अने पूर्वोक्त प्रमत्त योगने तजीने अप्रमत्तपणे शास्त्रविहित मार्गेज चालीने स्वपरनुं एकांत हित थाय एवी अनुकूल प्रवृत्तिज सेववी ते अहिंसा कहेवाय छे. आवी साची अहिंसाज सर्व भयहरी अभयकरी अने कल्याणकारी कही शकाय.
चारित्र-खरेखर उक्त स्वरुपवाळी अहिंसाज सर्व दुःख हरनारी होवाथी परम सुखदायी अने सर्व कल्याणने करनारी होवाथी 'उत्कृष्ट मंगळरुप छे. आंची अघहर अहिंसाज जगत मात्रने सेवन करवा योग्य छे. हवे उक्त अहिंसाने उपष्टभकारी संयमर्नु कंडक स्व'रुप समजावशो.
सुमति-"संयमनं संयमः" स्वच्छंदपणे चालता आत्मानो निग्रह करवो, तेने खोटा मार्गथी निवर्तावी साचा मार्गमा जोडवो ते संयम कहेवाय छे. हिंसा, असत्य, अदत्त, अब्रह्म तथा मूर्छा (परिग्रह ) नो सर्वथा के देशथी (जेटले अंशे वने तेटले अंशे) त्याग करी अहिंसादि ५ महाव्रतोनो अने तथापकारनी शक्ति न होय तो ५ अणुव्रतोनो स्वीकार करी तेमनो यथार्थ आदर-निर्वाह करवो, स्वेच्छा सुजव वर्तती स्पर्शनेंद्रिय विगेरे पांचे इंद्रियोनो निग्रह करवो, क्रोधादिक कषाय चतुष्कनो जय करवो अने मन, वचन, कायारूप योगनयनी पाप प्रवृत्तिनो त्याग करीने तेमनी गोपना-गुप्ति करवी. ए प्रमाणे संयमनां १७ भेद कह्या छे.
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१५४ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. ए सर्वनो अंतर आशय अहिंसानी पुष्टि करवानो होय छे तेथी सत्यादिक सर्वे महाव्रतो, इंद्रिय निग्रह, कषाय जय, विगेरे ते अहिंसानाज सहायक या उपसहायक कहेवा योग्य छे. . .
चारित्र०-उक्त संयमना अधिकारी कोण कोण छे ? ते कंइक समजावो.
सुमति-हिंसादिक अवतोनो सर्वथा त्याग करीने अहिंसा दिक महाव्रतोनो सर्वथा स्वीकार करवारुप सर्व संयमना अधिकारी साधु मुनिराज छे. अने अंशमात्र उक्त व्रतोतुं सेवन करवाथी देश संयमना अधिकारी तो श्रमणोपासक-श्रावक होयछे.
चारित्र०-सर्व (सर्वाशें ) संयम लेवानो शो क्रम छ ? सर्व संयम ग्रहण कर्या वाद कदाच कर्मवशात् ते बराबर पळी न शके तो तेनो शो उपाय छे ते बतावो !
सुमति-पूर्वे वतावेला अक्षुद्रतादिक गुणना अभ्यासवडे हृदयनी शुद्धि करी, सद्गुरु योगे सद्विवेक या समकित पामवाथी चतुर्थ गुण स्थानक प्राप्त थाय छे. त्यारबाद शंका कखादिक दूषण टा. ळीने, शुद्ध देव गुरु संघ साधर्मी विगेरे पूज्य वर्गनी यथोचित भक्तिरुप भूषण धारीने, पूर्वोक्त शम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा, अने आस्तिक्य रुप लक्षण लक्षित समकित-रत्नने मन, वचन, तथा कायानी शुद्धिथी अजवाळी-शुद्ध करीने सद् अभ्यासना बळथी
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. १५५ देश-संयमी श्रावकनी सीमाये (हदे) पहोंची शकाय छे. ते देश-विरति गुण स्थानक पांचमुं गणाय छे. तेमां पांच अणुव्रत ३ गुण व्रत अने ४ शिक्षात्रतनो समावेश थइ जाय छे. दृढ वैरागी श्रावक सद्गुरु योगे श्रावकनी ११ पडिमा (प्रतिमा) वहेछे. परंतु पूर्वोक्त व्रतने धारण कर्या पहेला तेमांना दरेकनो अभ्यास करी जोवे छे, जेथी तेनुं पालन करई कंइक वधारे मुतर पडे छे, श्रावक योग्य व्रत अने पडिमाना शुभ अभ्यासथी अनुक्रमे 'सर्व संयमनो' अधिकार प्राप्त थाय छे. पांच महाव्रतादिकनो एमां समावेश थाय छे. ए गुण स्थानक छठे 'प्रमत्त' नामे ओळखाय छे. लीधेलां महाव्रत विगेरे जो सावधानपणे साचवी तेमनी शुद्धि अने पुष्टि करवामां आवे छे तो परिणामनी विशुद्धियी अप्रमत्त नामे सातमु गुण स्थानक प्राप्त थइ शके छे पण जो उक्त महाव्रतादिकनी उपेक्षा करी स्वच्छंद वर्तन करवामां आवे छे तो परिणामनी मलीनताथी पतित अवस्थाने पामी छेवट मिथ्यात्व नामना प्रथम गुण स्थानके जवु पडे छे, तेथी ज दीर्घदृष्टि थइने जेनो मुखेथी निर्वाह थाय तेवां व्रत ग्रहण करवामां आवे तो तेथी पतित थवानो प्रायः प्रसंग आवे नहि. "स्व. स्व शक्ति मुजब वनी शके तेटली धर्म करणी कपट रहितज करवानी जिनेश्वर भगवाननी आज्ञा छे." एवी अखंड आज्ञानुं उल्लंघन करवाथी हानीज-थाय छे. तेथी उक्त आज्ञानुं आराधन करवामांज सर्व हित समायेखें छे. कदाचित् सरल भावथी सर्व संयम आदर्या वाद.
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
तेनो यथायोग्य निर्वाह करवानी ताकात' जणाय नहि तो शुद्ध बुद्धि थी सद्गुरु समीपें खरी हकीकत जाहेर करीने गुरु महाराज परमार्थ दृष्टिथी जे हितकारी मार्ग बतावे तेनुं निर्देभपणे सेवन करवामांज खरुं हित रहेयुं छे. दंभ युक्त सर्व संयम करतां दंभ रहित देश-संयम (अणुत्रतादिक) नुं पालन करवुं वधारे हितकारी छे. तेथी गुरु - महाराज तेम करवा के बीजी उचित नीति आदरवा कहे ते आत्मार्थी जनने अवश्य अंगीकार करवा योग्य छे. केमके सद्गुरु महाराज आपणुं एकांत हितं इच्छनाराज - होय छे.
चारित्र ०-- उक्त संयमनुं स्वरुप अने तत्संबंधी करेलो खुलासो मने तो अत्यंत हितकारी थवा संभव रहे छे. अहो आवा सम्यग् ज्ञान विनानुं तो केवळ अंधारूंज छे. अहो प्राणप्रिये ! तारी निःस्वार्थ वात्सल्यतानां शां वखाण करूं ? अहो तारी अनहद करु'णा ! तेनो बदलो हुं शी रीते वाळी शकीश ?
सुमति - आपना प्रतिनी मारी पवित्र फरज अदा करतां हुं कंइ अधिक करती नथी. गुण ग्राहक बुद्धिथीज आपने एम भासतुं "हशे. गमे तेम होय पण आ सर्व श्रेयः सूचकजें छे.
चारित्र ० - प्राण प्रिये ! खरुं कहुं छं के अंतरमां तत्त्व प्रकाश थवाथी अने अंध श्रद्धा नष्ट थवाथी जाणे हुं कंइक अंपूर्व जीवनज पाम्यो होउ एम मने तो जणाय छे. हवे मने शुद्ध संयम सेवन कर
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श्री जैनहितोपदेश-भाग २ जो. वानी पूर्ण अभिलाषा वर्ते छे. एवी मारी उच्चः अभिलाषा सफळ __ थाय माटे सर्वज्ञ मभुनी कृपा.साथे तारी सतत सहाय मागु छु.
- सुमंति-माराथी बनी शके ते सर्व सहाय समर्पवा हुँ सेवामां सदा तत्पर छ अने खरा जीगरथी इच्छु छ के आपनी आवी उच्च अभिलाषा शीघ्र फलीभूत थाओ!
चारित्र-प्रिये ! तारी सत्संगतिथी हुँ दिनप्रतिदिन अपूर्व आनंद अनुभवतो जाउं छं तेथी मने खात्री थाय छे के मारी उच्च अभिलाषा एक दिवसे सफळ-थाशेज! हाल तो मने धर्मना पवित्र अंगभूत अवशिष्ट रहेला तपनु स्वरुप जाणवानी प्रबळ इच्छा वर्ते छे. तेथी तेनु कंइक विशेष स्वरुप समजावीने समाधान कर घटेछे,
सुमति-जेथी पूर्व संचित कर्ममळ दग्ध थइने क्षय पामे तेनु नाम तप छे. अनादि अज्ञानना योगथी विविध विषयमां भटकता मननो अने इंद्रियोनो निरोध करी सहज स्वभावमा स्थित था तेज खरो तप छे. ते तपना ६ बाह्य अने ६ अभ्यंतर मळीने १२ भेद छे, जे खास लक्षमा राखवा जेवा छे. आत्म विशुद्धि करवाना कामी जनोने ते सर्वे अत्यंत हितकारी छे. तेमांथी प्रथम ६ वाह्यमेदनु किंचित् स्वरुप कहुं हुं.
१: अनशन-सर्व प्रकारना अन्न-पाणी विगेरे भोज्य पदा- अॅनो अमुक वखत सुधी अथवा कायमना माटे त्याग . . करीने सहज संतोष राखयो ते..
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१५८ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. २. ऊणोदरी ( औनोदर्य) भोजननो अमुक भाग जाणी
जोइने ओछो खावो. निद्रा-तंद्रादिकना जय माटे जाणी जोइने ऊ[ रहेवु अथवा संतोष सुखनी अभिवृद्धि माटे जरुर जेटला आहारमां पण कमी करता जवू. पोणा, अर्धा अने छेवट पा भागना भोजनथी निर्वाह करी लेवो ते. वृत्तिसंक्षेप-भोजन करती वखते वापरवानी वस्तुओन प्रमाण करवं, अमुक चीजोथीज चलावी लेवू, तेमज एक
के वे वखत नियमसर वावर. . ४. रसत्याग-पट्रस भोजनमांथी जेटला रसनो त्याग थइ
शके तेटलानो करवो. खाटो, खारो, तीखो, मीठगे, कडवो, अने कषायलो, एवा षट् रस छे, तेमज दूध, दही, घी, तेल, गोळ, अने तळेलु पकवान ए षट् विकृति-विगइयो छे. तेमांथी जेटली तजाय-तेटली तजीने वाकीथी संतोष राखवो. कायक्लेश-ठंडी रुतुमा टाढ सहन करवी, ग्रीष्म रुतुमां ताप सहन करवो, अने वर्षारुतुमा स्थिर आसनथी रही • ज्ञान ध्यान तपजपमां मशगूळ रहे. केशनो लोच करवो तथा भूमी शय्यादिक कष्ट स्वाधीनपणे खुशीथी सहन
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ - जो.
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करवुं एवं विचारीने के 'देहे दुखं महा फलम् ' देहने दमवामां बहु फळ छे. समजीने सहनशीळता राखवामां आवशे तो आगळ उपर ते ' बहु लाभकारी थाशे स्वेच्छाए सुखलंपट थवाथी पोताना बने भव बगडे छे.
६. संलीनता - आसननो जय करवा अंगोपांग संकोचीने . स्थिर आसने बेसवुं. आ प्रमाणे समजीने पूर्वोक्त बाह्य तपनुं सेवन करनार अभ्यंतर तपनी पुष्टि करे छे.
चारित्र – ए बाह्य तप शरीरनी आरोग्यता माटे पण बहु उपयोगी लागे छे, उक्त तप विविध व्याधिओनो संहार करवाने काळ जेवो लागे छे. ए उपरांत तेनुं विधिवत् सेवन करवाथी जे अभ्यंतर तपनी वृद्धि थाय छे तेनुं कंइक स्वरुप मने समजावो.
सुमति – प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, (वेयावच्च ) स्वाध्याय, ध्यान अने कायोत्सर्ग (काउस्सग्ग) एवा अभ्यंतर तपना ६ भेद छे. अंतर आत्माने अत्यंत उपकारी होवाथी ते अभ्यंतर तपना नामथी ओळखाय छे. तेमनुं कंइक स्वरुप आपनी तेवी जिज्ञासाथी कहुं हुं ते आप खास ध्यानमा राखी लेशो.
१. जाणतां के अजाणतां जे अपराध थयो होय ते गुरुमहाराजने निवेदी निःशल्य थया वाद गुरु महाराज तेनुं
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श्री जैनहितोपदेश: भांग जो.: निवारण करवा जे शिक्षा,आपे ते वरावर. पाळवी तेनुं नाम प्रायश्चित समजवू. थयेला अपराध संबंधी पोताना मनमां पण पूर्ण पश्चाताप करी, फरी तेवो: अपराध वीजी वार थइ न जाय तेवी पुरंतीःसंभाळ राखवी जोइए. सद्गुणी अथवा अधिक गुणीजनो साथे भक्ति, बहुमानादि उचित आचरण.करवू ते विनय कवाय छे. गुण स्तुति, अवगुणनी उपेक्षा, अने आशातनानो त्याग करवो ए सर्व विनयनाज अंगभूत छे. विनय, अनेक दुधर शत्रुओने पण नमावे छे..वळी जिन, अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, साधर्मीभाइ, अने चैत्य (जिनमुद्रा या जिनमंदिर) विगेरे पुज्य वर्ग उपर पूर्ण प्रेम राखवो ए विनय, प्रवळ अंग छे. बाळ, ग्लान, वृद्ध, तपस्वी, बाळ. ग्लान. उद्ध. तपस्वी.-संघ. साधर्माने. बनती सहाय आपवी, तेमनी अवसरे अवसरे.संभाळ लेवी, नि: स्वार्थपणे तेमनी सेवा बजाववी ते वैयावच्च. कहेवाय छे. अभिनव शास्त्रनी वाचना, तेमां पडेला संदेहना समाधान माटे गुरुने पृच्छना, भणेलं विस्मृत थइ न जाय माटे तेनी परावर्तना-पुनरावृत्ति करवी, तेमां समायेला गंभीर अर्थ चितवन करवु ते अनुपेक्षा अने निश्चित-संदेह
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- श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. १६१ विनानी धर्मकथावडे अन्य आत्मार्थीजनोने योग्य अव-. लंबनं देवारुप पांचपकारना स्वाध्यायथी आत्माने अत्यं-- त उपकार थतो होवाथी ज्ञानी पुरुषोए तेने अभ्यंतर तपरुप लेख्यो छे. अप्रशस्त अने प्रशस्त अथवा शुभ अने अशुभ अथवा शुद्ध अने अशुद्ध एवा मुख्यपणे ध्यानना वे भेद छे. आत अने रौद्र ए बे अनशस्त तथा धर्म अने शुक्ल ए वे प्रशस्त ध्यानना भेद छे. कोइ पण वस्तुमा चित्तर्नु एकाग्रपणुं थवु ते ध्यान कहेवाय छे. तेथी जो शुभवस्तुमां चित्त परोवायुं होय तो शुभ ध्यान अने अशुभ - वस्तुमा चित्त परोवायुं होय तो अशुभ ध्यान कहेवाय
छे. मलीन विचारवाळं ध्यान अशुद्ध कहेवाय छे अने निर्मळ विचारवाडं ध्यान शुद्ध कहेवाय छे. 'मनुष्योने. वंध अने मोक्षनुं मुख्य कारण मनज छे. ' एम जे कहेवाय छे ने आवा शुभाशुभ ध्यानने लइनेज समजवान छे. क्षणवारमा प्रसन्नचंद्र राजर्षिए जे सातमी नर्कनां दळीयां मेळव्यां अने पाछां विखेरी नांख्या ते तथा भरत महाराजाए क्षणवारमा आरीसो अवलोकतां केवळ ज्ञान प्राप्त कर्यु ते सर्व ध्याननोज महिमा छे.
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१६२ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. ६. देह उपरनो सर्व मोह तजीने अने मन वचनने पण
नियममां राखीने एकाग्रपणे-निश्चळ थइ आत्माने अरिहंत सिद्ध संबंधी शुद्ध उपयोगमा जोडी देवो ते कायोत्सर्ग नामे अभ्यंतर तप कहेवाय छे. आवा कायोत्सर्गथी अनेक महात्माओ अक्षय सुखने पाम्या छे, अने अनेक स्वर्गना आधिकारी थया छे; तेथी दरेक मोक्षार्थी जने तेनो अवश्य अभ्यास करवो योग्य छे. अभ्यास करता करतां अधिकार वधतो जाय छे. तेथी गमे तेवु कठिन कार्य पण सुलभ थइ पडे छे अने
आत्माने अनंत लाभ प्राप्त थई शके छे. चारित्र--प्राणप्रिये ! आ तारी अमृत वाणीनुं में अत्यंत रु. चीथी पान कयु छे. तेथी मने पण आवा अनुपम धर्मनी प्राप्तिद्वारा अंते अक्षय सुखनी प्राप्ति थशेज एम आ मारुं अंत:करण साक्षी भरेछे.
सुमति-प्राणप्रिय! आ आपनी प्रौढ वाणी खरेखर शुभ अर्थसूचक छे. ते सर्वांशे सफळताने पामो! अने आप अपूर्व पुरुषार्थयोगे भारी स्वामिनी शिव-सुंदरीना शीघ्र अधिकारी थाओ! एवी अंतरथी दुवा दउँ छः
चारित्र-मुमति ! हुं साचेसाचुं कहुं हुं के धर्मनुं आ अ'पूर्व स्वरुप समजी, तेनुं गंभीर महात्म्य मनमां भावी, हवे हुं शुद्ध
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. १६३ धर्म सेवन द्वारा स्वनाम सार्थक करवाने माराथी वनतुं साहस खेडवा वाकी राखीश नहि. तारी समयोचित किंमती सहायथी हुँ मारी धारणामां अवश्य फतेहमंद नीवडीश.
सुमति–तथास्तु ! किंतु आपनो पवित्र हेतु संपूर्ण सिद्ध करवाने सबळ सहायभूत पूर्वोक्त धर्मर्नु निश्चय अने व्यवहारथी स्वरुप कंइक वारीकीथी समजी लेवानी आपने जरुर छे.
चारित्र-व्यवहार धर्म अने निश्चय धर्मनो मुख्य शो तफावत छे अने तेथी शो उपकार थइ शके छ ?
सुमति-व्यवहार धर्म साधन छे, अने निश्चय धर्म साध्य छे. शुद्ध-निश्चय धर्म साक्षात् प्राप्त करवाने व्यवहार धर्म पुष्ट कारणभूत छे. व्यवहार साधन विना निश्चय साधी शकाय नहि.
चारित्र०—पूर्वे वतावेलुं धर्मर्नु स्वरुप मुख्यताथी केा प्रकार, छे ? __ सुमति-धर्मर्नु पूर्वोक्त स्वरुप मुख्यताथी व्यवहारनी अपेक्षाये कहेलुं छे तेथी तेमां निश्चयर्नु स्वरुप केवळ गौणपणेज रह्यं छे.
चारित्र-त्यारे हवे मने निश्चय धर्मनुं कंइक स्वरुप समजावो.
मुमति-सर्वथा कर्म कलंक रहित निर्मळ ज्ञान, दर्शन, चारित्र अने वीर्य (शक्ति) रुप आत्मानो सहज (निरुपाधिक) स्वभाव
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१६४ श्री जैनहितोपदेश भांग २ जो. एज निश्चय धर्म छे. सत्ता रुपे तो ते सदा आत्मामां स्थित रहेलोज छे.
चारित्र-सत्ता रुपे रहेलो ते धर्म आत्माने उपकारी केम थइ शकतो नथी अने ते क्यारे अने शी रीते आत्माने उपकारी थइ शके छे ते समजावो?
सुमति-आत्मा अनादि कर्म कलंकथी कलंकित थयेलो होवाथी सत्ता मात्र रहेलो धर्म आत्माने सहायभूत थइ शकतो नथी. ज्यारे पूर्वोक्त व्यवहार धर्मनुं रुचि पूर्वक सेवन करवामां आवे छे त्यारे परिणामनी विशुद्धिथी जेटले जेटले अंशे कर्म मळना हठवाथी आत्म स्वभाव उज्वल थाय छे तेटले तेटले थशे प्रगट थयेला सत्तागत धमेथी आत्माने सहज उपगार थायज छे. यावत् शुद्ध व्यवहार धर्मना संपूर्ण वळथी ज्यारे धनघाति कर्म मळनो क्षय थइ जाय छे, त्यारे तो अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र अने अनंत वीर्य रुप सहज अनंत चतुष्टयी प्रगटे छे. तेथी आत्मा सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, संपूर्ण सुखी अने सर्व शक्तिवंत थाय छे.
चारित्र-व्यवहार धर्म क्यां मुधी कही शकाय छे ते समजावो?
सुमति-ज्यां सुधी पूर्वे कहेला पांचे प्रमादना परिहार वडे सम्यग् ज्ञान, दर्शन, अने चारित्रनी सहायथी राग, द्वेष अने मोहादि
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
१६५
दुष्ट दोषोनो सर्वथा क्षय थाय नहि त्यां सुधी तेमनो संपूर्ण क्षय करवा माटे काळजी पूर्वक जे जे धर्म करणी करवामां आवे ते ते सर्व व्यवहार करणीमांज लेखाय छे. परंतु एटलो विशेष ( तफावत ) छे के जेम जेम आत्मा पूर्वोक्त दोषोनो क्षय करवाने विशेषे सन्मुख थतो जाय छे तेम तेम सहज सन्मुख भावे सेवन करवामां आवतो ते व्यवहार शुद्ध, शुद्धतर, अने शुद्धतम कहेवाय छे.
चारित्र ० - पूर्वोक्त निश्चय अने व्यवहार धर्मतुं कंइक वधारे स्फुट थाय तेम समजात्रो ?
सुमति – अनादि कर्म संयोगथी प्रभवता राग द्वेषादिकने पूर्वोक्त अहिंसा संयम अने तप रूप धर्मनी सहायथी दूर करीने आत्माना स्वाभाविक ज्ञानादिक गुणोने प्रगट करी तेमनुं रक्षण कर. पूर्वोक्त प्रमाद योगे तेमनुं विराधन थवा न देवं तेज निश्चय धर्म छे. सत्तागत रहेला आत्माना स्वभाविक गुणोने ढांकी देनारा कर्म आवरणो ने हठाववाने अनुकूल जे जे सदाचरण सेवनुं पडे ते ते सर्व व्यवहार धर्म कहेवाय छे. आधी स्फुट समजाशे के व्यवहार मार्गनुं विवेकथी सेवन कर ए निश्चय धर्म सिद्ध करवानुं अवंध्य ( अमोघ ) साधन छे. एटले के व्यवहार का - रण रुप छे अने निश्चय कार्य रूप अथवा फळ रुप छे.
० 0
चारित्र - उक्त स्वरुपनुं समर्थन करवा मुखे समजी शकाय एवं कोइ पद्यात्मक प्रमाण टांकी देखाड़ो ?
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'श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
सुमति - महोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी उक्त वातनुं आ प्रमाणे समर्थन करे छे.
" जेम निर्मलतारे रतन स्फटिक तणी, तेम ए जीव स्वभावः
ते जिन वीरे रे धर्म प्रकाशियो, प्रबल कषाय अभावश्री सीमंधर साहिब सांभळो० १
जेम ते राते फूले रातडुं, श्याम फूलथीरे श्यामः पुण्य पापथी रे तेम जग जीवने, राग द्वेष परिणाम. श्री सीमंधर० २ धर्म न कहिये रे निश्चय तेहने, जेह विभाव वड व्याधिः पहेले अंगेरे एणी पेरे भाखियुं, कर्मे होय उपाधि. श्री सीमंधर० ३ जे जे अंशेरे निरुपाधिकपणं, ते ते जाणारे धर्मः सम्यग् दृष्टिरे गुणठाणा थकी, जाव लहे शिव शर्म. श्री सीमंधर० ४ एम जाणीनेरे ज्ञान दशा भजी, रहीये आप स्वरूप;
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. १६७. पर परिणतिथीरे धर्म न छंडीये, नवि पडिये भव कूप.
श्री सीमंधर साहिब सांभलो० ५"" आवी रीते वन्ने मार्ग योग्य समर्थन करीने उभयनु आराधन करवा आ प्रमाणे कहेलुं छे. “निश्चय दृष्टि हृदय धरीजी, पाले जे व्यवहार ; पुण्यवंत ते पामशेजी, भव समुद्रनो पार. सोभागी.
जिन सीमंधर सुणो वात!" आम टुंकाणमा उक्त महापुरुषे जणाव्युं छे के निश्चयने पामवा इच्छनारे तेनेज हृदयमा स्थापीने-तेना सन्मुखज दृष्टि राखीने विवेक पूर्वक व्यवहार मार्गनुं सेवन करता रहे. एम करवाथीज अंते साध्य सिद्धि-भवसमुद्रनो अंत आवी शकशे. ते विना भवभ्रमणनो कदापि अंत आवी शकशे नहिं. एम समजीने अक्षय मुखना अर्थी सर्वे भाइ व्हेनोए स्फटिक रत्न जेवो निर्मळ आत्म स्वभाव प्रगट करवाना. परम पवित्र-उद्देशथी तेमां वाधकभूत राग, द्वेष अने मोहादिक कर्ममळ जेम दूर थाय तेम उपयोग राखी सर्वज्ञभाषित अहिंसा, संयम अने तप लक्षण धर्मेनुं सदा यत्नथी सेवन करवुज उचित छे, आप-- श्रीनुं पण एथीन कल्याण थवानुं निश्चित छे.
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१६८ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. धर्म रत्ननी प्राप्तिने माटे अवश्य प्राप्त करवा योग्य
गुणो अथवा धर्मनी खरी कुंची. 'जेन चिंतामणी रत्न भाग्यहीन जीवोने मळ, मुस्केल छे तेम अक्षुद्रतादिक उत्तम गुणरहित जनोने पण धर्मरत्न मळवू मुश्केलज छे.
'अक्षुद्रतादिक एकवीश गुणोवडे युक्त जीवने जिनमतमा धर्म रत्नने योग्य कहेलो छे. माटे ते गुणोने उपार्जवा धर्माभिलाषीजनोए जरुर यत्न करवो घटे छे.' उक्त वातनुं समर्थन करता छता श्रीमद् यशोविजयजी महाराज आ प्रमाणे कथे छे
" एकवीश गुण परिणमे, जास चित्त नित्यमेव धर्म रत्नकी योग्यता, तास कहे तुं देव." १ उक्त एकवीश गुणोनी नोंध आ प्रमाणे आपेल छ के" क्षुद्र नहिं वळी रुपनिधि, सौम्य जनप्रिय धन्न क्रूर नहिं भीरु वळी, अशठ सुदखिन्न. लजालुओ दयालुओ, सोम दिहि मज्जथ्या गुणरागी सतकथ्थ, सुपख्ख दीर्घदर्शी अथ्थ. विशेषज्ञ वृद्धानुगत, विनयवंत कृत जाण; 'परहितकारी लब्ध लक्ष, एम एकवीश प्रमाण.
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गुणगुणीनो कथंचित् अभेद संबंध होवाथीज उपर गुणने बदले गुणीतुं निरुपण कर्तुं छे. अर्थात् धर्म रत्नने योग्य आवा गुणी थवुंज जोइये, केवा गुणी थवुं जोइये ? तेनुं उपर मुजब प्रथम संक्षिप्त वर्णन करीने पछी कंक ते संबंधी विशेष वर्णन करवाने बनतो प्रयत्न कर.
१. क्षुद्र नहिं एटले अक्षुद्र, गंभीर आशयवाळो, सूक्ष्म रीते वस्तुतत्त्वनो विचार करवाने शक्ति धरावनार समर्थ जीव विशेष धर्म रत्नने पामी शके.
२. रूपनिधि एटले प्रशस्त रुपवाळो, पांचे इंद्रियो जेने स्पष्ट रीते प्राप्त थयेल छे एवो अर्थात् शरीर संबंधी सुंदर आकृतिने धार
नार आत्मा.
३. सौम्य एटले स्वभावेज पापदोष रहित, शीतळ स्वभाव
वान् आत्मा.
४. जनप्रिय एटले सदा सदाचारने सेवनार लोकप्रिय आत्मा. ५. क्रूर नहिं एटले क्रूरता या निष्ठूरतावडे जेनुं मन मलीन थयुं नथी एवो अक्लिष्ट याने प्रसन्न चित्तयुक्त शांत आत्मा.
६. भीरु एटले आलोक संबंधी तथा परलोक संबंधी अपायथी डरवावाळो अर्थात् अपवादभीरु तेमज पापभीरू होवाथी वधी
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रीते संभाळीने चालनार, उभय लोक विरुद्ध कार्यनो अवश्य परि
हार करनार.
७. अशठ एटले छळ प्रपंचवडे परने पासमां नाखवाथी दूर रहेनार.
८. सुदखिन्न एटले शुभ दाक्षिणतावंत, उचित प्रार्थनानो भंग नहिं करवावाळो, समय उचितवतीं सामानुं दील प्रसन्न करनार.
९. लज्जालुओ एटले लज्जाशील, अकार्य वजी सत्कार्यमां सहेजे जोडाइ शके एवो मर्यादाशील पुरुष.
१०. दयालुओ एटले सर्व कोइ प्राणी वर्ग उपर अनुकंपा
राखनार.
११. सोमदिहि- मज्जथ्य एटले राग द्वेष रहित निष्पक्षपातपणे वस्तुतत्त्वने यथार्थ रीते ओळखी मध्यस्थताथी दोषने दूर करनार. १२. गुण राणी एटले सद्गुणीनोज पक्ष करनार, गुणनोज पक्ष लेनार.
१३. सत्कथ्थ एटले एकांत हितकारी एवी धर्मकथा जेने प्रिय छे एवो.
१४. सुख्ख एटले सुशील अने सानुकूल छे कुटुंब जेनुं एवो जाडावळियो.
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१५. दीर्घदशीं एटले प्रथमथी सारी रीते विचार करीने परिणामे जेमां लाभ समायो होय एवा शुभ कार्यनेज करवावाळो.
१६. विशेषज्ञ एटले पक्षपात रहितपणे गुण दोष, हित अहित, कार्य अकार्य, उचित अनुचित, भक्ष अभक्ष्य, पेय, अपेय, गम्य अगम्य विगेरे विशेष वातनी जाण.
१७. वृद्धानुगत एटले परिपक्व बुद्धिवाळा अनुभवी पुरुषोने अनुसरी चालनार, नहिं के जेम आव्युं तेम उच्छृंखलपणे इच्छा मुजव काम करनार.
१८. विनयवंत एटले गुणाधिकनुं उचित गौरव साचवनार सुविनीत.
१९. कृत जाण एटले वीजाए करेला गुणने कदापि नहिं विसरी जनार.
२०. पर हितकारी एटले स्वतः स्वार्थ विना परोपकार करवामां तत्पर, दाक्षिणतात तो ज्यारे तेने कोइ प्रेरणा अथवा प्रार्थना करे त्यारे परोपकार करे अने आतो पोताना आत्मानीज प्रेरणाथी स्व कर्तव्य समजीनेज कोइनी कंइ पण अपेक्षा राख्या विनाज परोपकार कर्या करे एवा उत्तम स्वभावने स्वभाविक रीते धारनार भव्य ..
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१७२ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. ____२१. लब्ध लक्ष एटले कोइ पण कार्यने सुखे साधी शके एवो कार्य दक्ष.
हवे उपर कहेला २१ गुणोनुं कंइक सहेतुक ब्यान करवानो उपक्रम करवामां आवे छे. जेम शुद्ध करायेला वस्त्र उपरज रंग जोइये एवो वराबर चही शके छे परंतु अशुद्ध एवा मलीन वस्त्र उपर रंग चही शकतो नथी तेमन उपर कहेला गुण विनाना मलीन आत्माने धर्मनो रंग लागतोज नथी. उपर कहेला गुणोवडे विशुद्ध थयेला आत्मानेज धर्मनो रंग चढे छे. वळी जेम खडवचरडी' अने पालीस कर्या विनानी भीत उपर चित्र आवेहूव उठतुं नथी परंतु घठारी मठारीने साफ करेली सरखी भींत उपर चित्र जोइये एकुं आबेहुब उठी नीकळे छे तेम उपर कहेला गुणोना संस्कार विनाना असंस्कृत हृदय उपर धर्मनुं चित्र बरावर पडी शकतुं नथी पण उक्त गुणोथी संस्कारित हृदय उपर सत्य धर्मचं चित्र वरावर खीली उठे छे. उक्त गुणोनी प्राप्तिद्वारा भव्य आत्मा सत्य धर्मनो उत्तमोत्तम लाभ पामी शके छे एथी उपर कहेला सद्गुणोनो खास अभ्यास करवानी अत्यावश्यकता स्वतः सिद्ध थाय छे, अने तेथीन ते गुण संबंधी वनी शके तेटली समज लेवी पण जरुरनी छे. एमांज जीवर्नु खरुं हित समायेलं छे.
१ Rough. २ Unpolished.
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3
FIN
श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
१७३
१ " क्षुद्र स्वभाववाळी अगंभीर अने उछांछळो होवाथी धर्मने सांधी शकतो नथी. ते नंथी तो करी शकतो स्वहित के नथी करी शकतो परहितः स्वपरहित साधवानी तेनामां योग्यताज नथी. तेथी स्वपर हित साधवाने अक्षुद्र स्वभावी एवो गंभीर अने ठरेल प्रकृतिवाळीज योग्य अने समर्थ होइ शके छे.
२ हीन अंगोपांगवाळो, नवळा संघयणवाळो, तथा इंद्रियोमां खोडवाळ स्वपरहित साधवाने असमर्थ होवाथी धर्मने अयोग्य को छे. केमके धर्म साधवामां तेनी खास अपेक्षा रहे छे. ते विना धर्म साधनमा घणीज अडचण आवे छे. तेथी संपूर्ण अंगोपांगवाळो, पांचे इंद्रिय पूरेपुरी पामेलो अने उत्तम संघयणवाळो सुंदर आकृतिवंत प्राणी धर्मने योग्य को छे. एवी शुभ सामग्रीवाळो जीव शासननी शोभा वधारी शके छे अने सर्वज्ञ भगवाने भाखेला धर्मने सम्यकू पाळी शके छे.
३ प्रकृतिथीज शांत स्वभाववाळो जीव प्रायः पापकर्ममां प्रवृत्ति करतोज नथी अने मुखे समागम करी शकाय एवा शीळा स्वभावने लीघे अन्य आकळा जीवोने पण समाधिनुं कारण थइ शके छे. अर्थात् आकरी प्रकृतिवाळा पण शीळा स्वभाववाळा सज्जनोना समागमय ठंडी प्रकृतिना थई जाय छे. तेथी ठंडी प्रकृतिवाळा प्राणी सुखे स्वपरहित साधी शके छे परंतु आकळी प्रकृतिवाळा तेम करवाने असमर्थ होवाथी धर्म साधवाने अयोग्य कह्या छे.
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१७४ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
४ दान विनय अने निर्मळ आचारने सेवनार माणस सर्व जनोने प्रिय थइ शके छे अने ते आलोक विरुद्ध तथा परलोक विरुद्ध कार्यने स्वभाविक रीतेज तजनार होवाथी सम्यग् दृष्टि जीवोने पण मोक्षमार्गमां वहुमान उपजावनार थइ पडे छे. सदाचार सेवी लोकप्रिय पुरुष पोतानी पवित्र कहेणी करणीथी अन्य जनोने पण अनुकरणीय थइ पडे छे, तेवी रीते इच्छा सुजव वर्ती अतडो रहेनार माणस कंइ पण विशेष स्वपरहित साधी शकतो नथी.
५ क्रूर माणस क्लिष्ट परिणामथी पोतानुंज हित साधवाने अशक्त छतो परतुं हित शी रीते साधी शके ? तेथी ते धर्मरत्नने अयो. ग्य समजवो. सम परिणामने धारण करनार एवो अनुकंपावानअक्रूर आत्माज मोक्षमार्ग साधवाने अधिकारी होइ शके छे,
६ आलोक संबंधी तथा परलोक संबंधी दुःखनी विचारणा करनार पाप कर्ममां प्रवृत्ति करतो नथी अने लोकापवादथी पण डरतो रहे छे एवो भवभीरु माणसज धर्मरत्नने योग्य होइ शके छे. परंतु जे निर्भयपणे-लोकापवादनो पण भय राख्या विना स्वच्छंद वर्तन करे छे ते धर्मरत्नने योग्य नथीज. ___७ अशठ माणस कोइनी वंचना करतो नथी तेथी ते विश्वासपात्र अने प्रशंसापात्र बनेछे. वळी ते पोताना सद्भावथी उद्यम करेछे तेथी ते धर्मरत्नने योग्य ठरे छे. कपटी माणस तो पर वंचनाथी पो
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. १७५ ताना कुटिल स्वभावने लइ परने अप्रीतिपात्र वने छे तेमज स्वहितथी पण चूके छे माटे ते धर्मने माटे अयोग्य छे.
८ सुदाक्षिणतावंत पोतानुं कार्य तजी वनी शके तेटलो वीजानो उपगार करतो रहे छे तेथी तेनुं वचन सहु कोइ मान्य राखे छे तेमज सहु कोइ तेने अनुसरीने चाले छे. आवा स्वभावथी सहेजे स्वपरहित साधी शकाय छे तेथी ते धर्मरत्नने योग्य छे. जेनामां ए गुण नथी ते स्वार्थसाधक अथवा आपमतलवीयाना उपनामथी निंदापात्र थाय छे माटे ते धर्मरत्नने अयोग्य ठरे छे,
९ लज्जाशील माणस लगारे पण अकार्य करतां डरे छे तेथी ते अकार्यने दूर तजी सदाचारने सेवतो रहेछ तेमज अंगीकार करेला शुभ कार्यने ते कोइ रीते तजी शकतो नथी. तेथी ते सद्धमने योग्य गणाय छे. लज्जाहीन तो कंइपण अकार्य करतां डरतो नथी तेथी ते अशुभ आचारने अनायासे सेवतो रहे छे. गमे तेवा उत्तम कुळमां उत्पन्न थया छतां ते कुळ मर्यादाने तजी देता वार करतो नथी तेथी लज्जाहीन धर्म रत्नने अयोग्य छे.
१० दया ए धनुं मूळ छे अने दयाने अनुसरीनेज सर्व सद्अनुष्ठान प्रवर्ते छे एम जिन-आगममा सिद्धांत रुपे कहेलुं छे तेथीज सर्वज्ञ भाषित सत्य धर्मर्नु यथार्थ आराधन करवाने दयाल होवानी खास जरुर छ अर्थात् दयालुज धर्म रत्नने योग्य छे. दयाहीन कोइ
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
ते धर्मने योग्य नथी केमके तेवा निर्दय परिणामंवाळानुं सर्व अनुष्ठान निष्फळ थाय छे.
१९ मध्यस्थ एटले पक्षपात रहित एवो सौम्य दृष्टि पुरुष राग द्वेष दर तजीने शांत चित्तथी धर्म विचारने यथास्थित सांभळे छे अने गुणन स्वीकार तथा दोषनो त्याग करेछे माटे ते धर्मने लायक छे. परंतु पक्षपात युक्त बुद्धिवाळी माणम अंध श्रद्धाथी वस्तुतत्त्वनो यथास्थित विचारज करी शकतो नथी तो पछी गुणनो आदर अने दोषनो त्याग शी रीते करी शके ? तेथी पक्षपात बुद्धिथी एकांत ताण करी बेसनार धर्म रत्नने योग्य नथीज.
१२ गुणरागी माणस गुणवंतनुं वहु मान करे छे, निर्गुणनी उपेक्षा करेछे, सद्गुणनो संग्रह करे छे अने संप्राप्त गुणने सारी रीते साचवी राखे छे. प्राप्त थयेला गुणोने दोपित करतो नथी. तेथी ते धर्म योग्य छे. निर्गुण माणस तो वीजा गुणवंतने पण पोतानी जेवा लेखे छे तेथी ते नथी तो करतो तेमनी उपर राग के नथी क रतो गुण उपर राग. परंतु उलटो गुणद्वेषी होइ सद्गुणनो पण अनादर करे छे अने आत्म गुणने मलीन करी नांखे छे माटे ते धर्म रत्नने माटे अयोग्यज छे.
१३ विकथा करवाना अभ्यासवडे कलुषित मनवाळो माणस विवेक रत्नने खोइ देछे अने धर्ममां तो विवेकनी खास जरूर छे. तेथी
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
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धर्मार्थी माणसे सत्य प्रिय थवानो अने सत्य - हितकारी वातनेज कहे वानो अथवा सांभळवानो ढाळ राखवो जोइये, आवा सत्यप्रिय अ... सत्यभाषक जीवथी खपरनुं हित सहेजे थाय छे तेथी तेवा गुणवाळाज धर्मरत्नने योग्य छे. विकथावंतथी उभयने हानि पहोंचे छे तेथी अयोग्य छे.
१४ जेनो परिवार अनुकूल वर्तनारो, धर्मशील अने सदाचारने सेववावाळो होय एवो जाडावळियो माणस निर्विघ्नपणे धर्मसाधनकरी शके छे. पूर्वोक्त स्वभाववाळा कुटुंबथी धर्मसाधनयां कंइ पण अंतराय आववानो संभव रहेतो नथी केमके एवं सानुकूळ कुटुंब तो. धर्मसाधनमा जोइये तेवी सहाय दइ शके छे. तेथी धर्मशील अने सदाचारवाळा अनुकूल परिवारवाळो धर्मने दीपाववाने योग्य गणीयछे वो प्रतिकूळ आचार विचारचाळा परिवारवाळो योग्य गणातो. नथी, केमके तेथी तो धर्म मार्गमां वखतोचखत विघ्न उभा थाय छे. माटे शुद्ध अने समर्थपक्षनी पण खास जरुर छे.
१५ दीर्घदर्शी माणस पूर्वापरनो अथवा लाभालाभनो विचार. करी जेनुं परिणाम सारंज आववानो संभव होय, जेमां लाभ वधारे अने क्लेश अल्प होय अने जे घणा माणसोने प्रशंसनीय होय तेवां कामनोज आरंभ करेछे, तेवा दीर्घदशींजनो धर्म रत्नने योग्य छे...
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
केमके ते विचारशील अने विवेकवंत होवाथी सफळ प्रवृत्तिने करनारा होय छे. ते कंइपण वगर विचायु नहि बनी शके एवं असाध्य कार्य सहसा आरंभताज नथी. जे कार्य सुखे साधी शकाय एवं मालम पडे तेनोज ते विवेकथी आदर करछे. सहसाकारी बहुधा असाध्य कार्य करवा मंडी जाय छे अने तेमां निष्फळ नीवडवाथी ते पश्चातापनो भागी थाय छे तेथी ते धर्मरत्नने लायक ठरतो नथी.
१६ विशेषज्ञ पुरुष वस्तुओना गुण दोषने पक्षपात रहितपणे पिछांनी शके छे तेथी प्रायः तेवा माणसज उत्तम धर्मना अधिकारी कह्या छे. जे अज्ञानतावडे हिताहित, कृत्याकृत्य, धर्माधर्म, भक्ष्याभक्ष्य, पेयापेय के गुणदोष संबंधी विलकुल अज्ञात छे ते धर्मने अयोग्यज छे. केमके जे पोतानुं हित शुं छे तेटलं समजता पण नथी ते शी रीते स्वहित साधी शकशे ? अने स्वहित साधवाने पण असमर्थ होबाथी परहितनुं तो कहेज शु? तेथी पशुना जेवा अज्ञान अने अविवेकी जनो धर्मने माटे अयोग्य छे.
१७ परिपक बुद्धिवाला अर्थात् सद्विवेकादिक गुण संपन्न एवा वृद्ध पुरुपो पापाचारमा प्रति करताज नथी. एम होवाथी तेवा -
द्धने अनुसरीने चालनार पण पापाचारथी दुरज रहे छे केमके जी'वोने सोवत प्रमाणे गुण आवे छे. कहेवत छे के 'जेवी सोवत तेवी तेवी असर.' तेवा शिष्ट पुरुषोने अनुसार चालनार धर्मरत्नने योग्य
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श्री जैनहितोपदेश भाग २. जो. १७९ थाय छे परंतु स्वच्छंदे चालनार माणस कदापि धर्मने योग्य थइ शकतो नथी. केमके ते सदाचारथी तो प्राय:. विमुख रहे छे.
१८ सम्यग् ज्ञान दर्शनादिक सर्व सद्गुणोनुं मूळ विनय छ, अने ते सद्गुणो वडेज खलं सुख मेळवी शकाय छे. माटेज जैनशाशनमा विनयवंत-विनीतने वखाण्यो छे. लौकिकमां पण कहेवाय छे के 'वनो (विनय) वेरीने पण वश करे.' तो पछी शास्त्रोक्त नीति मुजब विनयनो अभ्यास करवामां आवे तो तेना फळनुं तो कहेवुज शुं? विनयथी सर्व इष्टनी प्राप्ति थाय छे. तेथी इष्टमुखना अभिलाषी जनोए अवश्य विनयर्नु सेवन करबुज जोइये. अविनीत माणस धमनो अधिकारी नयीज. केमके ते तेनी असभ्य वृत्तिथी कंइ पण सद्गुण पेदा करी शकतो नथी, अने उलटो ठेकाणे ठेकाणे क्लेशनों भागी थाय छे.
१९ कृतज्ञ पुरुष धर्मगुरुने तत्त्वबुद्धिथी परोपकारी जाणीने तेनुं वहुमान करे छे. तेथी सम्यग् ज्ञान दर्शनादिक सद् गुणोनि वृद्धि थाय छे तेथी कृतज्ञ माणसज धर्मरत्नने लायक छे. कृतज्ञ माणस उपर सामान्य उपगार कर्यो होय तो तेने पण ते भूलतो नथी तो असाधारण उपगारने करनार उपगारीने तो ते भूलेज केम ? कृतघ्न माणस उपगारीए करेला उपगारने विसरी जइ तेनो उलटो अपवाद करवा तत्पर थइ जाय छे. दूध पाइने उछेरेला सापनी जेम कृतघ्न नुकसान करे छे माटे ते धर्मने योग्य नथी.
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श्री जैनहितोपदश भाग २ जो.
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१८०
२० धन्य कृत पुन्य एवो परहितकारी पुरुष धर्मनुं खरूं रहस्य सारी रीते समजी प्राप्त करीने निस्पृह चित्त छतो पोताना पूर्ण पुरुपार्थयोगे अन्य जनोने पण सन्मार्गमां जोडी दे छे, अर्थात् धर्मनुं खरु रहस्य जाणनार अने निस्पृहपणे पोतानुं छतुं वीर्य फोरवनार एवा परहितकारी पुरुषोनीज वलिहारी छे, तेवा धन्य पुरुषो स्वपरनुं हित विशेषे साधी शके छे. तेवा भाग्यशाळी भव्यो धर्मने सारी रीत दीपावी शके छे तेथी ते धर्मरत्नने अधिक लायक छे. केवळ स्वार्थ वृत्तिवाळाथी तेवो स्वपर उपगार संभवतो नथी. तेथी निःस्वार्थ - त्ति राखवानी खास जरुर छे, निःस्वार्थी जनो परोपकारने पोताना शुद्ध स्वार्थथी भिन्न समजता नथी. अर्थात् परोपकारने पोतानुं खास कर्तव्य समजीने कोइनी प्रेरणा विना स्वभाविक रीतेज से छे.
२१ लब्ध लक्ष पुरुष सकळ धर्मकार्यने सुखे समजी शके छे अने ते दक्ष - चंचळ तथा सुखे केळवी शकाय एवो होवाथी थोडा वखतमांज सर्व उत्तम कलामां पारगामी थइ शके छे. आवो कार्य दक्ष पुरुष धर्मरत्नने लायक होइ शके छे. परंतु अकुशल, अशिक्षणीय अने मंद परिणामी तेमज अति परिणामी जनो धर्मने लायक थइ शकता नथी. केमके तेमनी नजर सापेक्षपणे सर्वत्र फरी वळती नथी. तेथी तेओ सत्य धर्मथी बाहेर रह्या करे छे, अर्थात् धर्मना खरा रहस्यने पामी शकताज नथी. माटे धर्मार्थी जनोए कार्यदक्ष अने कर्तव्य परायण थवानी पण परी जरुर छे, "
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
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आ प्रमाणे ए एकवीश गुणेोनुं कंइक सहेतुक वर्णन 'धर्मप्रकरण' ग्रंथने अनुसार करवामां आव्युं छे. ए उपर वर्णवेला गुणो जेमणे संप्राप्त कर्या छे ते भाग्यशाळी भव्य जनो धर्मरत्नने लायक थाय छे. ए एकवीश गुण संपूर्ण जेमने प्राप्त थया छे ते उत्कृष्ट रीते लायक छे. चतुर्थ भागे न्यून गुणवाळा भव्य मध्यम रीत्या लायक छेने अर्धा भागथी न्यून गुणवाळा भव्यो जघन्य भागे लायक छे. परंतु तेथी पण न्यून गुणवाळा होय तेतो दरिद्रयाय-अयोग्य समजवाना छे. एम समजीने सर्वज्ञ भाषित शुद्ध धर्मना अभिलाषी जनोए जेम वने तेम उक्त गुणोमां विशेषे आदर करवो योग्य छे. कारण के पवित्र चित्त पण शुद्ध भूमिमांज शोभे छे अने भूमि-शुद्धि उक्त गुणोवडेज थाय छे.
उक्त गुण भूषित भव्य सच्चोए शुद्ध धर्मनी प्राप्ति माटे शुद्ध संयमधारी सद्गुरु पासे शुश्रूषा पूर्वक धर्मनुं स्वरुप सांभळवा अने तेनुं मनन करवा साथै यथाशक्ति तेनुं परिशीलन करवाने प्रयत्न सेववो जोइये. ते धर्म मुख्यपणे वे प्रकारनो छे. देशविरति धर्म अने सर्व विरति धर्म. देशविरति धर्मना अधिकारी गृहस्थ लोक होइ शके छे अने सर्व विरति धर्मना अधिकारी साधु मुनिराज होइ शके छे. स्थूल थकी हिंसा, असत्य, अदत्त, मैथुननो त्याग अने परिग्रहनुं प्रमाण करवारुप पांच अणुव्रत, दिग् विरमण, भोगोपभोग विरमण अने अनर्थदंड विरमणरुप त्रण गुणवत तथा सामायक, देशावगासिक, पौ
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१८२ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. षध अने अतिथि संविभागरुप द्वादशव्रत गृहस्थ (श्रावक) ने होइ शके छे. साधु मुनिराजनें तो सर्वथा हिंसा, असत्य, अदत्त, अब्रह्म तथा परिग्रहना परिहारथी अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य अने असंगतारुप पांच महाव्रतो पाळवा साथे रात्रीभोजननो सर्वथा त्याग करवानो होय छे. (विवेकवंत गृहत्य पण रात्रीभोजननो त्यागज करे छे,) ते उपरांत साधु मुनिराजने नीचेनी दश शिक्षा संपूर्ण रीते पाळवानी होय छे अने गृहस्थने वनी शके तेटला प्रमाणमा ते पाळवानी होय छे.
'धर्मनी दश शिक्षा' १ क्षमा-अपराधि जीवोनुं अंतःकरणथी पण अहित नहि इ-- च्छता जेम स्वपरहित थइ शके तेम सहनशीलता पूर्वक उचित प्रवृत्ति या नित्ति करवी अने जिनेश्वर प्रभुना पवित्र वचननो तेवो मर्म समजीने अथवा आत्मानो एवोज धर्म समजीने सहज सहनशीलता धारवी ते.
२ मृदुता-जातिमद, कुळमद, वळमद, प्रज्ञामद, तपमद, रुपमद, लाभमद अने ऐश्वर्यमदन स्वरुप सारी रीते समजी तेथी थती हानिने विचारी ते संबंधी मिथ्याभिमान तजीने नम्रता याने लघुता धारण करवी. गुणगुणीनो द्रव्य भावथी विनय साचववो, तेमनी उ...
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. १८३ चित सेवा चाकरी करवी तेमनुं अपमान करवाथी सदंतर दूर रहेQ विगेरे नम्रताना नियमो ध्यानमा राखीने स्वपरनी परमार्थथी उन्नतिथाय एवो सतत ख्याल राखी रहेवू ते.
३ सरलता-सर्व प्रकारनी माया तजी निष्कपट थइ रहेणी कहेगी एक सरखी पवित्र राखवी. जेम मन, वचन अने कायानी पवित्रता सचवाय, अन्य जनोने सत्यनी प्रतीति थाय तेम प्रयत्नथी. ख उपयोग साध्य राखीने व्यवहार करवो ते.
४ संतोष-विषय तृष्णानो त्याग करी, ते माटे थता संकल्प विकल्पोने शमावी दइ, तुष्ट वृत्तिने धारण करी, स्थिर चित्तथी सभ्यम् दर्शन ज्ञान अने चारित्ररुप रत्नत्रयीन सेवन कर तेमज सर्व पाप. उपाधिथी निवर्तवू ते. ___५ तप-मन अने इंद्रियोना विकार दूर करवा तेमज पूर्व कमनो क्षय करवा समता पूर्वक वाह्य अने अभ्यंतर तपy सेवन करवू. उपवास आदिक वाह्य तप समजीने समता पूर्वक करवाथी ज्ञान ध्यान, प्रमुख अभ्यंतर तपनी पुष्टिने माटेज थाय छे. तेथी ते अवश्य करवा. योग्यज छे. तपथी आत्मा कंचनना जेवो निर्मळ थाय छे.
६. संयम-विषय कषायादिक प्रमादमा प्रवर्तता आत्माने: नियममा राखवा यम नियमनुं पालन करवू, इंद्रियोर्नु दमन करवू, कपायनो त्याग करवो अने मन वचन कायाने वनता काबुमा राख
चा ते.
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___ १८४ श्री जैनहितोपदेश भाग २. जो.
__७ सत्य-सहुने प्रिय अने हितकर थाय एवुज वचन विचारीने अवसर उचित बोलवू, जेथी धर्मने कोइ रीते बाधक न आवे ते.
८ शौच-मन वचन अने कायानी पवित्रता जाळववाने बनतो प्रयत्न सेव्या करवो. प्रमाणिकपणेज वर्तवं, सर्व जीबने आत्म समान लेखवा. कोइनी साथे अंशमां पण वैर विरोध राखवो नहि. सहुने मित्रवत् लेखवा, तेमने बनती सहाय आपवी अने गुणवंतने देखी मनमा प्रमुदित थ, पापी उपर पण द्वेष न करवो ते.
९ निष्परिग्रहता-जेथी मूर्छा उत्पन्न थाय एवी कोइपण वस्तुनो संग्रह नहि करवो. परिग्रहने अनर्थकारी जाणी तेनाथी दूर रहे, कमलनी पेरे निर्लेपपणुं धारवं. परस्पृहाने तजी निस्पृहपणुं 'आदर.
१० ब्रह्मचर्य-निर्मळ मन वचन अने कायाथी किंपाकनी जेवा परिणामे दुःखदायक विषयरसनो त्याग करी निर्विषयपणुं याने : निर्विकारपणुं आदरयु. विवेक रहित पशुना जेवी कामक्रीडा तजी • सुशीलपणुं सेवq. लज्जाहीन एवी मैथुन क्रीडानो त्याग करी आ
स्मरति धारवी ते. आ दशविध धर्मशिक्षानुं शुद्ध श्रद्धापूर्वक सेवन • करवाथी कोइ पण जीवनुं सहजमां कल्याण थइ शके छे. माटे तेनुं यथाविध सेवन करवानी अति आवश्यकता छे. सम्यग्दर्शन ज्ञान अने चारित्र एज मोक्षनो खरो मार्ग छे.
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
॥ अथ परमातम छत्रीशी. 11
}
परम देव परमातमा परम ज्योति जगदीस || परमभाव उरआनकें प्रणमत हुं नीस दीस || १ || एक ज्युं चेतन द्रव्य है. तामें तीन प्रकार || बहिरातम अंतर कह्यो, परमातम पद सार ॥ २॥ वहिरातम ताकुं कहै, लखे न ब्रह्म स्वरूप || मगन रहे परद्रव्य है, मिथ्यावंत अनूप || ३ || अंतर आतमा जीव सो, सम्यक् दृष्टि होय. ।। चोथै अरु फुनि बारमै गुणथानक लों सोय ॥ ४ ॥ परमातम परब्रह्मकों, प्रगटयो शुद्ध स्वभाव || लोकालोक प्रमाण सब, झलके तिनमें आय || बाहिर आतम भाव तज, अंतर आतमा होय ॥ परमातम पद भजतु है, परमातम वहे सोय ॥ ६ ॥ परमातम सोइ आतमा, अवर न दुजो कोइ || परमातमकुं ध्यावते, एह परमातम होय ॥ ७ ॥ परमातम परब्रह्म है, परम ज्योति जगदीस || परसु भिन्न निहारीथे, जोइ अलख सोइ इस ॥ ८ ॥ जे परमातम सिद्ध मैं, सोहि आतमा माहिं || मोह मयल इग लगी रह्यो, तामे सूझत नांहि ॥ ९ ॥ मोह मयल रागादिके, जा छिन कीजे नास ॥ ता छिन एह परमातमा, आपहि लहे प्रकास || १० || आतम सो परमातमा, परमात सोइ सिद्ध || विचकी दुविधा मीट गई, प्रगट भइ निज रिद्ध ॥ ११ ॥ मेंहि सिद्ध परमातमा, मेंहि आतमराम ॥ मेंहि ग्याता गेयको, चेतन मेरो नाम ॥ १२ ॥ मेंहि अनंत सुखको धनी, सुखमें मोहि सोहाय || अविनासी आनंदमय, सोऽहं त्रिभुवन
॥
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१८६ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. राय ॥ १३ ॥ सुद्ध हमारो रुपहें, शोभित सिद्ध समान ॥ गुण अनंत करी संयुत, चिदानंद भगवान ॥ १४॥ जेसो सिव तहिवे वसे, तेसो या तनमांहि ॥ निश्चय दृष्टि निहारतां. फेर रंच कछ नांहि ॥१५॥ करमनके संजोग ते, भए तीन प्रकार ॥ एक आतमा द्रव्यकुं, करम नटावण हार ॥१६॥ कर्म संघातें अनादिके, जोर न कछु बसाय ॥ पाइ कला विवेककी, राग द्वेष छिन जाय ॥१७॥ कैरमनकी जर राग हे, राग जरे जर जाय॥परम होत परमातमा, भाइ सुगम उपाय ॥ १८ ॥ काहकुं भटकत फारे, सिद्ध होनके काज ॥ राग द्वेषकुं त्याग दे, भाइ सुगम इलाज ॥१९॥ परमातम पदको धनि, रंग भयो विललाय ॥ राग द्वेषकी प्रीति सौ, जनम अकार) जाय ॥ २० ॥राग द्वेषकी प्रीति तुम, भुले करो जन रंच ॥ परमातमपद ढांकके, तुमहि किये तिरयंच ॥ २१॥ जप तप संजम सव भले, राग द्वेष यो नाहि ॥ राग द्वेष जो जागते, ए सव भये ज्यु नाहिं ॥ २२ ॥ राग द्वेषके नासते, परमातम परकास ॥ राग द्वेषके भासते, परमातम पद नास ॥२३॥ जो परमातम पद चहें, तो तुम राग निवार ॥ देखी संजोग स्वामीको, अपने हिये विचार ॥२४॥ लाख वातकी वात इह, जोकु देइ बताय ॥ जो परमातम पद चहे,
१ जेम सिद्ध भगवान सिद्धक्षेत्रमा विराजे छे. २ कर्मनुं मूळ राग छ, राग गये छते निमूळ थये छते कर्मनो अंत आववानो छे अने त्यारेज परमात्मपद प्राप्त थवानुं छे. ३ निष्फळ
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
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राग द्वेष तज भाइ ॥ २५ ॥ राग द्वेष त्याग विनु, परमातम पद नाहिं ॥ कोटि कोटि जप तय करे, सव अकारथ जाय ॥ २६ ॥ दोष आतमाकुं इह, राग द्वेषको संग ॥ जेसे पास मजीठमें, व और हि रंग || २७ ॥ तेसे आतम द्रव्यकुं, राग द्वेषके पास || कर्म रंग लागत रहे, कैसे लहे प्रकाश ॥ २८ ॥ इण कर मनको जीतवो, कठीन वात हे वीर ॥ जरे खोदे चितुं नहि मिटें, दुष्ट जात वे पीरे ।। २९ ।। लैल्लोपतो के कीयो, ए मिटवे के नाहि || ध्यान अगनी परकाशके, होम देहि ते मांहि ॥ ३० ॥ ज्युं दारु के गंजकुं, नर नहि शके उठाय ॥ तनकें आग संजोग ते, छिन एकमें उड जाय ॥ ३१ ॥ देह सहित परमातमा, एह अचरीजकी बात || राग द्वेषके त्याग ते, करम शक्ति जरी जात || ३२ || परमातम के भेद द्वय, निकल सगल परवान | सुख अनंतमें एकसे कहेवे के द्वय थाय ॥ || ३३ || भाइ एह परमातमा, सोहं तुममें याहि || अपणि भक्ति संभारके लिखा वग देतांहि ॥ ३४ ॥ राग द्वेष कुं त्यागके, धरी परमातम ध्यान || युं पात्रे सुख सास्वत, भाइ इम कल्यान ||३५|| परमातम छत्रीसी को, पढियो प्रीति संभार ॥ चिदानंद तुम प्रति लखी आतम के उद्धार ॥ ३६ ॥ इति.
१ मूळ. २ पीड, आपदा ३ ललोपतो कर्ये, खेद मात्र धारवाथी कंइ वळवानुं नथी, ते माटे तो प्रवळ पुरुषार्थनी. जरुर छे.. ४ वणखो, अल्प मात्र.
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१८८ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
अथ श्री अमृतवेलीनी सझ्झाय. चेतन ज्ञान अजुवालीये, टालीये मोह संतापरे, चित्त डमडोलतुं वालीय, पालीये सहज गुण आपरे ॥ चे०॥१॥ उपशम अमृत रस पीजीयें, कीजीयं साधु गुणगानरे, 'अधमवयणे नवि खीजीयें, दीजीयें सजनने मानरे. ॥ चे०॥२॥ क्रोध अनुबंध नवि राखीयें भाखीयें वयण मुखे साचरे; समकित रत्न रुचि जोडीयें, छोडीयं कुमति मति काचरे । चे०॥३॥ शुद्ध परिणामने कारणे, चारनां शरण धरे चित्तरे, प्रथम तिहां शरण अरिहंतनुं, जेह जगदीश जग मित्तरे ॥ चे०॥ ४ ॥ जे समोसरणमा राजतां, भांजतां भविक संदेहरे धर्मना वचन वरसे सदा, पुष्करावर्त्त जिम मेहरे ॥ चे०॥ ॥ ५ ॥ शरण बीजुं भजे सिद्धनु, जे करे कर्म चकचूररे; भोगवे राज शिवनगरनु, ज्ञान आनंद भरपुररे ॥०॥६॥ साधुनुं शरण त्रीजु धरे, जेह साधे शिव पंथरे; मूल उत्तर गुण जे वर्या, भवर्या भाव निग्रंथरे ॥ चे० ॥७॥ शरण चोथु करे धर्मनु, जेहमांवर दया भावरे, जे सुखहेतु जिनवर कां, पापजल तारवा नावरे ॥चे० ८॥ चारनां शरण ए पडिवजे, वली भजे भावना शुद्धरे, 'दुरित सवि आपणां निंदिये, जेम होये संवर वृद्धिरे ॥ चे० ॥ ९॥ इहभव
१ नीच, २ परंपरा, ३ मित्र, ४ शोभता, ५ क्षय, ६ साधु, ७ प्रधान, ८ दुष्कर्म
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. १८९ परभव आचर्या, पाप अधिकरण मिथ्यातरे; जेह जिनाशातनादिक घणां, निंदिये तेह गुण घातरे ॥चे० ॥१०॥ गुरुतणां वचन ते अवगणी, गुंथिया आप मत जालरे, बहुपरे लोकने भोलव्यां, निंदिये तेह जंजालरे ॥०॥ ११ ॥ जेह हिंसा करी आकरी, जेह वोल्या 'मृषावादरे, जेह परधन हरी हरखीयां, कीलो काम उन्मादरे ॥चे. ॥ १२ ॥ जेह धन धान्य मूळ धरी, सेविया चार कषायरे; रागने द्वेषने वश हुआ, जे कीयो कलह उपायरे ॥ चे०॥ १३ ॥ जूठ जे आल परने दियां, जे कयो 'पिशुनता पापरे, रति अरति निंद माया मृषा, वलिय मिथ्यात्व संतापरे ॥ चे० ॥ १४॥ पाप जे एहवा सेत्रीयां, तेह निंदिये त्रीहुं कालरे, मुकृत अनुमोदना कीजिये, जिम होये कर्म विसरालरे ॥ चे० ॥ १५ ॥ विश्व उपगार जे जिन करे, सार जिन नाम संयोगरे, ते गुण तास अनुमोदिये, पुण्य अनुबंध शुभ योगरे ।। चे० ॥ १६ ॥ सिद्धनी सिद्धता कर्मना, क्षय थकी उपनी जेहरे, जेह आचार आचार्यनो, चरण वन सिंचवा मेहरे ॥०॥ १७॥ जेह उवझायनो गुण भलो, सूत्र सज्झाय परिणामरे, साधुनी जे वळी साधुता, मूल उत्तर गुण धामरे ॥ चे० ॥ १८ ॥ जेह विरति देश श्रावक तणी, जे समकित सदाचाररे; समकित द्रष्टि सुरनर तणी, तेह अनुमोदिये साररे ॥ चे० ॥ १९ ॥ अन्यमां पण दयादिक गुणा, जेह जीन वचन अनुसाररे; सर्व ते
१ असत्य वचन, २ चाडीयापणुं, ३ चारित्र, ४ उपाध्याय,
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
चित्त अनुमोदियें, समकित बीज निरधाररे || चे० || २० || पा नवी तीव्र भावे करी, जेहने नवी भव रागरे; उचित स्थिति नेह सेवे सदा, तेह अनुमोदवा लागरे ॥ ० ॥ २१ ॥ थोडलो पण गुण परतणो, सांभळी हर्ष मन आणरे; दोप लव पण निज देखतां निज गुण निज आतमा जाणरे || चे० || २२ || उचित व्यवहार अव लंबने, एम करी स्थिर परिणामरे, भाविये शुद्ध नय भावना, 'पावनाशय तणुं ठामरे || चे० || २३ || देह दमन वचन पुद्गळ थ की, कर्मथी भिन्न तुज रुपरे; अक्षय अकलंक छे जीवनुं, ज्ञान आनंद स्वरुपरे || चे० || २४ ॥ कर्मथी कल्पना उपजे, पवनथी जेम जलधिवेलरे; रूप प्रगटे सहज आपणुं, देखतां द्रष्टि स्थिर मेलरे || चे० || २५ || धारतां धर्मनी धारणा, मारतां मोह वड चोररे; ज्ञान रुची वेल विस्तारतां, वारतां कर्मनुं जोररे || चे० ।। २६ ।। राग विष दोष उतारतां, जारतां द्वेष रस शेषरे; पूर्व मुनि वचन संभारतां, " सारतां कर्म निःशेषरे || चे० || २७ || देखीयें मार्ग शिव नगरनो, जे उदासिन परिणामरे; तेह अणछोडतां चालिये, पामियें जीम परम धामरे || ० || २८ || श्री नय विजय गुरु शिष्यनी, शिखडी अमृतवेलरे; एह जे चतुर नर आदरे, ते लहे सुयश रंगरेलरे || ॥ चे० ॥ २९ ॥
॥ इति श्री हितशिक्षा सज्झाय समाप्त ॥ १ पवित्र इरादो, २ नाश करता.
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श्री जैन हितोपदेश भाग त्रीजो.
- मंगलाचरण रुप. श्री हेमचंद्राचार्य विरचित श्री महावीरजिन स्तोत्र
सारांश. १. अध्यात्म वेदीने पण पराकष्टियी प्राप्य विद्वानोने पण वचन अगोचर अने चर्म चक्षुने प्रगट न देखाय एवा श्री वर्धमान प्रभुनी स्तुति करवा प्रयत्न करुंछु.
२. हे प्रभु तारी स्तुति करवा योगीजनो पण असमर्थ छे; तो मारा जेवानुं तो कहेज शुं ? परंतु गुणानुराग तो तेओनी परे मारे पण निश्चल छे. आवो निश्चय करीने तारी स्तुति करतो हुं पोते मूर्ख छतां अपराधी ठरतो नथी.
३. गंभीर अर्थवाळी श्री सिद्धसेन मरिनी रचेली स्तुतियों क्या ? अने आ अणकेळवायेली स्तुति क्या? तथापि हस्ति नायकना. पंथे चालनारो तेनो बाळ गतिमां स्खलना पामतो छतो शोच्या योग्य नथी. केमके ते स्वपितानाज पनौते पगले चालनारो होवाथी अंते, पितानी पवित्र पदवी प्राप्त करी शकेज छे.
४. हे जिनेंद्र विविध उपायोवडे आप जे दुष्ट दोषोने दूर करी.
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१३. छतां जे आ लोको आपना सर्वोत्तम शासननो अनादर करे छेयातो तेमां गेरविश्वास धारे छे ते दुषमा काळनो दोष छे, अथवा तो ते तेमना खरेखर उदय प्राप्त थयेला अशुभ कर्मनोन दोष छे.
१४. हजारो गमे वर्षों सुधी तप करो, तथा युगनायुग सुधी योगनी उपासना करो, तोपण आपना पवित्र मार्गने पक्.ड्या विना मोक्षनी इच्छा राखता छतां ते बापडा मोक्षने पामता नथी. माटे मोक्षार्थी सज्जनोर शुद्ध तत्त्वने सम्यग् समजी तेनोज आदर करवो युक्त छे. शुद्ध तत्त्वने बराबर ओळखीने तेनो पूर्ण प्रेमथी स्वीकार करी तेमांज तन्मय थइ रहेनार अवश्य मोक्षने पामी शके छे. आपनी पवित्र भक्तिथी भव्य जनोने दिव्य चक्षुवडे अविरुद्ध मार्गलं यथार्थ भान तथा प्रतीति थाओ! तथास्तु !!
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ज्ञानसार सूत्र रहस्य-प्रस्तावना.
जं सहज स्वरूप साधवाने जेवा लक्षथी जिनेश्वर देवे जिन -मतानुयायी जनोने व व योग्यतानुसारे धर्म साधन करवा फरमाव्युं छे तेनुं संक्षेपथी पण निचोलरूपे स्वरूप आ ग्रंथ उपरथी वारीकीथी जोतां समजाशे. तेथी तत्त्व गवेषी जनोज आ ग्रंथना अधि‘कारी छे.
__ आ ग्रंथमां जदा जूदा ३२ अगत्यना विषयो सवल युक्ति पूर्वक समजाववामां आव्या छे. ते ते विषयोतुं मध्यस्थताथी मनन करतां कोइपण भव्यात्मा विषय-कामनादिकथी व्यावृत्त थइ सहेजे निवृत्ति -मार्गे चढे एवं तेमां सामर्थ्य छे. रागादिक अंतरंग वैरी मात्रनो जय करनार जिनेश्वर देव आत्म कल्याणार्थीओने केवो सन्मार्ग उपदिशे छे, ते आवा ग्रंथधी सहेजे समजी शकाय छे. आ ग्रंथ तत्त्वज्ञाननो एक नमूनो छे. यद्यपि जैनदर्शनमां तत्त्वज्ञान संबंधी सेंकडो ग्रंथो विद्यमान छे, तोपण ते सर्वेमां जे कंइ वक्तव्य छे तेनु अत्र दोहनरूपे
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कथन करेलुं छे, एमः उक्त ग्रंथना नाम तथा तद् अंतगत विषयो उपरथी समजी शकायःछे. आविषयोन स्वरूप एकाएक तेना सारा संस्कार विना वांचवा मात्रथी समजी शकाय एम नथी माटे तेनुं मनन करवा अने तेम करी जरुर जणाय त्यां गुरु गम्य लही समजवा दरेक कल्याणार्थीने प्रथम भलामण छे. निश्चय अने व्यवहार ए
बंने मार्ग जिनोपदिष्ट छे. व्यवहार मार्गे थइने निश्चय मार्ग साधी श__ काय छे. शुद्ध ज्ञान दर्शन चारित्रमा एकता पामी-तन्मय थइ जवू
ए निश्चय मार्ग छे. अथवा विभावने वमी-परस्पृहाने तजी स्वभाव रमणी थर्बु, स्वरूपस्थ थइ रहे, तेज निश्चय मार्ग छे तेने पमाडनार व्यवहार मार्ग छे. ते व्यवहारनी उपेक्षा करनार उभय भ्रष्ट थायछे, जे माटे आ ग्रंथकारज अन्य स्थळे कहे छ के
निश्चय दृष्टि हृदय धरीजी, जे पाले व्यवहार ॥ पुन्यवंत ते पामशेजी, भव समुद्रनो पार.
॥मन मोहन जिनजी० ॥ आ अपूर्व ग्रंथना आदर पूर्वक अभ्यासथी भव्यात्माओ अक्षय __ सुखना अधिकारी थाओ! एम इच्छी आ प्रस्तावना पूर्ण करुं कुं.
लेखक स्वपर हितकांक्षी,
कर्पूरविजयजी.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
॥ ज्ञानसार सूत्र ॥
रहस्यार्थ साथे.
१. पूर्णता-अष्टक. ऐंद्र श्री सुख मग्नेन ॥ लीलालग्नमिवाखिलम् ।। सच्चिदानंदपूर्णेन ।। पूर्ण जगदवेक्ष्यते ॥ १ ॥ पूर्णता या परोपाधेः॥ सा याचितक मंडनं ॥ या तु स्वाभाविकी सैव । जात्यरत्न विभानिभा॥२॥ अवास्तवी विकल्पैः स्यात् ॥ पूर्णताब्धे खिोमिभिः।। पूर्णानंदस्तु भगवा ॥ स्तिमितो दधि सनिमः ॥ ३ ॥ जागर्ति ज्ञान दृष्टि श्चेत् ॥ तृष्णा कृष्णाऽहिजांगुली ।। पूर्णानंदस्य तत्तिस्या ॥ दैन्य वृश्चिक वेदना ॥ ४॥ पूर्यन्ते येन कृपणा ॥ स्तदुपेक्षैव पूर्णता॥ पूर्णानंद सुधा स्निग्धा, दृष्टिरेषा मनीषिणाम् ॥५॥
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4 . श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. अपूर्णः पूर्णतामेति, पूर्यमाणस्तु हीयते ॥ पूर्णानंद स्वभावोऽयं ।। जगदद्भुत दायकः ॥ ६॥ परस्वत्व कृतोन्माथा ॥ भूनाथा न्यूनते क्षिणः ॥ स्वस्वत्व सुख पूर्णस्य ॥ न्यूनता न हरे रपि ॥७॥ कृष्णपक्षे परिक्षीणे ॥ शुक्ले च समुदंचति ॥ द्योतते सकला ध्यक्षा ॥ पूर्णानन्द विधोः कला ॥८॥
॥रहस्यार्थ॥ १. इंद्रनी साहेबी जेवा मुखमा मग्न थयेलो जीव जेम जगत मात्रने सुखमय देखे छे तेम सहज आत्ममुखथी पूर्ण पण जगत मात्रने पूर्णन देखे छे जेम संपूर्ण सुखी सर्वने मुखमय देखे छे, तेम • सहजानंद पूर्ण दृष्टि पण सर्वने पूर्णज देखे छे. अथवा आत्मानी सहज - संपत्ति संबंधी स्वभाविक सुखमा मग्न थयेल शुद्ध-ज्ञानानंदी पुरुष, ‘आ समस्त जगतने इंद्र-जाल'तुल्य कल्पित क्षणिक पुद्गलिक सु
खमा मग्न थइ रहेल देखी, तेथी उदासीन-विरक्त थइ रहे छे. कल्पित पुद्गलिक पूर्णतानो परिहार करनार. प्राणी सहज आत्मिक 'पूर्णता पामी शके छे. ___२. परउपाधिवाली पूर्णता कोइना याची लावेला घरेणा जेवी
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. छे अने स्वभाविक पूर्णता तो जातिवंत रत्ननी कांति जेवी छे. उपाधिमय खोटी मानी लीधेली पूर्णता चिर स्थायि नहि होवाथी क्षणिक छे, अने खरी आत्मिक पूर्णता तो चिर स्थायी होवाथी अविहड छे. पहेलीने पुंठ देवाथी वीजी खरी पूर्णता पामी शकाय छे.
३. समुद्रमा मोजांनी जेम विकल्प तरंगथी मानेली पूर्णता खोटी छे अने तेवा विकल्प रहित खरी पूर्णतावाला सहजानंदी सत्पुरुष तो शान्त महासागर जेवाज निश्चल होय छे. खोटी पूर्णता तोफानी समुद्र जेवी हालकलोलवाली छे तेथी विश्वास राखवा योग्य नथी अने खरी पूर्णता तो शान्त महासागर जेवी निश्चल होचाथी सर्वदा विश्वासपात्र तथा आदरवा योग्यज छे पूर्ण अधिकारीनेज ते प्राप्त थाय छे.
४. तृष्णारूपी कालानागनु झेर कापवा जांगुली मंत्र जेवी ज्ञानदृष्टी जेने जागी छे एवा पूर्णानंदी पुरुषने दीनतारूपी वोंछीडानी वेदना शा हीसावमा छे ? खरी वात छे के जेणे तृष्णाने समूलगी छेदी नांखी छे तेने परनी दीनता करवानु कांइपण प्रयोजन रहा नथी, तृष्णाना तरंगमा तणातानेज परनी.दीनता करवी पडे छे.
५. कृपण लोको जेनाथी संतोष माने छे एवी पुद्गलीक वस्तु ओनी उपेक्षा करवी तेज साची पूर्णता छे. विवेकी पंडितनी दृष्टि पूर्ण आनंद अमृतथी भरेली होय छे. एवा स्वाभाविक मुखथी कृपण . लोको केवल कमनसीब रहे छ.
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१२ जैनहितोपदेश भाग ३ जो. यस्य दृष्टिः कृपा वृष्टि, गिरः शमसुधा किरः॥ . तस्मै नमः शुभ ज्ञान, ध्यान मग्नाय योगिने ॥८॥
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॥ रहस्यार्थ ॥ . . १. पुद्गलानंदीपणुं तजी दइ पांचे इंद्रियो उपर काबु मेलवी पोताना मनने समाधिमा स्थापी केवल ज्ञानामृतनुज सेवन करनार पुरुष स्वभाव मन थयो कहेवाय छे. ज्या सुपी जीव पोताना मन तथा इंद्रियोने पातेज वश छे त्यां सुधी ते विभावमां मम छे. विभावनो त्याग करनार स्वभावने पामी अनुक्रमे तेमा मन थइ शके छे माटे मन तथा इंद्रियाने वंश करवा प्रमाद रहित पवित्र ज्ञानामृतनुज सेवन करवा अहोनिश उजमाल थइ रहेQ युक्त छे.
२ ज्ञानामृतना सागर एवं परब्रह्म-परमात्म स्वरुपमा जे मन थयेल छे तेने वीजी वावत हलाहल झेर जेवी लागे छे. जेणे क्षीर समुद्रना जलनु पान कयु होय तेने खारा जलथी तृप्ति केम वळे ? जेणे शान्तरसतुं पान कयें तेने विपयरस केम गमे ?
३. सहजानंद मुखमा मग्न अने जगत स्वरुपने जोनारने परभावनुं करवापणुं घटतुं नथी. तेने तो फक्त सर्वभावमा साक्षीपणुंज होवू घटे छे. सर्व परभावमां तटस्थपणुं त्यजीने कापणुं करवा जा
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जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
स्वभाव हानि थाय छे माटे मोक्षार्थी जीवने सर्वत्र कर्तृत्व अभिमान सर्वथा त्यजी तटस्थपणुंज आदर, युक्त छे.
४. परब्रह्ममा मग्न थयेल महापुरुषने पुद्गल संबंधी कथाज प्रिय लागती नथी. तो अनर्थकारी सुवर्णादिक द्रव्यनो संचय के मनोहर स्त्रीयोमा आसक्ति तो होयज शानी ? स्वरुप सुखमा मम थयेलने कनक के कामिनी व्हाला लागतांज नथी.
५. जेम जेम दीक्षानो पर्याय वधतो जाय छे तेम तेम साधु पुरुषने चित्तसमाधिमां वधारो थतोज जाय छ एम भगवती सूत्रादिकमां कडं छे ते आवा स्वरुप मन्न साधुओमाज घटमान थाय छ, का छे के १२ वार मासनी दीक्षावाला. मुनि अनुत्तर विमानवासी देवना सुखने उल्लंघी जाय छे. ते देव करतां पण आवा मुनि अधिक मुखी होय छे. कारण के दीमा वृद्धिथी तेमनी लेझ्याशुद्धि थती जाय छ. अने निर्मल लेश्या योगे चित्तनी अधिक प्रसन्नता होय छे, जेथी खभाविक मुखमा वधारो थतो जाय छे. १२ मासमां आटलं सुख थाय छे तो अधिकाधिक दीक्षा पर्याय तो कहेज शृं? प्रबल शान्त वाहितावडे केवल निजस्वरूपमा मग्न थइ रहे छे.
६ ज्ञानामृतमा मग्न थयेलाने जे मुख संभवे छे ते मुखथी कही . शकाय तेवू नथी. मियानुं प्रेमालिंगन के चंदननो रस तेवी शीतलतार्नु सुख आपी शकेज नहिं. केमके प्रथमर्नु सुख सत्य स्वभाविक
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जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ६. उपाधिथी रहित पुरुषज सहज पूर्णता पामे छे; पण उपाधिग्रस्त तो तेथी रहितज रहे छे, एवो पूर्णानंदनो सहज स्वभाव जगतने आश्चर्यकारक लागे छे.
७. परने पोताचं मानवारूप मोहथी उन्मत थएला पृथ्वीपतियो न्युनतानेज देखे छे, गमे तेटली संपत्तिथी संतोष पामताज नथी अने आत्माना स्वभाविक ज्ञानादिक गुण रत्नोनेज पोताना-गणी पूर्ण मुख पामेला पुर्णानंदी पुरुष तो इंद्र करतां कोइ रीते न्युन नथीज पुर्णानंदी पुरुप सदा सहजानंदमां मगज रहे छे.
८ जैम कृष्णपक्षनो क्षय थये छते अने शुक्लपक्षनो उदय थये छते चंद्रमानी कला सर्व देखे तेवी रीते खीलवा मांडे छे, तेम सर्व, पुद्गल परावर्त्तननो अंत थये छते अने चरम पुद्गल परावर्तन मात्र शेष रह्ये छते असत् क्रियाना त्याग पूर्वक सत् क्रियारूचि जागृत थतां सहजानन्द कलानी अनुक्रमे अभिवृद्धिद्वारा अंते पूर्णानंदचंद्र प्रगटे छे.
पूर्णानंदी पुरुष चंद्रनी पेरे साक्षात् स्वभाविक मुख-चंद्रिकाने अनुभवी अनेक भव्य चकोरोने आनंददायक थइ शके छे. भव्य चकोरो पूर्णानंद चंद्रना वचनामृतनुं पान करी करीने पुष्ट बनी आनंद मन थइ जाय छे.
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जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
॥२॥ मग्नता अष्टक.॥ प्रत्याहत्येंद्रिय व्यूहं ।। समाधाय मनोनितम् ।। दधचिन्मात्र विश्रांति मग्न इत्यभिधीयते ॥१॥ यस्य ज्ञान सुवासिंधौ, परब्रह्मणि मग्नता ॥ विषयांतर संचार, स्तस्य हालाहलोपमः ॥२॥ स्वभाव सुख मग्नस्य, जगत्तत्त्वावलोकिनः ।। कर्तृत्वं नान्य भावानां, साक्षित्वमवशिष्यते ॥३॥ परब्रह्मणि मग्नस्य, श्लथा पौगलिकी कथा । कामी चामी करोन्मादाः, स्फारा दारादराः कच ॥४॥ तेजो लेश्या विवृद्धिर्या, साधोः पर्याय वृद्धितः ॥ भाषिता भगवत्यादौ, सेत्थं भूतस्य युज्यते ॥ ५॥ ज्ञान मग्नस्य यच्छम, तदक्तुं नैव शक्यते ॥ नोपमेयं प्रिया श्लङ्ग, नापि तचंदनद्रवः ॥ ६॥ शम शैत्य पुषो यस्य, विग्रुषोपि महाकथा ॥ किं स्तुमो ज्ञान पीयूषे, तत्र सर्वांग मग्नता ।। ७॥
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१२ जैनहितोपदेश भाग ३ जो. यस्य दृष्टिः कृपा वृष्टि, गिरः शमसुधा किरः॥ तस्मै नमः शुभ ज्ञान, ध्यान मग्नाय योगिने ॥८॥
॥ रहस्यार्थ ॥ १. पुद्गलानंदीपणुं तजी दइ पांचे इंद्रियो उपर काबु मेलवी पोताना मनने समाधिमा स्थापी केवल ज्ञानामृतज सेवन करनार पुरुष स्वभाव मग्न थयो कहेवाय छे. ज्या सुधी. जीव पोताना मन तथा इंद्रियोने पातेज वश छे त्यां सुधी ते विभावमां मग्न छे. विभावनो त्याग करनार स्वभावने, पामी अनुक्रमे तेमां मन थइ शके छ माटे मन तथा इंद्रियाने वंश करवा प्रमाद रहित पवित्र ज्ञानामृतनुज सेवन करवा अहोनिश उजमाल थइ रहे, युक्त छे.
२ ज्ञानामृतना सागर एव परब्रह्म-परमात्म स्वरुपमा जे मन थयेल छे तेने वीजी बाबत हलाहल झेर जेवी लागे छे. जेणे क्षीर समुद्रना जलनुं पान कर्यु होय तेने खारा जलथी तृप्ति केम वळे ? जेणे शान्तरसतुं पान कर्यु तेने विपयरस केम गमे ? .
३. सहजानंद मुखमां मग्न अने जगत स्वरुपने जोनारने परभावनुं करवापणुं घटतुं नथी. तेने तो फक्त सर्वभावमा साक्षीपणुंज होवू घटे छे. सर्व परभावमा तटस्थपणुं त्यजीने कापणुं करवा जतां
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जैनहितोपदेश भाग ३ जो. __ स्वभाव हानि थाय छे माटे मोक्षार्थी जीवने सर्वत्र कर्तृत्व अभिमान सर्वथा त्यजी तटस्थपणुंज आदरवं युक्त छे.
४. परब्रह्ममा मग्न थयेल महापुरुषने पुद्गल संबंधी कथाज प्रिय लागती नथी. तो अनर्थकारी सुवर्णादिक द्रव्यनो संचय के मनोहर स्त्रीयोमा आसक्ति तो होयज शानी ? स्वरुप सुखमा मन थयेलने क. नक के कामिनी व्हाला लागतांज नथी.
५. जेम जेम दीक्षानो पर्याय वधतो जाय छे तेम तेम साधु पुरुषने चित्तसमाधिमां वधारो थतोज जाय छे एम भगवती सूत्रादिकमां कडं छे ते आवा स्वरुप मन साधुओमाज घटमान थाय छ, कर्ष छे के १२ वार मासनी दीक्षावाला. मुनि अनुत्तर विमानवासी देवना सुखने उल्लंघी जाय छे. ते देव करतां पण आवा मुनि अधिक मुखी होय छे. कारण के दीसा वृद्धिथी तेमनी लेझ्याशुद्धि थती जाय छ, अने निर्मल लेश्या योगे चित्तनी अधिक प्रसन्नता होय छे, जेथी खभाविक मुखमां वधारो यतो जाय छे. १२ मासमा आटलं सुख थाय छे तो अधिकाधिक दीक्षा पर्याय तो कहेज शृं? प्रबल शान्त वाहितावडे केवल निजस्वरूपमा मन थइ रहे छे.
६ ज्ञानामृतमा मग्न थयेलाने जे मुख संभवे छे ते मुखथी कही । शकाय तेवू नथी. प्रिया प्रेमालिंगन के चंदननो रस तेवी शीतलसानं सुख आपी शकेज नहि. केमके प्रथमर्नु सुख सत्य स्वभाविक
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जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
अने अतींद्रिय छे अने प्रियादिकनुं सुख क्षणिक कृत्रिम अने इंद्रिय गोचर होवाथी विभाविक अने असत्य भ्रमात्मक छे.
७. सहज स्वभाविक शीतलताने पुष्टि करनार ज्ञानामृतना लेश मात्रनुं सुख अपार छे. तो तेमां सतीशे निमग्न थइ रहेनार महापुरुपना महिमानुं तो कहेज शुं ?
८. जेनी दृष्टिमांथी करुणारस वर्षी रह्यो छे अने जेनां वचन समतारुपी अमृतनुं सिंचन कर्या करेछे एवा शुभ ज्ञान अने ध्यानमां मग्न थयेला महापुरुषने नमस्कार ! जेनी दृष्टिमां करुणा भरेली छे, तेमज जेनी वाणी अमृत जेवी मीठी अने शीतल छे, तेने नमस्कार!
॥३॥ स्थिरता-अष्टक ॥ वत्स किं चंचल स्वांतो, भ्रांत्वा भ्रांस्वा विषीदसि ।। निधि स्व संनिधावेव, स्थिरता दर्शयिष्यति ॥१॥ ज्ञान दुग्धं विनश्येत, लोभ विक्षोभ कूर्चकैः ॥ .. आम्ल द्रव्यादिवाऽस्थैर्या, दिति मत्वा स्थिरो भव ॥२॥ अस्थिरे हृदये चित्राः वामेत्राकार गोपना ॥ पुश्चल्या इव कल्याण, कारिणी न प्रकीर्तिता ॥३॥
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जैनहितोपदेश भाग ३, जो. अंतर्गतं महाशल्य, मस्थैर्य यदि नोध्धृतम् ।। क्रियौषधस्य को दोष, स्तदा गुण मयच्छतः ॥ ४॥ स्थिरता वामनः काय, र्येषा मंगां गितां गता ॥ योगिनः समशीलास्ते, ग्रामेऽरण्ये दिवा निशि ॥ ५ ॥ स्थैर्य रत्न प्रदीपश्वे, हीप्रः संकल्पदीपजैः ॥ तद्विकल्पैरलं धूमै, रलं धूमैस्तथाश्रवैः॥ ६ ॥ उदीरयिष्यसि स्वांता, दस्थैर्य पवनं यदि ॥ समावे धर्म मेघस्य, घमं विघटयिष्यसि ॥ ७ ॥ चारित्रं स्थिरता रूप, मतः सिद्धेष्वपीष्यते ।। यतं तां यतयो वश्य, मस्या एव प्रसिद्धये ॥ ८॥
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॥ रहस्यार्थ॥ १. स्थिरता आदर्या विना स्वभाविक मुख संप्राप्त थतुं नथी. संपूर्ण स्थिरताना वलेज स्वभाव मग्न थाय छे अने एवा स्वरुप मग्न महापुरुषज पूर्णानंद पामी शके छे. ते विना तो जीव ज्यां त्यां सुखनी भ्रांतिथी मात्र भम्याज करे छे माटे गुरुमहाराज शिष्यने स्थिरता आदरवा उपदेश आपे छे के हे वत्स, तुं अस्थिर चित्तथी अनेक
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जैनहितोपदेश भाग ३ जो. स्थले भटकी भटकीने शा माटे खेद धारण करे छे ? फकत अस्थिरतानु सेवन करवाथी तने सर्व समृद्धि तारा घटमांज देखाशे. स्थिरता विना अनंत गुणनिधान स्व समीपे छतां देखी शंकातो नथी. ___२. जेम खटाशथी दूध फाटी जइ विनाश पामे छे. तेम अस्थिरता योगे थता अनेक संकल्प विकल्पोथी ज्ञान गुण क्षाभ पामी विनाश पामे छे. अने स्थिरता योगे ज्ञान गुणनी वृद्धि थाय छे एम समजीने तुं स्थिर था.
३. चित्त अस्थिर छते करवामां आवती अनेक प्रकारनी क्रिया कल्याणकारी थती नथी. जेम व्यभिचारिणी स्त्री चतुराइ भरेलां वचन बोले छे. अने घुमटो ताणीने चाले छ छतां अवळी चालथी तेवी चेष्टा तेणीने हितकारी नथी. तेम चपल चित्तवालानी पण वि. विध क्रिया आश्रयी जाणवू. पतिव्रता स्त्रीनी पवित्र - आशयवाली क्रियानी पेरे स्थिरतावंतनी सर्व उचित क्रिया लेखे पडे छे..
४. ज्यां सुधी अस्थिरतारुपी अंतरनु भारे शल्य उद्धयु नथी त्यां सुधी गमे तेवी उत्तम क्रिया पण यथेष्ट फल आपी शकशे नहीं. जेम शरीरनी शुद्धि कर्या वाद लीधेलु औषध तत्काल गुण करी शकछे. तेम अस्थिरता वाळाना अनुष्टान आश्रयी पण समजवुः ..' . ५. जेमने मन वचन अने कायावडे संपूर्ण स्थिरता व्यापी गई छे तेवा योगी पुरुपौने गाममां के वनमां दिवसमां के रात्रिमा सम- ।।
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श्री.जैनहितोपदेश भागः३. जो. भाव वर्ते छः जेमने सर्वांगे स्थिरता थइ छे तेवा. महापुरूषने सर्वत्र समपरिणामज. वर्ते छे. खरं कल्याण पण.तेमनुज थाय छ । · ·६. जो घटमां एक स्थिरता प्रगटे तो अनेक प्रकारना मलीन संकल्प विकल्प खतः उपशमे. केमके मलीन संकल्प विकल्पो अस्थिर मनमाज प्रभवे छे. जेम देदीप्यमान रत्ननो दीपक मेहेलमां प्रगटयो होय, तो. धूमाडावडे मंदिरने श्याम करी नांखे एवा कृत्रिा दीवा करवानुं प्रयोजनज न रहे, तेम'जो मनमंदिरमा एक स्थिरता गुण प्रगट थाय तो तेमां अन्यथा उठता अनेक प्रकारना संकल्प विकल्प स्वयं उपशम पामे अने आत्मानी सहज, ज्ञान ज्योति स्थायीपणे प्रसरे जेथी-सर्व भावने हस्तामलकनी पेरे देखी शकाय. . ७. हे वत्स, जो तुं स्थिरतानो त्याग करीने अस्थिरतानी उठीरणा करीश तो तारी घणी महेनतथी वाधेली समाधि डोलाइ जशे. जेम प्रबल पवनना योग येघघटा विखराइ जाय छे तेम संकल्प विकल्प करवाथी पूर्व महा परिश्रमथी पेदा करेली समाधिनों लोप यह जाशे. माटे जेम वने तेम सर्व संकल्प विकल्पने शमाविने स्थिरता योगे समाधि सुखमाज मम रहेउचित छे..अस्थिरता करवाथी तो मात धयेली समाधिनो पण नाश थइ जाय छे.
८. आत्म गुणमांज स्थिरता करवी तेनुं नाम भाव चारित्र छे, निश्चय चारित्र तो सिद्ध भगवानमां पण वर्ते छे. एटले के सिद्ध
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जैनहितोपदेश भाग ३, जो.
३, गमे तेवा संयोगोमां जे समता धारी राखी मुंझाता नथी ते आकाशनी जेम पाप पंकथी लेपाताज नथी. सम विषम संयोगोमां मुंझाइ जे संकल्प - विकल्पने वश थइ आर्त्तध्यानमां पड़ी जाय छे तेज पाप पंकथी लेपाय छे.
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४. संसारमा रह्या छतां ठेकाणे ठेकाणे संसारनु नाटक जोड़ने जे खेद पामता नथी तेवा मध्यस्थ दृष्टि मोहथी लेपाता नथी. संसारमां विचित्र संयोगयोगे पण जे समभाव तजता नथी अने सर्वत्र समानभाव राखे छे एवा समभावीने समताना बलथी मोह पराजित करी शकतो नथी.
५. मोहनी प्रवलताथी विविध विकल्पोने वश थइने जीव दीर्घ संसार परिभ्रमण करे छे. जेम उपराउपर दारुना प्याला पीवाथी परवश थयेला जीव अनेक प्रकारनी कुचेष्टा कर्या करे छे 'तेम मोहना प्रवल वेगमां तणाता जीवना महा माठा हाल थाय छे माटे सुखना अर्थी जीवे मोह मदिराथी दूर रहेवा समताने धारी संकल्प विकल्पोने शमावी देवा यत्न करवो युक्त छे. एम करवाथी सहज स्वभाविक निर्विकल्प शान्त सुखनी प्राप्ति थइ शके छे. प्रबल मोहने पराधीन थलो प्राणी स्वप्नमां पण एवं सुख पामी शकतो नथी.
६, आत्मानु स्वभाविकरूप तो स्फटिक रत्र जेवुं निर्मल छे. परंतु पुनलना संबंधी जीव जड जेवो थइ तेमां मुंझाई जाय छे.
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जैनहितोपदेश भाग ३ जो. जेम स्फटिक रत्नने रातुं पीलं लीढं के कालं फूल लगाडवाथी ते लगाडेला फूलना प्रसंगथी आलु रत्न तद्रूपज थइ जाय छे, तेम जीव . पण उपाधि संबंधथी जड़ जेवो वनी जाय छे. पुण्य पाप राग-द्वेषादिक जीवने केवल उपाधिरूपं छे. ज्यां सुधी जीवने तेनो संबंध रहे छे त्यां सुधी ते तेनुं शुद्ध स्वरूप संपूर्ण रीते प्रगट करी शकतोज नथी. पण तेनो संपूर्ण वियोग. थये छते आत्मानु शुद्ध. स्वरूप सहज प्रगट थइ रहे छे.. .
७, मोहना क्षयथी.संहज आत्मसुखने साक्षात् अनुभवतां छता युद्धलिक मुखने साचु मिष्ट माननारा लोकोनी पासे तेनु कथन करतां आश्चर्य लागे छे. केमके पुललानंदी जीवने आत्मिक सुखनो माक्षात् अनुभव थइ शकतो नथी. अने साक्षात् अनुभव या विना : लेनी प्रतीति पण आवी शकती नथी. तेथी निर्मोही पुरुष अधिकार मुनवज उपदेश आपे छे. : . .. .
८ जे महाशय शुद्ध समज पूर्वक समस्त सदाचारने सेवया उजमाल रहे छे ते प्रयोजनविनाना परभामां शा माटें झुंझाब ? जेस, . निर्मल आरीसामां वस्तुनु यथार्थ दर्शन थइ -शके छे तेम निर्मल शान . दजयोगे आत्मा स्वंकलव्य सम्यग समजीने तेनं निरभिमानताथी आराधन करी शके छ.निर्मल ज्ञानवडे स्स कर्नव्या स्वरूप निर्धारीने जे शुभाशंय तेनु सेवन करें छे से अवश्य फतेहसंद नीबड़े छे...
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जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
भगवाने पण स्थिरता-चारित्रनो संपूर्ण स्वीकार करेलो छे. एम समजीने स्थिरता गुणने प्रगट करवा माटे सर्व मुनियोए अवश्य उद्यम करवो युक्त छे. स्थिरता गुण विनानु चारित्र पण निष्फलमायज छे.
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॥४॥ निर्मोह-अष्टक ॥ अहंममेति मंत्रोऽयं, मोहस्य जगदाध्यकृत् ।। अयमेवहि नञ् पूर्वः, प्रतिमंत्रोऽपि मोहजित् ॥१॥ शुद्धात्मद्रव्य मेवाऽहं, शुद्ध ज्ञानं गुणो मम ॥ नान्योऽहं न ममान्ये चे, त्यदो मोहास्त्र मुल्वणम्॥२॥ यो न मुह्यति लग्नेषु, भावेष्वौदयिकादिषु ॥ आकाशमिव पंकेन, नासौ पापेन लिप्यते ॥ ३॥ पश्यनेक परद्रव्य, नाटकं प्रतिपाटकम् ॥ भवचक्र पुरस्थोऽपि, नामूढः परिखिद्यते ॥ ४ ॥ विकल्प चषकै रात्मा, पीत मोहासको ह्ययम् ।। भवोवताल मुत्ताल, प्रपंच मधितिष्ठति ॥ ५॥ निर्मल स्फटिक स्येव, सहज रूपमात्मनः ॥ अध्यस्तोपाधि संबंधो, जड स्तत्र विमुह्यति ॥ ६॥ .
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__ जनहितोपदेश भाग ३ जो. १९ अनारोप सुखं मोह, त्यागादनुभवन्नपि ॥ आरोप प्रिय लोकेषु, वक्तुमाश्वर्यवान् भवेत् ॥ ७॥ यश्चिदर्पण विन्यस्त, समस्ताचार चारुधीः॥ क नाम स पर द्रव्ये, ऽनुपयोगि निमुह्यति ॥ ८ ॥
॥ रहस्यार्थ ॥
१. हुं अने मारू ए मोहनो महामंत्र छे. तेणे आखा जगतने आंधलं कर्यु छे. पण जो तेनी पूर्व एक नकार जोडयो होय तो " नहि हुं अने नहि मारुं" एवों प्रतिमंत्र थाय छे अने तेथी सामा मोहनोज पराजय थाय छे. मोहे पोताना मंत्रथी जगत मानले वश करी लीधेलुंछे पण जो सद्गुरु कृपाथी प्रतिमंत्र हाथ लागे तो तेथी समूलगो मोहनोज पराभव थइ शके छे. माटे मोहनो पराजय करवा माटे मोक्षार्थीए ते प्रतिमंत्रनेज सेववो युक्त छे. ममताने मुकीने समताने सेववाथी उक्त मंत्र सिद्ध थइ शके छे. _ '२. शुद्ध आत्मद्रव्य एज हुँ छु अने शुद्ध ज्ञानगुण एज मारु सर्वख छे. पण आ देह ए हुँ नहि हेमज लक्ष्मी कुटुंब विगेरे मारू नथी एवी शुद्ध समज मोहनो विनाश करवा समर्थ शस्त्ररूप नीवडे छे,
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२० जनहितोपदेश भाग ३ जो.
३, गमे तेवा संयोगोमां जे समता-धारी राखी मुंझाता नथी आकासनी जेम पाप, पंकथी लेपातॉज नथी. सम विषम संयोगोमां झाइ जे संकल्प विकल्पने वश थइ आर्तध्यानमां पड़ी, जाय छे जि पाप पंथी लेपाय छे.
४. संसारमा रह्या छतां ठेकाणे ठेकाणे संसारनु नाटक जोइने ने खेद पामता नथी तेत्रा मध्यस्थ दृष्टि मोहथी लेपाता नथी. संसामां विचित्र संयोगयोगे पण जे समभाव तजता नथी अने सर्वत्र नमानभाव राखे छे एवा समभावीने समताना बलथी मोह पराजित करी शकतो नथी.
५. मोहनी प्रवलताथी विविध विकल्पोने वश थइने जीव दीर्घ संसार परिभ्रमण करे छे. जेम उपराउपर दारुना प्याला पीवाथी रवश थयेला जीव अनेक प्रकारनी कुचेष्टा कर्या करे छे तेम मोना प्रवल वेगमा तणाता जीवना महा माठा हाल थाय छे माटे उखना अर्थी जीवे मोह मदिराथी दूर रहेवा समताने धारी संकल्प वेकल्पोन शमावी देवा यत्न करवो युक्त छे. एम करवाथी सहज स्वभाविक निर्विकल्पः शान्त सुखनी प्राप्ति थेइ-शके छे. प्रवल मोहने पराधीन थयेलो माणी स्वममा पण एवं सुख पामी शकतो नथी.
६. आत्मालु स्वभाविकरूप तो स्फटिक रन जे निर्मल छे. परंतु पुनलना संबंधी जीव जड जेवो थइ तेमा मुंझाइ जाय छे.
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जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
२१
जेम स्फटिक रत्नने रातुं पीलुं लीलें के कालुं फूल लगाडवाथी ते लगाडेला फूलना प्रसंगथी आसुः रत्न तद्रूपज थइ जाय छे, तेम जीव पण उपाधि संबंधथी जड जेवो बनी जाय छे, पुण्य पाप राग द्वेषादिक जीवने केवल उपाधिरूपं छे. ज्यां सुधी जीवने तेनो संबंध रहे छे त्यां सुधी ते तेनुं शुद्ध स्वरूप संपूर्ण रीते प्रगट करी शकतो- : ज नथी. पण तेनो संपूर्ण वियोग थये छते आत्मानु शुद्ध स्वरूप : सहज प्रगट थइ रहे छे.
७ मोहना क्षयथी सहज आत्मसुखने साक्षात् अनुभवतां छता पुलिक मुखने साधुं मिष्ट माननारा लोकोनी पासे तेनुं कथन करतां आश्चर्य लागे छे. कैमके पुगलानंदी जीवने आत्मिक सुखनो साक्षात् अनुभव थइ शकतो नयी. अने साक्षात् अनुभव थया विना तेनी प्रतीति पण आवी शकती नयी. तेथी निर्मोही पुरुष अधिकार मुजवज उपदेश आपे छे.
८ जे महाशय शुद्ध समज पूर्वकं समस्त सदाचारने सेवा-उजमाल रहे' छे ते प्रयोजनंविनानां परभावमा शा साटे. झाय ? जेम निर्मल आरीसामां वस्तुनुं यथार्थ दर्शन यह शके छे तेम निर्मल ज्ञान - दर्पणयोगे आत्मा स्वकर्तव्य सस्यन् समजीने तेनुं निरभिमानताथी आराधन करी शके छे. निर्मल ज्ञानवडे स्वे कर्तव्यनुं स्वल्प निर्वा रीने जे शुभाशय 'तेनुं सेवन करे छे ते अवश्य फतेहमंदः नीवढे छे.
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जैनहितोपदेश भाग ३ जो. .
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॥५॥ ज्ञानाष्टक ॥ मज्जत्यज्ञ किलाज्ञाने, विष्टायामिव शुकरः॥ ज्ञानी निमज्जति ज्ञाने, मराल इव मानसे ॥१॥ निर्वाण पद मप्येकं, भाव्यते यन्मुहुर्मुहुः ॥ तदेव ज्ञान मुत्कृष्टं, निबंधो नास्ति भूयसा ॥२॥ स्वभाव लाभ संस्कार, कारणं (स्मरणं) ज्ञान मिष्यते।। ध्यान्ध्यमात्रमतस्त्वन्य, तथा चोक्तं महात्मना ॥३॥ वादांश्च प्रतिवादांश्च, वदंतोऽनिश्चितांस्तथा ॥ तत्त्वान्तं नैव गच्छंति, तिलपीलकवद्गतौ ॥ ४॥ स्वद्रव्य गुण पर्याय, चर्या वर्या परान्यथा ॥ इति दत्तात्म संतुष्टि, मुष्टि ज्ञानस्थितिमुनेः ॥ ५॥ अस्तिचेद् ग्रंथिभिद् ज्ञानं, किं चित्रैस्तंत्रयंत्रणैः ॥ . प्रदीपाः कोपयुज्यन्ते, तमोघ्नी दृष्टिरेवचेत् ॥ ६॥.. मिथ्यात्वशैलपक्षच्छिद्, ज्ञानदंभोलिशोभितः॥ : निर्भयः शक्रवद्योगी, नंदत्यानंदनंदने ॥ ७॥ ...
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. पीयूषमसमुद्धोत्थं, रसायनमनौषधम् ।। अनन्या पेक्ष मैश्वर्य, ज्ञानमाहुर्मनीषिणः॥८॥
॥रहस्यार्थ ॥ १. निर्मल ज्ञानवडे वस्तुतत्त्वनो निर्धार करीने जे सदाचारने सेवे छे तेज मोहनो विनाश करी 'शके छे. माटे निर्मल ज्ञान गुण आदरवा शास्त्रकार आग्रह पूर्वक कहे छे जेम भंड विटामा मग्न रहे के तेम मूढ माणस अज्ञानाज मग्न रहे छे पण ज्ञानी पुरुष तो जेम. हंस मानस जलमां मना रहे छे तेम निर्मल ज्ञान गुणमांज मम रहे छे. ज्ञानी पुरुष कदापि ज्ञानमा अरति धारतो नथी. अथवा ज्ञानज तेनो खरो खोराक होवाथी ते तेने अत्यंत आदरथी सेवे छे.
२. जेनाथी राग द्वेषनो अत्यन्त क्षय थवा पूर्वक मोक्षपदनी प्राप्ति थइ शके एवा एक पण पदनो वारंवार अभ्यास करी तेमांतन्मय थर्बु तेज ज्ञान श्रेष्ट छे. 'मारुष मातुष' जेवा एक पदथी पण कल्याण साधी शकाय छे. तेवाज वधारे पद होय तेनुं तो कहेवुज मुं? पण भारभूत एवा शुष्क ज्ञान मात्रथी कंइ कल्याण नथी. .
३. जेथी स्वभाव निर्मल थाय एटले आत्म परिणति सुधरती जाय एवुज ज्ञान मेलव, सारं छे. बाकी ज्ञान तो केवल बोजाय के. एबुं शाखकार कहे छे.
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श्री जैनहितोपदेशं भाग जी.* ___४. अनिश्चित वादविवादने वदतां थकां, जेन घांचीनों बळद गमे तेटलं चाले तोपण तेनों अंत आवतो- नथी, तेम तत्त्वनो पार पामी शकातोज नथी. साध्य दृष्टिथी-धर्मचर्चा करतां के नम्रपणे तत्त्व कथन के श्रवण करतां केवल हित प्राप्तिज़ थाय छे. माटे शुष्क वादविवाद तजीने केवल तत्त्व खोजना करवी. : :: :
५.- आत्म द्रव्यना गुण पर्यायनी पर्यालोचना करवीज श्रेष्ट छे, वीजी नकामी वावतमा वखंत गमाववो युक्त नथी. एवी, समज पूवेक सहज संतोष धारनार मुनि मुष्टि ज्ञाननी स्थितिवालागणायः । छे. मुष्टिज्ञान संक्षिप्त छतां सर्वोत्तम छे. तेथी सर्व-परंभावथी विरमी मुनि सहज स्वभाव रमणी वने छे..
, : ६. मिथ्यात्वने भेदी समकित प्राप्त करावे एवं सम्यग् 'ज्ञान जो माट थाय तो ते सारभूत ज्ञान पामी वीजा शास्त्र परिश्रम का प्रयोजन नथी. जो स्वभाविक दृष्टिंथी अंधकार दूर थतो होय तो कृत्रिम दांशु से प्रयोजन छे? सांचो दीवो जेना घटमांज प्रगटयों । छे तेने सहज स्वभाविक प्रकाश मल्याज करे छे तेथी ते मिथ्यात्वर. अंधकारनो पिनाश करीमानंद पनज रहे छे. सारभूत.ज्ञानाविना लाखोगये केशकारका-शाल दिलोडणथी शुं वळवावं?.चोखी, दृष्टिचालान । एक.पण दीत्रो बस.छे, अने. अंघ दृष्टिने हजारो.दीवाथी, पण उप. कार थइ शकवानो नथी. सम्यग् ज्ञानवान् सम्यग् दर्शन या समुक्ति ? रत्नना प्रभावथी दिव्यदृष्टिज कहेवाय छे.
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जैनहितोपदेश भाग ३.जो.
७. मिथ्यात्व शैलने छेदेवा समर्थ ज्ञानरूपं वज्रथी शोभित मुनि निर्भय छतां शक्र इंद्रनी परे आनंद नंदनमा विचरें छे. रत्नत्रयों मंडित मुनि निर्भय छता सहजानन्दमा मस्त रहे छे. तेवा योगी पुरुपने संयममा अरति थवा पामती नथी. . : ... ... ..
८ प्राज्ञ पुरुपो-कहे छे के ज्ञान, समुद्रथी नहि. उत्पन्न थयेलं. 'अभिनव अमृत छे. औषध विनानु अपूर्व रसायण छे. अने सर्वथी श्रेष्ट ए, अनुपम ऐश्वर्य छे. भाग्यवंत भन्योज तेनों लाभ लही शके छे. भाग्यहीनने ते प्राप्त थइ शकतुंज नथी. सौभागी भमरो, तेनों मधुर रस पीवे छे. अने दुर्भागी तेनायी दूरज.रहे-छे.. . . . .
:: ॥६॥ शमाष्टकम् ॥ विकल्प विषयोत्तीर्णः, स्वभावालंबनः सदा ।। ज्ञानस्य परिपाको यः, सः शमः परिकीर्तितः॥१॥ अनिच्छन् कर्म वैषम्यं, ब्रह्मांशेन. सम जगत्..॥ आत्मामेदेन- यः पश्ये, दुसौ मोशंगमी-शमी ॥ २॥ . आहरुक्षुर्मुनियोंग, वेदाधक्रियामपि - - - - - योगारूंदः शमादेवं, शुद्धयत्यतर्गतक्रियः ॥ ३॥
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___ २६ जनहितोपदेश भाग ३ जो..
ध्यानवृष्टेर्दया नद्याः, शमपूरे प्रसर्पति ॥ विकारतीरवृक्षाणां, मूलादुन्मूलनं भवेत् ॥ ४ ज्ञानध्यान तपः शील, सम्यक्त्व सहितो ऽप्यहो । तं नामोति गुणं साधु, यं प्राप्नोति शमान्वितः॥ ५.!! स्वयंभूरमणस्पर्द्धि, वर्द्धिष्णु समता रसः॥ मुनिर्येनोपमीयेत, कोपिनासौ चराचरे ॥ ६॥ शमसूक्त सुधासिक्तं, येषां नक्तं दिनं मनः ॥ कदापि ते न दह्यन्ते, रागोरगविषोमिभिः ॥ ७ ॥ गर्जद्ज्ञान गजोत्तुंग, रंगद् ध्यान तुरंगमाः॥ जयन्ति मुनिराजस्य, शमसाम्राज्य संपदः ॥ ८॥
॥ रहस्यार्थ ॥ १ संकल्प विकल्पने शमावी आत्माने सहज शीतलता सदा आपनार एवा शमगुणने सम्यग् ज्ञानना उत्तम फलरुपे ज्ञानी पुरुषोए वखाणेल छे. उपशमवंत विविध विकल्प जाळथी मुक्त होइ शके एवा परिपक ज्ञानना बलथी सहज स्वहित साधी शके छ..
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.. २७. ___ २ जे शान्त आत्मा, कर्मनी विषमताने नहि लेखता, सर्व जगजंतुने सहज सुख मेलववा एक सरखी सत्ता होवाथी, आत्म समानज लेखे छे, ते अवश्य मोक्षगामी थाय छ अथात् ज भाव व्याप्यो छे ते जरूर मोक्ष सुख साधी शके छे.
३ योगारुढ थवा इच्छनार साधुने तो बाह्य ( व्यवहार ) क्रि-- यानी अपेक्षा रहे छे. पण योगारुढ मुनि तो अंतर क्रियानो आश्रय. करनार होवाथी केवल शमगुणथीज शुद्ध थाय छे. प्रथम तो योगनीः चपलता वारवा अने सहज स्थिरता साधवा आप्त पुरुषे उपदेशेली व्यवहारिक क्रिया करवी पडे छे पण अनुक्रमे अभ्यास वले मन वचन अने कायानी चपलता शान्त थये छते मुनिने उत्तम क्षमादिक सहज शुद्धक्रिया योगे अंतर शुद्धि थइ शके छे. तेवी योग्यता पामवा प्रथम अभ्यास करी अंते सहज क्षमादिक अंतरंग क्रियाथी आत्म शुद्धि साधवी सुलभ पडे छे. योग्यता विना कार्य साधवा जतां अ-- नेक मुशीबतो आवी पडे छे.
४. ध्याननी दृष्टि थवाथी, शुद्ध करुणारुपी नदी शमपूरथी एवी तो छलकाय जाय छे के तेना कांठ रहेला विविध विकार-वृक्षो मूलथीज घसडाय जाय छे. ज्यारे निर्मलं ध्यानामृतनी दृष्टि थाय छे सारे शुद्ध अहिंसक भावनी एवी तो अभिवृद्धि थाय छे के तेना शान्त रसना प्रबल प्रवाहथी सर्व प्रकारना विषयविकारो समलगा; घसडाइ जाय छे, तेथी तेना कटुक फलनी भीति रहेतीज नथी.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
विवेकद्विपहर्यक्षैः, समाधि धन तस्करैः ॥ इंद्रियैर्नजितोयोऽसौ, धीराणां धुरि गण्यते ॥ ८ ॥
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|| रहस्यार्थ ॥
१. जो तुं संसार परिभ्रमणना दुःखथी डरतो होय अने अखंड एवं मोक्ष सुख स्वाधीन करवा इच्छतो होय तो इंद्रिय वर्गने दमवा प्रवल प्रयत्न कर. विविध विषय सुखनी वासना मोक्षार्थी जी - वने पण वाधक थाय छे. माटे प्रथमज विविध विषयमां भटकता -मन अने इंद्रियोने दमीने वश करवा युक्त छे. अन्यथा तेओने वश पडि रहेवाथी उद्धत घोडानी पेठे तेओ जरूर जीवने विषम एवा दुर्गतिना मार्गमांज खेंची जायछे. पण जो तेमनेज आगम युक्तिथी वश करी लेवामां आवशे तो आत्मा अंते अखंड सुख साधी शकशे.
२. तृष्णा - जलथी परिपूर्ण एवा इंद्रिय - क्याराथी वृद्धि, पामेला विकार विषयक्षो जीवने महा मूर्छा उपजावे छे, जेम जेम जीव विविध विषयने सेवे छे तेम तेम तेनी तृष्णा सतेज थाय छे, अने अंते असंतुष्ट रही आर्त्तध्यान योगे महाविकारने ते भने छे. एम समजी संतोषने सेवनारा जीवो मन अने इंद्रियो उपर अच्छो काबु मेलवी अंते अवश्य अखंड सुख साधी शुके छे, वाकी कामान्ध तो
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. क्षणिक सुख माटे अनंत अने अक्षय सुखने गमावी अनंत अपार दुःखनेज व्होरी लेछ. संतोषी जीव सर्व दुःखने सहजमां जलांजली दइ अपार मुखमां अवगाही रहे छे, एम समजी संतोष गुणने सेबवो युक्त छे.
३. जेम हजारो गमे नदीओथी पण समुद्र पूरातो नथी तेम गमे तेटला विषय संयोगथी पण इंद्रियवर्ग धरातो नथी, जेम इंधनथी आग उलटी वधे छे तेम अनुकूल विषय योगे उलटी तृष्णा - द्विगत थाय छे भाटे सहज संतोषी थई युक्त छे. जेम जेम संतोष गुण वाघे छे तेम तेन सहज सुखनी वृद्धि थाय छे.
४. संसारथी उद्वेग पामेला जीवने पण इंद्रियो विषय-पाशथी वांधी लेछे तो संसारमा रच्या पच्या रहेनारनुं तो कहेवुज शुं ? तेवाने तो ते सहा संताप्याज करे छे पण मोक्षार्थी जीवने पण लाग मध्ये छोडती नथी. केमके ते मोहराजानी चाकरडीओज छे, माटे मोक्षार्थीए तेमनाथी वधारे चेतता रहेवू युक्त छे.
५. इंद्रिय संबंधी विषय सुखमां मुंझायेलो जीव धनने अर्थे डुंगरनी मटोडी जोवे छे पण आत्म समीपेन रहेलु शास्वतुं ज्ञानधन तपासतो नथी, खलं जोतां विषय विरक्त जीवनेज साचुं ज्ञानधन हाथ लागे छे. विषयान्ध जीवने काम अने अर्थज प्रिय होवाधी
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३२ श्री जैनहितोपदेश -भाग ३ जो. तेने खरी प्रीति विना तत्त्व-धन हाथ लागतुंज नथी,..माटे अनादिनी विषयवासना तजीने सत्य ज्ञानमां प्रीति धारची युक्त छे..
१६. अधिका ऽधिक तृष्णाने वधारनार विषय मुखमांज मुढ जीवो मग्न रहे छे, पण ज्ञानामृतनो आदर करी शकता नथी. खरूं छ के खाखरानी खीसकोली आंबाना रसमां शुं जाणे? अमृत समान ज्ञान तो विषय सुखथी विरक्तनेज प्राप्त थइ शके छे.
७. एक एक इंद्रियना दोषथी, पतंगिया, भमरा मांछला हाथी तथा हरण दुर्दशाने पामे छे तो दुष्ट एवी पांचे इंद्रियोने परवश थइ वर्तनारा मूढ जीवोनुं तो कहेज शृं?
८. विवेकरुप कुंजरने विदारवा केशरीसिंह समान तथा स___ माधि धनने हरवा साक्षात् चोर समान एवी इंद्रियोथी जेओ जीता
या नथी तेओज धीर पुरुषोमां धुरंधर छे. जितेंद्रिय पुरुषोज खरह शुरवीर गणाय छे,
॥ ८॥ त्यागाऽष्टकम् ॥ संयमात्मा श्रये शुद्धो, पयोगं पितरं निजम् ॥ धृतिमंबांच पितरौ, तन्मां विसृजतं ध्रुवम् ॥ १ ॥
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2016
श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. युष्माकं संगमोऽनादि, बंधवोऽनियतात्मनाम् ।। ध्रुवैक रूपान शीलादि, बंधूनित्यधुनाश्रये ॥ २ ॥ कान्ता मे समतै वैका, ज्ञातयोमे समत्रियाः॥ बाह्य वर्गमिति त्यक्त्वा, धर्म संन्यासवान् भवेत् ।।३।। धर्मास्याज्याः सुसंगोत्थाः, क्षायोपशमिका अपि । प्राप्य चंदन गंधाभ, धर्म संन्यास मुत्तमम् ॥ ४॥ गुरुत्वं स्वस्य नोदेति, शिक्षा सात्येन यावता ॥ आत्म तत्त्व प्रकाशेन, तावत् सेव्यो गुरुत्तमः ।।५।। ज्ञानाचारादयोपीष्टाः, शुद्ध स्व स्वपदावधि ॥ निर्विकल्पे पुनस्त्यागे, नविकल्पो न वा क्रिया ॥६॥ योग सन्यासतस्त्यागी, योगानप्यखिलां स्त्यजेत् ।। इत्येवं निर्गुणं ब्रह्म, परोक्तमुपपद्यते ॥७॥ वस्तुतस्तु गुणैः पूर्ण, मनतै आँसते स्वतः॥ रूपं त्यक्त्वात्मनः साधोर्निरभ्रस्य विधोरिव ॥ ८॥
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
।। रहस्यार्थ ।। १. संयमी आत्मा शुद्ध उपयोगरूप पितानो तथा धृतिरूपि मातानो आश्रय करी लौकिक मनाता मातापितानो संग निश्चय पूबैंक तनी देछे. ज्या सुपी लौकिक संबंधीओ साथे स्नेह बांध्यो रहे छ, सं सुधी निर्मल ज्ञान, ध्यान तथा समाधिरूप आत्म संयमर्मा रति पडती नथी. शुद्ध संयममा रंग लगाडवा माटे अने सहज आनन्द लुटवा माटे लौकिक स्नेह अवश्य तजवो युक्त छे.
२. संयमार्थी आत्मा स्वार्थी बांधवोनो त्याग करीने शील संतोष मनुख परमार्थी अने निश्चल परिणामवाळा बंधुओनो आश्रय 'करवा उजमाल रहे छे. ज्यां सुधी कृत्रिम स्वार्थी बंधुओमां प्रीति 'छे त्यां मुधी सत्य परमार्थी शीलादिक सद्गुणोमां प्रीति जागे नहि. माटे शीलादिक सत्य बंधुओमां अकृत्रिम प्रेम जगाववा अर्थे अनादि अविवेक योगे लागेलो स्वार्थी लौकिक बंधुओ प्रतिनो कृत्रिम राग अवश्य वनवोज जोइए. कृत्रिम रागनो त्याग करता सहज सात्विक प्रेम अवश्य जागवानो.
३. संयमार्थी पुरुष समतारूपी स्त्रीनो तथा साधर्मीरुपी ज्ञाति जनोनोज आदर करे छे, पण वाकीना मतलवीया लौकिक संबंधीओनो त्यागज करे छे. लौकिक संबंधने विवेकथी छेर्दाने आत्म संयमने साधवाचाळो उत्तम त्यागी कहेवाय छे.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ४. शुद्ध क्षायक ज्ञानदर्शन चारित्रादिक गुणो प्राप्त थये छते पूर्वला अशुद्ध अभ्यासिक गुणो त्याज्य थाय छ, आत्माना शुद्ध ज्ञानादिक सद्गुणोमां एवी सहज अपूर्व शीतलता तथा सुवासना रहेली छे के तेने पामीने आत्महंस वीजे क्यांय पण स्थिति करतो नथी, फक्त तेमांज सर्व संग तजीने लयलीन थइ रहे छे.
५. आत्मानुं स्वरूप थी सम्यग् समजी शकाय एवा तत्वज्ञानना प्रकाशवडे स्वयं आत्माने शिक्षा आपी सुधारी शके तेवं गुरुत्व पोताने प्राप्त न थाय त्यां सुधी उत्तम गुरुनुं शरण अवश्य आदरतुं युक्त छे, स्व कल्याण साधवानो संपूर्ण अधिकार प्राप्त थया बाद गुरुनी आज्ञाथी एकला विचरवामां पण हित छ, परंतु तेवी योग्यता पाम्या पहेला स्वच्छंदताथी एकला विचरतां तो केवळ अहितज छे.
६. ज्या मुधी सदाचारनी संपूर्ण शुद्धता सिद्ध थाय नहिं त्यां सुधी ज्ञानाचार आदि सकल आचार अवश्य सेव्य छे, पण ज्यारे असंग योगनी प्राप्ति थशे सारे कोई विकल्प पण रहेशे नहि, तेमज क्रिया करवानी चिंता पण रहेशे नहि, प्रथम मननी स्थिरता माटे सदा आचार पालवानी जरुर छे. आचारनी शुद्धिथी मननी शुद्धि विशेषे थाय छे, अने अंते निर्विकल्प समाधि सिद्ध थये छते सर्व विकल्प तथा क्रिया स्वतः उपशमे छे. परंतु परिपूर्ण योग्यता-अधि
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जैनहितोपदेश भाग ३ जो. कार प्राप्त कर्या पहेला आपमतिथी जेओ सदाचारनो अनादर करेछे, सेओ उभय भ्रष्ट थइ अंते भारे पश्चातापना भागी थाय छे, माटे प्रथम आचार शुद्धिद्वारा मन शुद्धि करी ते वडे अनुक्रमे वचन अने काय शुद्धि प्राप्त करवा प्रयत्न सेववो त्रिविध शुद्धिथी सहज समाधि सिद्ध थतां अनुक्रमे विविध विकल्पो तथा क्रियाओनो अंत आवशे ए वात खात्री पूर्वक मानवी.
७. त्यागी-संयमी सिद्ध योगी थइने समस्त योग-व्यापारनो त्याग करे छे अने संपूर्ण विवेक योगे निर्गुण ब्रह्म-परमात्म पदने . प्राप्त करे छे. ए त्यागनुंज माहात्म्य छे.
८. संपूर्ण त्यागी-संयमी साधु निर्मल चंद्रनी पेरे वस्तुतः अनंत गुण ज्योतिथी स्वतः प्रकाशे छे. संपूर्ण विभाव त्यागथी पूर्ण विवेक योगे निर्मल आत्मस्वभाव स्वतः प्रगटे छे.
॥ ९ ॥ क्रियाष्टकम् ॥ ज्ञानी क्रियापरः शान्तो, भावितात्मा जितेंद्रियः॥ स्वयं ती! भवांभोधेः, परं तारयितुं क्षमः ॥ १॥ . क्रियाविरहितं हंत, ज्ञानमात्रमनर्थकम् ।।
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. गतिविना पथिज्ञोऽपि, नामोति पुरमीप्सितम् ॥ ३ ॥ स्वानुकूलां क्रियां काले, ज्ञान पूर्णोप्यपेक्षते ॥ प्रदीपः स्वप्रकाशोऽपि, तैल पूर्त्यादिकं यथा ॥३॥ बाह्यभावं पुरस्कृत्य, ये क्रियां व्यवहारतः॥ वदने कवलक्षेप, विना ते तृप्तिकांक्षिणः ॥ ४॥ गुणवद् बहुमानादे, नित्य स्मृत्याच सक्रिया।। जातं न पातयेद्भाव, म जातं जनयेदपि ॥ ५ ॥ क्षायोपशमिके भावे, याक्रिया क्रियते तया ।। पतितस्यापि तद्भाव, प्रवृद्धि र्जायते पुनः ॥६॥ गुण वृध्यैततः कुर्यात्, क्रियामस्खलनाय वा ॥ एकं तु संयमस्थानं, जिनानामवतिष्ठते ॥७॥ वचोनुष्ठानतोसंग, क्रियासंगतिमंगति ।। सेयं ज्ञानक्रियाभेद, भूमिरानंदपिच्छला ॥ ८॥
॥ रहस्यार्थ ॥ १. सम्यग् ज्ञान अने क्रियाने सेवनार शान्त अने भावित आत्मा जितेंद्रिय थइ आ भयंकर भवोदधिथी पोते तया छतां अन्यते
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जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
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पण तारवा . समर्थ थाय छे उपर बतावेला सद्गुणो विनानो बाह्याडंबरी स्वपरने तारवा शक्तिवान् नथी.
२. क्रिया - आचरण विनानुं केवळ शुष्कज्ञान निष्फल छे, अने सदाचरण युक्त सर्व ज्ञान सफल छे. केमके मार्गनो जाण छतांपण गमन क्रिया विना इच्छित स्थाने 'होंची शकतो नथी. अने गमन क्रिया योगे सुखे समाधिथी इष्ट स्थाने होंची शके छे. एम निर्धारीने. म्होटी म्होटी वातो करीने नहि विरमतां साक्षात् क्रियारुचि थवुं.
३. जेम दीवो स्वप्रकाशक छतां तेलवाट विगेरेनी अपेक्षा राखे छे तेम संपूर्ण ज्ञानीने पण काले काले आत्म अनुकूल क्रिया करवी पडे छे, जेम तेलवाट विगेरे अनुकुल साधन विना दीवो वली शकतो नथी; फक्त तेलवाट विगेरे होंचे त्यां सुधीज दीवो बली पछी ओलवाइ जाय छे, तेम ज्ञानीने पण अनुकुल क्रिया कर्या विना चालतुं नथी. जेम जलनो रस जलथी न्यारो रहेतोज नथी तेम सत्यपरमार्थिक ज्ञान पण तदनुकुल क्रिया विनानुं होतुंज नथी. संपूर्ण ज्ञानी पण स्वानुकुल क्रिया करेज छे, तो संपूर्ण ज्ञानी थवा इच्छता एवा अल्पज्ञानीनुं तो कहेवुज शुं ?
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४. क्रिया करवी ते तो वाह्य भाव छे एम कहीने जेओ सत्य व्यवहारनो निषेध करे छे, तेओ मुखमां कोळीयो नांख्या विनाज तृप्तिने इच्छवा जेवुं करे छे. जेम जम्या विना क्षुधा शान्त थती नयी
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जैनहितोपदेश भाग ३ जो. तेम सत्य व्यवहार सेवन विना शुद्ध निश्चय मार्ग पण मली शकतो नथी. माटे शुद्ध निश्चयार्थीने व्यवहारनो अनादर करवो युक्त नथी, पण शुद्ध मार्ग माटे सत्य व्यवहार विशेषे सेवन करवू घटे छे.
५. गुणवंत वहुमान बनी शके तेटलं करवा पूर्वक ते नित्य स्मरण करवा प्रमुख सत् क्रियाथी उत्पन्न थयेला भावने टकाची राखवा साथे नवा भावने पण पेदा करवातुं बनी आवे छे. माटे गुणना अर्थीए हमेशां सत् क्रियानुं आलंबन लीधाज करवू.
६. प्रथम अभ्यासरुपे जे सत् क्रिया करवामां आवे छे तेथी एवो संस्कार जामी जाय छे के ते क्रिया अंते शुद्ध अने असंगपणे यया करे छे. तेमज कचित् दैववशात् पतित थयेलाने पण पूर्वला भावनी प्राप्ति थइ आवे छे. परंतु जेओ प्रमादने पराधीन पडया छता सत् क्रियानुं सेवनज करता नथी तेवा मंदभागीने तो गुणमा आगल वधवानुं साधनज मली शकतुं नथी.
७. माटे सद्गुणोनी वृद्धि माटे तेमज मास थयेला सद्गुणोथी भ्रष्ट नहि थवा माटे सदा सत् क्रिया सेव्याज करवी युक्त छे. एवो शुभ अभ्यास वीतराग दशा प्राप्त थतां सुधी सेवचा योग्य छे. समस्त मोहनो क्षय थवा पामे त्यां सुधी एवा शुभ अभ्यासमा प्रमाद करवो अयुक्त छे. प्रमाद सेवनथी तो उलटो अनर्थ पेदा थाय छे. माटे परमात्म दशा प्राप्त थतां सुधी अप्रमत्त भावज आदरवा योग्य
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
छे. वीतराग दशा प्राप्त थया पछी पतीत थवानो लगारे भय नथी. वीतराग दशा तो कायम एक सरखीज होय छे, वीतराग दशामां कोइ पण क्रिया करवा संबंधी विकल्पज होतो नथी.
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८. वीतराग वचनानुसारे वर्तन करतां अंते असंग वृत्ति प्राप्त थाप छे. ते ज्ञान अने क्रियानी अभेद भूमी - एकता अमंद आनंदधी भरेली होय छे. तथास्तु.
॥ १० ॥ तृप्त्यष्टकम् ॥
पीत्वा ज्ञानामृतं भुक्त्वा, क्रिया सुरलता फलम् ॥ साम्य ताम्बूल मास्वाद्य, तृप्तिं याति परां मुनिः ||१|| स्वगुणैरेव तृप्ति, दाकालमविनश्वरी ॥ ज्ञानिनो विषयैः किं तै, यैर्भवे तृप्तिरित्वरी ॥ २ ॥ या शान्तैकरसा स्वादा, दुभवेत्तृप्तिरतींद्रिया || सा न जिहेंद्रियद्वारा, षड्रसास्वादनादपि ॥ ३ ॥ संसारे स्वप्नवन्मिथ्या, तृप्तिः स्यादाभिमानिकी || तथ्या तु भ्रांति शून्यस्य, सात्म वीर्य विपाककृत् ॥ ४ ॥ युद्गलैः पुद्गलास्तृप्तिं, यान्त्यात्मा पुनरात्मना ॥
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. परतृप्ति समारोपो, ज्ञानिनस्तन युज्यते ॥ ५॥ मधुराज्य महाशाका, प्राह्ये बाह्येच गोरसात् ॥ परब्रह्मा तृप्ति यां, जनास्तां जानतेऽपि न ॥६॥ विषयोर्मिविषोद्गारः स्यादतृतस्य पुद्गलैः ज्ञान तृप्तस्य तु ध्यान, सुधोद्गार परंपरा ॥७॥ सुखिनो विषयातृप्ता, नेंद्रोपेंद्रादयोऽप्यहो॥ भिक्षुरेकः सुखी लोके, ज्ञानतृप्तो निरंजनः ॥८॥
॥ रहस्यार्थ ॥ १. ज्ञानामृतनुं पान करीने तथा क्रिया कल्पलतानां फल खाइने तथा समतारूपी ताम्बूल चाचीने मुनि श्रेष्ठ तृप्तिने पामे छे. समतायुक्त ज्ञान अने क्रिया बडे खरी तृप्ति साधी शकाय छे. ते विनानी पौद्गलिक तृप्ति कल्पित मात्र छे.
२. स्वगुणो वडेज अक्षय अने अखंड तृप्ति थती होय तो क्षणिक तृप्ति करनारा विषयोतुं ज्ञानीने शुं प्रयोजन छ ? सद्गुण सेवनथी साक्षात् आत्म वृप्तिने अनुभवनारा ज्ञानी पुरुषो विषम एवा विषय सुखनो आदर करता नथी.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ३. एकज शान्त रसनो आस्वाद करवाथी जे सहज अतींद्रिय मुख प्राप्त थाय छे, ते रसना' वडे षटरसनो आस्वाद लेवाथी पण मली शकतुं नथी. एम समजी सकल इंद्रिय जन्य तुच्छ विषय रसनो त्याग करीने एक शान्त वैराग्य रसनोज आस्वाद करी अपूर्व अने अतींद्रिय सुखनो साक्षात् अनुभव करवो युक्त छे. केवल विषयासक्त विवेक विकलने एवं अपूर्व सुख मली शके नहिं.
४. संसारमा मुग्ध लोकोए मानी लीधेली विषय-तृप्ति स्वप्ननी जेवी मिथ्या छ, अने आत्मानी सहज शक्तिने उत्तेजित करनारी शानीए आदरेली तृप्तिज साची अने सेववा योग्य छे. माटे क्षणिक वृप्तिने तजीने अक्षय तृप्ति माटेज यत्न करवो..
५. पुद्गलो वडे पुद्गल तृप्ति पामे छे अने ज्ञानादिक आत्म -- गुणो वडे आत्मा तृप्ति पामे छे. माटे पुगलिक तृप्तिने साची तृप्ति
मानवी ए ज्ञानी विवेकीनुं कर्तव्य नथी. खोटी अने क्षणिक पुगलिक तृप्तिनो अनादर करीने सत्य अने शास्वती सहज दृप्तिनोज स्वी-- कार करनार खरो ज्ञानी-विवेकी होवो घटे छे, वाकी मोटी मोटी वातो करीने विरमी रही, पुगलिक सुखमा रच्या पच्या रहेनारा खरा ज्ञानी होवा घटता नथी.
६. पुद्गलिक सुखना आशी वडे अग्राह्य तथा अवाच्य एवा १. जिह्वा, जीभ.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. परब्रह्ममा जे तृप्ति रहेली छे ते विषयरसना आशीजनो जाणी पण शकता नथी. पुद्गलिक सुखना रसीया तो विविध विषय रसमांज सार सुख समजी नित्य रच्या पच्याज रहे छे. सिद्ध परमात्मदशामा केवु अने केटलुं सुख रहेढुं छे, तेनो तेमने स्वप्नमां पण ख्याल नथी.
७. सत्य संतोष रहित-असंतोषीने पुद्गलो वडे विविध विषयमय विषनाज उद्गार आवे छे. अने सत्य ज्ञान-संतोषीने तो उत्तम एवा ध्यानामतनाज उदगारनी परंपरा आवे छे. जीव जेवो आहार करे छे तेवोज तेने ओडकार आवे छे. निरंतर पुद्गलिक मुखमांज रच्या पच्या रहेनाराने विषय वासनानीज प्रबलताथी तेनाज झेरी उद्गार आवे छे, अने तत्त्व ज्ञानमांज वृप्ति मानी मग्न रहेनारा महा पुरुषने तो निर्मळ ध्यानामृतनाज उत्तम ओडकार आन्या करे छे. एम निर्धारीने सर्व प्रकारनी विषय आशा तजीने तत्त्व ज्ञानमांज प्रीति जगाववी, जेथी शुद्ध चैतन्यनी जागतिथी अनुपम ध्यानामृतनी दृष्टि थशे अने अनादि अविवेक जन्य विषमतापनी उपशांतिथी सहज शीतलता छवाये जशे. परंतु याद राख के आ सर्व विविध विषयपासने छेदवाथी वनी शकशे.
८. विषय सुखधी तृप्ति नहि पामेला-असंतुष्ट एवा इंद्र उपेंद्रादिक पण तत्त्वतः सुखी नथी. किंतु तत्त्वज्ञानथी तृप्त कर्मकलंक
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४४ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. मुक्त एवा एक मुनिज लोकमां सुखीया छे. विषयतृष्णाने तोडीने सहज संतोष धारवामांज खलं सुख समायलं छे.
॥ ११ ॥ निर्लेपाष्टकम् ॥ संसारे निवसन् स्वार्थ, सज्जः कज्जलवेश्मनि ॥ लिप्यते निखिलो लोको, ज्ञान सिद्धो न लिप्यते ॥१॥ नाहं पुद्गल भावानां, कर्ता कारयिता च न ॥ नानुमंतापि चेत्यात्म, ज्ञानवान लिप्यते कथम् ॥२॥ लिप्यते पुद्गलस्कंधो, न लिप्ये पुद्गलैरहम् ॥ चित्रव्योमांजनेनेव, ध्यायन्निति न लिप्यते ॥३॥ लिसता ज्ञानसंपात, प्रतिघाताय केवलम् ॥ निर्लेपज्ञानमनस्य, क्रिया सर्वोपयुज्यते ॥ ४ ॥ तपः श्रुतादिनामत्तः, क्रियावानपि लिप्यते ॥ भावना ज्ञान संपन्नो, निष्कियोऽपि न लिप्यते॥५॥ अलिसो निश्चयेनात्मा, लिप्तश्च व्यवहारतः ॥ शुद्धयत्यलिप्तया ज्ञानी, क्रियावान लिप्तयादृशा ॥६॥
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
ज्ञान क्रिया समावेशः, सहैवोन्मीलने द्वयोः ॥ भूमिका भेदतस्त्वत्र, भवेदेकैक मुख्यतां ॥ सज्ञानं यदनुष्ठानं, न लिप्तं दोष पंकतः ॥ शुद्ध बुद्ध स्वभावाय, तस्मै भगवते नमः ॥
७ ॥
८ ॥
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॥ रहस्यार्थ ॥
१. संसारमां वसता अने स्वार्थ साधवामांज तत्पर एवा सर्व कोइ प्राणी कर्मी लेपाय छे. अथवा काजलनी कोटडीमा रहेता कोण कोरो रहीज शके ? फक्त ज्ञान सिद्ध पुरुषज निर्लेप रही शके छे. तत्त्वज्ञानी अने विवेकी महात्माज मात्र कोरो रही कर्म अंजनथी मुक्त थइ शके छे. एवा सत्पुरुषोने संसारना कोइपण पदार्थमा आसक्ति होती नयी, अने अंतर आसक्ति विना रागद्वेषादिकना अभावे कर्म बंध पण थइ शकतों नथी.
२. हुं परभावने करूं नहिं, करावुं नहिं तेमज अनुमोदुं नहिं, विभावमां रमवानो मारो धर्मज नथी, मने स्वभावमांज रहेधुं युक्त छे, आ प्रमाणे अंतरमां समजनार आत्म ज्ञानी कर्म अंजनथी केम लेपाय ? जे विभावथी विरमीने केवल स्वभाव रमणी थाय छे, तेज खरो आत्म ज्ञानी छे अने तेवा आत्म ज्ञानीज सकल कर्म कलंकथी सर्वथा मुक्त थइ अंते परम पदने प्राप्त थाय छे,
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
३. फक्त पुद्गलन पुद्गलथी लेपाय छे. पण चेतन पुद्गलथी लेपातो नथी. जेम आकाश अंजनथी लेपातुंज नथी तेम आत्मा पण कर्म अंजनथी लेपातो नथी.' एवा सम्यग् विचार पूर्वक विवेक सेवनारो सत्पुरुष कदापि क्लिष्ट कर्मनो भागी थतोज नथी. परंतु जे अनादि अविद्या योगे मोहने वश थइ जडवत् बनी पुद्गलमांज आनंद मानी बेसे छे तेवो पुद्गलानंदी तो मोह मायाना पाशमां पडी जरुर क्लिष्ट कर्म बंधननोज भागी थाय छे.
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४. निर्लेप दृष्टि एवा सत्पुरुषनी सकल सापेक्ष क्रिया विभामां जता उपयोगने वारवा माटे होय छे. साध्य दृष्टिवाळानी सकल क्रिया सापेक्ष-सहेतुकज होय छे, तेथी आत्मानंदी पुरुष जे जे क्रिया करे छे तेनो हेतु पुद्गलमां जती दृष्टिने रोकवा अने स्वभाव रमणी थवा माटेज होय छे. ज्यां सुधी संपूर्ण स्वभाव रमणी न थवाय त्यां सुधी तेवो संपूर्ण अधिकार पामवा अने बाधकभूत विभाव उपयोगने वारवा स्वानुकूल क्रिया करवानी खास जरूर पडे से
५. तप अने ज्ञान विगेरेनो मद करनारो गमे तेवी आकरी कष्ट करणी करतो होय तोपण कर्मथी लेपाय छे। अने निर्मल भावथी जेतुं अंतःकरण भरेलुं होय ते कदाच तेवी आकरी करणी करी शकतो न होय तोपण कर्मथी लेपातो नथी. एम समजीने शाणा
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
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माणसोए कर्तृत्व अभिमान तजवुं युक्त छे, कोइ पण जातनो मद करवाथी प्राणी पतितपणुं पामे छे, अने मद तजी निर्मद थइ नम्र पणे स्वकर्तव्य समजी जे सत् क्रिया करे छे. ते स्व उन्नतिने सुरके साधे छे.
६. निश्चय-तत्त्व दृष्टिथी जोतां आत्मा अलिप्त छे, अने व्यवहार दृष्टिथी जोतां तेज आत्मा कर्मथी लिप्त देखाय छे. तत्त्वदृष्टि पुरुष अलिप्त दशाथी आत्मानी शुद्धि करे छे, अने क्रियावान् व्यवहार दृष्टि पुरुष स्वानुकूल उचित आचरणथी शुद्ध थाय छे. वंनेनुं साध्य एकज होवाथी स्व स्व अनुकूल साधनवडे उभय सिद्धि संपादन करी शके छे. साध्य विकल कोइ पण माणी स्वानुकूल साधन विना सिद्धि साधी शकता नथी.
७ निश्चय अने व्यवहार दृष्टितुं साथेज प्रगटन - विकास थवाथी ज्ञान अने क्रिया ए उभयनो समावेश थइ जाय छे, परंतु स्थान विशेषथी तो ज्ञाननी के क्रियानी मुख्यता होय छे. व्यवहार साधन वढे निश्चय साध्य थाय छे, अने निश्चय साधनथी मोक्ष साध्य थाय छे. व्यवहार ए मोक्षनुं परंपर कारण छे अने निश्चय अनंतर कारण छे. उभयतुं मीलन थवाथी शीघ्र मोक्ष साधना सिद्ध थाय छे. माटे मोक्षार्थी निश्चय दृष्टि हृदयमां धारीने व्यवहार मार्गनुं अवलंबन अवश्य करतुं युक्त छे. एम करवाथी साधक शीघ्र साध्य सिद्धि -करी शके छे.
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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जौ.
८. ज्ञानयुक्त जेनु अनुष्ठानं दोष पंकथी लेपायुं नथी एवा शुद्ध स्वभाव रमणी महापुरुषने नमस्कार थाओ. जेनी क्रिया समज, यूर्वक मोक्ष माटेंज होवाथी निर्दोष छे. तेमज तीक्ष्ण उपयोगथी सहज आत्म विशुद्धि करवा समर्थ छ तेने नमस्कार छे.
॥१२॥ निस्पृहाष्टकम् ॥ स्वभावलाभात् किमपि, प्राप्तव्यं नावशिष्यते ॥ इत्यात्मैश्वर्य संपन्नो, निःस्पृहो जायते मुनिः॥१॥ संयोजितकरैः के के प्रार्थ्यते न स्पृहावहैः ॥ अमात्र ज्ञान पात्रस्य, निस्पृहस्य तृणं जगत् ॥२॥ छिंदन्ति ज्ञानदात्रेण, स्पृहाविषलतां बुधाः ॥ मुखशोषच मूच्छांच दैन्यं यच्छति यत्फलम् ॥३॥ निकासनीया विदुषा, स्पृहा चित्त गृहाब्दहिः॥ अनात्मरति चांडाली, संगमंगी करोति या ॥४॥ स्पृहावन्तो विलोक्यंते, लघवस्तृणतूलवत् ॥ महाश्चर्य तथाप्येते, मज्जन्ति भववारिधौ ॥५॥ गौरवं पौर वंधत्वात् , अकृष्टत्वं प्रतिष्ठया ॥
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ख्याति जाति गुणात्स्वस्य,प्रादुष्कुर्याननिःस्पृहः॥६॥ भूशय्या भैक्षमशनं, जीर्णं वासो वनं गृहम् ॥ . तथापि निःस्पृहस्याहो, चक्रिणोऽप्यधिकं सुखम् ॥७॥ परस्पृहा महा दुःखं, निःस्पृहत्वं महा सुखम् ॥ एतदुक्तं समासेन, लक्षणं मुखदुःखयोः ॥ ८॥
॥ रहस्याथे॥ १. सहज आत्म संपत्तिनी प्राप्ति थया बाद वीजु कंइ पण प्राप्त कर वाकी रहेतुंज नथी. एवा आत्म ऐश्वर्य संपन्न मुनि परस्पहारहित-निस्पृह बनी जाय छे. सर्व रूद्धि अने.समृद्धि घटमांज रहेली. छे, तेवीं सहज साहेबी जो प्रगट थवा पामे तो वीजी बाह्य-तुच्छ चावतोमा मुंझावानुं रहेतुं नथीज. सहज ऐश्वर्यवान मुनि परनी प'रचा रहित होवाथी अने उत्तम सद्गुणोथी भरपुर होवाथी नि:स्पृह थइ-जाय छे.
२ परस्पृहावंत प्राणीओ हाथ जोडी जोडीने कोनी कोनी प्रा.'' र्थना करता नथी? सस्पृही सर्व कोइना दास छे अने अपार ज्ञान-- .. बान निःस्पृहीने तो जगतमा कोइनी परवा नथी: पुद्गलानंदी पाणी पोताना-स्वार्य माटे गमे तेवानी-पण प्रार्थना करवा चुकतो नथी...
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जैनहितोपदेश भाग ३ जो. अने ज्ञानानंदी निःस्पृहीने कोइनी की परवा नहिं होवाथी तेतो सदानंदा स्वाधीनपणे वर्ते छे.
३. तत्ववेदी पुरुषो ज्ञानरुपी दातरडाथी स्पृहारुपी विष वेलहीने छेदी नाखे छे केमके परस्पृहाथी मुख शोष मूळ अने दीनता दिक दोषोने सेववा पढे छे. ज्ञानी विवेकी पुरुषो तेवी स्पृहाने दोअनु मूल जाणीने समूलगी छेदवा तत्पर रहे छे.
४. डाह्या माणसे स्पृहाने कुमती चंडालणीनी संगत करनारी जाणीने चित्त-मंदिरमाथी दूर करवी जोइये. कुमतिने पोषनारी मृहाने सद्विवेकीजनो सेवतान नथी, पण भूतना उतारनी जेम समसीने तेने घरयी वहार काढे छे. आवा निस्पृही पुरुषो सदा मुखा मग्न रही अके छे.
५. स्पृहावंत लोको अत्यैव तुच्छ अने हलका जणावा छता 'अवसागरमा दूवी जाय छे, वे महा आश्चर्यकारक छे. केमके हलकी बस्तु नो तरवीज जोइये अने भारे वस्तुज डुववी जोइए एवो कुद'स्ती नियम छे तेनुं आमां उल्लंघन यतुं देखाय छ, तेनुं समापान 'ए के तेओ स्वभावे तुच्छ उतां ममता दोपथी एवा तो-भारे
पेला होय के चेहद भारथी भरेला चाननी जेम वेभो अधोगतिम प्राप्त करेणे.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
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६. निःस्पृही पुरुष लोकचंदनीकताथी पोतानी वडीलता, प्रतिष्ठाथी श्रेष्ठता अने जातिगुणथी ख्यातिने प्रगट करताज नथी. जे लोक पूजा, प्रतिष्ठा के ख्यातिनो विकल्प नहि करतां स्वकर्तव्यज बजाया करे छे तेज खरा निस्पृही छे. खरा निःस्पृही स्वप्नमां पण परोपकारनो बदलो इच्छता नथी.
७. भूमी एज जेनी शय्या छे, माधुकरी चिथी जेने भोजन करवानुं छे, प्हेरवाने जेने जीर्णप्राय वस्त्र छे, अने वनमां जेने वसबानुं छे, एवा निःस्पृही पुरुषने उचम एकारना संतोषना योगथी चक्रवतीं करतां पण अधिक सुख ले, जेणे संसारनो खोटो वैभव तजीने सहेज आत्म ऐश्वर्य पनवा उत्तम संयमनुं सेवन आदर्यु छे, एवा आत्म संयमी महापुरूष चक्रवर्तीींथी ओछा सुखी नथी, खोटो कल्पित आनंद जी सहज आनंद साधनार सत्पुरुष सर्वोत्तम सुखी छे. परगृहा रहित - निःस्पृही निर्येय एवं सर्वोत्तम सुख साधी शके. छे.
८. सुखनुं अने दुःखनुं संक्षेपथी आ लक्षण शास्त्रमां कहेलुं के के परस्पृहा एज महा दुःख के अने निःस्पृहता एज परम सुख 9. माटे मोक्षार्थीए परस्पृहा वजी निःस्पृह धनुं युक्त चे,
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
पणुं छे. तेवा आचरण विनानो मुनि वेष विडंबना रूपज छे, ज्ञानवडे शुद्धाशुद्धनो हिताहितनो विवेक जागे छे. दर्शनवडे तेनी यथा-- थे प्रतीति से छे, अने चारित्रथी अहितना त्याग पूर्वक हित प्रहति थाय छे. उक्त ज्ञान दर्शन अने चारित्र मळीने रत्नत्रयी कहेवाय छे ए रत्नत्रयीने सम्यग् सेवनारा मुनि कहेवाय छ, उक्त मुनिनी रहेणी कहेणी एक सरखी होय छे केमके ते ज्ञान अने क्रियानो एक सरखी रीते स्वीकार करे छे अने अन्य मोक्षार्थीने पण तेवोज हितकारी मार्ग बतावी जन्म मरणनां अनंत दुःखमांथी मुक्त करवा यत्न सेवे छे.
४. मणि-रत्न हाथमां आव्या छतां तेनो आदर करी शकाय नहि तेमज तेनुं फल मेलवी शकाय नहि तो जाणवू के मणीनी पीछानज थइ नथी के मणिनी प्रतीतिज बेठी नथी. अन्यथा मणिर्नु मूल्य समजीने तेनो आदर जरुर करायज.
५. तेम जो शुद आत्म स्वभावमा रमण थइ शके नहि तथा रागद्वेष मोहादिक दुष्ट दोषोनो त्याग थइ शके नहि तो ते ज्ञान के दर्शन कंइ कामनाज नथी. खरां ज्ञान अने दर्शनथी स्वरूप मग्नता अने दोष हानिरुप उत्तम फल थर्बुज जोइए, सहज आनंदमां मग्नता थवी ए जेम उत्तम लाभ छे, तेम दुष्ट दोषोनुं दमन करी तेमनो समूलगो नाश करवो ए पण अति उत्तम लाभरुपज छे. खरं.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. मुनिपणुं भजनारा निथ साधुओ एवो उत्तम लाभ हाँसल करी शके छे.
६. जेवू शोफ (सोना)नु पुष्टपणुं, अथवा वध्य (वध करवा लइ जवामां आवनार) ने शणगार, नकामुं छे, तेवोज आ. संसारनो उन्माद अनर्थकारी छे, एम समजीने मुनि सहज संतोषी यह रहे छे. संसारनु असारपणुं सम्यग् विचारी संतोष तिथी जे. सहजानंदमां मम थइ रहे छे तेज खरो मुनि-निग्रंथ छे.
७. वचन नहि उचरवारुप मौन तो एकेंद्रियादिका पण होई शके छे तेवा मौनथी आत्माने कंइ विशेष लाभ नथी, खरो लाभ तो ए छे के पुद्गलिक प्रवृत्तिमाथी चिरमी सहज आत्म स्वभावमा ज मन थवा मन, वचन अने कायानो सदा सर्वदा सदुपयोग कर्या. करवो.
८. जे समजीने विवेकथी स्वकर्तव्य बजावे छे, जेनी क्रिया दीपकना जेवी ज्ञान-ज्योतीमय छे, तेवा सम स्वभावी महापुरुषर्नु न मौन श्रेष्ट छे. समतावंत महा मुनिज श्रेष्ट मौन सेवी शके छे,
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-प्रचा
५२ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
॥१३॥ मौनाष्टकम् ॥ मन्यते यो जगत्तत्त्वं, स मुनिः परिकीर्तितः॥ सम्यक्त्व मेव तन्मौनं, मौन सम्यक्त्वमेव च ॥१॥ आत्मात्मन्येवयच्छुद्धं, जानात्यात्मानमात्मना ।। सेयं रत्नत्रये ज्ञप्ति, रुच्याचारकता मुनेः ॥२॥ चारित्रमात्मचरणाद्, ज्ञान वा दर्शनं मुनेः॥ शुद्ध ज्ञान नये साध्य, क्रिया लाभात् क्रियानये ॥३॥ यतः प्रवृत्तिन मणौ, लभ्यते वा न. तत्फलम् ॥ . अतात्त्विकी मणिज्ञप्ति, मणिश्रद्धा च सा यथा ॥४॥ तथा यतो न शुद्धात्म, स्वभावाचरणं भवेत् ॥ ... फलं दोष निवृत्तिा , न तद्ज्ञानं न दर्शनम् ॥५॥ यथा शोफस्य पुष्टत्वं, यथा वा वध्य मंडनम् ।। तथा जानन भवोन्माद, मात्मतृप्तो मुनिर्मवेत् ॥६॥ सुलभं वागनुच्चारं, मौनमेकेंद्रियेष्वपि ॥ पुद्गलेष्व प्रवृत्तिस्तु, योगानां मौन मुत्तमम् ॥७॥
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ज्योतिर्मयीव दीपस्य, क्रिया सर्वापि चिन्मयी ॥ यस्यानन्य स्वभावस्य, तस्य मौन मनुत्तरम् ॥॥
॥ रहस्यार्थ॥ - १. जे समस्त तत्त्वने यथार्थ जाणे छे ते मुनि कहेवाय छ, ने वस्तु तत्त्वने सम्यग् समजी सर्वत्र मध्यस्थ रहे छे, खोटी बावतमां कदापि मुंझातोज नथी ते मुनि छे. तेवं मुनिपणुं एज खरं समकित छे. अने निर्मल समकित एज मुनिपणुं छे. शुद्ध समकित विना खरुं मुनिपणुं संभवतुंज नथी. मुनिपणुं ज्यां सुधी जाळवी रखाय छे, त्यां सुधी समकित कायम रहे छे.
२. आत्मा पोते पोतामां रहेलं जे शुद्ध स्वरुप जे वडे जाणे छे तेज मुनिनी रत्नत्रयीमा ज्ञान दर्शन अने चारित्रनी एकता रुष छे. सम्यग् ज्ञानथी स्व स्वरुपले सारी रीते समजी शके छे. सम्यग् दर्शनथी स्व स्वरुपनी यथार्थ श्रद्धा प्रतीति थइ शके छे. अने सम्यग् - चारित्रथी आत्म-स्थीरता एटले स्वरुप रयण थइ शके छे. सम्यम् ज्ञान दर्शन अने चारित्रनी एकता एज मुनिपणुं छे.
३. ज्ञान दर्शन अने चारित्र मुनिपणाना भावथीज सार्थक छे, विभावनो त्याग अथवा स्वभावनो स्वीकार करवो एज मुनि
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५४ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. पणुं छे. तेवा आचरण विनानो मुनि वेष विडंबना रूपज छे, ज्ञानवडे शुद्धाशुद्धनो हिताहितनो विवेक जागे छे, दर्शनवडे तेनी यथा-- थं प्रतीति वेसे छे, अने चारित्रथी अहितना त्याग पूर्वक हित प्रटति थाय छे. उक्त ज्ञान दर्शन अने चारित्र मळीने रत्नत्रयी कहेवाय छे ए रत्नत्रयीने सम्यग् सेवनारा मुनि कहेवाय छ, उक्त मुनिनी रहेणी कहेणी एक सरखी होय छे केमके ते ज्ञान अने क्रियानो एक सरखी रीते स्वीकार करे छे अने अन्य मोक्षार्थीने पण तेवोज हितकारी मार्ग बतावी जन्म मरणनां अनंत दुःखमांथी मुक्त करवा यत्न सेवे छे.
४. मणि-रत्न हाथमां आव्या छतां तेनो आदर करी शकाय नहि तेमज तेनुं फल मेलवी शकाय नहि तो जाणवु के मणीनी पीछानज थइ नथी के मणिनी प्रतीतिज वेठी नथी. अन्यथा मणिर्नु मूल्य समजीने तेनो आदर जरुर करायज.
५. तेम जो शुद्ध आत्म स्वभावमा रमण थइ शके नहि तथा रागद्वेष मोहादिक दुष्ट दोषोनो त्याग थइ शके नहि तो ते ज्ञान के दर्शन कंइ कामनाज नथी. खरां ज्ञान अने दर्शनथी स्वरूप मग्नता अने दोष हानिरुप उत्तम फल थर्बुज जोइए, सहज आनंदमां ममता
उत्तम लाभ छे, तेम दुष्ट दोषोनुं दमन करी तेमनो समूलगो नाश करवो ए पण अति उत्तम लाभरुपज छे. खरूं
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ५५ मुनिपणुं भजनारा निथ साधुओ एवो उत्तम लाभ हाँसल करी शके छे,
६. जेवू शोफ (सोजा) नुं पुष्टपणुं, अथवा वध्य (वध करवा लइ जवामां आवनार) ने शणगारवू नकामुं छे, तेवोज आ संसारनो उन्माद अनर्थकारी छे, एम समजीने मुनि सहज संतोष यह रहे छे. संसारनु असारपणुं सम्यग् विचारी संतोष वृत्तिथी जे सहजानंदमां मग्न थइ रहे छे तेज खरो मुनि-निग्रंथ छे.
७. वचन नहि उचरवारुप मौन तो एकेंद्रियादिकमा पण होई शके छे तेवा मौनथी आत्माने कंइ विशेष लाभ नथी, खरो लाभ तो ए छे के पुद्गलिक प्रवृत्तिमांथी विरमी सहज आत्म स्वभावमा ज मनाथवा मन, वचन अने कायानो सदा सर्वदा सदुपयोग कर्या. करवो.
८. जे समजीने विवेकथी स्वकर्तव्य बजावे छे, जेनी क्रिया दीपकना जेवी ज्ञान-ज्योतीमय छे, तेवा सम स्वभावी महापुरुष न मौन श्रेष्ट छे. समतावंत महा मुनिज श्रेष्ट मौन सेवी शके छे.
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५६ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
॥ १४ ॥ विद्याष्टकम् ॥ नित्य शुच्यात्मताख्याति, रनित्याशुच्यनात्मसु । अविद्या तत्त्वधीविद्या, योगाचार्यैः प्रकीर्तिता ॥॥ यः पश्येनित्य मात्मान, मनित्यं परसंगमं ॥ छलं लब्धुं न शक्नोति, तस्य मोहमलिम्लुचः ॥२॥ तरंग तरलां लक्ष्मी, मायुर्वायुवदस्थिरम् ॥ अदभ्रधारनुध्याये, भ्रवद् भंगुरं वपुः॥३॥ शुचीन्यायशुचीकर्तु, समर्थेऽशुची संभवे ॥ देहे जलादिना शौच, प्रमो मुढस्य दारुणः ॥४॥ यः स्नात्वा समता कुंडे, हित्वा कश्मलज मलम् ।। पुनर्न याति मालिन्यं सोऽन्तरात्मा परः शुचिः॥५॥ आत्मबोधोनवः पाशो, देह गेह धनादिषु ॥ . यः क्षिप्तोप्यात्मना तेषु, स्वस्य बंधाय जायते ॥६॥ मिथो युक्तपदार्थाना, मसंक्रमचमक्रिया ॥ चिन्मात्र परिणामेन, विदुषैवानुभूयते ॥ ७॥
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जैनहितोपदेश भाग ३ जो...
अविद्या तिमिरध्वंसे, दृशा विद्याजन स्पृशा || पश्यन्ति परमात्मानमात्मन्येव हि योगिनः ॥ ८॥
५७
॥ रहस्यार्थ ॥
१. अनित्य, अशुचि, अने अनात्मिक परवस्तुने नित्य पवित्र अने पोतानी लेखनी ए अविद्यातुं लक्षण छे, अने वस्तुने वस्तुगत - - यथार्थ जेवा रुपमां होय तेवा रूपमा बराबर समजवी ए विद्यानुं लक्षण छे; एम योगाचार्योए शास्त्रमां कहां छे.
२. आत्मा नित्य अविनाशी छे, तेनी कदापि नास्ति थतीज नथी. सदा सर्वदा तेनी अस्तिता छे, अने आ आत्माने थतो पर संयोग विनाशशील छे, तेनो तो अवश्य वियोग थवानोज छे, एवो जेने निश्चय थयो छे तेने मोह चोरटो छली शकतो नथी. सद्विद्या संपन्न - आत्मा मोहनोज जय करी अखंड सुख साधी शके छे. पण सविधा विहीनने तो मोह चोरटो सदा संताप्याज करे छे. माटे मोक्षार्थीए सद्विधा संपन्न थवा सर्वदा सदुयम सेववो.
३. निर्मल बुद्धिवालो आत्मा लक्ष्मीने जलतरंगनी जेवी चपल लेखे छे, आयुष्यने वायुनी जेवुं अधीर लेखे छे, अने शरीरने शरदना मेघनी जेतुं क्षणभंगुर लेखे छे. एवी अथीर परवस्तुओमां विवेकवान मुझातो नथी.
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नैनहितोपदेव भाग ३ नो. इच्छन्न परमान भावान्, विवेकाः पतत्यधः॥ परमं भावमन्विच्छन् , नाविवेके निमजति ॥६॥ आत्मन्येवात्मनः कुर्यात् , यः षट्कारक संगतिम् ॥ क्वाविवेकज्वरस्यास्य, वैषम्यं जड मजनात् ॥७॥ संयमास्त्रं विवेकेन, शाणेनोत्तेजितं भुनेः॥ धृतिधारोल्वणं कर्म, शत्रुच्छेद क्षमं भवेत् ॥ ८॥
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॥ रहस्यार्थ ॥ . . १. क्षीरनीरनी पेरे सर्वदा एक मेक मलीने रहेला, कर्म अने जीवने जे व्यक्तपणे जूदा करी नांखे छे ते मुनि-इंस विवेकवान् ग'णाय छे. सद्विवेक जाग्या विना अनादि अनंत कालथी संयुक्त थइ रहेला कर्म अने जीवने कोई कदापि स्पष्ट रीते जूदा. करी शकेज नहिं. तेम करवाने सद्विवेकनी आवश्यकता रहेज़ छे.
२...देहज आत्मा छे अथवा आत्मा देहथी जूदो नथी एवं अविवेक तो जन्म जन्ममा अविद्याना वशथी सुलभज छे. पण आ देह आत्माथी खास जदोज छे,. 'केमके देह तो विनाशी छे अने भात्मा अविनाश्री छे, देह तो जड ले अने आत्मा सचेतन-चैतन्य
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मैनहितोपदेश भाग ३ जोः युक्तछे, एवो विवेक कोटिगमे भवोमा भाग्य योगेज थइ शकेछे. भविद्यानो नाशथये छते सद्विवेक जागी शकछे. ॥
३. शुद्ध-निर्मल आकाशमां पण चक्षु विकारंथी जेम रातुं पीलं देखायछे, तेम अविवेकथी आत्मामा विविध विकारो प्रतिभासेछे. आत्मा आकाशवत निरंजन छतां उपाधि संबंधथी मलीन-विकारी भासेछे, सर्व उपाधि-संबंध दूरथये छते आत्मा सहज स्वभावर्मा स्थित थइ रहेछे, निर्मल निष्कषायज आत्मानों सहज स्वभावछे.' राग द्वेषादिक उपाधि दूरथवाथी स्फटिक रत्ननी स्वभाविक कांति जेवो निर्मल-आत्म धर्म प्रगट थइ जायछे. ॥. .
४, जोके राजाना योद्धाओ युद्ध करछे छतां राजाज- जीत्यो हार्यों कहेवायछे, तेम शुभाशुंभ- कमीज मुख. दुःख प्राप्त थायछे. छती आविवेकथी अमुक आत्माए अमुक उपर अनुग्रह या निग्रहकों कहेवायछे. कमनी विचित्रताथी फलनी विचित्रता थायछ। छता आकार्य माराथीथयु; मारा, विना आयुकाम बनी शकेज नहि,इंजे सर्व पालन करंछु, माराविना कोइ-पालंक- नथीज एवं कर्त त्व अभिमान कर ए केवल अविवेकनुंज जोरछे, मुविवेकी पुरुषोएवं मिथ्याभिमान कदापि करताज नयी तेवा प्राज्ञ पुरुषो तो सर्वमा साक्षी पणुंज सेवेछ । ५. जेम-धतूरो पीने गांडो-वयेको-आदमी सर्वत्र सोनन देखे
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५६ श्री जैनहितोपदेश भाग ३.जो.
॥ १४ ॥ विद्याष्टकम् ।। नित्य शुच्यात्मताख्याति, रनित्याशुच्यनात्मसु । अविद्या तत्त्वधीविद्या, योगाचार्यैः प्रकीर्तिता ॥ यः पश्येनित्य मात्मान, मनित्यं परसंगमं ॥ छठं लधुं न शक्नोति, तस्य मोहमलिम्लुचः ॥२॥ तरंग तरलां लक्ष्मी, मायुर्वायुवदस्थिरम् ॥ अदभ्रधारनुध्याये, भ्रवद् भंगुरं वपुः ॥३॥ शुचीन्यप्यशुचीकर्नु, समर्थे शुची संभवे ॥ देहे जलादिना शौच, प्रमो मुढस्य दारुणः ॥ यः स्नात्वा समता को माया . जाय छ, एम समजीने सुविवेकी जनो परवस्तुओमा आसक्ति धारता नथी.
७. विद्वान् पुरुष ज्ञान चक्षुथी सर्व पदार्थने स्वस्वभावमांज रहेता देखे छे. संयुक्त वस्तुनो वियोग थाय छे, पण कोइ वस्तु पोतानो मूल स्वभाव तजी देती नथी, एम ज्ञानी पुरुषो साक्षात् अनुभवी पोते स्वस्वभावमांज स्थित रहे छे. रागद्वेषने तजी सर्वत्र समभावधीज अनुवर्तन करनाराज विद्वान् गणाय छे.
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जैनहितोपदेश भाग ३ जो... अविद्या तिमिरध्वंसे, दृशा विद्याजन स्पृशा ॥ पश्यन्ति परमात्मान, मात्मन्येव हि योगिनः॥८॥
॥ रहस्यार्थ ॥ १. अनित्य, अशुचि, अने अनात्मिक परवस्तुने नित्य पवित्र अने पोतानी लेखपी ए अविद्या लक्षण छे, अने वस्तुने वस्तुगत-यथार्थ जेवा रुपमां होय तेवा रूपमां वरावर समजवी -ए विद्यार्नु लक्षण छे; एम योगाचार्योए शास्त्रमा कयुं छे.
२. आत्मा नित्य अविनाशी छे, तेनी कदापि नास्ति थतीज नथी. सदा सर्वदा तेनी अस्तिता छे, अने आ आत्माने थतो पर संयोग विनाशशील छे, तेनो तो अवश्य वियोग थवानोज छे. एवो जेने निश्चय थयो.छे तेने मोह चोरटो छली शकतो नथी. सद्विचा शुद्धे जपे व्याग्नेि तिमेरी, देखाभिमिश्रतापले छे. पण विका मिश्रता भाति, तथात्मन्य विवेकतः॥३॥ नदे यथा योधैः कृतं युद्धं, स्वामिन्येवोपचर्यते ॥ शुद्धात्मन्य विवेकेन, कर्म स्कंधो ऽर्जितं तथा ॥४॥ इष्टकाद्यपि हि स्वर्ण, पीतोन्मत्तो यथेक्षते ॥ आत्माभेदभ्रमस्तद्ध, देहादावविवेकिनः ॥५॥
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नैनहितोपदेश भाग ३.नो. इच्छन्न परमान भावान्, विवेकाः पतत्यधः॥ परमं भावमन्विच्छन् , नाविवेके निमजति ॥६॥ आत्मन्येवात्मनः कुर्यात् , यः षट्कारक संगतिम् ॥ क्वाविवेकज्वरस्यास्य, वैषम्यं जड मजनात् ॥णा संयमानं विवेकेन, शाणेनोत्तेजितं मुनेः॥ धृतिधारोल्वणं कर्म, शत्रुच्छेद क्षमं भवेत् ॥ ८॥
॥ रहस्यार्थ ॥ १. क्षीरनीरनी पेरे सर्वदा एक मेक मलीने रहेला, कर्म अने जीवने जे व्यक्तपणे जूदा करी नांखे छे. ते मुनि-हंस विवेकवान् ग'णाय छे. सद्विवेक जाग्या विना अनादि अनंत कालथी संयुक्त थइ , रहेला कर्म अने जीवने कोइ कदापि स्पष्ट रीते जूदा करी शकेज नहिं तेम करवाने सद्विवेकनी आवश्यकता रहेज़ छे. ____२. देहज आत्मा छे अथवा आत्मा देहथी जूदों नथी एंवो अविवेक तो जन्म जन्ममा अविद्याना वशथी सुलभज छे. पण आ देह आत्माथी खास जदोज छे, केमके देह तो विनाशी छे अने भात्मा अविनाशी छे, देह तो जब छे अने आत्मा सचेतन-चतन्य
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मैनहितोपदेश भाग ३ जो. युक्तछे, एवो विवेक कोटिगमै भवोमा भाग्य योगेज थइ शकछे. अविद्यानो नाशथये छते सद्विवेक जागी शकेछ.॥
३. शुद्ध-निर्मल आकाशमां पण चक्षु विकारथी जेम रातुं पील देखायछे, तेम अविवेकथी आत्मामा विविध विकारो प्रतिभासेछे. आत्मा आकाशवत निरंजन छतां उपाधि संबंधथी मलीन- विकारी भासेछे, सर्व उपाधि-संबंध दूरथये छते आत्मा सहज स्वभावमा स्थित थइ रहेछ, निर्मल निष्कषायज आत्मानों सहज स्वभावछे. राग द्वेषादिक उपाधि दूरथवाथी स्फटिक रत्ननी स्वभाविक कांति जेवों निर्मल आत्म धर्म प्रगट थइ जायछे. ॥. . . . .
४. जोके रोजाना योद्धाओ युद्ध करेछे छतां राजाज जीत्यो हार्यों कहेवायछे, तेम शुभाशुंभ कमथीज सुख- दुःख प्राप्त थायछे; छतां आविवेकथी अमुक आत्माए अमुक उपर अनुग्रह या निग्रहकों कहेवायछे. कर्मनी विचित्रेताथी :फलनी विचित्रता थायछे छतां आ कार्य माराथीथयु, मारा, विना आधु काम बनी शकज नहिं,' झुंज सर्व पालन करंछु। मोराविना कोइ-पालंक नथीज एवं क त्व अभिमान करवू ए केवल अविवेकनुंज जोरछे, अविवेकी पुरुषाए मिथ्याभिमान कदापि करताज नथी तेवा प्राज्ञ पुरुषो तो सर्वमा साक्षी पशुज सेवळे.॥ .. . . . .. , ... ... ५. जेम-धंतूरो पीने गांडो-बयेलो आदमी सर्वत्र सोतन देखे
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६४ जनहितोपदेश भाग ३ जो. समशीलं मनो यस्य, सं मध्यस्थो महायुनिः ॥३॥ स्व स्वकर्म कृतावेशाः, स्व स्वकर्म भुजो नराः॥ नराग नापि च दे, मध्यस्थ स्तषु गच्छति ॥४॥ मनः स्याद् व्यावृतं यावत्, परदोष गुण ग्रहे ॥ कार्य व्यग्रं वरं तावन्, मध्यस्थे नात्मभावने ॥५॥ विभिन्ना अपि पंथानः, समुद्र सरितामिव ॥ मध्यस्थानां परब्रह्म, प्राप्नुवन्त्येकमक्षयम् ॥ ६॥ स्वागमं राग मात्रेण, द्वेषमात्रात्परागमं ॥ न श्रयामस्त्यजामो वा, किंतु मध्यस्थया दृशा ॥णा मध्यस्थया दृशा सर्वे, ध्वपुनबंधकादिषु ॥ चारिसंजीवनी चार, न्यायादाशा स्महे हितं ॥ ८॥
॥ रहस्यार्थ ॥ १. मध्यस्थता आदरवाीज सद्विवेक प्राप्त थाय छे, अथवा. विवेकवंतज मध्यस्थता आदरे छे, माटे मध्यस्थ रहेवा शास्त्रकार उपदि . जेथी अपवाद पात्र य, न पडे एवी अंतरदृष्टियी मध्य
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
६५,
स्थता आदरवी युक्त छे. मध्यस्थता सेववाथी सवल युक्तिनो योग्य आदर करवामां आवे छे अने कुतर्क करवारूपी वाल चपलता दूर, करवानुं वने छे.
२. मध्यस्थ मनरुपी वाछरडुं युक्तिरूपी गौने अनुसरीने चाले छे. अर्थात् मध्यस्थ माणसने आपमतिनी खेचाखेंच होती नथी.. परंतु तुच्छ आग्रहीतुं मनरुपी मांकडूं तो युक्ति युक्त वातनुं पण खंडनज करवा तत्पर थइ जाय छे. ते केवल आपमति मुजव वातने खेंची जाय छे, तेथी साची वातने पण खोटी पाडवा प्रयत्न करवा. ते चुकतुं नथी. मध्यस्थ मन तो सत्यनेज सत्य तरीके स्वीकारे छे..
३. स्वइष्ट अर्थ साधवामां कुशल अने अन्य अर्थमां उदासीन. एवा सर्व नयोमा जे समभावे रहे छ, लगारे हठ ताण करताज नथी ते महामुनिने मध्यस्थ जाणवा. मध्यस्थ मुनि सर्व नय वचनोने सा पेक्षपणे विचारी स्वहित साधवामां तत्पर रहे छे.
४. सर्व कोइ पोतपोताना कर्मानुसारे चेष्टा करे छे अन ते. मुजब फल भोगवे छ तेमां मध्यस्थ राग के रोष करतोज नथी. सचत्र साक्षी भावे वर्तता स्वहित सुखे साधी शकाय छे. माटे सर्व अनुकूल या प्रतिकूल संयोगोमां राग द्वेष त्याने सर्वदा समभाव र-- . हेवा सावधान थर्बु युक्त छे.
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जैनहितोपदेव भाग है जो. चित्ते परिणतं यस्य, चारित्रमकुतोभयं ॥ . अखंडज्ञानराज्यस्य, तस्य साधोः कुतो भयं ॥ ८ ॥
॥ रहस्यार्थ ॥
१. जेने कोइनी कंइपण परवा नथी एवा एक सरखा उदासीन स्वभाववाळा महापुरुषने भय भ्रांति जन्य कष्ट परंपरा होयज केम? मध्यस्थ दृष्टि महापुरुष सदा निर्भय भयभ्रांतिथी मुक्तन रहे छे.
२. भारे भयथी भरेला संसार मुखथी शृं? तेथी सर्यु. भय अरेलु मुख ते दुःखरुपज छे. सर्वथा भय रहित सहज आत्मिक मुखज सुखरूप गणवा योग्य छे. आधि व्याधि अने उपाधि जन्य दुःखी भरेला संसारमा सुखमात्र नामनुंज छे. जन्म मरणथी मुक्त करे एवं खभाविक ज्ञान सुखज साचु छे.
३. सम्यग् ज्ञानवडे ज्ञेय-पदार्थने यथार्थ जोनार मुनिने भय राखवातुं प्रयोजन छे ? सहज सुखमा झीली रहेला मुनिने पुद्गलिक सुखनुं प्रयोजन नथी. पुद्गल उपरथी मूछो उठी जवाथी सहज निवृत्ति मुख संपजे छे,
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ४. निर्मल ज्ञानरुपी-शखने धारी, मोहनी फोजनो घात करनार मुनि संग्रामना मोखरे उभेला हाथीनी पेरे लगारे बीता नथी. तीक्ष्ण ज्ञान धारावडे सावधानपणे सकळ मोह सुभटोने विदारी नांखी शिवश्रीने संपादन करे छे.
५. जेना मनमा खरी ज्ञानकला जागी छे ते सदा भय रहित आनंदमां मस्त रहे छे, जे वनमा मयूरो विचरे छे त्यां भुजंगनो भय होयज केम ? ज्यां केसरी क्रीडा करतो होय त्यां गजनो प्रचार संभवेज केम ? ज्यां जळहळतो सूर्य उदय पाम्यो होय त्सां अंधकार रहेवा पामेज केम ? तत्त्व दृष्टि पण तेवीज प्रभाववाळी छे.
६. मोहास्त्रने निष्फल करवा समर्थ ज्ञान बख्तर जेणे धायु छे तेने कर्म संग्राममां भय के भंग होयज शानो ? तत्व दृष्टिने मोहनो भयज नथी. ते गमे तेवा सम या विषम संयोगोमांथी सावधानपणे पसार थइ जाय छे.
७. मोहथी मुंझायेला जीवो भयभीत थका भव अटवीमा भम्याज करे छे. मूढ जीवो भयभीत थका कंप्याज करे छे. परंतु प्रवल ज्ञानवंतनुं तो एक पण रुंवाईं कंपतुं नथी. ते तो निर्भयपणे स्वभाविक आत्म सुखमा मग्न रहे छे..
८. जेना चित्तमा निर्भय चारित्र परिणम्युं छे एवा अखंड
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ज्ञान तेजथी तपता साधु मुनिराजने शाथी भय संभवे ? शुद्ध चारित्रवंतने कशो भय नथी. शुद्ध चारित्र सर्व भयने दूर करी अखंड अनंत सुख साधी शके छे.
॥ १८ ॥ अनात्मशंसाष्टकम् ॥ गुणैर्यदि न पूर्णो ऽसि, कृतमात्म प्रशंसया ॥ गुणैरेवासि पुर्णश्चेत्, कृतमात्म प्रशंसया ॥१॥ श्रेयोद्रुमस्य मूलानि, स्वोत्कर्षांमः प्रवाहतः॥ पुण्यानि प्रकटी कुर्वन, फलं किं समवाप्स्यसि ॥२॥ आलंबिता हिताय स्युः, परैः स्वगुणरश्मयः ॥ अहो स्वयं गृहीतास्तु, पातयन्ति भवोदधौ ॥३॥ उच्चत्त्व दृष्टि दोषोत्थ, स्वोत्कर्षज्वर संज्ञिकं ॥ पूर्वपुरुष सिंहेभ्यो, भृशं नीचत्व भावनं ॥ ४ ॥ शरीररूप लावण्य, प्रामारामधनादिभिः॥ उत्कर्षः परपर्याय, श्चिदानन्द घनस्यकः ॥५॥ शुद्धाः प्रत्यात्म साम्येन, पर्यायाः परिभाविताः॥ अशुद्धाश्चा ऽपकृष्टत्वान्, नोत्कर्षाय महामुनेः॥ ६॥
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G
श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
क्षोभं गच्छन् समुद्रोऽपि, स्वोत्कर्षपवनेरितः ॥ गुणैौघान् बुदबुदी कृत्य, विनाशयसि किं मुधा ॥७॥ निरपेक्षानवच्छिन्ना, नंतचिन्मात्रमूर्तयः ॥ योगिनो गलितोत्कर्षा, प्रकर्षानल्पकल्पनाः ॥ ८ ॥
७.१
॥ रहस्यार्थ ॥
१. जो तुं गुणोथी पूर्ण नथी तो आत्म-प्रसंसा करवाथी सर्यु. तेमज जो तुं गुणथी पूर्ण छे तोपण आत्म-प्रशंसा करवानुं कंपण प्रयोजन नथी. केमके गुणहीनने खोटी आत्म प्रशंसाथी कंइ फायदो थतो नथी, तेमज संपूर्ण गुणवंतने कृत कृत्यपणाथी परस्पृहा नष्ट थइ जवाथी पोतानी प्रशंसा पोताना मुखे करवानुं कंइ पण प्रयोजन:रहेतुंज नथी.
२. जेम जलना प्रवल प्रवाहथी वृक्षनां मूलाडीयां उघाड पडी जवाथी तेने फल बेसतां नथी, तेम आत्म - उत्कर्षथी करेलां सुकृतोने प्रगट करी वखाणवाथी विशिष्ट
आत्म लाभ संपादन थइ
शकतो नथी.
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'७२
श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
३. आपणा गुणोनुं बीजा अवलंबन करे ते हितकारी थाय छे, __"पण जो पोताना गुण पोतेज गावा बेसे तो तेथी अधोगतिनी प्राप्ति ___ थाय छे. गुणग्राही जनोने गुणीना गुण गावा उचित अने हितकारी छ
'पण गुणी माणसे स्वमुखे खगुण गावा अनुचित अने अहितकारीज 'छे. माटे मोक्षार्थी जनोए सदा गुणग्राही थवा साथे आत्मश्लाघाना समूळगो त्याग करवो उचित छे. स्वश्लाघार्था प्राणी लघुतानेज पामे छे.
४. आपगामा अन्य करता अधिकता मानवारुपी दोषथी उत्पन्न थयेला स्वाभिमानरूपी ज्वरने शान्त करवानो उत्तम उपाय एछे के आपणे पूर्व पुरुष सिंहोथी लघुता भाववी. पूर्व पुरुष सिंझोना पवित्र चरित्रने सारी रीते संभारी याद लावतां आपणुं गुमान आपोआप गळी जाय छे.
५. शरीर, रुप, लावण्य, ग्राम, आराम, अने धन विगेरे पर पर्यायोवडे व उत्कर्ष मानवो आत्मानंदी जीवने बिलकुल उचित नथी. तेवी वस्तु वडे तो केवळ पुद्गलानंदी जीवोज गर्व करे छे, पण आत्मानंदी करता नथी.
६. ज्ञानादिक शुद्ध पर्यायो पण प्रत्येक आत्माने सरीखा हो। __ चायी अने शरीर विगेरे अशुद्ध पर्यायो अपकृष्ट ( नजीवा) होवार्थी
ते वडे महामुनिने खोकर्ष करवो लायक नथी. शुद्ध पोयोवडे
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. पण गर्व करवो युक्त नथी तो नजीवा शरीररुप लावण्यादिक अशुद्ध पर्यायोवडे तो गर्व करवोज केम घटे?
७. गुरु महाराज शिष्यने उपदेशेछे के भाइ तुं दीक्षित छर्ता खोत्कर्ष वडे संयमनो क्षोभ करीने गुण रत्नोनो व्यर्थ विनाश शा माटे करे छे ? गमे तेटला गुणने पामेलो संयमी स्वगुणनो गर्व करबाथी हानिज पामे छे.
८. स्पृहा रहित अने अखंड अनंत ज्ञाननाज नमुनारूप योगी जनो स्व उत्कर्ष अने पर अपकर्ष संबंधी सर्व कल्पनाओथी मुक्तज रहे छे. स्व स्वरूपमां स्थित योगीजनो केवल निःस्पृह होवाथी
आप वडाइ के परनिन्दा करताज नथी. तेओ तो परम सुखमय निवृत्ति मार्गज पसंद करे छे, पर परिणतिरूप कुत्सित प्रवृत्ति तेमने असंद पडतीज नथी.
॥ १९ ॥ तत्त्वदृष्टयष्टकम् ॥ रूपे रूपवती दृष्टि, दृष्ट्वा रूपं निमुह्यति ।। मज्जत्यात्मनि नीरुपे, तत्त्वदृष्टिस्वरूपीणी ॥१॥ भ्रमवाटी बहिर्दृष्टि, भ्रमच्छाया तदीक्षणं ।।
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७४ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ ज़ो. अभ्रान्तस्तत्त्वदृष्टिस्तु, नास्यां शेते सुखाशया॥ २॥ प्रामारामादि मोहाय, यदृष्टं बाह्ययादृशा ॥ तत्त्वदृष्ट्या तदेवांत, नीतं वैराग्य संपदे ॥३॥ बाह्यदृष्टिः सुधा सार, घटिता भाति सुंदरी ॥ तत्त्वदृष्टेस्तु सा साक्षा, द्विण्मूत्रपिठरोदरी ॥ ४ ॥ लावण्य लहरी पुण्यं, वपुःपश्यति बाह्यदृक् ॥ तत्त्वदृष्टिः श्वकाकानां, भक्ष्यं कृमिकुलाकुलं ॥५॥ गजाश्वैर्भूपभवन, विस्मयाय बहिर्दशः॥ तत्राश्वेभवनात्कोअपि, भेदस्तत्त्वदृशस्तुन ॥ ६ ॥ भस्मना केशलोचेन, वपु धृतमलेन वा ॥ महान्तं बाह्यग्वेत्ति, चितसाम्राज्येन तत्त्ववित् ॥७॥ न विकाराय विश्वस्यो, पकारायैवनिर्मिताः ॥ स्फुरत्कारुण्यपीयूष, वृष्टयस्तत्त्व दृष्टयः ॥ ८॥
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जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
· ॥ रहस्यार्थ ॥ १. बाह्यदृष्टि जीव पुद्गलिक रूप जोइने मुंझाय छे-मूढ बनी जाय छे, पण अरुपी एवी तत्त्व दृष्टि तो निर्मल निराकार आत्म स्वरूपमांज मन थइ रहेछ, वाह्यदृष्टि बहार दोडे छे. अने अंतरदृष्टि स्वभावमा रमे छे. ___ २. वाह्यदृष्टि ए भ्रमनी वाडी छे अने बाह्यदृष्टिथी जोवु ए भ्रमनी छाया छे. तेमां भ्रांति रहित तत्त्वदृष्टि तो सुखनी आशाथी सूतो नथी. पण पुद्गलानंदी-बाह्यदृष्टि जरूर तेमां सुख बुद्धिथी विश्रांति करे छे.
३. गाम, आराम आदि बाह्यदृष्टिथी जोतां जरुर जीवने मोह उपजावे छे, पण तत्त्वदृष्टिथी जोता तो ते वैराग्यरसनी वृद्धि माटेज थाय छे. वाह्यद्यष्टि जीव मधनी मांखीनी जेम तेमां मुंझाइ मरे छ, पण तत्त्वदृष्टि तो साकरनी मांखीनी पेरे मिष्ट स्वाद लइ तेमांथी सुखे मुक्त थइ शके छे. तत्त्वदृष्टिपणुं जागतां चक्रवर्ती पोते पोतानी सकल समृद्धिने सहजमां तजी दइ संयमनो स्वीकार करे छे. परंतु मूढ दृष्टि एवो भीखारी पोतार्नु रामपात्र पण त्यजी शकतो नथी, ए सर्व मोहनोज महिमा छे.
४. वाह्यदृष्टि जीव, मुंदरी (स्त्री) ने अमृतना निचोलथी घ
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७६ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. डेली माने छे, पण तत्त्वदृष्टि तो तेणीने विष्टा मूत्रादिक अशुचियुक्त देहवालीज माने छे. बाह्यदृष्टि कोइ सुंदर स्त्रीने देखी तेणीना रूपलावण्यमां मुंझाइ तेमां पतंगनी पेरे झंपलाय छे, पण तत्त्वदृष्टि तो तेणीने अशुचिमय समजीने तेथी तदन दूरज रहेवा इच्छेछे. तत्त्वष्टि विषय सुखने विष समानज लेखे छे.
५. बाबदृष्टि जीव शरीरने लावण्य लहरीथी पवित्र माने छे, पण तत्त्वदृष्टि तो नाना प्रकारना करमीयां विगेरेथी भरपूर देहने फक्त कागडा कूतरावडे भक्षण करवा योग्यज माने छे. तेने बाह्यहष्टिनी पेरे क्षणिक, अशुचिं अने भौतिक देह प्रपंचमां मुंझाइ स्वतव्य विमुख थवान होतुं नथी. ते तो क्षण विनाशी देह द्वारा बनी शके तेटलुं स्वहित साधी लेवा सावधान थइ रहे छे पण विनाशी देहनो विश्वास करतोज नथी.
६. बाह्यदृष्टि जीव राजाना महेलमां हाथी घोडानी साहेवी जोइ चकित थइ जाय छे, परंतु तत्त्वदृष्टिने तो तेमां हाथी घोडाना वनथी कंइ विशेष लागतुं नथी. तेने तो तेवो महेल अने तेवू वन , समानज लागे छे.
७. वाबदृष्टि जीव, भस्म लगाववाथी, केशनो लोच करवाथी अने मलमलीन देह राखवाथी कोइने महंत माने छे. पण तत्त्वदृष्टि । । तो तेनी अंतर समृद्धिथीज तेने तेवो लेखे छे. तत्त्वदृष्टि आत्मा
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मैनहितोपदेश भाग ३ जो. , बाघदृष्टिनी पेरे उपरना डोलडिमाक मात्रथी कोइने मोटो मानी लेता
नथी. तेतो तेना सद्भुत गुणोनी सारी रीते परीक्षा करीनेज तेम माने छे.
८. अत्यंत करुणारुपी अमृतने वर्षनारा तत्त्वदृष्टि पुरुषो विश्वना तिलमात्र अहितने माटे नहिं, किंतु केवळ उपकारने माटेज निमर्माण थयेला छे तत्वदृष्टि महापुरुषोनो जन्म लोकना अभ्युदय माटे ज थाय छे. तेओ परमार्थथी अंघलोकोने, आंखो आपीने उद्धरेछे. तेओ परमार्थ पंथ वतावीने अवळे रस्ते चढलाओने सवले रस्ते दोरे छे, तेओज अनाथना नाथ अने अशरणना शरण छे. तेओज विश्वना खरा मित्र, बंधु के पिता छे, अने तेथीज सदा सुखना अर्थी जनोवडे अवलंववा योग्य छे. तेवा निःस्वार्थ मित्र विना वि. श्वनो कदापि उद्धार थवानोज नथी. ज्यारे त्यारे तेवा निष्कारण बंधु मळ्येज मुक्ति मळवानी छे तेथी मोक्षार्थी जनोए तेवा जगत् बंधुनीज जपमाळा गणवी योग्य छे. तेवा परोपकारी पितानी सेवा
साचा दिलथी करनारा साधक पुरुषोनी सिदि ज्यां त्यां मुखेथी ' थइ शके छे, माटे तेज करवा योग्य छे.
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जैनहितीपर्देर्श भाग ३ जो. ॥ २० ॥ सर्व संमृद्धि अष्टकम् ।। बाह्यदृष्टि प्रचारेषु, मुद्रितेषु महात्मनः॥ अंतरेवावभासन्ते, स्फुटाः सर्वास्समृद्धयः ॥ १ ॥ समाधि नंदनं धैर्य, दंभोलिः समता शची। ज्ञानं महा विमानं च वासवश्रीरियं मुनेः ॥ २ ॥ विस्तारित क्रिया ज्ञान, चर्म छत्री निवारयन् ॥ मोहम्लेच्छ महावृष्टिं, चक्रवर्ती न किं मुनिः ॥ ३ ॥ नवब्रह्मसुधाकुंड, निष्ठाधिष्ठायको मुनिः॥ नागलोकेशवद् भाति, क्षमां रक्षन प्रयत्नतः॥४॥ मुनिरध्यात्म कैलाशे, विवेक वृषभ स्थितः ॥ शोभते विरतिज्ञप्ति, गंगागौरियुतः शिवः ॥ ५॥ ज्ञानदर्शनचंद्रार्क, नेत्रस्य नरकच्छिदः॥ .. सुखसागर ममस्य, किं न्यूनं योगिनो हरेः ॥ ६ ॥ या सृष्टिब्रह्मणो बाह्या, बाह्यापेक्षावलंबिनी ।। मुनेः परान पेक्षांत, गुणसृष्टि स्ततो ऽधिका ||
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. स्नै स्त्रिंभिः पवित्रा या, श्रोतोभि खि जान्हवी ।। सिद्धयोगस्य साप्यरीत्, पदवी न दवीयसी ॥८॥
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॥ रहस्यार्थ ।।
वाहरष्टिपणानो दोष नष्ट थये छते महात्मा पुरुषने अंतरमांज सर्व समृद्धि स्फुटतर भासे छे. आम वनवाथी तत्वदृष्टिपणुं अधिकाधिक निर्मल थतुं जाय छे निर्मल तत्त्वदृष्टिना योगे सकल समृद्धि सहज घटमां प्रगटे छे. जेथी सहजानन्द युक्त थवाथी विषयासक्ति विगेरे विकारो स्वतः विनाश पामे छे. अने निर्मल ज्ञानादि सद्गुणो पूर्ण रीते प्रगटे छे.
२. समाधिरुपी नंदनवन, धैर्यरुपी वन, समतारुपी इंद्राणी, अने ज्ञानरूपी विशाल विमान, एवी इंद्रनी साहेवी मुनिने घटमांज प्रगटे छे. तत्त्वदृष्टि निर्मथ मुनिराजने इंद्रथी अधिक साहेवी अंतरमां प्रगटे छे.
३. विशाल ज्ञान अने क्रियारुपी चर्मरत्न अने छत्ररत्नथी मोहरुपी म्लेच्छ राजानी महावृष्टिने निवारता मुनिरान चक्रवर्तीनी बरोवरी को छे. निर्मल ज्ञान दर्शन अने चारित्ररूपी रत्नत्रयी आ
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जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
राधक मुनिराज कोइ रीते चक्रवतींथी न्यून नथीज, किंतु अधिकज छे,
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४. नवनवा ज्ञानामृतना कुंडमां मग्न रहो प्रयत्नथी क्षमानुं पालन करनारा मुनि, पृथ्वीतुं पालन करनारा नागेंद्रनी पेरे शोभे छे. अध्यात्म ज्ञानरूपी अमृतना कुंडमांज मग्न रही सहज शांतिने साक्षात् अनुभवनारा क्षमाश्रमणो आत्मगुणथी नागेंद्र करतां अधिक शोभे छे.
अध्यात्मरुपी कैलाशमां विवेकरुपी वृषभ उपर आरुढ थयेला मुनिज्ञप्ति (ज्ञान) अने निवृत्ति ( चारित्र ) युक्त होवाथी गंगा अने गौरी युक्त शिव-शंकरनी पेरे शोभे छे. तत्त्वथी जोतां अध्यात्म गिरिना उच्च शिखर उपर रहेला अने सद्विवेक नृपभ उपर स्वार थइ सम्यग् ज्ञानक्रियाने समताथी सेवनारा निग्रंथ अणगारो सदगुणोमां कोइ रीते शिव-शंकरथी उतरता नथी.
६. ज्ञान अने दर्शनरूपी चंद्र अने सूर्य जेवां निर्मल नेत्रोवाला, नरकने छेदवावाला अने सुखसागरमां शयन करनारा मुनिराज कोइ रोते हरिथी न्युन नथी. परमार्थथी विष्णु करतां वधारे समृद्ध छें
७. परस्पृहारहित सहज अंतरगुण सृष्टिने करनारा मुनिराज बाह्य वस्तुओनी अपेक्षावाली बाह्य सृष्टिने रचनार ब्रह्मा करतां बहु चदि
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जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ___ याता छे. निःस्पृहपणे आत्म गुणोनेज प्रगट करनारा मुनियो उपाधि
युक्त वाह्य सृष्टिना करनारां ब्रह्माने सद्गुणोथी उल्लंघी जाय एमा: आश्चर्य शुं ? निरुपाधिक गुणसृष्टि करवी एज मुनिनुं कर्तव्य छे.
८. जेम त्रिवेणीथी गंगा नदी पवित्र मनाय छे, तेम रत्नत्र-- यीथी पवित्र गणाती श्री तीर्थकरनी पद्वी पण सिद्धयोगी महापुरुष : मुनिराजने कंइ दुर्लभ नथी. जेणे मन वचन अने कायाने वरावर . नियममा राखी योग साधना करी छे एवा सिद्धयोगी महापुरुषने ; तीर्थकर महाराजनी परम पवित्र पद्वी पामची पण मुलभज छे.
॥२१॥ कर्मविपाक ध्यानाष्टकम् ।। दुःखं प्राप्य न दीनः स्यात् , सुखं प्राप्य च विस्मिता मुनिः कर्म विपाकस्य, जानन परवशं जगत् ॥१॥ येषां भ्रूभंग मात्रेण, भज्यन्ते पर्वता अपि ॥ तैरहो कर्म वैषम्ये, भूपैभिक्षा ऽपि नाप्यते ॥२॥ जाति चातुर्य हीनो अपि, कर्मण्यभ्युदया वहे ॥ क्षणाद्रको ऽपि राजा स्या, च्छत्रच्छन्नादिगंतरः ॥३॥
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८२ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. विषमा कर्मणः सृष्टि, दृष्टा करमपृष्ठवत् ।। जात्यादि भूति वैषम्या, का रतिं स्तंत्र योगिनः॥४॥ आरूढा प्रशमश्रेणिं, श्रुत केवलिनो ऽपि च ।। भ्राम्यन्ते ऽनन्त संसार, महो दुष्टेन कर्मणा ॥५॥ अर्वाक् सर्वापि सामग्री, श्रांतेव परितिष्ठति ॥ विपाकः कर्मणः कार्य, पर्यंत मनुधावति ॥ ६ ॥
असाव चरमावर्ते, धर्म हरति पश्यतः ॥ 'चरमावर्ति साधोस्तु, छलमन्विष्य हृष्यति ॥७॥ साम्यं बिभर्ति यः कर्म, विपाकं हृदि चिंतयन् ॥ स एव स्याचिदानन्द, मकरन्द मधुव्रतः ॥८॥
॥ रहस्यार्थ ॥ १. सर्वे जगनुओ उदित वर्माऽनुसारेज सुख दुःख पामे छे "एबुं समजनारा मुनि दुःखने पामीन दीन थता नयी तेम सुखने पामीने चकित थता नथी. मुनि समजे छ के जगत मात्र कर्म विषाकने परवश छे.
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जैनहितोपदेश भाग ३ जो. याता छे. निःस्पृहपणे आत्म गुणोनेज प्रगट करनारा मुनियो उपाधि युक्त बाह्य सृष्टिना करनारा ब्रह्माने सद्गुणोथी उल्लंघी जाय एमा: आश्चर्य शुं ? निरुपाधिक गुणसृष्टि करवी एज मुनिनुं कर्तव्य छे.'
८. जेम त्रिवेणीथी गंगा नदी पवित्र मनाय छे, तेम रत्नत्र- . यीथी पवित्र गणाती श्री तीर्थकरनी पद्वी पण सिद्धयोगी महापुरुष : मुनिराजने कइ दुर्लभ नथी. जेणे मन वचन अने कायाने बरावर नियममा राखी योग साधना करी छे एवा सिद्धयोगी महापुरुपन्छे . तीर्थकर महाराजनी परम पवित्र पद्वी पामवी पण मुलभज छे.
॥२१॥ कर्मविपाक ध्यानाष्टकम् ॥ दुःखं प्राप्य न दीनः स्यात् , सुखं प्राप्य च विस्मितः। मुनिः कर्म विपाकस्य, जानन् परवशं जगत् ॥१॥ येषां भ्रूभंग मात्रेण, भज्यन्ते पर्वता अपि । तैरहो कर्म वैषम्ये, भूपैभिक्षा ऽपि नाप्यते ॥२॥ मना जाति चातुर्य हीनो ऽपि, कर्मण्यभ्युदया वहे ॥ ॥ समः क्षणाद्रको ऽपि राजा स्या, च्छत्रच्छन्नदिगंतरः ॥३॥णार
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८२ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. विषमा कर्मणः सृष्टि, ईष्या करमपृष्ठवत् ॥ जात्यादि भूति वैषम्या, का रति स्तत्र योगिनः॥४॥ आरूढा प्रशमश्रेणिं, श्रुत केवलिनो पि च ॥ भ्राम्यन्ते ऽनन्त संसार, महो दुष्टेन कर्मणा ॥५॥ अर्वाक् सर्वापि सामग्री, श्रांतेव परितिष्ठति ॥ विपाकः कर्मणः कार्य, पर्यंत मनुधावति ॥६॥ असाव चरमावर्ते, धर्म हरति पश्यतः ॥ चरमावर्ति साधोस्तु, छलमन्विष्य हृष्यति ।। ७ ॥ •साम्यं बिभर्ति यः कर्म, विपाकं हृदि चिंतयन् ।। स एव स्याचिदानन्द, मकरन्द मधुव्रतः ॥८॥
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॥ रहस्यार्थ ॥ सर्वे जगनुओ उदित वर्माऽनुसारेज सुख दुःख पामे छे जामीजनारा मुनि दुःखने पामीन दीन थता नयी तेम सुखने कनेकित थता नयी. मुनि समजे छ के जगत मात्र कर्म विषा
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. २. जेमनी भृकुटी फरतां पर्वतोनो पण भुको थइ जाय एवा भूपोने विषमकर्म योगे भिक्षा सरखी पण मलती नथी. दैव विपरीत छते मोटा भूपालने पण पेट भरवाने फोफां मारवां पडे छे.
३. उत्तमजाति अने चतुराइ रहित छतां अत्यंत अनुकूल कर्म योगे क्षणवारंमां रांक पण एक छत्र राज्य पामे छे. प्रवल पुन्यनो उदय थये छते भीखारी जेवो माणस पण विशाल राज्यवालो राजा थइ पडे छे.
४. कर्मनी रचना उंटना वरडानी जेवी वांकीज छे केमके, जातिकुल, बुद्धि, बल, ऐश्वर्य प्रमुखमां प्रगट विषमता देखाय छे, सर्व कोइने ते एक सरखा होतां नथी. पूर्वकृत कर्मअनुसारे ते सारा नरलां के वधारे घटाडे होइ शके छे. कर्मनी विचित्रता प्रमाणे फल. नी विचित्रता समजनारा मुनिजनाने तेवी विषम स्थितिमां रतिप्रीति होवी घटे नहिं, तेमने प्राप्त सुख दुःखमा समभावज राखवो युक्त छे.
५. अहो ! अति आश्चर्यनी वात छे के उपशमश्रेणि उपर आरूह थयेला श्रुतकेवळी (चौद पूर्वधर ) मुनियो पण दुष्ट कर्मना योगे पतित थइने अनंत संसार परिभ्रमण करे छे. ज्यारे आवा समर्थ पुरुषोने पण कर्मविपाक छळे छे तो बीजा सामान्य माणसार्नु
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
तो शुं कहेतुं ? दुष्ट कर्मनी प्रबलता पासे प्राणीओनुं कंड पण चालतं नथी.
६. आत्म साधकनी सकल सामग्री कार्यसिद्धि थयां पहेलांज थाकी गइ होय ते अटकी पडे छे. पण कर्म - विपाक तो स्वकार्य पर्यंत कर्मकारक अनुसर्या करे छे. ते तो तेनुं शुभाशुभ फल तेना करनारने चखाडया विना विरमतोज नथी. कर्मना प्रबल वेगने कोइ रोकी शकतुं नथी. कर्मनो विपाक पोतानी पूर्ण सत्ता कर्मना करनारनी उपर बजावे छे. कायर पुरुष तेनी पासे फावी शकतो नथी. समर्थ साधक तो रागद्वेष कर्मनी जड काढी सकल कर्मनुं मूलथीज निकंदन करे छे.
७. आ कर्म - विपाक दीर्घ संसारी जीवना धर्मने जोतां जोतांमां हरी लेछे अने परित्त संसारी साधुनुं तो छल जोइने भारे खुशी थाय छे. कर्मने कई शरम नथी ते वात अक्षरे अक्षर साची छे. ते परम पवित्र धर्म महाराज साथे पण पूर्ण वैर राखे छे, धर्मराजानुं शरण लेनार साथै पोतानुं पैर शोधतोज फरे छे, अने लाग फावे तो वैर वाळवानुं चूकतो नथी. गमे तेटली आत्म उन्नतिने पामेलाने पण स्व साध्यथी चूकावी नीचे गबडावी पाडे छे, आवा दृष्ट कर्मविपाकथी वेगला रहेवा इच्छनारे तेनी रागद्वेषरुपी माठी जड खोदी काढवी जोइये. रागद्वेपनो समूलगो नाश करवाथी मोहनो सर्वथा
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ८५ क्षय थाय छे, अने मोइनो क्षय थवाथी सकल कर्म वर्गनो स्वतः क्षय थइ जाय छे.
८. कर्मना विपाकने हृदयमां चिंतवतो छतो जे सम विषम स्थितिमा समभावज राखे छे-तेवे वखते जे हर्ष विषाद पामतो नथी, तेज महापुरुप ज्ञानामृतनो रस चाखवा समर्थ थइ शके छे. तेवा समर्थ पुरुष सिंहज सहजानंद मग्न थइ अंते अखंड शास्वत सुखना भागी थइ शके छे.
॥२२॥ भव-उद्धेगाष्टकम् ।। यस्य गंभीर मध्यस्या, ज्ञानं वज्रमयं तलं ।। रुद्धा व्यशनशैलौघैः, पंथानो यत्र दुर्गमाः॥१॥ पाताल कलशा यत्र, भृतास्तृष्णा महानिलैः ॥ कषायाश्चित्त संकल्प, वेला वृद्धिं वितन्वते ॥२॥ स्मरौर्वामिज्वलत्यंत, यंत्र स्नेहेन्धनः सदा ॥ यो घोर रोगशोकादि, मत्स्यकच्छप संकुलः ॥३॥ दुर्बुद्धि मत्सरद्रोहै, विद्युदुर्वात गर्जितैः ॥ यत्र सां यात्रिका लोकाः, पतन्त्युत्पात संकटे ॥४॥
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८६ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ज्ञानी तस्माद् भवांभोधे, नित्योदिनो ऽति दारुणात् ॥ तस्य संतरणोपायं, सर्वयत्नेन कांक्षति ॥ ५॥ तैल पात्रधरो यद, द्राधावेधोद्यतो यथा ॥ क्रिया खनन्य चित्तःस्या, द्भवभीत स्तथा मुनिः ॥६॥ विषं विषस्य वन्हेश्च, वन्हिरेव यदौषधं ॥ तत्सत्यं भवभीताना, मुपसर्गेऽपि यत्नभीः ॥७॥ स्थैर्य भवभयादेव, व्यवहारे मुनित्रजेत् ।। स्वात्माराम समाधौ तु, तदप्यंतर्निमज्जति ॥ ८॥ .
॥ रहस्यार्थ ॥ १. कर्म विपाकने सम्यक् चितवतो मुनि भवथी उद्विग्न-उदासी थयो छतो जेने तरी पार जवा प्रतिदिन प्रयत्न कर्या करे छे ते ज भव समुद्रनुं स्वरूप कहे छे.-जेनो मध्य भाग बहु उंडो छे. जन्म मरणादिक जन्य अनंत दुःखरूप जल राशिथी अथाग भरेलो, छे, जेनुं अज्ञान रूप वज्रमय तटुं छे-अज्ञान अविवेक या मिथ्या भ्रमना आधारेज संसारनी स्थिति रहेली छे अज्ञानना जोरथीज चार गति या ८४ लक्ष जीवायोनिमा पुनः पुनः अवतरवा रुपी
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जैनहितोपदेश भाग ३ जो. संसार भ्रमण थाय छे तथा आधि, व्याधि अने उपाधि जन्य अनेक कष्ट रुपी पर्वतोथी जेनी वाट विषम छे. आवी विपम स्थितिमां जीवने परिभ्रमण कर पडे छे. छतां अज्ञान वशवी जीवो तेथी उद्विग्न (विरक्त) थता नथी.
२. वली जेमा तृष्णारूपी तोफानी पवनथी भरेला क्रोधादि कषायोरुपी चार मोटा पाताल कलशा विविध विकल्परूपी वेलानी वृद्धि करे छे, संसारी जीव तृष्णा तरंगमां तणाता कषायने वशप-. डी चित्तमा संकल्प विकल्पोने पेदा करी परम दुःखनो भागी थाय छे, छतां अज्ञानना जोरथी विषय तृष्णाने तजी तेओ क्लिष्ट कषायोने जीती मुख समाधि साधवा अल्प पण प्रयत्न सेवी शकता, नथी. एवा अज्ञानी जीवो आप मतिथी अवळा चाली दुःख दावा-- नलमा स्वयंपचाय तेमां आश्चर्य शुं?.
३. वळी जेमां काम-अग्निरुपी वडवानल वली रह्यो छे, जे स्नेहरुपी इंधनथी सदा जाज्वल्यमान रहे छे, अने भयंकर रोग शोकादि मच्छ कच्छपोथी जे चोतरफ व्याप्त दीसे छे. छतां अविवेकी जीवो तेमांज रति धारण करी झंपलाय छे पण प्रत्यक्ष दुःखराशिथी मुक्त थवा प्रयत्न करता नथी. आवा विवेक शून्य संसारीनी वारंवार विडंबना थया करे छे. ॥
४. वली दुर्बुदि, मत्सर, अने द्रोहरूपी विजली, वंटोलीया;
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. अने गरिव वडे जेमां भ्रमण करनारा लोको विविध उत्पातना "संकटमा आवी पडे छे छतां जड-यात्रा (पुद्गल-प्रेम) ने तजी तन्मयपणे तीर्थ-यात्रादिक धर्मकरणी करता नथी. आवा प्रदला नंदी जीवोने पराधीनपणे अनेक आपदाओ वेठवी पडे छे. एम समजीने आत्मकल्पाण साधवाने समयज्ञ पुरुष शुं करे छे ते शास्त्रकार पोतेज जणावे छे. ॥
५. आवा भयंकर भवसमुद्रथी अत्यन्त उद्वेग पामेलो ज्ञानी 'शुरुष तेने तरी पार जवानो उपाय सवे यत्नथी आदरे छे. समय “पुरुष आवा भयंकर संसारने तरवा प्रमादने तजी रत्नत्रयीनुं सम्यम् सेवन करे छे.॥
६. जेवी रीते संपूर्ण तेलना पात्रने हाथमा लइ चालनार तेम न राधावेधने साधनार सावधान थइ रहे तेवीज रीते भवभीरु मुनी स्वचरित्र क्रियामा सावधान थइ वर्ते छे जन्म मरणनां अनंतदुःख. थी वीधेला भवभीरु मुनि धर्मकरणीमां प्रमाद शील थताज नथी. प्रत्यक्ष पुद्गलिक सुख तजीने देहने दमवा केम उजमाल थता हशे? एवी शिष्यनी शंकानुं शास्त्रकार समाधान करे छे.
७. जेम विषतुं औषध विष छे, अने अमिथो दग्ध थयेलानु औषध अग्निज छे. तेम भयभीरु मुनिने उपसर्ग संबंधी दुःखनो डर लागतोज नथी. जेम कोइने साप करज्यो होय त्यार तेने लीमडो
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
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चवरावे छे, अने अग्रिथी दाझेलाने अग्रिनोज शेक करे छे, तेम जन्म मरणनां दुःखथी त्रास पामेला मुनि ते दुःखने कापवा माटे विविध ऊपसर्ग संबंधी दुःखने समभावे सहन करे छे तेथी ते भव दुःखथी मुक्त थइ शके छे. एवी संपुर्ण खात्रीथीज विविध उपसर्ग परिषहा दिक संबंधी दुःखने समयज्ञ मुनि स्वाधीनपणेज समभावथी सहन करवा तत्पर रहे छे. ॥
८. भवभीरूपणाथीज विवेकवान् मुनि धर्म व्यवहारने स्थिरतायी सेवे छे. जन्म मरणना भयथीज समयज्ञ मुनि व्यवहार मार्गनुं दृढ आलंबन लइ निश्चय मार्गने साधे छे. वीतरागमणीत स्याद्वाद मार्गनुं सावधानपणे सेवन करवा समयज्ञ मुनि चूकता नथी तेनुं मुख्य कारण भवभयज छे. एम साध्य दृष्टिथी शुद्ध व्यवहारतुं सेवन करतां करतां ज्यारे पोताना आत्मामां सहज समाधि जागे छे, ज्यारे सासात् आल- अनुभव जागे छे त्यारे भवभय पण अंतर शमाइ जायछे.
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|| २३ | लोकसंज्ञा त्यागाष्टकम् ॥ प्राप्तः षष्टगुणस्थानं, भवदुर्गादिलंघनम् || लोकसंज्ञारतो न स्याद, मुर्निलोकोत्तर स्थितिः ॥१॥ यथा चिंतामणिं दत्ते, बरोबदरीफलैः ||
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९. श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. हाहा जहाति सद्धर्म, तथैव जनरंजनैः ॥ २ ॥ लोकसंज्ञा महानद्या, मनुश्रोतोऽनुगान के ॥ प्रतिश्रोतोऽनुगस्त्वेको, राजहंसो महामुनिः ॥३॥ लोकमालंब्य कर्तव्यं, कृतं बहुभिरेव चेत् ॥ तथा मिथ्यादृशां धर्मो, न त्याज्यः स्यात्कदाच न॥४॥ श्रेयोऽर्थिनो हि भूयांसो, लोके लोकोत्तरे च न ॥ स्तोकाहि रत्नवणिजः, स्तोकाश्चस्वात्म साधकाः॥५॥ लोकसंज्ञाहताहंत, नीचैर्गमन दर्शनैः॥ शंसयन्ति स्व सत्यांग, मर्मघातमहाव्यथां ॥ ६ ॥ आत्मसाक्षिक सद्धर्म, सिद्धौ किं लोकयात्रया ॥ तत्र प्रसन्नचंद्रश्व, भरतश्चनिदर्शने ॥७॥ लोकसंज्ञोज्जितः साधुः, परब्रह्मसमाधिमान् ।। सुखमास्ते गतद्रोह, ममता मत्सर ज्वरः ॥ ८॥
॥ रहस्यार्थ ॥ . १. संसाररूपी विषम घाटीनो पार पमाडनार प्रमत्तगुणस्था
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
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नक जेने प्राप्त थयुं छे एवा लोकोत्तर स्थितिवाला मुनि लोकसंज्ञानो त्यागज करे छे. विषय कषायने विवश थइ जेम दुनीया दोराय छे तेम श्रेष्ठ मर्यादाशील मुनिराज लोकप्रवाहनां खेंचाइ जता नथी. तेतो स्वभावमां स्थित छता संयम आचरणमां सदा सावधान थइ रहे छे.
२. जेम कोइ मूर्ख वोरडीनां फल लइ वदलामां चिंतामणीरन आपी देछे ते मूढ माणस जनरंजन माटे श्रेष्ठ धर्मने हारी जाय छे. जेने सत्य धर्मनी कदर नथी ते वापडाथी चिंतामणि जेवो अमूल्य धर्म साचवी शकात नथी. लोकरंजन माटे श्रेष्ट लाभने चूकी जाय छे. पाछलथी तेने दुनियानी देखादेखी करवाथी बहु कष्ट सहन करवुं पडेछे.
३. लोकसंज्ञाए एक मोटी नदीनो प्रवल प्रवाहछे तेमां प्रवेशेला कोण कोण तणाया नथी ? तेने तरीने पार जवाने समर्थ तो केवल सामे पूरे चालनारा राजहंस समान महामुनिराजन छे. जे लोकसंज्ञानो सर्वथा त्याग करवा अनुकूल प्रयत्न सेवे छे तेज मुनिराज तेनो त्याग करी शके छे. वाकीना तो लोकप्रवाहमां तणाया जाय छे. लोकप्रवाहमां तणाता पुरुषार्थहीनने तारवा कोइ समर्थ थतुं नथी. जो जनरंजन तजी केवल स्वपर कल्याणार्थे संयम मार्गनुं सारी रीते सेवन कराय तो प्रवल पुरुषार्थ योगे जरूर तेनो जय करी शकाय.
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जैनहितोपदेश भाग ३ जो. एवी आत्म वीर्यथी तेनो सर्वथा जय करी सर्वोत्तम संयमने आराधी अनंता आत्माओ अक्षय सुखने साधी शक्या छे.
४. जो सर्वे करे तेज कर मानीये तो तो कदापि पण मि'थ्यात्वनो त्याग करी शकाशे नहिं. ज्यारे सत्य मार्गनुं शोधन करी तेनोज स्वीकार करशुं त्यारेज आपणे सत्य-साचा सुखने पामी शकशुं. ते विना तो जेम धूमाडाना बाचका भरतां कंइ हीरो हाथमा आवे नहिं तेम सत्य मार्गने तजी स्वच्छंदपणे चालतां खरं सुख मली शके नहिं. एवा सत्यमार्गने शोधी चालनारा विरलाज होय छे.
५. श्रेयना अर्थी जीवो लौकिक के लोकोत्तर मार्गमां थोडाज दीसे छे. जेम रत्नना व्यापारी थोडा होयछे तेम आत्म-साधक पण थोडाज होयछे. जेम रत्ननी खाण दुर्लभ होयछे तेम कल्याणार्थी उत्तम जीवो पण दुर्लभन होय छे खरं आत्मार्थीपणुं आवq जीवने दुर्लभ छे ते विना सत्यमार्गने शोधी तेने दृढपणे अवलंबवो कठीनजछे.
६. लोकसंज्ञाथी पराभव पामेला प्राणी स्वश्रेयथी चूके छे. छतां लोक देखावो करवा जे तेओ नीचा वळीने चाले छे ते एम जणावे छे के तेमना सत्य-अंगमा मर्मघातनी महाव्यथा थयेली छे, तेथीज तेओ वांका वळीने चालता लागे छे. लोक संज्ञानो आमां आ लेख कयों लागे छे.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ७. श्रेष्ट धर्मनी सिद्धि आत्म-साक्षिक छतां लोक देखावो करवानुं काम शुं ? मनथी जीव कर्म बांधे छे अने मनथीज छोडी शके छे तो पछी लोक देखावो करवायी शुं वळे ? नेम प्रसन्नचंद्र राज रूपिने तथा भरत महाराजाने साक्षात् अनुभवायुं तेम सम्यम् विचारी स्वकल्याणना अर्थी जीवोए लोक देखावो करवानी बुद्धि तजी देवी.
८. लोकसंज्ञा रहित साधु परद्रोह, ममता, अने मत्सर दोषथी मुक्त होवाथी सहज समाधिमा मस्त थइ रहे छे. जे महाशय मुमुक्षुए लोकसंज्ञा तजी दीधी छे तेने उक्त दोषोनुं सेवन कर पडतुज नथी. तेथी ते शुद्ध संयमने साधतां स्वभाविक मुखमा मग्न थइ रहे छे. परउपाधि रहित होवाथी निथ मुनि उत्तम निवृत्ति धारी सहज समाधि सुखने पामी शके छे, पण परउपाधि ग्रस्त एवं कोइपण तेवु स्वभाविक सुख स्वप्नमां पण पामी शकतो नथी. एटलाज माटे मोक्ष सुखना अर्थी जनोए लोक संज्ञानो जरुर त्याग करवो जोइये, अन्यथा जप तप संयम संबंधी सकल धर्म करणी केवळ कष्टरूप थइ पडशे. उक्त सर्व धर्म करणी जो विवेकथी आत्म कल्याण अर्थेज करवामां आवशे तो ते, सघळी लेखे पडशे. माटे केवळ गतानुगतिकता तजी वस्तु स्वरूप समजीनेज साधन करखं हितकारी छे.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३. जो.
॥ २४ ॥ शास्त्राऽष्टकम् ॥
चर्मचक्षुर्भुतः सर्वे, देवाश्वावधिचक्षुषः || - सर्वतश्चक्षुषः सिद्धाः साधवः शास्त्रचक्षुषः ॥ १ ॥ पुरस्थितानिवोर्ध्वाधः स्तिर्यग्लोक विवर्तिनः ॥ सर्वान् भावानपेक्षन्ते ज्ञानिनः शास्त्रचक्षुषा ॥ २ ॥ शासनात् त्राणशक्तेश्व, बुधैः शास्त्रं निरुच्यते ॥ वचनं वीतरागस्य, तत्तु नान्यस्य कस्यचित् ॥ ३ ॥ शास्त्रे पुरस्कृते तस्माद, वीतरागः पुरस्कृतः ॥ पुरस्कृते पुनस्तस्मिन् नियमात् सर्वसिद्धयः ॥ ४ ॥ अदृष्टाऽर्थेऽनुधावतः, शास्त्र दीपं विना जडाः || प्राप्नुवन्तिपरं खेदं प्रस्खलन्तः पदे पदे ।। ५ ।। शुद्धोंच्छाद्यपि शास्त्राज्ञा, निरपेक्षस्य नो हितं ॥ भौतहतुर्यथा तस्य, पदस्पर्श निवारणं ॥ ६ ॥ अज्ञानाहि महामंत्रं, स्वाच्छंद्यज्वर लंघनं ॥ धर्मारामसुधाकुल्यां, शास्त्रमाहुर्महर्षयः ॥ ७ ॥
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. शास्त्रोक्ताचारकर्ता च, शास्त्रज्ञः शास्त्रदेशकः ॥ शास्त्रैकहर, महायोगी, प्राप्नोति परमं पदम् ॥ ८॥
॥ रहस्यार्थ ॥ १. सर्वे मनुष्य तियेचो चर्मचक्षुने धारण करनारा छे, एटले के तेमने चामडानी चक्षु छे. देवता मात्रने अवधिज्ञानरुपी चक्षु छे. सर्व सिद्ध भगवानोने प्रदेशे प्रदेशे चक्षु छे केमके तेओ अनंत ज्ञान अने दर्शन गुणथी युक्त छे. अने साधु मुनिराजोने शास्त्ररुपी दिव्य चक्षु होय छे. हवे शास्त्रचक्षु केवी उपयोगी छे ते वतावे छे.
२. ज्ञानी पुरुषो शास्त्र चक्षुवडे उर्ध्व अधो अने तीर्थी-त्रणे लोकमां वर्तता सर्व भावोने प्रत्यक्षनी पेरे देखे छे. जेम निर्मल आरोसामा सामी वस्तुओनां प्रतिबिंब सारी रीते पडी रहे छे तेय निमल ज्ञानचक्षुयी पण त्रिभुवनवती सर्व पदार्थोनुं यथार्थ भान था शके छे. माटेन मुमुक्षुजनो विनय पूर्वक अहोनिश ज्ञाननुं आराधन करवा उजमाल रहे छे. हवे प्रसंगोपात ग्रंथकत्तों शास्त्रनुं लक्षण कहे छे.
३. मोक्ष मार्गनुं शासन-यथार्थ कथन करवाथी अने त्राणरक्षण करवा समर्थ होवायीं शास्त्र शब्द सार्थक थाय छे. एवू शास्त्र
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जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
रागी द्वेषी के वीतराग प्रभुनां
तो वीतरागनां वचनरूप होय छे. ते विना अन्य मोहाधीननां वचन सत् शास्त्ररूप होइ शकतां नथी. वचन सर्व दोष रहित अने सर्व गुण सहित होवाथी शास्त्ररूपे मान्य करवा योग्य छे, परंतु तेवा गुणविनाना अन्य वागाडंबरीनां वचन सत् शास्त्ररूप नहि होवाथी मुमुक्षु वर्गने मान्य करवा योग्य नथी . तेवां सत् शास्त्र मानवाथी माननारने शो फायदो थाय छे ते शास्त्रकार पोतेज बतावे छे.
४. सत्शाने आगल कर्याथी वीतरागने आगल कर्या समजवा. अने वीतरागने आगल कर्ये छते निवें सर्व सिद्धियो संपजे छे. वीतराग प्रभुनी पवित्र आज्ञाओने मान्य करनारना सर्व मनोरथ सीजे छे, एकांत हितकारी प्रभुनी पवित्र वाणीनो अनादर करनार अज्ञानी जनोना केवा हाल थाय छे ते शास्त्रकार बतावे छे.
५. शास्त्ररुपी दिव्य दीपक विना अजाण्या विषयमा एकदम दोडता दुर्बुद्धिजनो मार्गमां पगले पनले स्खलना पामता परम खेदने अनुभवे छे. सत् शास्त्ररूपी दिव्य चक्षु विना जीवने सत्यमार्ग सुजतोज नयी तेथी सत्य मार्गथी चूकी जीव आडोअवलो अथडाइ बहु हेरान थाय छे. स्वकपोल कल्पित मार्गे चालतां जीवने एवा जोखममां उतरनुं पडे छे. जो वीतराग वचननुं शरण लही ते मुजव वर्तन कराय - तो कंइपण भीति राखवानु कारण रहे नहिं.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
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६. शास्त्र आज्ञा निरपेक्ष- स्वच्छंदचारी गमे तेवी उग्र क्रिया करे तोपण तेथी तेनुं हित थइ शकशे नहिं, पण जो वीतराग प्रभुनी पवित्र आज्ञा मुजब शास्त्र परतंत्रपणे अल्प पण अनुष्ठान सेवशे ते तेने जरुर - हितकारी थइ शकशे. केटलाक - अणसमजश्री - शाखआज्ञाने-लोपीने सद्गुरुथी जूदा पडी प्रथम तो उग्रक्रिया करवानो विचार राखे छे पण पाछलथी समयोचित सारणादिकना अभावे ते शिथिल थइ जाय छे. सारी बुद्धिथी पण स्वच्छंदपणे सद्गुरुने तजवामां अहितज रहेलुं छे. तेथी अल्प दोष तजतां भारे दोष सेववो पडे छे, जेम मनोहर मोरपछी माटे बौध गुरुनी आज्ञा नहि छतां तेना भक्त भूमिपाले गुरुनां चरणस्पर्शनो दोष निवारवा बाणवडे ते पींछी लेतां ते गुरुनोज घात कर्यो तेम कमसमजवाला आपमतिथी अल्पदोष तजतां अधिक दोषज सेवे छे.
७. माटे महामुनियो शास्त्रने अज्ञानरूपी सर्पने दमवा जांगुली मंत्र समान, स्वच्छंदता रूपी ज्वरने शान्त करवा लंघन ( लांघण ) समान, अने सत्धर्मरूपी आरामने सिंचवा अमृतनी नीक समान लेखे छे. समयज्ञ सतपुरुषो एवा सत्शाखना श्रेष्ठ लाभने क्षणवार पण चूकता नथी.
८. . शास्त्रोक्त आचारने सेववावाला शास्त्र - रहस्यने सम्यग् जा
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. पवावाळा, शास्त्रना मार्गनेज वताववावाला अने शास्त्र सन्मुखज दृष्टि राखवावाळा महायोगी-मुनि निधे परमपदने पामे छे. माटे मोक्षार्थी जनोए एका सदशास्त्र-सेवी सत्पुरुषोज सदा सेवा योग्य छे.
॥ २५ ॥ परिग्रहाष्टकम् ॥ न परावर्तते राशे, र्वक्रतां जातु नोझ्झति ॥ परिग्रह ग्रहः कोऽयं, विडंबित जगत्त्रयः ॥ १ ॥ परिग्रहग्रहावेशा, दुर्भाषित रजः किरा ॥ श्रूयन्ते विकृताः किं न, पलाया लिंगिना मपि ॥२शा यस्त्यक्त्वा तृणवदाय, मान्तरं च परिग्रहं ॥ उदास्ते तत्पदांभोज, पर्युपास्ते जगत्त्रयी ॥३॥ चित्तेन्तर ग्रंथ गहने, बहिर्निग्रंथता वृथा ॥ स्यागाकंचुक मात्रस्य, भुजगो नहि निर्विषः ॥ ४॥ त्यक्ते परिग्रहे साधोः, प्रयाति सकलं रजः ।। पालित्यागे क्षणादेव, सरसः सलिलं यथा ॥ ५ ॥ न्यक्तपुत्रकलत्रस्य, मूर्छा मुक्तस्य योगिनः॥
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ९९ चिन्मात्र प्रतिबद्धस्य, का पुद्गल नियंत्रणा ॥६॥ चिन्मात्रदीपको गच्छेद, निर्वात स्थानसंनिभैः॥ निष्परिग्रहतास्थैर्य, धर्मोपकरणै रपि ।। ७॥ मूछिन्नधियां सर्वं, जगदेव परिग्रहः ॥ मूर्छयारहितानां तु, जगदेवाऽपरिग्रहः ॥ ८॥
॥ रहस्यार्थ ॥
१. शास्त्र उपदेश सांभली-सहहीने परिग्रहर्नु स्वरुप समजीने तेनो विवेक धारको जानो छे. प्रायः परिग्रहज प्राणिओने पीडार्नु कारण छे. माटे तेनो अवश्य परिहार करवो जोइये तेज वात स्फुट बतावे छे. त्रगे जगतना जीवोनी विविध विडंबना करनार परिग्रह एवो तो आकरो ग्रह छे के ने मूल राशियी बदलातो नथी तेमज वक्रता त्यजतो नथी.
२. परिग्रहरूपी पिशाचथी पराभव पामेला लिंगधारी साधुओ पण पोतानी (साधु) प्रकृतिने तजी जेम तेम लवता फरे छे, अनेक उन्माद करे छे, वेष विगोवणा करे छे अने अंते अधोगनिमां जाय छे ए सर्व परिग्रहनोज प्रभाव समजवो.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ३. धनधान्यादिक ए बाह्य परिग्रह छे अने वेदोदयी थती विषय-अभिलाषा, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, दुगंछा, मिथ्या त्व अने कषाय ए अभ्यंतर परिग्रह छे. ते बने परिग्रहने तृणनी जेम तजीने जे जगतथी उदासी (न्यारा) रहे छे, तेना चरण कमळ ने जगत् मात्र पूजे छे. पण जे ते परिग्रहमा मुंझाइ परस्पृहा करे छे ते तो जगत मात्रना दासज छे. मूर्छा-ममतानेज ज्ञानी पुरुषो परि
ग्रह कहे छे.
४. जेम सर्प कांचली उतारी नाखवाथी निर्विप थइ जतो नथी तेम वाह्य परिग्रहना त्याग मात्रथी खरं साधुपणुं प्राप्त थतुं नथी. केमके विवेक विना धन विगेरे तजवा मात्रथी काइ विषय अभिलाषा दिक अंतर विप टली शकतुं नथी. माटे मुमुक्षुजनोए तो विपय अभिलाषादिक अंतर विष वारवा प्रथम खपी थर्बु जोइए. ज्यां सुधी विषयवासना जागृत छे, ज्यां सुधी हास्यादिक दोपोनु मुत्कलनी जेम सेवन कराय छे, ज्यां सुधी तत्त्व दृष्टि थवा यत्न करातो नथी अने ज्यां सुधी क्रोध, मान, माया अने लोभनी सेवा को कराय छे, त्यां सुधी साधुपणुं छेटुंज समजवू, अंतर विष टलतांज साधु पणुं संपजे छे.
जेम सरोवरनी पाल तोडी नांखवाथी मांहेनुं सर्व जल क्षण मात्रमा वहार वही जाय छे, तेम परिग्रहरुपी पाल तोडवाथी-मुछोना
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
त्याग करवाथी सर्व कर्ममलनो क्षणवारमा नाश थाय छे. पण गमे तेटली कष्टकरणी करतां छतां अंतरनो मेल धोवा माटे मूर्छानो त्याग कर्या विना शुद्ध थवातुं नथी. माटे विवेकपूर्वक वाह्य अने अंतर उभय परिग्रहनो परिहार करवो घटे छे.
स्त्री पुत्र लक्ष्मी विगेरेनी मूछा तजी केवल ज्ञान ध्याननोज अभ्यास करनारा साधुपुरुषोने पुद्गलनी शी परवा छे ? स्त्री पुत्रने तनीने जो पुनः परिग्रह ममताथी लोक परिचय करी ज्ञान ध्यान न कयु, संयममार्ग सम्यग् सेव्यो नहिं, मूछी ममताज वधारी तो प्रथमनां स्त्री पुत्रादिकने तजीने शुं कमाणा ? उलटी उपाधि वधारवादी विशेषे विडंवना पात्र थवाना. तेम न थाय एवं लक्ष राखर्बुज जोइये.
७. जेम वायरा विनाना स्थळवडे दीवो स्थिर रही शके छबुझातो नथी तेम धर्म-उपगरणोवडे निष्परिग्रहता साधी शकाय छे. धर्मनी वृद्धि करनारां साधनज धर्म-उपगरण गणाय छे तेमनुं ममतारहित सेवन,करतां छतां गमे ते अक्षय सुखना अधिकारी थइ शके छे. पण जो तेमांज उलटी ममता करवामां आवे तो ते उपगरण केबळ अधिकरण (शस्त्र ) रूपज गणाय. माटे ममतारहित ज्ञानदर्शन के चारित्रनां उपगरणोवडे आत्म-उपगारनी सिद्धिं थाय तेम यत्नथी प्रवर्तवं. एम विवेकथी धर्मउपगरणने सेवनारने धर्मनी वृद्धिजं थाय छे. पण जो तेमां विवेकनी खामीथी उलटी ममता स्थपाय तो तेथी धर्मनी वृद्धिना बदले हानि थवानो प्रसंग आवे छे. माटे जेम धर्मोप
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___ १०२ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. गरण- सार्थकषणु-थाय तेम विवेकथीज वर्न, युक्त छे.
८ आवां कारणसर शास्त्रकार कहे छे के मूर्छावडे जेनी बुद्धि अंजाइ गइ छे तेने आखं जगत परिग्रहरुपज छे, अने जे महात्माए मूर्छा (ममता) ने समूलगी मारो छे, तेने तो जगतमा जरा पण परिग्रहनो लेप लागेज नहि. आ उपरथी मूर्छ उतारवी केटली विपम छे ते तथा मूर्छा उतार्याथी केटलं वधुं मुख थाय छे, तेनुं सहन भान थइ शके छे. गमे एबुं दुष्कर कार्य पण पुरुषार्थथी साधी शकाय छे. एम समजी कायरता तनी परिग्रहनो प्रसंग तजवा प्रयत्न करयो घटे छे.
॥२६॥ अनुभवाऽष्टकम् ॥ संध्येव दिन रात्रिभ्यां, केवलश्रुतयोः पृथक् ॥ बुधैरनुभवो दृष्टः, केवलाऽर्कारुणोदयः ॥ १ ॥ व्यापारः सर्वशास्त्राणां, दिक्प्रदर्शन मेव हि ॥ पारं तु प्रापयत्येकोऽ, नुभवो भव वारिधेः ॥ २ ॥ अतींद्रियं परब्रह्म, विशुद्धाऽनुभवं विना ॥ शास्त्रयुक्ति शतेनापि, न गम्यं यद् बुधाजगुः ॥ ३ ॥
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जोः १०३ ज्ञायेरन हेतुवादेन, पदार्था यद्यतींद्रियाः॥ कालेनैतावता प्राज्ञैः, कृतःस्यात्तेषु निश्चयः ॥ ४॥ केषां न कल्पना दर्वी, शास्त्रक्षीरानगाहिनी ॥ विरला स्तद्रसास्वाद, विदोऽनुभवजिह्वया ॥५॥ पश्यतु ब्रह्म निर्बुद्धं, निद्रानुभवं विना ।। . . कथं लीपीमयी दृष्टि, र्वाङ्मयी वा मनोमयी ॥६॥ न सुषुप्ति रमोहत्वा, नापि च स्वाप जागरौ । कल्पनाशिल्पविश्रान्ति, स्तुर्यैवानुभवो दशा ॥७॥ अधिगत्याखिलं शब्द, ब्रह्म शास्त्रदृशा मुनिः ।। स्वसंवेद्यं परंब्रह्मा, नुभवेनाधिगच्छति ॥ ८॥
॥ रहस्यार्थ॥ . १. जेम दिवस अने रातिथी संध्या जूदी छे, तेम अनुभव ज्ञान पण केवल ज्ञान अने श्रुत ज्ञानी जूढुं छे. जेम सूर्य-उदय पहेला अरुणोदय थाय छ तेम केवल ज्ञान प्रगटयां पहेलां अनुभव ज्ञाननो उदय थाय छेपछी अवश्य अल्पकालमां केवल ज्ञान प्रगट थाय छे. जेम अरुणोदय रात्रिना अंते थाय छे, तेम अनुभव ज्ञान
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. पण श्रुत ज्ञानना अंते प्रगटे छे. एटले के श्रुत ज्ञान कारण छे अने अनुभव ज्ञान कार्यरूप छे. सम्यग् ज्ञान विना कदापि कोइने पन अनुभव प्रगटे नहि. माटे कार्यार्थी जेम कारण- सेवन करे तेम अनुभवना अर्थीए श्रुत ज्ञाननु अवश्य सेवन करवू.
२. शाखो तो फक्त दिग्दर्शन करावे छे. बाकी संसारनो पार तो अनुभवज करावे छे. जेम कोइ मार्गमां मळेलु माणस मार्ग भ्रष्टने खरा मार्गनी दिशा बतावी दे छ तेम शास्त्र पण मोक्षनो मार्ग आम छ एम बतावी दे छे. पण जेम साथे लीधेलो भूमियो ठेठ मार्गे पहों चाडी आपे छे. तेम सहज अनुभव ज्ञान पण ठेठ पार पहोंचाडे छे.
३. विशुद्ध अनुभव विना शास्त्रनी सेंकडो युक्तिवडे पण परमात्मवत्व समजी शकाय तेवू नथी. जेनु स्वरूपज शब्द, रुप, रस, गंय, अने स्पर्शरहित होवाथी अतींद्रिय छे, तेनु प्रतिपादन अक्षरवर्ण वाक्य मात्रथी शी रीते थइ शके एक तो अरूपी आत्मद्रव्य अने बीजुं दृष्टांत दइने ते सुखेथी समजी शकाय एवं कंइ उपमान नजरे ज पडतुं नथी, तेथी अंते एवाज निश्चय उपर आवी शकाय के परमात्मतत्त्व जेवू कंइ वीजुं छेज नहि, ते तत्त्व पामेला सर्व समानज
छ, तथा तेवो सत्य अनुभव थयेज ते तत्त्व समजी शकाय एम छे, __ पण अनुभव ज्ञान प्रगट्या विना परमात्मतत्त्व यथार्थ समजी शकाय
तेम नयी. माटे तेवो अनुभव प्रगटाववा श्रुत ज्ञान विषये पूरतो प्रयुव करवो युक्त छे.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
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४. जो हेतुवादे करी आवा अतींद्रिय पदार्थोनो निश्चय थातो होत तो तो ते क्यारनो करवा पंडितो चूकत नहिं. पण तेम करवू अशक्य जाणीने तेओ करी शक्या नथी. तर्क, अनुमान के युक्ति विगेरेथी तेभए आत्मादि अरुपि-द्रव्यनो निश्चय कर्यों होत ते सं. बंधी कोइ जातनो विवाद रहेतज नहि. पण तेम थइ शकेज नहि. तेम करवाने अनुभव ज्ञाननी खास जरुर छे. स्वानुभवी पण परमात्मतत्त्वने यथार्थ जाणतां छतां पोतेज जाणीने विरमे छे. ते पदार्थ अतींद्रिय होवाथी स्वानुभव विना श्रोताना ग्राह्यमा आवतो नथीआवी शकतो नथी. स्वानुभव थये ते सेहेज यथार्थपणे समजी शकाय छे.
५. केटलाक पंडितोनी कल्पना-कडछी, शास्त्र-क्षीरमा फरी, छतां तेओ अनुभव-जीभ विना तेनो स्वाद मेलवी शक्या नहिं. अनुभव ज्ञान प्रगट थयेज सर्वज्ञ प्रणीत शास्त्रनो यथार्थ स्वाद चाखी शकाय छे. .. ६. अद्वितीय अनुभव जाग्या विना लिपीवाली, वाणीवाली, अने मनवाली रुपि दृष्टिथी अरूपि-अद्वितीय अनुपम परमात्म तत्व ने केम जोइ शकाय ? ज्यारे अपूर्व साम्य सेवनथी अनुपम अनुभव जागशे त्यारेज अतींद्रिय तत्त्वनुं यथार्थ भान थशे ते विना केवल अ भरमय लीपी, वाणी, के मनवाली रूपी दृष्टिथी अरूपी एवा शुद्ध
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
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आत्म तत्त्वतुं यथार्थ भान थइ शकवानुं नहिं. कार्यार्थीए कार्याऽनुकुल कारणोन सेवन करज 'जोइए. ते विना इष्ट कार्य सिद्धि नथी. माटे शुद्ध आत्म तत्वना कामी पुरुषे निद्वंद्व (सर्व क्लेश रहित शुद्ध) अनुभव माटे प्रयत्न करवो.
७. सुषुप्ति, शयन, जागर अने उजागर ए चार दशाओ शा. स्त्रमा वर्णवी छे. तेमां प्रवल मोहना उदयवाली प्रथम दशा तथा विविध कल्पनावाली (सविकल्पक) शयन अने जागर दशा आ अनुभव ज्ञानमां घटी शके नहिं. तेमां तो समस्त विकल्पनी विश्रान्ति शान्तिरूप निर्विकल्प चोथी उजागर दशाज होवी घटे छे.
८. शास्त्र दृष्टीथी समस्त शब्द स्वरूपने सम्यग पामीने मुनि, अनुभवगम्य शुद्ध आत्मतत्वने अनुभव ज्ञानवडे पामे छे. एटले के सम्यग् श्रुत ज्ञानना अभ्यासथी अनुभव ज्ञान पामीने मुनि शुद्ध स्वरूपने जाणे-जोवे छे.
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॥ २७ ॥ योगाष्टकम् ।। मोक्षण योजनाद्योगः, सर्वोऽप्याचारइष्यते ॥ विशिष्य स्थानवार्था, लंबनकाय गोचरः ॥१॥
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जैनहितोपदेश भाग ३ जो. कर्मयोग द्वयं तत्र, ज्ञान योगः त्रयं विदुः॥ विरतेश्वेष नियमाद्, बीज मात्रं परेश्वेपि ॥ २ ॥ कृपा निर्वेद संवेग, प्रशमोत्पत्तिकारिणः॥ भेदा प्रत्येकमत्रेच्छा, प्रवृत्तिस्थिर सिद्धयः॥३॥ इच्छा तबतकथाप्रीतिः, प्रवृत्तिः पालनंपरः ॥ स्थैर्य बाधकभी हानिः, सिद्धिरन्यार्थ साधनं ॥४॥ अर्थालंबनयोश्चैत्य, वंदनादौ विभावनं ॥ श्रेयसे योगिनः स्थान, वर्णयोर्यत्नएव च ॥ ५ ॥ आलंबनमिह ज्ञेयं, विविध रूप्य रूपि च ॥ अरूपिगुणसायुज्यं, योगोऽनालंबनं परः ॥ ६ ॥ प्रीतिभक्ति वचोऽसंगैः, स्थानाद्यपि चतुर्विधं ॥ तस्मादयोग योगाप्ति, मोक्षयोगः क्रमाद् भवेत् ॥७॥ स्थानाद्ययोगिनस्तीर्थो, च्छेदाद्यालंबनादपि ॥ सूत्रदाने महादोष, इत्याचार्याः प्रचक्षते ॥ ८॥
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
॥ रहस्यार्थ ॥ १. जीवने मोक्ष सुख साथे जोडी आपे एवो सर्व सदाचार योग' ना नामथी ओलखाय छे. तेना पांच प्रकार आ प्रमाणे छे. १ स्थान (आसन-मुद्रा विशेष ) २ वर्ण (अक्षर विशेष ) ३ अर्थ ४ आलंबन (प्रतिमादि) अने ५ एकाग्रता (मननी निश्चलता.) ____२. तेमां पूर्वला बे कर्मयोग कहेवाय छे. अने पाछली त्रण, ज्ञान योग कहेवाय छे. आ योग विरति (निवृत्तिशील) वंतमां निश्चयथी होय छे. अने वीज मात्र तो अनेरामां पण होय छे. ए व- ' चनमां एवो ध्वनि थाय छे के योगना अर्थीए निवृत्तिशील थर्बु जोइये.
३. आ पांचे योगमांना प्रत्येकना कृपा, निर्वेद, संवेग अने शीतलताने करनारा १ इच्छा, २ प्रवृत्ति, ३ स्थिरता अने सिद्धि एवा च्यार च्यार भेदो कहेला छे. ते दरेकर्नु लक्षण आ प्रमाणे.
४. तेवा योग-सेवीनी कथामां भीति थाय ते इच्छा योग उक्त योगर्नु पालन करवामां तत्परता तजाय ते प्रवृत्ति योग. ते योगर्नु सेवन करतां अतिचारादिक दूषण लागे नहिं, लागवानी बीक पण रहे नहि, ते स्थिरता योग अने स्वयं योगनी सिद्धि पूर्वक अन्य (भव्य) जीवोने योगनी प्राप्ति कराववी तेनुं नाम सिद्धि योग समजवो.
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श्री जनहितोपदेश भाग ३ जो.
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५. पूर्वोक्त योगोमांना अर्थ अने आलंबन योगर्नु चैत्यवंदन, तथा गुरुवंदनादिक करतां स्मरण राखवू. तेमां तथा स्थान अने वर्णयोगमा योगी पुरुष खश्रेय माटेज प्रयत्न करवानो छे. उक्त योगा सेवनमा जेम अधिक प्रयत्न तेम एकाग्रता द्वारा अधिक श्रेय सधाय छे.
६. आलंबन वे प्रकारे छे. १ रूपी अने २ अरूपी तेमां जिन मुद्रादिकरूपी आलंवन छे. अने अरूपी एवा सिद्ध भगवानना अनंत ज्ञानादिक गुणोमांज एकाग्र उपयोग देवो ते अरूपी आलंवन छे. तेनुं वीजुं नाम निरालंबन योग छे. अनालंवन योग उत्कृष्ट योग छे.
७. वळी मिति, भक्ति, वचन अने असंगभेदे करीने स्थानादियोग चार चार प्रकारे छे. पूर्वोक्त इच्छादिक च्यार प्रकारवाला स्थानादिक पांचे योगोना २० भेद थाय छे. अने तेमना प्रत्येके प्रीति विगेरे च्यार च्यार भेद गणतां योगना ८० भेद थाय. तेथकी 'अयोग' योगनी अनुक्रमे प्राप्ति थतांज मोक्ष योगनी-अक्षय अव्यावाध सुखनी संप्राप्ति थाय छे. एम समजी मोक्षार्थी सज्जनोए उपर वतावेला योगनां अंगो आदरथी सेवन क घटे छे. केटलांक अनुष्ठान प्रीतिपूर्वक अने केटलांक भक्ति पूर्वक ज करवानां कयां छे. जेमके देववंदन, गुरुवंदन, विगेरे भक्तिपूर्वक करवानां छे. अने प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग (काउस्सग्ग), पचरूखाण विगेरे प्री
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श्री जैनहितोपदेश भांग ३ जो.
तिपूर्वक करवाना. द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव ने लक्षमा राखी - सर्वज्ञ कथित सिद्धान्तने अनुसरीने विधिपूर्वक धर्मवर्तन करवू ते वचन अनुष्ठान छे. पूर्वोक्त प्रीति-भक्ति युक्त वचन अनुष्ठानने आचरतां अनुक्रमे अभ्यास बलथी मन, वचन, कायानी, एकाग्रता सघातां असंग क्रियानो अपूर्व लाभ मले छे. असंग क्रिया साधनारने मोक्ष सुलभ छे. माटे मोक्षार्थीजनोए मन, वचन, अने कायाना योगोने परभावमा जतां वारी स्वभाव सन्मुख करवा जोइये. पुद्गलिक सुखनी इच्छा तजीने सहज आत्म सुखमांज प्रीति करवी जोइये. करवामां आवती धर्मक्रियाना पण पवित्र हेतु-फल संबंधी सारी समज मेळवी तेमां योग्य आदर करवो जोइये. जेम बने तेम अविधि दोष तनी विधि रसिक थर्बु जोइये.
८. उक्त स्थानादिक योगनो अनादर करनारा अने स्वच्छंदे चालनाराने सूत्र-दान देवामां मोटो दोष छे, एवो समर्थ आचार्योनो अभिमाय छे. शासननो उच्छेदा थइ जशे एवी बीकथी पण प्रभुनी पवित्र आज्ञाथी विमुखने शास्त्र शिखववामां मोटामां मोटुं पाप छे.
॥ २८ ॥ नियागाष्टकम् ।। यःकर्महुतवान् दीप्ते, ब्रह्मानौ ध्यान धाय्यया ॥ स निश्चितेनयागेन, नियागप्रतिपत्तिमान् ॥ १॥
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. १११ पापध्वंसिनिनिष्कामे, ज्ञानयज्ञे रतो भव ॥ सावधैः कर्मयज्ञैःकिं, भूतिकामनयाविलैः ॥२॥ वेदोक्तत्त्वान्मनः शुध्या, कर्मयज्ञोऽपि योगिनः॥ ब्रह्मयज्ञ इतीच्छंतः, श्येनयागं त्यजन्ति किम् ।।३।। ब्रह्मयज्ञं परं कर्म, गृहस्थस्याधिकारिणः ॥ घूजादिवीतरागस्य ज्ञानमेव तु योगिनः ।। ४ ।। भिन्नोद्देशेन विहितं, कर्म कर्मक्षयाक्षमं ।। क्लृप्तभिन्नाधिकारं च, पुत्रेष्ट्यादिवदिष्यतां ॥ ५॥ ब्रह्मार्पणमपि ब्रह्म यज्ञांतर्भावसाधनं ।।। ब्रह्मानौ कर्मणो युक्तं, स्वकृतत्व स्मये दुते ॥ ६॥ ब्रह्मण्यर्पित सर्वस्वो, ब्रह्मदृग् ब्रह्मसावनः॥ ब्रह्मणा जुह्वदब्रह्म, ब्रह्मणि ब्रह्मगुप्तिमान् ॥ ७॥ ब्रह्माऽध्ययननिष्ठावान, परब्रह्म समाहितः ।। ब्रह्मणो लिप्यतेनाथै, नियागप्रतिप्रतिमान् ॥ ८॥
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श्री जैनहितोपदेशं भाग ३ जो.
|| रहस्यार्थ ॥ १. निश्चित याग (पूजा) ते नियाग कहेवाय छे. तेनुं स्वरूप समजावे छे. जे शुद्ध ब्रह्माग्निमां ध्यान-साधनथी विविध कर्मने होमे छे ते निश्चित यागवडे नियागी कहेवाय छे.
२. पापना क्षय करनार एवा निष्काम (पुद्गलिक कामना रहित) ज्ञान-यज्ञमां रति करवी युक्त छे. वैभवनी इच्छाथी मलीन एवा पापयुक्त कर्म-यज्ञ करवानुं शुं प्रयोजन छे ? जेमने पापनो क्षय करी निष्पाप थवा इच्छा होय तेमने तो पापयुक्त कर्मयज्ञोनो अनादर करी केवलज्ञान-यज्ञनो ज आदर करवो घटे छे. केमके लोही खरडयुं वस्त्र लोहीथी साफ थइ शके नहि, पण शुद्ध जल विगेरेथी ज साफ थइ शके छे. तेम पापथी खरडाएलुं मन पापयुक्त कर्म-यज्ञथी शुद्ध थइ शके नहिं. पण पापरहित एवा ज्ञान यज्ञथी तो ते अवश्य शुद्ध थइ शके. माटे ज निष्काम एवा ज्ञान-यज्ञमां रक्त थq, ज्ञानी-विवेकीने उचित छे. पण पापयुक्त कर्म-यज्ञ करवां तो उचित नथीज.
३. कर्म-यज्ञ पण करवानुं वेदमां कथन होवाथी मननी शुद्धिथी ते पण ज्ञान-यज्ञर्नु फल आपे छे एवं इच्छनारा ब्रह्म-ज्ञानीओ श्येन यागने कम तजे छे ? जो वीजां कर्म-यज्ञथी मननी शुद्धि संभवे छे तो आथी केम नहिं ? एम समजी विवेकी जनोए पाप-युक्त सर्व कर्म-यज्ञोनो परिहार करवो घटे छे.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ११३ ४. श्री वीतरागनी पूजा, सद्गुरुने दान, दीन दुखीनो उद्धार विगेरे गृहस्थ-अधिकारीने योग्य श्रेष्ठ आचरण ब्रह्मयोग४ कारण होचायी ज्ञान योग कही शकाय छे, परंतुः ज्ञानी-मुनिने तो फक्त ज्ञान-योगज सेववा योग्य छे. गृहस्थ योग्य आचार साधुने सेववानो नथी. केमके वनेनो अधिकार भिन्न छे.
५. जुदा हेतुथी करेली क्रिया क्लिष्ट-कर्मोनो क्षय करी शके नहिं. एतो पाप-कर्मने क्षय करवानी पवित्र बुद्धिथी ज उचित क्रिया विवेकथी करवामां आवे तो ज तेथी पाप-कर्मनो क्षय थाय छे. पण तेथी विरुद्ध आचरणथी तो कदापि थइ शके नहि. स्व स्त्र अधिकार मुजव करेली करणी सुखदायी निवडे छे, साधु साधु योग्य अने गृहस्थ गृहस्थ योग्य करणी करतां सुखी थाय छे. पण साधु पोते गृहस्थ योग्य अने गृहस्थ पोते साधु योग्य करणी करवा जता उलटा अनर्थ पामे छे. पुत्रेष्टिनीपरे (पुत्र माटे करवामां आवतो यह विशेष " पुत्रेष्टि" कहेवाय छे, तेनीपरे) अधिकार विरुद्ध अने निर्दोष शास्त्र विरुद्ध आचरणथी अनर्थन संभवे छे एम समजीने मुनिपुण जनो पाप युक्त यज्ञोथी सदंतर दूर रहे छे. अब पवित्र एवी धर्म करणी पण पवित्र उद्देशथी करे छे.
६. ब्रह्मार्पण कर, एनेज जो ज्ञान यज्ञर्नु खरेखलं सावन कहेवामां आवे तो तेथी पण स्वकृतत्व-अहंकार एटले पोते कर्याप
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. गानो गर्व गाली नांखी ज्ञानानिमा कर्मनोज होम करवो घटे छे. प्रथम अहंकारनो होम करतां कमनोज होम करवो ठरेछे. माटेज पापयुक्त कर्म-यज्ञ करवानो कदाग्रह तजी गृहस्थोए तेमज साधुओए उपरनी युक्ति युक्त वात विवेकथी विचारी स्व स्वरचित सदाचार सेववो ज योग्य छे.
७-८. आत्म समर्पण करनार, तत्त्वदर्शी, तत्त्वसाधक, तत्त्वज्ञानवडे अज्ञाननो उच्छेद करनार शुद्ध ब्रह्मचर्य सेवनार, तत्त्वअभ्यासगां रक्त रहेनार, अने स्वरूपमांज रमण करनार एवा निश्चित याग संपन्न साधुओ कदापि पापकर्मथी लेपाता नथी, निर्लेप रहेवा इच्छनार साधुए अनंतरोक्त लक्षण धारवां जोइये. वाकी तो अहंताममता, अज्ञान, अविवेकाचरण, अने स्वार्य अंबतादिक सर्व अपलहणो तो केवळ दुर्गतिनां ज कारक छे, माटे ए सर्वथी अलगा थइ स्वहित साप घटे छे.
॥ २९ ॥ पूजाष्टकम् ॥ दयाँभसा कृत स्नानः, संतोष शुभवस्त्रभृत् ॥ विवेक तिलकभ्राजी, भावना पावनाशयः॥१॥ भक्ति श्रद्धान घुमृणो, मिश्रपाटी रज द्रवैः ।।
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.. जैनहितोपदेश भाग ३ जो. नव ब्रह्मांगतो देवं, शुद्धमात्मानमर्चय ॥ २ ॥ क्षमा पुष्पस्रजं धर्म, युग्म क्षौमद्रयं तथा ॥ ध्यानाभरणसारं च, तदंगे विनिवेशय ।। ३ ।। मदस्थान भिदा त्यागै, लिखाग्रे चाष्ट मंगलीं ॥ ज्ञानामौ शुभ संकल्प, काकतुंडं च धूपय ॥ ४ ॥ प्राग् धर्म लवणोत्तारं, धर्मसंन्यास वन्हिना ॥ कूर्वन् पूरय सामर्थ्य, राजन्नी राजना विधि ॥ ५ ॥ स्फुरन् मंगलदीपं च, स्थापयानुभवं पुरः॥ योग नृत्य परस्तीय, त्रिक संयमवान् भव ॥ ६ ॥ उल्लसन्मनसः सत्य, घंटां वादयत स्तव ।। भाव पूजा रतस्येत्थं, करकोडे महोदयः ॥ ७॥ द्रव्य पूजोचिता भेदो, पालना गृहमेधिनां ॥ भाव पूजा तु साधूना, मभेदो पासनामिका ॥ ८॥
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
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॥ रहस्यार्थ ॥ १. पूज्य पूजा बे प्रकारनी छे, एक द्रव्यपूजा तथा भावपूजा. शुद्ध लक्षथी करवामां आवती द्रव्यपूजा भावपूजानुं कारण होवाथी अधिकारी जीवनें अधिक उपकारी थाय छे. गृहस्थ द्रव्यपूजानो मुख्यपणे अधिकारी छे, अने मुनि भावपूजानाज अधिकारी छे. परंतु गृहस्थ पण शुद्ध लक्षथी द्रव्यपूजावडे भाव साधी शके छे. तेथी ते अंते भावपूजानो पण अधिकारी थइ शके छे. माटे स्व स्वरचित कर्तव्य करवामां प्रमाद नहिं करतां शुद्ध लक्षपूर्वक आत्मार्पण करतां रहे जोइये. प्रथम भावपूजानुं स्वरूप प्रतिपादन करेछे, एवा शुद्ध लक्षथी जो गृहस्थ द्रव्यपूजा करवामां आदरवंत थाय तो ते पण अंते ते भावने पामे. मुनिनुं तो ए खास कर्तव्यज छे. माटे तेने उद्देशीने मुख्यपणे अत्र कथन छे, पण एवँ लक्ष गृहस्थने पण कर्तव्य छे.
२. हे भाइ ! निर्मलदया-जलथी स्नान करी संतोषरूपी शुभ वस्त्रने धारी, विनेकरूप तिलक करी, भावनावडे पवित्र आशय वनी, भक्तिरूप केशर घोली, श्रद्धारूप चंदन भेलची, तेमज अन्य उत्तम गुणरूप कस्तूरी प्रमुख संयोजी नवविध ब्रह्मचर्यरूप नवअंगे शुद्ध आत्मारूप देवाधिदेवनी तुं भावथी पूजा कर,
३. क्षमारूपी सुगंधी पुष्पमाला तथा विविध धर्मरूप वस्त्र युगल तथा शुभ ध्यानरूप श्रेष्ठ आभरण हे महानुभाव ! ते प्रभूना
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ११७ अंगे तुं स्थाप, अर्थात् एवा सद्गुणोने तुं धारण कर. ए सद्गुणो तारे अवश्य धारवा जेवाज छे.
४. वली आठे मदना त्याग करवारुप अष्टमंगलने तुं आगल स्थापन कर. तथा ज्ञान-अग्निमां शुभ अध्यवसायरुप कृष्णागुरुनो धूप कर.
५. शुद्ध धर्मरूपी अग्निवडे अशुद्ध धर्मरूपी लुण उतारीने देदीप्यमान वीर्योल्लासरूपी आरती उतारो. एटले सरागवृत्ति तजी वीतराग वृत्ति धारो-धारवाना खपी थाओ. सरागदशा ए अशुद्ध धर्म छे. अने वीतराग दशा ए शुद्ध आत्मधर्म छे. माटे अशुद्ध आस्मदशाने तजी शुद्ध आत्मदशाना कामी थाओ.
६. शुद्ध आत्म-अनुभवरूप देदीप्यमान मंगलदीवाने तमे प्रभुनी आगळ स्थापो, अने योगासेवन रूप नृत्य करतां सुसंयम रूप विविध वाजिंत्र वजावो. अर्थात् सद्बुद्धिथी तत्त्व परीक्षा करी शुद्ध अनुभव जगावो, अने तेम करी प्रमाद वेरीने दूर तजी सावधान थइ शुद्ध संयमर्नु सेवन करवा प्रवृत्त थाओ. रत्नत्रयीनुं पालन करो.
७. आ प्रमाणे सत्य-घंटावादने करनारा उल्लसित मनवाला, भाव पूजामां मग्न थयेला महापुरुषनो महोदय सुलभ छे. तात्पर्यके श्री वीतराग वचनानुसारे वर्ती सत्य प्ररूपणा करनारा प्रसन्न चिसवाला सात्त्विक पुरुषोज परमात्म प्रभुनी पवित्र आज्ञाना अखंड
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११८ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. पालनरूप भावपूजाना पूर्ण अधिकारी होवाथी परमपदने सुखेथी पामी शके छे, पण स्वच्छंदचारी, कलुषित मनवाला, कायर माणसो कंइ पामी शकता नथी, एम समजी परमपदना अर्थीए स्वच्छंदचारिता, कलुषता, तथा कायरता, परिहरी, शास्त्र परतंत्रता, कषायरहितता, तथा अप्रमत्तता अवश्य आरदवा खपी थq.
८. आ भाव पूजामा प्रस्तावें कहेली द्रव्य पूजा मुख्यपणे व्यवहारदृष्टि एवा गृहस्थोनेज आदरवा योग्यछे. अने भावपूजा तो मुख्यपणे निश्चयदृष्टि एवा मुनिराजोनेज उपासवा योग्यछे. कल्याण पण तेमज संभवे छे. इत्यलम् ।।
॥ ३० ॥ ध्यानाष्टकम् ॥ ध्याता ध्येयं तथा ध्यानं, त्रयं यस्यैकतां गतं ॥ मुनेरनन्य चित्तस्य, तस्यदुःखं न विद्यते ।। १॥ ध्यातान्तरात्मा ध्येयस्तु, परमात्मा प्रकीर्तितः॥ ध्यानं चैकाग्र्य संवित्तिः समापत्ति स्तदेकता ॥२॥ मणाविव प्रतिच्छाया, समापत्तिः परात्मनः॥ क्षीणवृत्तौ भवेद्ध्याना, दंतरात्मनि निर्मले ॥३॥
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
आपत्तिश्च ततः पुण्य, तीर्थकृत् कर्मबंधतः ॥ तद्भावा भिमुखत्वेन, संपत्तिश्च क्रमाद् भवेत् ॥ ४ ॥ इत्थं ध्यानफलाद्युक्तं, विंशति स्थानकाद्यपि || कष्टमात्रं त्वभव्याना, मपि नो दुर्लभं भवे ॥ जितेंद्रियस्य धीरस्य, प्रशान्तस्य स्थिरात्मनः ॥ सुखासनस्य नासाग्र, न्यस्तनेत्रस्य योगिनः ॥ ६ ॥ रुद्धबाह्य मनोवृत्ते, धरणा धारयारयात् ॥
प्रसन्नस्या प्रमत्तस्य, चिदानंद सुधालिहः ॥ ७ ॥ साम्राज्यम प्रतिद्वंद्र, मंतरेव वितन्वतः ॥ ध्यानिनो नोपमा लोके, सदेव मनुजेऽपिहि ॥ ८ ॥
११९
॥ रहस्यार्थ ॥
१. ध्याता, ध्येय, अने ध्यान ए त्रणे जेने एकताने पाम्यां छे एवा एकाग्र चित्तवाळा सुनिने कंइ पण दुःख नथी. जेटली ए वावतम खामी छे तेटलुंज दुःख शेष छे एम समजवुं अने जेम ते खामी जलदी दुर थइ जाय तेम सावधानपणे तेनो खप करवो.
.
.
स्वरू
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११८ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. पालनरूप भावपूजाना पूर्ण अधिकारी होवाथी परमपदने सुखेथी पामी शके छे, पण स्वच्छंदचारी, कलुषित मनवाला, कायर माणसो का पामी शकता नथी, एम समजी परमपदना अथीए स्वच्छंदचारिता, कलुषता, तथा कायरता, परिहरी, शास्त्र परतंत्रता, कषायरहितता, तथा अप्रमत्तता अवश्य आरदवा खपी थq.
८. आ भाव पूजामा प्रस्तावें कहेली द्रव्य पूजा मुख्यपणे व्यवहारदृष्टि एवा गृहस्थोनेज आदरवा योग्यछे. अने भावपूजा तो मुख्यपणे निश्चयदृष्टि एवा मुनिराजोनेज उपासवा योग्यछे. कल्याण पण तेमज संभवे छे. इत्यलम् ॥
॥ ३०॥ ध्यानाष्टकम् ॥ ध्याता ध्येयं तथा ध्यानं, त्रयं यस्यैकतां गतं ॥ मुनेरनन्य चित्तस्य, तस्यदुःखं न विद्यते ॥ १॥ ध्यातान्तरात्मा ध्येयस्तु, परमात्मा प्रकीर्तितः॥ ध्यानं चैकाय्य संवित्तिः समापत्ति स्तदेकता ॥२॥ मणाविव प्रतिच्छाया, समापत्तिः परात्मनः ॥ क्षीणवृत्तौ भवेद्ध्याना, दंतरात्मनि निर्मले ॥३॥
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ११९ आपत्तिश्च ततः पुण्य, तीर्थकृत् कर्मबंधतः॥ तभावा भिमुखत्वेन, संपत्तिश्च क्रमाद् भवेत् ॥४॥ इत्थं ध्यानफलायुक्तं, विंशति स्थानकाद्यपि ॥ कष्टमात्रं त्वभव्याना, मपि नो दुर्लभं भवे ॥ जितेंद्रियस्य धीरस्य, प्रशान्तस्य स्थिरात्मनः॥ सुखासनस्य नासाग्र, न्यस्तनेत्रस्य योगिनः ॥ ६॥ रुद्धबाह्य मनोवृत्ते, र्धारणा धारयारयात् ॥ प्रसन्नस्या प्रमत्तस्य, चिदानंद सुधालिहः ॥७॥ साम्राज्यम प्रतिद्वंद्ध, मंतरेव वितन्वतः।। यानिनो नोपमा लोके, सदेव मनुजेऽपिहि ॥ ८॥
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॥ रहस्यार्थ॥ १. ध्याता, ध्येय, अने ध्यान ए त्रणे जेने एकताने पाग्यां छे एवा एकाग्रचित्तवाळा मुनिने कंइ पण दुःख नथी. जेटलीए वावतमा खामी छे तेटलुंज दुःख शेष छे एम समजबुं अने जेम ते खामी जलदी दुर थइ जाय तेम सावधानपणे तेनो खप करवो.
परू
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१२०
श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
२. बाहदृष्टिपणुं तजीने अंतर दृष्टिथी आत्म-निरीक्षण करनारो अंतर-मात्मा ध्याता-ध्यान करवानो अधिकारी छे. समस्त दोषने दली निर्मल स्फटिक जेवू शुद्ध स्वरूप जेमने संपूर्ण प्रगट्यु छे. एका परमात्मा, ध्येय-ध्यानगोचर करवा योग्यछे. आवा ध्येयमां एकता संलग्न भान ते ध्यान अने ए त्रणेनी अभेदता थवी ते एकता अथवा लय कहेवाय छे. एवी एकतामा हुँ ध्याता छु अने प्रभुजी ध्येय छे एवं भान पण होतुं नथी, एटले हुं प्रभुना ध्याना लीन थयो ढु एवो पण भेदभाव रहेतो नथी. तेमां तो केवल एकाकार वृत्तिज बनी रहे छे.
३. जेम चंद्रकान्त विगेरे मणिमां सामी वस्तुनुं प्रतिबिंब पड़ी रहे छे तेम (ध्यानवडे) अंतर मलनो क्षय थये छते निर्मळ एवा अंतर-आत्मामा परमात्मानी प्रतिछाया (पतिबिंब) पडि रहे छे. सर्व अंतरमलनो सर्वथा क्षय थये छते ते अंतर आत्माज परमात्मारूप . रहेछे. पण ते पहेलो पण ध्यानना दृढ अभ्यासी मुमुक्षुने एकता
प्रमात्म खरूप झलकी रहेछे. ''प्रथम तो आत्म-अनुभव सारी री थायछे
य छे. त्यारबाद पवित्र एका तीर्थगवनी सन्मुखताथी तीर्थकर
पमार्थ प्रगटपणे स
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. १२१ मजाय छे के पवित्र ध्यानना प्रभावशी आत्मानुभव जागे छे, अने तेथी श्री तीर्थकर नाम कर्म जेवो प्रकृष्ट पुण्य प्रकृति पण बंधाय छे.
५. आ प्रमाणे तीर्थकर पदवीनी प्राप्ति रुप ध्यानतुं फल जेथी प्रभवे छे. एवो वीस स्थानकादिक तप पण करवो युक्त छे. कष्ट मात्र रुप तप तो अभव्य जीवोने पण सुलभ छे. केवल संसारिक सुखने चाहनारा अभव्यने अयोग्यताथी परमार्थ-फलनी प्राप्ति घइ शकती नथी.
६-७-८. हवे ध्यान करवाने योग्य जीवनी केवी दशा होय छे, ते कंइ विशेषताथी जणावे छे. जितेन्द्रिय, धीर, प्रशान्त, स्थि. रतावंत, सुखासन, अने नाशिकाना अग्रभागे स्थापी छे दृष्टि जेणे, तथा ध्येय वस्तुमा चित्तने स्थिर वांधी राखवा रूप धारणाना अखंड प्रवाहथी जेणे वाह्य मनोवृत्तिनो शीघ्र रोध कयों छे, प्रसन्न, अप्रमत्त, अने ज्ञानानंदरूपी अमृतनो आस्वाद करनारा, तेमज अनुपम एवा आत्म-साम्राज्यनो अंतरमांज अनुभव करनारा, एवा ध्यानी-योगीनी बरोबरी करे एवो कोइ पण देवलोकमां के मनुष्य लोकमां नथी. सुखासन एटले ध्यानमां विघ्न न पडे एवा अनुकूल पद्मासनादिने सेवनार जने भवव सनानो क्षय यो छे, एटले विषय तCणा जेनी शमी गइ छे, अने नि:स्पृहताथी जगतथी न्यारो रही शान्तपणे सहज-स्वभावमा ज रही जे प्रमाद रहित परमात्म स्वरू
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
पने एकाग्रपणे ध्यावे छे, एवा आत्म गुण - विश्रामी सुप्रसन्न धीर महापुरुषनी जगतमां कोण होड करी शके ? आवा महापुरुषोने ज अनेक प्रकारनी उत्तम लब्धि, सिद्धि विगेरे संभवे छे, अने आवा ध्याता पुरुषोज अंते ध्येय रूप थाय छे.
॥ ३१ ॥ तपाष्टकम् ॥ ज्ञानमेव बुधाः प्राहुः, कर्मणां तापना तपः ॥ तदाभ्यंतर मेवेष्टं, बाह्यं तदुपबृंहकम् || १ || आनुस्रोतसिकी वृत्ति, बालानां सुखशीलता ॥ प्रातिस्रोतसिकी वृत्ति, ज्ञनिनां परमं तपः ॥ २ ॥ धनार्थिनां यथा नास्ति, शीततापादि दुस्सहं || तथा भव विरक्तानां तत्त्वज्ञानार्थिनामपि ॥ ३ ॥ सदुपाया प्रवृत्ताना, मुपेय मधुरत्वतः ॥ ज्ञानिनां नित्य मानंद, वृद्धिरेव तपस्विनां ॥ ४ ॥ इत्थं च दुःखरूपत्वात्, तपो व्यर्थ मितीच्छतां ॥ बौद्धानां निहता बुद्धि, बौद्धानंदा परीक्षयात् ॥ ५ ॥
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
यत्र जिनाच च कषायाणां तथा हतिः || सानुबंधा जिनाज्ञा च तत्तपः शुद्धमिष्यते ॥ ६ ॥ तदेव हि तपः कार्यं, दुर्ध्यानं यत्र नो भवेत् ॥ येन योगा न हीयन्ते, क्षीयन्ते नेंद्रियाणि वा ॥ ७॥ मूलोत्तर गुणश्रेणि, प्राज्य साम्राज्यसिद्धये ॥ बाह्यमाभ्यंतरं चेत्थं, तपः कुर्याद महामुनिः ॥ ८ ॥
१२३.
॥ रहस्यार्थ ॥
१. कर्मने शिथिल करी नांखनार होवाथी ज्ञानज तप छे, एम तत्त्वज्ञानीओ कहे छे ते तप वे प्रकारनुं छे, एकतो वाह्य अने बीजुं अभ्यंतर तेमां कर्म मात्रनो क्षय करवा समर्थ एवो अभ्यंतर तपज श्रेष्ठ छे. प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान अने कायोत्सर्ग ए अभ्यंतर तपना भेद छे, आवा अभ्यंतर तपनी पुष्टि माटेज वाह्य तप करवानो को छे. अनशन ( उपवास विगेरे ) उनोदर्य (अल्प आहार करवो ते) वृति संक्षेप ( भोगोपभोगना संवंधमां विशेष नियम पालना ते ) रसत्याग, कायक्लेश, अने संलीनता ( आसन जय करवा नियम विशेष ) ए वाह्य तपना छ प्रकार छे.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
विवेकी आत्मा बाह्यतप साधनवडे अभ्यंतर तपनी अधिक अधिक पोषणा करतोज रहेछे.
२. इंद्रियो अने मन दोरी जाय तेम दोरावारूप बालजीवोनी अनुस्रोत-वृत्ति तो सर्वने सुखसाध्य छे, पण तेमनो जय करी सामापूरे चालवा जेवी ज्ञानी पुरुपोनी प्रतिस्रोत वृत्तिज परमतपरूप छे. प्रथमनी वृत्ति शीखवी पडती नथी अने बीजी तो खास शीखवी पडे छे.
३. जेम धनना अधीने शीत ताप विगेरे सहवा कठोन पडता नथी, तेम तत्त्वज्ञाना अर्थी एवा भववासथी विमुख जीवोने पण सहेवा सुलभ थइ पडे छे.
४. कल्याण साधवाना श्रेष्ठ उपायमां लागेला तत्वज्ञानी-तपस्त्रीने तेमां मिठाश उपजवाथी निरंतर आनंदनी वृद्धिज थती जाय छे. नित्य चढते परिणामे सदुपायद्वारा ते आत्म कल्याणने साधे छे, विवेकीने तप सुख रूपज छे.
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५. आधी सिद्ध थाय छे के “ दुःखरूप होवाथी तप करवो व्यर्थ छे एम इच्छनार बौध लोकोनी मति मारी गइ छे " केमके तपथी तो दुःखने बदले सहज आनंदनी वृद्धि थाय छे, माटे एवा कायर अने स्वच्छंदी सुख - शीलजनोनां वचन सांभली महा मंगल
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
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मय तपमां मंद - आदर न थवुं यथाशक्ति उभय तपमां अवश्य उद्यम करवो.
६. जे तप करतां, ब्रह्मचर्यंनी गुप्ति ( शील संरक्षण), वीतरागनी भक्ति, तथा कषायनी शान्ति सुखे सधाय छे, तेमज जिनेश्वर प्रभुनी पवित्र आज्ञानुं प्रतिपालन थाय छे, तेनुं जरापण उल्लंघन थतुं नथी तेवो तप शुद्ध-दोष रहित होवाथी अवश्य आचरवा योग्य ज छे, तपस्या करवावालाए उत्तम फल मेळववा उपरनी वाबत लक्षमां राखवा योग्य छे. केमके ते प्रमाणे वर्ततांज तपस्या लेखे थाय छे, एटले आत्मा निर्मल थतो जाय छे, अने अंते सर्व कर्ममलनो क्षय थतां अक्षय सुख संप्राप्त थाय छे.
७. तप करतां लगारे दुर्ध्यान थाय नहिं, स्वाध्याय ध्यानादिक संयम - योगमां खामी आवे नहिं, तेम धर्मकार्यमा सहायभुत थनारी इंद्रियो समूलगी क्षीण थइ जाय नहिं, एम खास उपयोग राखीने स्वशक्ति गोपव्या विना समताभाव लावीने श्री तीर्थंकर देवे पण सेवेला तपनो दरेक मोक्षार्थीए अवश्य आदर करवो.
८. अहिंसादिक पांच महाव्रत अने आहारशुद्धि विगेरे मूल तथा उत्तर संयम गुणोनी श्रेणिरुप श्रेष्ठ साम्राज्यनी सिद्धि करवा माटे महामुनि पण उभय प्रकारना तपनुं यथार्थ सेवन करवामां प्रमाद करे नहि. केमके संयमवडे जोके नवां कर्म रोकाय छे, पण सं
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१२६ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. चित कर्मनो क्षय तो तप वडेज थाय छे. अने त्यारेज अक्षय पदनी प्राप्ति थइ शके छे. माटे संयमनी खरी सफलता पण तपथीज सिद्धं थाय छे.
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॥३२ ॥ सर्वनयाश्रय-अष्टकम् ॥ धावन्तोऽपि नयाः सर्वे, स्युर्भावे कृतविश्रमाः॥ चारित्रगुण लीनः स्या, दिति सर्वनयाश्रितः॥१॥ पृथङ् नयामिथः पक्ष, प्रतिपक्ष कदर्थिताः॥ समवृत्ति सुखास्वादी, ज्ञानी सर्वनयाश्रितः ॥ २॥ नाप्रमाणं प्रमाणं वा, सर्वमप्य विशेषितं ॥ . विशेषितं प्रमाणं स्या, दिति सर्वनयज्ञता ॥३॥ लोके सर्वनयज्ञानां, ताटस्थ्यं वाप्यनुग्रहः ॥ स्यात्पृथङ् नयमूढानां, स्मयार्तिर्वातिविग्रहः ॥ ४ ॥ श्रेयः सर्वनयज्ञानां, विपुलं धर्मवादतः ॥ शुष्क वादाविवादा च, परेषां तु विपर्ययः ॥५॥ प्रकाशितं जनानां यै, मतं सर्व नयाश्रितम् ॥
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. चित्ते परिणतं चेदं, येषां तेभ्यो नमोनमः ॥ ६॥ निश्चये व्यवहारे च, त्यक्त्वा ज्ञाने च कर्मणि ॥ एक पाक्षिक विश्लेषा, मारूढाः शुद्ध भूमिकां ॥७॥ अमूढ लक्ष्याः सर्वत्र, पक्षपात विवर्जिताः॥ जयंति परमानंद, मयाः सर्वनयाश्रयाः ॥ ८॥
॥ रहस्यार्थ ॥ १. अनंत धर्म (गुण) वाली वस्तुना वीजा वधा धर्मनी सामा न्यतः उपेक्षा करी मुख्यपणे अमुक एकज धर्मने स्थापनार नय कहे वाय छे. तेवा नय अनंता होवा घटे छे तोपण अत्र स्थूलताथी सात नयर्नु कथन कर्यु छे, तेमां शेष सर्वेनो समावेश थइ जाय छे. नैगम, संग्रह, व्यवहार, रुजुमूत्र, शब्द, समभिरुह, अने एवंभूत. ए साते नयनां नाम छे. तेनु विशेष व्याख्यान वीजा ग्रंथोथी जाणवा योग्य छे. अत्र तो फक्त समुचय नयोनुं स्वरूप कहेलुं छे. सर्वे नयो उतावला छतां स्ववस्तु-धर्ममां विश्राप करनारा छे. अर्थात् वस्तुधर्मने तजी बहार जता नथी, एम समजी चारित्र गुणमां लीन साधु सर्व नयनो समाश्रय करे छे, सर्व नयनो अभिप्राय साथे मळतांज संपूर्ण वस्तु-अनंत धर्मात्मक समजाय छे, वीजी रीते वोलिये तो
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
सर्व नयनो एक साथ आश्रय करनारज चारित्र गुणमां लीन होइ शके छे, पण बीजो नहिं.
२. जूदा जूदा नयो परस्पर पक्ष अने प्रतिपक्षयी कदर्थित थाय छे. अर्थात् एकेक जूदा जूदा नयनेज अवलंबनारनी मांहोमांहे स्वपक्ष अने परपक्षथी कदर्थना थया करे छे. पण सर्व नयने सरखी रीते आदरनार तो समता सुखनोज आस्वाद करे छे. तात्पर्य एवो नीकले छे के समतारस ( शान्तरस ) ना अर्थी जने तो सर्व नयनो सरखी रीतेज आश्रय करवो योग्य छे. अर्थात् निरपेक्षपणे कोइ नयनुं खंडन मंडन करवा प्रवर्त्तं नहिं.
३. सामान्य कथन मात्र, अप्रमाण पण नथी तेम प्रमाण पण नथी. तेनी तेज बात स्यात् पदथी विशेषित थाय तो ते प्रमाणभूत थाय छे. जेमके वस्तु नित्य छे, ए कथन सामान्य होवाथी अत्रमाण नथी ते प्रमाण पण नथी. पण " स्यात् नित्यं " ए कथन विशेपित होवाथी प्रमाणरूप छे तेमज ' स्यात् अनित्यं' एवं कथन पण प्रमाणभूतज छे. केमके दरेक वस्तु द्रव्यपणे नित्य छे पण पर्यायपणे तो अनित्य छे, जेम आत्मा द्रव्यपणे नित्य छे पण मनुष्यादि पर्यायपणे अनित्य छे. एम प्रत्येक वस्तु कथंचित् नित्यानित्य होइ शके छे. ए प्रमाणेज सर्व नयनुं रहस्य समजवानुं छे. तात्पर्य के एकलोनिरपेक्ष नय प्रमाण पण नथी तेम अप्रमाण पण नधी. पण वीजा
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
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नयनी अपेक्षावाळो - सापेक्ष नयज प्रमाणभूत थाय छे माटेज सर्व नयाश्रितता श्रेष्ठ छे.
४. सर्व न यज्ञ पोते सापेक्षदृष्टि होवाथी तटस्थ रहि शके छे, अथवा अन्यजनोतुं समाधान करी शकवाथी उपकारी नीवडे छे, पण पृथक् - एकांत-निरपेक्ष नयमां आग्रहवंतने तो अहंकार जन्य पीडा अथवा भारे क्लेशज पेदा थाय छे, केमके तेवा कदाग्रहीने स्वपक्षनुं मंडन करवानो अने परपक्षनु खंडन करवानो सहज गर्व आवे छे अने तेम करवा जतां सहेजे क्लेश बधे छे. एवं क्लिष्ट परिणाम सापेक्षदृष्टि एवा सर्व नयज्ञने कदापि आववानो संभव नथी. परहित पण एमज साधी शकाय छे. माटे सर्व नयज्ञताज श्रेष्ठ छे.
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५. सर्व नयज्ञनेज धर्मचर्चाथी घणो लाभ लइ शके छे. वाकी वीजाने तो शुष्कवाद के विवादथी लाभने बदले उलटये तोटो (गेरलाभ ) ज थाय छे.
६. जेमणे सर्व नयाश्रित धर्म प्रकाश्यो छे अने ते जेमने अंतरमां परिणम्यो छे तेमने अमारो वारंवार प्रणाम छे, सत्य - सापेक्ष कथन अने कारक ए उभयनी बलिहारी छे.
७-८ निश्चय अने व्यवहार तेमज ज्ञान अने क्रियामां एकान्त पक्ष तजीने जेमणे स्याद्वादनो स्वीकार कर्यो छे एवा तत्वदृष्टि, पक्षपात वर्जित, अने सर्व नयनो आश्रय करनारा परमानंदी
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श्री जैनहितोपदश भार्ग ३ जो.
पुरुषोन जगतमा जयवंता वर्ते छे. एकान्त पक्षन सर्व कदाग्रह अने दुःखनु मूळ छे. एम समजीनेज सर्व नयाश्रित सत्पुरुषोज एकान्त नहिं खेंचतां सर्वत्र ज्ञान अने क्रिया, उत्सर्ग अने अपवाद, तथा निश्चय अने व्यवहारनो स्वीकार करे छे. इतिशम.
॥ उपसंहार ॥ पूर्णो ममः स्थिरोऽमोहो, ज्ञानी शान्तो जितेन्द्रियः॥ यागी क्रियापरस्तृप्तो, निर्लेपो निस्पृहो मुनिः ॥१॥ विद्याविवेक संपन्नो, मध्यस्थो भयवर्जितः ॥ अनात्म शंसकस्तत्त्व, दृष्टिः सर्वसमृद्धिमान् ॥२॥ ध्याता कर्मविपाकाना, मुहिनो भववारिधः ॥ लोक संज्ञाविनिर्मुक्तः, शास्त्रहर निष्परिग्रहः ॥३॥ शुद्धानुभववान योगी, नियागप्रतिपत्तिमान् ।। भावा ध्यान तपसां, भूमिः सर्व नयाश्रयः॥ ४॥ स्पष्टं निष्टंकितंतत्त्व, मष्टकैः प्रतिपत्तिमान् ॥ मुनिमहोदयज्ञान, सारं समधिगच्छति ॥ ५॥
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ॥ रहस्यार्थ ॥
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१ - २. अक्षय अने अव्यावाध एवं मोक्षसुख मेळवी आपनार श्रेष्ठ ज्ञानसंपन्न कोण थइ शके छे ? तेनु समाधान करे छे. जे सर्वथा उपाधि मुक्त थइ सहज गुणसंपत्तिवेज सार लेखी तेनेज ग्रहे छे, मांज मन थाय छे, तेमांज स्थिरता करे छे, इतर कोई वस्तुमां मुंझातो नयी, वीजा संकल्प-विकल करतोज नयी पण शान्त चिती स्वभावमाज रसे छे, मन अने इंद्रियो उपर जेणे जय मेळव्यो छे पण तेमने पराधीन थइ रहेतो नयी, वाह्यभावनो जेणे त्याग कर्यो छे, अने अंतरभाव जेने जागृत थयो छे, तेनीज पुष्टि माटे जे प्रयत्न करे छे पण बीजी नकामी वावतमां राचतो नयी, सहज संतोषी छे, एंटले जेणे विषयादि तृष्णाने छेदी छे, जे जगतथी न्यारोज रहे छे, तेमां लेपातो नयी, जे कोइनी आशा राखतो नथी, केवळ निःस्पृह थइ रहे छे, जे सारासारने सारी रीते समजे छे अने समजीने असारना परिहार पूर्वक सार मार्गने संग्रहे छे, सुख दुःखमां समदर्शी छे,
मां हर्ष विषाद करतोज नथी, जे भय तजी निर्भयपणे स्व-इष्ट साधे छे, जे कदापि स्व-लाघा के परनिन्दा करतोज नथी जे तत्त्वहोवाथी वस्तु वस्तुगतेज जाणे-जोवे छे, जे घटमांज सकल समृद्धि रहेली माने छे, जे कर्मनुं स्वरूप यथार्थ समजीने शुभाशुभं कर्मना उदयमा साम्य ( समता ) धारे छे, पण मनमां ते संबंधी
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
संकल्प - विकल्प करतो नथी, वळी जे आ भव-समुद्रथी उद्विग्न छतो तेनो वेगे पार पामवा माटे नित्य प्रमादरहित प्रयत्न कर्या करे छे, जेणे लोक संज्ञा तजी छे एटले मिथ्या लोभ लालचमां नहिं तणातां जे सामा पूरे छे, जे शास्त्र दृष्टिथी सर्वभावने प्रत्यक्षनी पेरे देखे छे, जेणे मूर्छाने तो मारी नाखी छे तेथी कोइपण पदार्थमां प्रतिबंध करतो नथी, जेने शुद्ध अनुभव जाग्यो तेथी जेणे चोथी उदगारदशा धारी छे, अने केवळ ज्ञान पण जेने अति निकटज रहेलुं छे, जेथी अवध्य ( अचूक ) मोक्षफळ मळे एवो समर्थ योग जेणे साध्यो छे, वीतराग आज्ञानु अखंड आराधन करवारुप निश्चित याग जेणे सेव्यो छे, भावपूजामां जे तल्लीन थयो छे, श्रेष्ठ ध्यान जेणे साध्युं छे, तेमज समता पूर्वक विविध तपने सेवी जेणे कठीन कर्मनो पण क्षय कर्यो छे, अने सर्व नयमां जेणे समानता बुद्धि स्थापी छे, तेथी तटस्थपणे रही सर्वत्र स्वपरहित सुखे साधी शके छे, एवा परमार्थ - दश निष्पक्षपाती मुनिराज अनंतरोक्त ३२ अष्टक बडे स्पष्ट एव निश्चित तत्त्वने पामीने, परम पद प्रापक 4 ज्ञानसार ' ने सम्यम् आराधी शके छे.
निर्विकारं निराबाधं, ज्ञानसारमुपेयुषां ॥ विनिवृत्त पराशानां, मोक्षोऽत्रैव महात्मनां ॥ ६ ॥
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. चित्तमार्दीकृतं ज्ञान,-सार सार स्वतोर्मिभिः ।। नाप्नोति तीबमोहाग्नि, प्लोष शोष कदर्थना ।। ७ ।।
॥रहस्यार्थ ॥ ६. सर्वथा विकारवर्जित (निर्दोष) अने विरोधरहित एवा आ ज्ञानसारने प्राप्त थयेला अने परआशाथी मुक्त थयेला महात्माओने अहिंज मोक्ष छे. अर्थात् एवा योगीश्वरो जीवनमुक्त छे.
७. ज्ञानसारना उत्तम रहस्य वडे जेतुं मन द्रवित (शान्तशीतल) थयुं छे, तेने तीव्र मोह अग्निथी दाझवानो भय नथी. अर्थात आर्नु सार-रहस्य जेने परिणम्यु छे तेने मोह पराभव करी शकतो नथी.
अचिन्या कापि साधूनां, ज्ञानसार गरिष्ठता ॥ गतिर्ययोर्ध्वमेव स्या, दधः पातः कदापि न ॥ ८ ॥ क्लेशक्षयो हि मंडूक, चूर्णतुल्यः क्रियाकृतः ॥ दग्धतच्चूर्णसदृशो, ज्ञानसार कृतः पुनः ।। ९ ।। ज्ञानपूतां परेऽप्याहुः, क्रियां हेमघटोपमा ।।
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१३४ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. युक्तं तदपि तद्भावं, न यद्भग्नापि सोज्झति ॥१०॥ क्रियाशून्यं च यज्ज्ञान, ज्ञानशून्या च याक्रिया ॥ अनयोरंतरं ज्ञेयं, भानु खद्योत योरिव ॥ ११ ॥ चारित्रं विरतिः पूर्णा, ज्ञानस्योत्कर्ष एव हि॥ ज्ञानाद्वैतनये दृष्टि, यातद्योग सिद्धये ॥ १२ ॥
॥ रहस्यार्थ ॥ ८. ज्ञानसारथी गुरु (वजनवाळा) थया छतां साधुजनो उंची गतिज पामे छे. कदापि नीची गतिमा जताज नथी ए आश्चर्य छे. केमके भारे वजनवाळी वस्तु तो स्वभाविक रीते नीचे जवी जोइये.
९. ज्ञान विना शुष्क क्रियाथी मात्र नामनोज क्लेश क्षय थायाँ छे अने ज्ञानसारनी सहायथी तो समूळगो क्लेशनो क्षय थइ शके छे.
१०. ज्ञानयुक्त क्रिया सोनाना घडा जेवी छे, एम वेद-व्यासादिक कहे छे ते व्याजवी छे केमके कदाच ते भांगे तोपण सोनुं जाय नहिं. फक्त घाट घडामण जाय. तेम कहाच कर्मवशात् ज्ञानी क्रियाथी पतित थइ जाय तोपण तत् क्रिया संबंधी तेनी भावना नष्ट थइ जती नथी.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ११. क्रिया शून्य ज्ञानमां अने ज्ञान शून्य क्रियामां जेटलो सूर्य अने खजूवामां आंतरो छे तेटलोज आंतरो छे. अर्थात् क्रियारहित पण भावना-ज्ञान सूर्य समान छे अने ज्ञान शून्य शुष्क क्रिया मात्र खजूवा जेवी छे.
१२. विभावथी संपूर्ण विरमका रूप यथार्थ चारित्र पण विशिष्ट ज्ञानमुंज फळ छे एम समजीने एवा उत्कृष्ट चारित्रनी सिद्धि माटे ज्ञानी अभिन्न एवा संयममार्गमां दृष्टि देवी. जेथी संयमनी पुष्टि थाय एवो ज्ञान-योगनो अभ्यास प्रमाद रहित करवो, संपूर्ण, अभ्यासथी सहज चारित्र सिद्ध थशे.
सिद्धिं सिद्धपुरे पुरंदरपुरस्पर्धावहे लब्धां ।। श्चिद्दीपोऽयमुदारसारमहसा दीपोत्सवे पर्वणि ॥ एतद् भावन भाव पावन मन चंचचमत्कारिणां । तैस्तैःतिशतैः सुनिश्चयमतैर्नित्योऽस्तु दीपोत्सवः॥१३॥
१३. स्वर्गपुरी जेवा सिद्धपुरमां दीवाली पर्व समये उदार अने सार ज्योतियुक्त आ ज्ञानसार रूप भावदीपक प्रगट थयो, अर्थात् आ ग्रंथ सिद्धपुर नगरमां दीवालीना दिवसे पूर्ण कयों. आ
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जा.
ग्रंथमां कहेला सुंदर भावथी भावित पवित्र मनवाळा भव्य जीवोने आवा सेंकडो गये भाव दीपको वडे नित्य दिवाळी याभो ! एवी आ ग्रंथकारनी अंतर आशिष छे.
केषांचिद्विषयज्वरातुरमहो चित्तं परेषां विषावेगोदर्क कुतर्क मूर्छिन मथान्येषां कुवैराग्यतः || लग्नालर्क मबोध कूप पतितं चास्ते परेषामपि ॥ स्तोकानां तु विकारभार रहितं तद् ज्ञानसाराश्रितं ॥ १४ ॥
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१४. केटलाकनुं चित्त विषय - पीडाथी विह्वल होय छे. केलानुं चिच कुत्सित ( मंद ) वैराग्यथी हडकवावाळं होवाथी जे ते विषयमा चोतरफ दोडतुं होय छे. केटलाकनुं वळी विषय-विषना आवेगी थता कुतकमा मन थयेलुं होय छे, तेमज केटलाकनुं तो अज्ञानरूप अंधकूपां डूबेलुं होय छे. फक्त थोडा कनुं चित्त ज्ञानसा
मां लागेलुं होवाथी विकार विनानुं होय छे. तात्पर्य के ज्ञानसारनी प्राप्ति महा भाग्येज थइ शके छे. जेमनुं चित्त विकार रहित होवाथी अधिकारी (योग्य) वन्युं छे तेमनेज आ ज्ञानसार संप्राप्त थइ शके छे. वाकीना योग्यता विनाना ने तेनी प्राप्ति थइ शकनी नथी.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. १३७ जातोद्रेक विवेक तोरण ततो धावल्यमातन्वते ॥ हृद्गेहे समयोचितः प्रसरति स्फीतश्च गीतध्वनिः॥ पूर्णानंदघनस्य किं सहजया तद्भाग्य भंग्याभवन् ।। नैतद् ग्रंथ मिषात् करग्रहमहश्चित्रं चरित्रश्रियः ॥१५॥
१५. चारित्र लक्ष्मीनो थतो विवाह महोत्सव आ ग्रंथना मिपथी पूर्णानंदी आत्माना सहज तेनी भाग्य रचना वडे वृद्धि पामेला विवेकल्पी तोरगनी श्रेणिवाळा मनमंदिरयां धवलताने विसारे छे अने स्कीत (विशाळ) मंगळ गीतनो ध्वनि पण मांहे प्रसरी रह्यो छे. तात्पर्य के चारित्र लक्ष्मीनो पूर्णानंदधन (आत्मा) नी साथे विवाह थाय छे त्यारे तेनुं मन उब प्रकारना विवेकवाडं अने उज्वल निर्मल बने छे तेमन महा मंगलमय स्वाध्याय ध्याननो घोष वन्यो रहे छे. लौकिकमां पण विवाह समये घरमां उंचा तोरण बांधकामां
आवे छे. घरने घोळवामां आवे छे भने विविध वाजिंत्र तथा मंगळ गीत- गावामां आवे छे. तेम अहिं चारित्र लक्ष्मीने वरनार पूर्णानंदीने सर्व परमार्थथी थयुं छे. सम्यम् ज्ञान अने चारित्रना मेळापथी सर्वत्र आवी घटना थाय छे अने थशे. एमांशुं आश्चर्य छ ? अपितु कंइज नहिं.
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१३८ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. भावस्तोमपवित्रगोमयरसै लिप्तैव भूः सर्वतः॥ संसिक्ता समतोदकैरथपथि न्यस्ता विवेक स्त्रजः॥ अध्यात्मामृतपूर्णकामकलशश्चक्रेऽत्र शास्त्रे पुरः॥ पूर्णान्दघने पुरं प्रविशति स्वीयंकृतं मंगलम् ॥ १६ ॥
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१६. पूर्णानंदघन पोते अप्रमाद नगरमा प्रवेश कर्ये छते, पवित्र भावनाओ रूपी गोमयथी भूमि लिंपेली छे, चोतरफ समतारुपी जळनो छंटकाव करेलो छे, मार्गमा विवेकरूपी पुष्पनी माळाओ पाथरेली छे, अने अध्यात्मरुपी अमृतथी भरेलो मंगल कलश आ शास्त्रद्वाराज आगळ करेलो छे. एम विविध उपचारथी निज भाव मंगल कयु छे.
गच्छे श्री विजयादिदेव सुगुरोः स्वच्छे गुणानां गणैः॥ प्रौढिं प्रोढिम धाम्नि जीतविजयपाज्ञा परामैयरुः॥ तत्सातीर्थ्यभृतां नयादि विजय प्राज्ञोत्तमानां शिशोः॥ श्रीमन् न्याय विशारदस्य कृतिनामेपाकृतिः प्रीतये ॥१७॥
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. १३९ १७. ज्ञानदर्शन अने चारित्रादिक गुणोना समूहथी निर्मल अने उन्नतिना स्थानरुप श्री विजयदेव सरिना गच्छमां प्राज्ञ श्री जितविजयजी श्रेष्ठ उन्नतिने पाभ्या. तेमना गुरुभाई श्री नयविजयजी पंडितमा श्रेष्ठ थया. तेमना शिष्य श्रीमन् न्याय विशारद विरुदना धरनार श्री यशोविजयजीनी आ रचना पंडित लोकोनी प्रीतिने अर्थ थाओ ! विविध गुण विशाळ एवा तपगच्छमां थयेला पंडित श्री नयविजयजीना शिष्य श्री यशोविजयजीए आ ज्ञानसार सूत्रनी रचना कीधी छे, आ ग्रंथमां शान्त रसनीज प्रधानता होवाथी ते रसज्ञ पंडितोने अभीष्टज थशे. केमके सर्व रसमां प्रधानरस शान्तरसज छे अने ते रसनी सिद्धिथीज आत्मा निरुपाधिक सुख पामी शके छे.. आ अपूर्व अने अतिशय गंभीर ग्रंथनु स्वरूप निरूपण करतां जे कंड पुण्यार्जन थयु होय तेथी अमने तथा श्रोता जनोने पवित्र शान्तरसनी पुष्टि थाओ! तथास्तु. ! शुभंस्यात् सर्व भूतानाम्.
॥ श्री कल्याण मस्तु.॥
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
वैराग्यसारने उपदेश रहस्य. (१) जे पराइ निंदा विकथा करवामां मुंगो छे, परस्त्रीनुं मुख जोवामां आंधळो छे, अने परायुं धन हरवामां पांगळो छे, तेवो महापुरुपज जगमां जयवंतो वर्ते छे, परनिंदा, परस्त्रीमां रति अने परद्रव्य हरण महा निंद्य छे.
(२) जे आक्रोश भरेलां वचनोथी दूमातो नथी अने खुशामतथी खुशी थइ जतो नथी, जे दुर्गन्धथी दुगंछा करतो नथी, अने खुशवोथी राजी थइ जतो नथी, जे स्वीना रुपमा रति धारतो नथी, अने मृतवानथी मूग लावतो नथी, एवो समभावी उदासी योगीश्वरज सर्वत्र मुख समाधिमां रहे छे..
(३) जेने शत्रु अने मित्र वंने समान छे, जेने भोगनी लालसा तूटी गइ छे, अने तपश्चर्यामां जेने खेद थतो नथी, जेने पथ्थर अने सुवर्ण (रत्नादिक) वंने समान छे, एवा शुद्ध हृदयवाळा समभावी योगीजनोज खरा योगधारी छे..
(४) कुरंगनी जेवा चंचळ नेत्रवाळी अने काळा नागनी जेवा कुटिल केशने धारवावाळी कामिनीना राग पाशमा जे नथी पड़ी। जाता तेज खरा शूरवीर छे.
(५) स्त्रीना मध्यमां कृशता, भृकुटीमां वक्रता केशमा कुटीलता,
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श्री जनहितोपदेश भाग ३ जो.
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होठमां रक्तता, गतिमां मंदता, स्तनभागमां कठीनता, अने चक्षुर्मा चंचळता स्पष्ट जोइने फक्त कामाकुल मंदमति जनोज वैराग्यने. भजता नथी. सुविवेकी जनोने तो ते वैराग्यनी वृद्धि माटेज थायछे.
(६) स्वीयो कपट करी गद्गद् वाणीथी वोले छे, तेने कामांधजनो प्रेमउक्ति तरीके लेखे छे. विवेकी हंसो तेथी ठगाइ जता नथी.
(७) ज्यां सुधी आहारनी लोलुपता तजी नथी, सिद्धांतना अर्थरूपी महौषधितुं सम्यग् सेवन कर्यु नधी, अने अध्यात्म अमृतर्नु विधिवत् पान कर्यु नयी, त्यां मुधी विषय ज्वरतुं जोर जोइए तेवू घटतुं नथी. विषय तापनी शांति माटे रसलौल्यना त्याग पूर्वक सिद्धांतसार चूर्ण तथा तत्त्वामृततुं सम्यग् सेवन करवूज जोइए.
(८) भरयौवन वयमा कामने जय करनार धन्य धन्य छे.
(९) जेणे जाणी जोइने कामिनीने तजी छे, अने; संयमश्रीन सेवी छे, एवा सुविवेकी साधुने कुपित थयेलो पण काम कंइ करी शकतो नथी.
(१०) प्रियाने देखतांज कामज्वरनी परवशताथी संयम-सत्त्व क्षीण थइ जाय छे, पण नरकगतिना विपाक सांभरतांज तत्वविचार प्रगट थवाधी गमे तेवी व्हाली वल्लभा पण विख जेवी भासे छे,
(११) जेमणे यौवन वयमां पवित्र धर्म धुराने धारी महाव्रतो
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१४२ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.. अंगीकार कर्या छे; तेवा भाग्यशाली भव्योथीज आ पृथ्वी पावन थयेली छे.
(१२) कामदेवना बंधुभूत वसंतने पामीने सकळ वनराजी पण विविध वर्णवाळी मांजरना मिषयी रोमांचित थयेली लागे छे, तेमां सिद्धांतना सारनुं सतत सेवन करवाथी, जेमर्नु मन विषय तापथी लगारे तप्त थ नथी, एवा संत सुसाधु जनोनेज धन्य छे.
(१३) स्वाध्यायरुपी उत्तम संगीत युक्त, संतोषरुपी श्रेष्ठ पुष्पथी मंडित, सम्यग् ज्ञान विलासरुपी उत्तम मंडपा रही शुभ ध्यान शय्याने सेवी, तत्त्वार्थ वोधरुपी दीपकने प्रगटी, अने समतारुपी श्रेष्ठ स्त्रीनी साथे रमण करी केवल निर्वाण सुखना अभिलाषी महाशयोज रात्रीने समाधिमां गाळे छे.
(१४) शुद्ध ध्यानरुपी महा रसायणमां जे मन मग्न थयु छे; तेने कामिनीना कटाक्ष वगेरे विविध हावभावो शुं करनार छे ? __ (१५) सम्यग् ज्ञानरुपी जेना उंडा मूळ छे, समकितरुपी जेनी मजबूत शाखा छे, एवा व्रत-क्षने जेणे श्रद्धाजळथी सिंच्यु छे तेने अवश्य मोक्षफळ आपे छे, स्वर्गादिकना सुख तो पुष्पादिकनी पेरे प्रासंगिक छे, तेतो सहजमां प्राप्त थइ शके छे. - (१६) क्रोधादिक उग्र कषायरुपी चार चरणवाळो, व्यामो
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. १४३ हरुपी सुंढवाळो, राग द्वेषरुपी तीक्ष्ण दीर्घ दांतवाळो, अने दुर्वार कामथी मदोन्मत्त थयेलो, महा मिथ्यात्वरुपी दुष्ट गजने सम्यग् ज्ञान-अंकशना प्रभावथी जेणे वश कयों छे, ते महानुभावेज त्रणे लोकने स्ववश कर्या छे एम जाणवू.
(१७) यशकीर्तिने माटे पोतानुं सर्वस्व आपीदे एवा, अने पोताना स्वामीने माटे प्राण पण आपीदे एवा, बहु जनो मळी आवशे, पण शत्रुमित्र उपर जेमर्नु मन समरस (सरखं) वर्ते छे एवा तो कोइ विरलाज देखाय छे. __ (१८) जेनुं हृदय दयाई छे, वचन सत्यभूषित छे, अने काया परमार्थ साधनारी छे, एवा विवेकवानने कळिकाळ शुं करी शकवानो छ ?
(१९) जे कदापि असत्य बोलतोज नथी, जे रणसंग्राममा पाछी पानी करतो नथी, अने याचकोनो अनादर करतो नथी, तेवा रत्नपुरुषथीज आ पृथ्वी रत्नवती कहेवाय छे. केमके कहेवाय के के-'बहुरना वमुंघरा.'
(२०) सर्व आशारुपी वृक्षने कापवा कुवाडा जेवो काळ, जो सर्वनी पाछळ पडयो न होत तो विविध प्रकारना विषय मुखथी कोइ कदापि विरक्त थातज नहि.
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१४४ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
(२१) जगतनी कल्पित मायामा फसाइ जीवो ममताधी मारु मारं कर्या करे छे, पण मूढताथी समीपवर्ती कोपेला कृतांत-काळने देखी शकता नथी. नहिं तो जगतनी मिथ्या मोह मायामां अंनाइ जइ मारुं मारुं करीने तेओ कम मरे ?
(२२) छती साम्रग्रीनो सदुपयोग करवामां वेदरकार रहेनारने काळ समीप आव्ये छते मनमा खेद थाय छे के हाय ! मे स्वाधीनपणे काइ पण आत्म साधन न कर्यु, हवे पराधीन पडेलो हुं शुं करी शकुं ? प्रथमथीज सावधानपणे सत् सामग्रीने सकळ करी जाणनारने पाछळथी खेद करवो पडतोज नथी.
(२३) प्रथम प्रमादवडे तप जप व्रत पचखाण नहिं करनार कायर मागस पाछळथी व्यर्थ मात्र दैवनेज दोष देछे. खरो दोष तो पोतानोज छे के पोते छती सामग्रीए सवेळा चेत्यो नहिं.
(२४) बाल शीघ्र योवन वयने प्राप्त करतो अने जुदान जरा अवस्थाने प्राप्त थतो अने तेपण काळने वश थयो छतो, हष्ट नष्ट थयो देखाय छे एवां प्रत्यक्ष कौतुकवाळा बनाव देख्या बाद बीजा इंद्रजालनु शुं प्रयोजन छे ? आ संसारज अनेक पात्र युक्त विचित्र नाटकरुपज छे.
(२५) कर्मनुं विचित्रपगुं तो जोयो ? के मोटा राजाधिरान
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. पण दुर्दैव योगे भीख मागतो देखाय छे अने एक पामर भीखारी जेवों मोटुं साम्राज्य सुख पामे छे. ए पूर्वकृत कर्मनोज महिमा छे.
(२६) परलोक जतां प्राणीने पुत्रादिक संतती तेमज लक्ष्मी विगेरे कामे आवतां नथी. फक्त पुण्यने पापज तेनी साथे जाय छे.
(२७) मोहना मदथी मानवी मनमां धारे छे के, धर्म तो आगळ कराशे पण विकराळ काळ अचानक आवीने ते बापडानो कोळीयो करी जाय छे. पवित्र धर्मनुं आराधन करवामां प्रमाद सेवनार खरे. खर ठगाइ जाय छे, माटेज कहुं छे के 'काले करवं होय ते आजे कर अने आजे करवु होय ते अव घडीए कर.' केमके कालने काळनो भय छे.
(२८) रावण जेवा राजवी, हनुमान जेवा वीर अने रामचंद्र जेचा न्यायीनो पण काळ कोळीयो करी गयो तो वीजानुं तो कहेचुंज शुं ? आथीज काळ सर्वभक्षी कहेवाय छे ए वात सत्य छे. - (२९) सुकृत या सदाचरण विना मायामय बंधनोथी बंधायेला संसारी जीवोनी मुक्ति-मोक्ष शीरीते थइ शके वारु ?
(३०) आ मनुष्य जन्मरुपी चिंतामणी रत्न पामीने, जे गफलत करे छे. ते तेने गुमावीने पाछळ्थी पस्तावो करे छे. काम.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. क्रोध, कुपोष, मत्सर, कुबुद्धि अने मोह मायावडे जीवो स्वजन्मने निष्फळ करी नाखे छे.
(३१) आ मनुष्य देहादिक शुभ सामग्रीनो सदुपयोग कर- , साथी निर्वाण सुख स्वाधीन था शके तेम छतां, रागांध वनी जीव मोहमायामा झुंझाइ मूढनी जेम कोटी मूल्यवाळु रत्न आपी कांगी खरीदे छे.
(३२) भयंकर नकादिकनो मोटो डर न होत तो कोइ कदापि पापनो त्याग करी शकत नहि; अने सद्गुणनो मार्ग सेवी शकत नहि.
(३३) जेणे निर्मल शीळ पाळ्युं नथी, शुभ पात्रयां दान दीर्छ नयी अने सद्गुरुतुं वचन सांभळीने आदर्यै नथी, तेनो दुर्लभ मानव भव अलेखे गयो जाणवो.
(३४) संयोगर्नु सुख क्षणीक छे देह व्याधिग्रस्त छे अने भयंकर काळ नजदीक आवतो जाय छे तोपण चित्त पाप कर्मथी विरक्त केप यतुं नधी? अथवा संसारनी मायाज विलक्षण छे.
(३५) आ संसार चक्रमां जीव अनंतशः जन्म मरणना असहा दुःख सह्या छतां हजी तेथी मन उद्विग्न थतुं नथी, अने पाप क्रियामां दो ते अहोनिश मग्नज रहे छे.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
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. (३६) अहो आंकेला सांढनी पेरे चित्त खेच्छा मुजव निंद्य मार्गमा भम्या करे छे; पण चारित्र धर्मनी धुराने अने महाव्रतना भारने वहन करतुं नथी ! आथीज आत्मानी संसार चक्रमां बहु प्रकारे खरावी थाय छे.
(३७) पूर्व पुण्ययोगे अनुकूल सामग्री मळ्या छतां प्रमादना वशथी जीव कई पण आत्म साधन करी शकतो नथी, तेथीज तेने संसार चक्रमां पुनः पुनः भमनुं पडे छे.
(३८) जेणे संसार संबंधी सर्व दुःखनां मूळ कारण भूत क्रोध, मान, माया, अने लोभरुपी चारे कपायोने हठाववा प्रयत्न कर्यो नथी, ते वापडाए हाथमां आवेलुं मनुष्य जन्मरुपी कल्पवृक्षनुं अमृत फळ चाख्युंज नथी.
( ३९ ) वाल्यवय क्रीडा मात्रमां, योवनवय विषयभोगमां अने वृद्ध अवस्था विविध व्याधिना दुखमां हारी जनारने सुकृतना अभावे परलोकमां कई पण सुख साधन मळी शकतुं नथी.
(४०) जे द्रव्यना लोभयी जीव अनेक आकरां जोखममां उत रे छे, ते द्रव्यनुं अस्थिरपणुं विचारीने संतोष वृत्ति धारवी उचित छे.
( ४१ ) आ मन मर्कट मोह मदिराना मदथी मत्त बन्यु छर्तु; अनेक प्रकारनी कुचेष्टा करवा तत्पर रहे छे, सत् समागमरूपी अमृत
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१४८ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. सिंचन विना मननुं ठेकाणुं पडवु महा मुश्केल छे. सद्बोधथी केळवाइने लांबा अभ्यासे ते पांसरु थाय छे.
(४२) निर्मळ शीलव्रतधारी श्रावकने, परस्त्रीथी अने उत्तम चारित्रधारी साधुजनने सर्व स्त्रीथी निरंतर चेतता रहेवानी खास जरुर छे. प्रमादथी घणा पतित थइने पायमाल थइ गया छे.
(४३) जो विषयभोगमां नित्य जतुं मन रोकवामां आव्युं नहिं तो; भस्म चोळवाथी, धूम्रपान करवाथी, वस्त्र त्यागथी, तेमज अनेक वीजां कष्ट सहन करवाथी के जपमाळा फेरववाथी शुंबळवार्नु हतुं ?
(४४) अमृत जेषां मधुर वचनथी खळ पुरुषोने जे सन्मार्गमा जोडवा इच्छे छे ते मधना वींदुथी खारा समुद्रने मीठो करवा वांछे छे, अने निर्मळ जळथी कोयलाने साफ करवा मांगे छ, जे वनवू केवळ अशक्य छे. __(४५) कुमतिने सर्वथा तिलांजली दइने, सुमतिनो सर्वदा आदर करनार महामति दुर्गतिने दळीने सद्गतिनो भागी थइ शके छे.
(४६) कमळना पत्र उपर रहेला जळविंदु समान जीवितने, चंचळ लेखीने विविध विषय भोगथी विरमीने, मोक्षार्थी जीवे दान
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. १४९ शील तप अने भावना रुसी पवित्र धर्मनुं सेवन करवून उचित छे.
(४७) सर्व संयोगिक भावोने क्षण विनाशी समजीने, गुरु 'कृपाथी शीघ्र स्वहित साधी लेवा बनतो श्रम करवो विवेकीने उचित छे. .
(४८) जेमणे दुर्जननी संगति करी तेणे धर्म साधननी आ अपूर्व तक खोइ छे; एम निश्चयथी समजवं. दुर्जन द्विजिह्व सर्पनी जेवाज झेरीला होवाथी सामाने पण विक्रिया उपजावे छे.
(४९) जो परमात्मामा पूर्ण प्रेम जाग्यो नहिं यातो संपूर्ण गुणानुराग जाग्यो नहिं, तो विविध शास्त्र परिश्रम मात्रथी शुं वळ्यु
(५०) मिथ्याडंबरथी जीव परीणामे भारे दुःखी थाय छे. मिथ्या दमामथी जीव उq वेतरवा जाय छे, जेमा निश्चे हानिन पामे
छ. एवो दंभ निश्चे दुर्गतिनुज मूळ छे. माटे सर्व प्रकारे कपत्ति तजीने सरल भावज धारण करवो मोक्षाने युक्त छे. दंभ युक्त सर्व कष्ट करणी मिथ्या थाय छे, निर्मळ ज्ञान वैराग्य योगेज दंभनी दुष्ट घाटी उल्लंघी शकाय छे.
(५१) हे हृदय ! करुणा समान बीजो कोइ अमृतरस नथी परद्रोह समान वीजुं हालाहल झेर नथी, सदाचरण समान वीजो क. ल्पवृक्ष नथी, क्रोध समान कोइ दावानल नथी, संतोष उपरांत
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१५०
श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
कोइ प्रिय मित्र नथी, अने लोभ समान कोइ शत्रु नथी. आमांथी युक्तायुक्त विचारीने तुजने रुचे ते आदर ! हितकारी मार्गज आदवो ए सद्विवेक पाम्यानुं सार छे.
(५२) हे भाइ जो तुं निर्वाण सुखने वांछतो होय तो परम क्षान्तिरुपी मियानो आदर कर; केमके तेणी शील श्रद्धा, ध्यान विवेक, कारुण्य औचित्य, सद्बोध अने सदाचरणादिक अनेक गुण रत्नोथी अलंकृत छे, क्षान्ति - क्षमानुं सम्यम् सेवन कर्या विना कोइ कदापि मोक्षपद पामी शकेज नाहि.
(५३) जे रागद्वेष अने मोहादिक दुष्ट दोषोथी सर्वथा मुक्त थइ, परमात्मपदने प्राप्त थया छे, अने जेमनुं वचन सर्व विरोधरहित छे, जे जगत्त्रयना निष्कारण बंधु छे; एवा परम कारुणिक सर्वज्ञ पुरुषज शरण करवा योग्य छे. एवा आप्त पुरुषना वचन अनुसारे वदनारा सत्पुरुषो पण मोक्षार्थी सज्जनोए सावधानपणे सेवन करवा योग्यज छे.
(५४) ज्यां सुधी सुकृतवडे करेलो पूण्यनो संचय होंचे छे, त्यां सुधीज सर्व प्रकारनी अनुकूल सुख सामग्री मळी आवे छे, एम समजीने शुभ धर्मकरणी करवा मन सदोदित रहे ते रहित वर्त्तं.
प्रमाद
(५५) ज्यां सुधी दुष्कृत करेलो पाप संचय होंचे छे त्यांसुधीज
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. १५१ सर्व प्रकारनी प्रतिकुळतावालां कारण मळी आवे छे, एम समजीने पूर्व पापनो क्षय करवा उदित दुःखने समभावे सहन करवा पूर्वक नवां पाप कर्मथी सदा निवतीने शुभ धर्मकरणी करवा सदा सावधान रहेवू युक्त छे. - (५६) जेमणे आ अमूल्य मनुष्य जन्म पामीने प्रमादने परवश थइ धर्म आराध्यो नहि, तेमज छते धने कृपणताथी तेनो सदुपयोग कों नहि, एवा विवेक विकळने मोक्षनी प्राप्ति दूरज छे. .
(५७) आकाश मध्ये पण कदाच पर्वतशिला मंत्रतंत्रना योगे लांवो काळ लटकी रहे, देव अनुकूळ होय तो वे हाथना बळे कदाच समुद्र पण तराय अने धोळे दहाडे पण कदाच ग्रह योगी आकाशमां स्फुट रीते ताराओ देखाय परंतु हिंसाथी कोइलु कदापि कंड पण कल्याण संभवतुंज नथी.
(५८) जेम ज्योतिश्चक्र रात्री अने दिवस→ मंडन छे, तेम अखंड शील सतीओ अने यतिओर्नु खरेखलं भूषण छे.
(५९) मायावडे वेश्या, शीलवडे कुल वालिका, न्यायवडे पृथ्वीपति, अने सदाचारवडे यति महात्मा शोभे छे.
(६०) ज्यां सुधीमां शरीर व्याधिग्रस्त थइ न जाय, ज्यां सुधीमां जरा अवस्थाथी देह जर्जरित थइ न जाय, अने ज्यां सुधीमां
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१५२ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. इंद्रियोठे वळ घटी न जाय, त्यां सुधीमा स्वस्वशक्ति अने योग्यता सुजब पवित्र धर्यतुं सेवन करवं युक्त छे, सद् उद्यमथी सकळ कायनी सिद्धि थाय छ; अने प्रमादाचरणथी सकळ कार्यने हानि प्होंचे छे.
(?) HT ( Intuxication ) Feet (cvil propensities) कपाय ( Wrath ete.) निद्रा (Illencss ) अने विकथा-कपोल कथारुप पांच प्रकारना प्रमाद जीवोने दुरंत व्ययामां पाडे छे.
(६२) जगतगुरु जिनेश्वर प्रभुना पवित्र वचननुं उल्लंघन करीने स्वच्छंद वर्त्तन चलावq एज प्रमादनुं व्यापक लक्षण छे.
(६३) एवा प्रमादना जोरथी चौद पूर्वधर समान समर्थ पुरुषो 'पृणु सत्य चारित्र धर्मथी चलायमान थइ पतित थइ गया छे. तो बीजा अल्पज्ञ अने ओछा सामर्थ्यवाळाओगें तो कहेज शुं ?
(६४) थोडं रुण थोडं व्रण (चांदु ) थोडो अग्नि अने थोडा कपायनो पण कदापि विश्वास करवो नहि. केमके ते सर्व थोडामांश्री वधीने मोटुं भयंकर रुप धारण करे छे.
(६५) ज्यां सुधी क्रोधादि चारे कषायोनो सर्वथा क्षय थाय नहि, थोडो पण कपाय शेष रखो त्यां सुधी तेनो विश्वास करवा नहि. घोडा पण अवशिष्ट रहेला पायनी उपेक्षा करवाथी क्वचित्
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. १५३ भारे विषन परीणाग आवे छे, माटे तेमनो सर्वथा क्षय करवा सतत प्रयत्न करतो युक्त छे.
(६६) ज्ञानी पुरुषो क्रोधादिक चारे कषायने चंडाळचोकडी तरीके ओळखावे छे, अने तेनाथी सर्वथा अळगा रहेवा आग्रह करे छे.
(६७) राग अने द्वेष ए वने क्रोशदिक चारे कषायर्नु परिणाम छे, अथवा तो राग अने द्वेषयी उक्त क्रोधादि चारे कषायनी उत्पत्ति अने वृद्धि थाय छे. एम समजीने रागद्वेषनोज अंत करवा उजमाळ थई युक्त छे. ते वनेनो अंत थये पूर्वोक्त चारे कषायनो स्वतः अंत थइ जाय छे.
(६८) रागद्वेष ए बने मोहथकी प्रभवे छे, तेथी ते वंने मोहनाज पुत्र तरीके ओळखाय छे, रागने केसरी सिंह जेबो वळवान कह्यो छे. अने द्वेषने मदोन्मत हाथी जेवो मस्त मान्यो छे. तेथी तेमनो जय करवा ज्ञानी पुरुपो मोटा सामर्थ्य नी जरूर जोवे छे.
(६९) राग अने द्वेष केवळ मोहनाज विकारभून होबाथी, ज्ञानी पुरुपो मोहनेज मारवातुं निशान ताके छे. मोह सर्व कर्मयां अग्नेसर छे.
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१५४ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
(७०) मोहनो क्षय थये छते शेष सर्व परिवार पण खतः क्षय थाय छे. पण तेनी प्रवळता बडे सर्व शेष परिवारर्नु पण प्राबल्य वधतुं जाय छ, दुनीयामां वळवानमां वळवान शत्रु मोहज छे.
(७१) काम, क्रोध, मद मत्सरादिक सर्व मोहनाज परिवार छे, एम समजीने मोह क्षयार्थीए ते सर्वथी चेतता रहेवानी खास जरुर छे. ___ (७२) हुं अने माहरु एवा गुप्त मंत्रयी मोहे जगतने आंधळं करी नांख्युं छे. अर्थात् ममताथीज मोहनी वृद्धि थती जाय छे.
(७३) नहिं हुं अने नहि मारुं ए मोहनेज मारवानो गुप्त मंत्र छे. अर्थात् निर्मलताज मोहने मारवानुं प्रवळ साधन छे.
(७४) आत्मानु शुद्ध स्वरुप समजवाथी तेमज परभावने वरावर पीछानवाथी मोहद्धं जोर पातळु पडे छे.
___ (७५) स्फटिक रनोनी जे निर्मल आत्मान स्वरुप छे, छतां कमेकलंकथी ते मलीनताने पामेलं होवाथी, जीव तेमां मुग्धताथी मुंझाय छे.
(७६) कर्मकलंक दूर थये छते जेवू ने तेवू निर्मल आत्म स्त्र रुप प्रगटे छे, त्यारे आत्याने तेनो साक्षात् अनुभव थाय छे.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ नो.
१५५
(७७) कर्मकलंकने दूर करवा माटे सर्वज्ञ प्रभुए सम्यग् ज्ञान दर्शन अने चारित्ररूपी श्रेष्ट साधन बतावेलुं छे.
(७८) एज साधनथी पूर्वे अनेक महाशयोए आत्म शुद्धि करी छे, वर्तमान काळे साक्षात करे छे; अने आगामी काळे करशे एम समजीने उक्त साधनमां दृढतर उद्यम करवो युक्त छे.
(७९) ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य अने उपयोग एज आत्मानुं अमन्य लक्षण छे, एथी भिन्न विपरीत लक्षण अजीव जडनुंज छे.
(८०) व लक्षणांकित सद्गुणोमां रमण करतुं ते स्वभाव रमण कहेवाय छे, अने तेथी विपरीत दोषोमां विभाव प्रवृत्ति कहेवाय छे, मोक्षार्थीए विभाव प्रकृतीने तजी स्वभाव रमणज करवुं उचित छे, एम करवाथी आत्मानुं शुद्ध स्वरुप प्रगट थाय छे.
(८१) सम्यग् ज्ञान, दर्शन, अने चारित्ररूपी रत्नत्रयीनुं संसेवन करवाथी जेमने अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र अने अनंत - वीर्यरुपी अनंत चतुष्टयी प्राप्त थयेल छे; एवा परमात्मपद प्राप्त महापुरुषोज मोक्षार्थीओ ए ध्यावा योग्य छे.
(८२) एवा परमात्मानुं ध्यान करवाथी मन स्थिर थाय छे, इंद्रियो अने कषायनो जय थाय छे, अने शांत रसनी पुष्टिथी आ
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
त्मा पोतेज परमात्मपदनो अधिकारी थाय छे, घनघाति कर्मनो क्षय थतांज पोते परमात्म रुप थाय छे, माटे मोक्षार्थी जनोए एवाज परमात्म प्रभुनुं ध्यान करवुं के जेथी अंते पोते पण तद्रूपज थाय.
कर्म
(८३) एवा परमात्मपद प्राप्त पुरुषो पण अवशिष्ट अघाति क्षय थतां सुधी तो शरीरधारीज होय छे पण संपूर्ण कर्मधी मुक्त थये छते तेओ शरीरमुक्त - अशरीरी पूर्ण सिद्ध अवस्थाने प्राप्त थाय छे अने एकज समयमां सर्वथा सर्व बंधन मुक्त छता लोकना अग्र भागे जर स्थितिने भजे छे.
(८४) त्यां तेओ अनंत ज्ञानादिक स्वरुप स्वभावमां स्थित छतां परमानंदमां मग्न रहे छे जन्म मरणादिक सर्व बंधनथी सर्वथा मुक्त रहे छे एवा सिद्ध परमात्मा पण अनंत छे.
(८५) एवा सिद्ध भगवानना सद्गुणोनुं अनुकरण करीने जे तेमनुं अभेदपणे ध्यान करे छे ते स्फीताशयो पण तेवीज स्थितिने अंते भजे छे.
(८६) एवा भावी सिद्ध पुरुषो पण अनंत छे.
(८७) उत्तम प्रकारना आचार विचारमां कुशलपणे पोते मत्रर्तता छता अन्य मोक्षार्थी वर्गने प्रवर्ताविनारा आचार्य महाराजा, पवित्र अंग उपांगरुप आगम सिद्धांतने संपूर्ण जाणीने अन्य विनीत
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
१५७ वर्गने परमार्थ दावे पढावनारा उपाध्याय महाराजा, तथा पवित्र रत्नत्रयीना पालन पूर्वक अन्य आत्मार्थी जनोने यथाशक्ति आलंबन आपनारा मुनिराज महाराजा सर्वोत्तम लोकोत्तर मार्गना सेवनथी पूर्वोक्त परमात्म पदना पूर्ण अधिकारी होवाथी अनुक्रमे परमात्मपद पामीने संपूर्ण सिद्धरूप थाय छे.
(८८) जेओ संसारीक सुख संयोगोनी अनित्यता विचारीने संसारना सर्व संबंधथी विरक्त थर उदासीन भाव धारण करी परमात्म पंथने अनुसरवा कटिवद्ध थइ स्व स्वभावमां स्थित थइ सिद्ध परमात्माने अभेद भावे ध्यावे छे तेओ सर्व दुःखबंधनने छेदीने निचे सिद्ध दशाने प्राप्त थाय छे.
(८९) एवा महापुरुषोनो समागम मोक्षार्थीीं जीवोने परम आ-शीर्वादरुप छे एम सपजीने सर्व प्रमाद तजी सत्समागमनो बनतो लाभ लेवा चूकवुं नहिं, एवा सत्समागमथी क्षण वारमां अपूर्व लाभ संपादन थाय छे.
(९०) जेमनुं मन सत्समागम वडे ज्ञान वैराग्यमां तरवोळ रहे छे तेमनुं सुख तेओज जाणे छे. मियाना आलिंगनथी के चंदनना रसथी तेवी शीतळता वळती नथी एवी शीतळता वैराग्य रसनी ल्हेरीयोथी प्रभवे छे. जेम वैराग्यं रसनी वृद्धि थाय तेम प्रयत्न करवो जरुरनो छे.
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१५८ श्री जैनहितोपदेश भाग ३. जो.
(९१) वैराग्य रसथी अनादि काळनो रागादिकनो ताप उपशमे छे, तृष्णा शांत थाय छे, अने ममत्त्वभाव दूर थाय छे, यावत् मोहर्नु जोर नरम पडे छे अने चारित्रमार्गनी पुष्टि थाय छे.
(९२) वैराग्य रसनी अभिद्धिथी एवी तो उत्तम उदासीन दशा छाय जाय छे के तेथी सर्वत्र समानभाव वर्ते छे. निंदा-स्तुतिमां तेमज शत्रु-मित्रमा समपणुं आववाथी हर्ष शोक थता नथी. अनुकूळ के प्रतिकूळ सर्व संयोगोमां समचित्तपणुं आवे छे तेथी स्वभावनी शुद्धि विशेषे थाय छे.
(९३) वैराग्यनी वृद्धिथी संसारवास कारागृह जेवो भासे छे अने तेथी विरक्त थइ पारमार्थीक सुख माटे यन करवा मन दोराय छे.
(९४) शांत रसनी पुष्टि थतां द्रव्य अने भावं करुणानी वृद्धि थाय छे अने शांत रसना समुद्र एवा वीतराग प्रभुना वचन उपर पूर्ण प्रतीति आवे छे जेथी गमे तेवी कसोटीना वखते पण सत्य मार्गथी चलायमान थवातुं नथी.
(९५) प्रशम रसनी पुष्टि थवाथी अपराधी जीवतुं मनथी पण प्रतिकूळ-अहित चितवन करातुं नथी आवी रीते विवेक वर्तनी मोक्ष महेलनो मजबूत पायो नंखाय छे अने सकळ धर्मकरणी मोक्ष साधकज थाय छे.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
१५९
(९६) चिरकाळना लांवा अभ्यासथी शांतवाहिता योगे अहिंसादिक महाव्रतोनी दृढता अने सिद्धि थाय छे जेथी समीपवर्ती हिंसक जीवो पण पोतानो क्रूर स्वभाव तजी दइने शांत भावने भजे छे अने सातिशयपणाथी देव दानवादिक पण सेवामा हाजर रहे छे. आवो अपूर्व महिमा शांत-वैराग्य रसनोज छे एम सर्व मोक्षार्थी जनोने विशेष प्रतीत थाय छे तेथी तेमां नेओ अधिक प्रयत्न करे छे.
(९७) जेमने मन, वचन अने कायामां संपूर्ण स्थिरता प्राप्त थइ छ एवा योगीश्वरो गाममां के अरण्यमां दिवसे के रात्रीमा सरखी रीते व स्वभावमांज स्थित रहे छे. कदापि संयम मार्गमा अरति भजताज नथी. मुवर्णनी पेरे विषम संयोगोंमां चढवाने ते, वर्ते छे. . __ (९८) जेओ फक्त अन्यनेज शिखामण देवामां शूरा छे तेओ खरी रीत पुरुषनी गणनामांज नथी. पण जेओ पोतानेज उत्तम शिखामणो आपीने चारित्र मार्गमा स्थिर करे छे तेओज खरेखर सत् पुरुषोनी गगनामां गगावा योग्य छे.
(९९) कांचनने जेम जेम अग्निमां तपाववामां आवे छे तेम तेम तेनो वान वधतोज जाय छे. शेलडीना सांठगने जेम जेम छेदवामां के.पीलवामां आवे छे तेम तेम ते सरस मिष्ट रस सम छे.
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१६०
श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जोः तेमज चंदनने जेम जेम घसवामां के कापवायां आवे छे तेम तेम ते तेना घसनार के कापनारने. उत्तम प्रकारनी सुगंध या खुशवो आपे छे. तेवीज रीते सत्पुरुषोने प्राणांत कष्ट पडये छते पण कदापि प्रक तिनो विकार थतोज नथी. ते तो तेवे वखते उलटी अधिक उजळी. थइ आत्म लाभ भणी थाय छ आवाज पुरुषो जगतमा खरा पुरुपनी गणनामां गणावा योग्य छ,
(१००) योगी पुरुषोने वैराग्य-पुष्टिथी जे अंतरंग सुख थाय छे तेवू सुख इंद्रादिकने स्वममां पण संभवतुं नथी. केमके इंद्रादिक सुख विषयजन्य होवाथी केवळ वहिरंग-बाह्य-कल्पितज छे.
(१०१) मध्य-उदरनी दुर्वळताथी कृशोदरी-खी शोभे छे, तपोनुष्ठानवडे थयेली शरीरनी दुर्वळताथी यति-मुनि शोभे छ। अने मुखनी कृशतायी घोडो शोभे छे, पण तेओ कंइ आभुषणथी शोभतां नथी. सर्व कोइ स्व स्व लक्षण लक्षित छतांज शोभे छे.
(१०२) जे स्त्रीनां प्रेमाळ वचन सांभळीने चंचळ-चित्त थतो नथी तेमज स्वीना नेत्र कटाक्षथी पण लगारे संक्षोभ पामतो नथी तेज योगीश्वर रागद्वेष विवर्जित होवाथी जगतमां जयवंतो वर्ने छे.
(१०३) अनेक दोषथी भरेली कामनी कुपित थये छत पण कामातुर जीव तेणीनो आदर करतो जाय छे. एवी कामांधताने धिकार पडो.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. १६१ (१०४) जेनो संयोग थयो छे तेनो वियोग तो अवश्य व्हेलो मोडो थवानोज छे. त्यारे वियोग वखते शा माटे हृदयने शल्यरुप शोक करवोज जोइये? तेवा दुःखदायी शोकथी शुं वळवार्नु छ ?
(१०५) ममता विना शोक थतो नथी. ज्ञान वैराग्यथी ते ममता घटे छे. सम्यग्ज्ञान या अनुभव ज्ञानथी गांठ तूटे छे अने हृदयतुं बळ वधवाथी घटमां विवेक जागवाथी शोकादिकने अंतरमा पेसवानो अवकाश मळतो नथी.
(१०६) कफना विकारवाल्लं नारीनुं मुख क्यां अने अमृतथी भरेलो चंद्रमा क्यां? ते वने बच्चे महान् अंतर छतां मंदबुद्धि एवा कामी लोको तेमन ऐक्य सरखापणुंज माने छे.
(१०७) हाथीना काननी माफक चपळ-क्षणवारमा छेद दे एवा विषय भोगने परिणामे माठा विपाक आपवावाला जाण्या छतां तजी न शकाय ए केवळ मोहनीज प्रवळता देखाय छे.
(१०८) एक एक इंद्रियनी विषय लंपटताथी पतंगीया, भमरा, माछलां, हाथी अने हरण माणांत दुःख पामे छे तो एकी साथे पांचे इंद्रियोने परवश पडेला पामर प्राणीयोनुं तो कहेज शृं?
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श्री जैनहितोपदश भाग ३ जो.
(१०९) जेम इंधनथी अग्नि शांत थतो नथी, परंतु ते वृद्धिज पामे छतेम विषय भोगी इंद्रियो वन थती नथी परंतु तेथी तृष्णा व्यती जाय छे. अने जेन जेम विशेष विषय सेवन करवा जीव ल. लवाय छे तेम तेम अग्निमां आइतिनी पेरे कामाग्निनी वृद्धि या करे छे.
(११०) अनुभव ज्ञानीयोए युक्तम कहुं छे के ज्ञान-वैराग्यज 'घरमभित्र छ, काम भोगज परमात्र छे, अहिंसाज परम धर्म छे अने नारीज परम जरा छे ( केमके जरा विषयलंपटीनो शीघ्र पराभव : करे छे.) ___(१११) वळी युक्तज कहुं छे के तृष्णा समान कोइः व्याधि नथी अने संतोष समान कोइ सुख नथी.
(११२) पवित्र ज्ञानामृत या वैराग्यरसयी आत्माने पोषवाथी तृष्णानो अंत आवे छे अने संतोष गुणनी प्राप्ति अने वृद्धि थायछे.
(११३) संतोप सर्व सुखनुं साधन होवाथी मोक्षार्थी जनोए ते अवश्य सेवन करवा योग्य छे. अने लोभ सर्व दुःखनुं मूळ होवार्थी अवश्य तजवा योग्य छे. लोभ-बुद्धि तजवाथी संतोप गुण वाधे छे.
(११४) क्रोधादि चारे कपाय, संसाररूपी महाक्षनां उंडा मजबूत मूळ छे. संसारीनो अंत करवा इच्छनार मोक्षार्थीए कपाय
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
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नोज अंत करवो युक्त छे. कपायनो अंत थये छतें भवनो अंत थयोज समजवो.
( ११५) उपशम भावथी क्रोधने टाळवो, विनयभावथी मानने -टाळवो, सरलभावथी माया - कपटनो नाश करवो अने संतोषयी लोभनो नाश करवो. कषायने टाळवानो एज उपाय ज्ञानीयोए बताव्यो छे.
(११६) राग अने द्वेषथी उक्त चारे कषायने पुष्टि मळे छे माटे वीतराग प्रभुए सर्व कर्मनो जड जेवा राग अने द्वेषनेज मूळथी टाळवा वारंवार उपदेश कर्यो छे. द्वेपथी, क्रोध अने माननी तथा रागथी माया अने लोभनी वृद्धि थाय छे. राग-द्वेषनो क्षय थवाथी सर्व कपायनो स्वतः क्षय थइ जाय छे. माटे मोक्षार्थीए राग-द्वेषनो अवश्य क्षय करवो युक्त छे.
( ११७) विषय भोगनी लालसाथी राग-द्वेषनी उत्पत्ति अने वृद्धि थाय छे माटे मोक्षार्थीए विषय लालसाने तजीने सहज संतोष गुण सेववो युक्त छे.
(११८) विविध विषयनी लालसावालुं मलीन मनज दुर्गतिर्नु मूळ छे माटे एवा मननेज मारवा महाशयो भार दइने कहे छे. ! ( ११९) मनने मार्याथी इंद्रियो स्वतः मरी जाय छे. इंद्रियोना
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
मरणथी विषयलालसानो अंत आववाथी रागद्वेषरूप कषायनो पण अंत आवे छे, रागद्वेष रुप कषायनो क्षय थवाथी घाति कर्मनो क्षय थाय छे अने अनंत ज्ञानादिक सहज अनंत चतुष्टयी प्रगट थाय छे. यावत् अवशिष्ट अघाति कर्मनो पण अंत थतांज अज अविनाशी मोक्ष पदवी प्राप्त थाय छे.
(१२०) मन अने इंद्रियोने वश करीने विषयलालसा तजवाथी आवो अनुपम लाभ थतो जाणीने कोण हतभाग्य कामभोगनी वांछा करीने आवा श्रेष्ठ लाभ थकी चूकशे ? मुमुक्षु जनोने तो विषयवांछा हालाहल झेर जेवी छे.
( १२१) विषयलालसा हालाहल झेरथी पण आकरी छे केमके झेरतो खाधा वादज जीवनुं जोखम करे छे अने विषयनुं चितवन करवा मात्रथी चारित्र - प्राणनुं जोखम थाय छे. अथवा विष खाधुं छतुं एकज वखत मारे छे पण विषयवांछा तो जीवने भवोभव भटकावे छे.
(१२२) विषय सुखने वैराग्य योगे तजीने फरी वांछनार बमन - भक्षी श्वाननी उपमाने लायक छे.
(१२३) योगमार्गथी पतित थता मुमुक्षुने योग्य आलंबन आपीने पाछो मार्गमां स्थापवामां अनर्गळ लाभ रहेलो छे.
(१२४) जेम राजीमतिये रथनेमिने तथा नागिलाए भवदेव
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. १६५ मुनिने तथा कोशाए सिंह गुफावासी साधुने प्रतिवोध आपीने संयम मार्गमा पुनः स्थाप्या तेम निःस्वार्थ बुद्धिथी मोक्षार्थी जीवने अवसर उचित आलंबन आपनार मोटो लाभ हांसल करी शके छे.
(१२५) मोक्षार्थी जनोए हमेशां चढताना दाखला लेवा यो. ग्य छे पण पडताना दाखला लेवा योग्य नथी. चढताना दाखलाथी आत्मामां शूरातन आवे छे, अने पडताना दाखलाथी कायरता आवे छे.
(१२६) च्हाय तो पुरुष होय के स्त्री होय पण खरो पुरुषार्थ सेववाथीज ते सद्गति साधी शके छे. पुरुष छतां पुरुषार्थहीन होय तो ते पुंगणमां नथी अने स्त्री छतां पुरुषार्थयोगे पुंगणनामां गणवा योग्यज छे. पूर्वे अनेक उत्तम स्वीओओ पुरुषार्थना वळे परमपदनो अधिकार प्राप्त कर्यों छे. मोक्षार्थी जनोए एवा चहताना दाखला लेवा योग्य छे. तेथी स्वपुरुषार्थ जागृत थाय छे. __ (१२७) केवळ पुरुषज परमपदनो अधिकारी छे, स्त्रीने तेवो अधिकार नथी एम बोलनारा पक्षपाती या मिथ्याभापी छे खरी बात तो ए छे के जे खरो पुरुषार्थ सेवे छे ते च्हाय तो पुरुष होय यातो स्त्री होय पण अवश्य परमपदनो अधिकारी होवाथी परम-पद मोक्षसुखने साधी शके छे. पुरुपनी परे अनेक स्त्रीओए पूर्व परमपद साधेलुं छे.
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१६६ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
(१२८) सम्यग् ज्ञानदर्शन अने चारित्रनुं विधिवत् पालन कर, ते खरो पुरुषार्थ छे. पुरुषार्थहीन कायर माणसो तेग करी शकतां नथी.
(१२९) अहिंसादिक पांच महाव्रत तथा रात्रीभोजननो सर्वथा त्याग करवारुपी छटुं व्रत विवेकवुद्धिथी समजीने ग्रहण करी सिंहनी पेरे शूरवीरपणे ते सर्व व्रतोतुं यथाविधि पालन कर तथा अन्य योग्य-अधिकारी स्त्रीपुरुषोने शुद्ध मार्ग समजावी सन्मार्गमां स्थापी तेमने यथोचित सहाय आपवी ते खरो कल्याणनो मार्ग छे.
(१३०) सर्व जीवोने आत्म समान लेखीने कोइने कोइ रीते मनथी, वचनथी के कायाथी हणवो नहि, हणाववो नहिं के हणनारने संमत थर्बु नहिं ए प्रथम महाव्रतवं स्वरुप छे. एम सर्वत्र समजी लेवानुं छे.
(१३१) क्रोधादिक कपायथी, भयथी के हास्यथी जूठ बोलवू नहि, जूठ बोलावधं नहिं तेमज जूठ बोलनारने संमत थर्बु नहिं ए वीजें महाव्रत छे. पवित्र शास्त्रना मार्गने मूकीने स्वच्छेदे बोलनार मृषावादीज छे.
(१३२) पवित्र शास्त्रनी आज्ञा विरुद्ध कोइपण चीज स्वामीनी रजा विना लेबी नहिं, लेवडाववी नहिं, तेमज लेनारने संगत थर्बु
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. १६७ नहिं. संयमना निर्वाह माटे जे कांइ अशन सनादिक जरूर होय ते पण शास्त्र आज्ञा मुजव सद्गुरुनी संमति लइने अदीनपणे गवेपणा करतां निर्दोप मळे तोज ग्रहण कर ए त्रीजुं महाव्रत कहुं छे..
(१३३) देव, मनुष्य के तिर्यंच संबंधी विषयभोग मन, वचन, के कायाथी सेबवा नहिं वीजाने सेवडाववा नहिं अने सेवनारने संमत थर्बु नहिं ए चोथु महावत जाणवु.
(१३४) कंइ पण अल्प मूल्यवाळी के बहु मूल्यवाळी वस्तु उपर मुर्छा राखवी नहिं, संयम्ने वाधकभूत कोइ पण वस्तुनो संग्रह करवो नहि, कराववो नहि, तेमज करनारने संमत थर्बु नहि.. ए पांचमुं महाव्रत छे.
(१३५) अशन, पाणी, खादिम के स्वादिम रात्री समये (सूर्य अस्त पछी अने सूर्य उदय पहेलां) सर्वथा वापरवा नहिं वपरावया नहि तेमज वापरनारने संमत थर्बु नहिं ए छठे व्रत छे.
(१३६) पूर्वोक्त सर्व महाव्रतोतुं यथाविधि पालन करतां जेम रागद्वेपनी हानी थाय तेम सावधानपणे प्रवृत्ति निवृत्ति मार्ग स्वीकारी तेनो यथार्थ निर्वाह करवो, अने अन्य आत्मार्थीजनोने यथाशक्ति यथावकाश सहाय करवी ते उत्तम प्रकारनो पुरुषार्थ छे..
(१३७) सद्गुरुनुं शरण लही तेमनी पवित्र आज्ञानुसारे वर्त: नार महाशयोनो सकळ पुरुषार्थ सफळ थाय छे.
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१६८ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
(१३८) सद्गुरुनी कृपाथी प्राप्त थयेला सद्बोधवडे, संयम मार्गमां आवता अपायो सहेलाइथी दूर करी शकाय छे.
(१३९) मुमुक्षजनोए चंद्रनी पेरे शीतळ स्वभावी, सायरनी जेवा गंभीर, भारंड पंखीनी जेवा प्रमाद रहीत, अने कमळनी पैरे निर्लेप थq जोइए. यावत मेरु पर्वतनी परे निश्चळता धारीने सिंहनी जेम शूरवीर थइने वृषभनी पेरे निर्मळ धर्मनी धुरा मुनिजनोए अवश्य धारवी जोइए.
(१४०) मुमुक्षुजनोए कंचन अने काम ने दूरीज तजवां जोइए.
(१४१) घुमुक्षुजनोए राय अने रंकने सरखा लेखवा जोइए. तथा समभावथी तेमने धर्म उपदेश आपवो जोइए.
(१४२) मुमुक्षुजनोए नारीने नागणी समान लेखी तेणीनो संग सर्वथा तजवो जोइर. नारीना संगथी निश्चे कलंक चडे छे.
(१४३) मुमुक्षुजनोए समरस भावमां झीलता थकां शास्त्र अवगाहन कर्या करवू जोइए.
(१४४) मुमुक्षुजनोए अधिकारीनी हितशिक्षा हृदयमा धारीने व शक्तिने गोपच्या विना तेनुं यत्नथी पालन कर जोइए. कोइ
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
री अधिकारीनी हितशिक्षानो अनादर नज करवो जोइए.
(१४५) मुमुक्षु जनोए क्षुधादिकनो उदय थये छते गुर्वादिकनी संमती लइने निर्दोष आहार पाणीनी गवेषणा करी तेवो निर्दोष आहार प्रमुख मळे तो ते अदीनपणे लड़ने गुर्वादिकनी समीपे आचीने तेनी आलोचना करी गुर्वादिकनी रजाथी अन्य मुमुक्षु जननी यथायोग्य भक्ति करीने लोलुपता रहीत लावेलो आहार संयमना निर्वाह माटे वापरतां मनमां समभाव राखी तेने वखाण्या के वखोडयाविना पवित्र मोक्षना मार्गमां पुनः कटि वद्ध थइने विशेषे उद्यम करवो जोइए.
१६९
(१४६) मुमुक्षु जनोनी शास्त्र आज्ञा मुजव वत्तीने करवामां आवती माधुकरी भिक्षाने ज्ञानी पुरुषो 'सर्व संपत् करी' कहे छे.
(१४७) मुमुक्षु जनोनी शास्त्र आज्ञा विरुद्ध वर्त्तीने करवामां आवती भिक्षाने ज्ञानी पुरुषो 'वलहरणी' कहने वोलावे छे.
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• ( १४८) केवळ अनाथ अशरण एवा आंधळां पांगळां विगेरे दीनजननी भिक्षाने ज्ञानी पुरुषो 'वृत्ति भिक्षा' कहीने बोलावे छे.
(१४९) मुमुक्षु जनोए शास्त्र विरुद्ध मार्गे वर्त्ततां थती 'बलहरणी' भिक्षाने सर्वथा तजीने शास्त्र विहित मार्गे वतीने 'सर्व संपत्करी' भिक्षानोज खप करवो युक्त छे.
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१७०
श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
(१५०) मुमुक्षु जनोए अकृत, अकारित अने असंकल्पितज आहार गवेषीने ग्रहण करवो जोइए. पोते नहि करेलो नहि करावेलो तेमज पोताने माटे खास संकल्पीने गृहस्थादिके नहि करेलो के करावेलोज आहार मुमुक्षु जनोने कल्पे छे. तेवो पण आहार गवेपणा करतां मळी शके छे.
(१५१) यति धर्म याने मुमुक्षु मार्ग अति दुष्कर को छे केमके तेमां एवा निर्दोष आहारथीज संयम निर्वाह करवानो कह्यो छे. __(१५२) गृहस्थ जनो पोताने माटे अथवा पोताना कुटुंबने माटे अन्न पानादिक नीएजावता होय तेमां एवो शुभ विचार करे के आपणे माटे करवामां आवता आ अन्न पाणीमांथी कदाच भाग्य योगे कोइ महात्माना पात्रमा थोडं पण अपाशे तो मोटो लाभ थशे. आवो शुभ विचार गृहस्थ जनोने हितकारीज छे.
(१५३) एवा शुभ चिंतन युक्त गृहस्थोए पोताने माटे के पोताना कुटुंबने माटे नीपजावेला अन्न पाणी विगेरे मुमुक्षु मुनीने लेवामां वाधक नथी.
(१५४) निर्दोष आहार लावी विधिवत् ते वापरनार मुनि संयमनी शुद्धि करी शके छे. तेथी उलटी रीते वर्ततां संयमनी विराधना थाय छे.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. १७१ (१५५) मुमुक्षुजनोए शब्द, रुप, रस, गंध अने स्पर्श संबंधी सर्व विषयआसक्तिथी सावधपणे दूर रहे, युक्त छे. __ (१५६) मुमुक्षुजनोए विषय वासनानेज हठाववा यत्न करवो जोइए.
(१५७) मुमुक्षुजनोए गृहस्थोनो परिचय तजीने ब्रह्मचर्यनी खुव पुष्टि थाय तेम पवित्र ज्ञान ध्यायनो सतत अभ्यास करवो जोइए, __ (१५८) मुमुक्षुजनोए स्त्री, पशु, पंडग विनानुं संयमने अनुकूळ स्थानज रहेवाने पसंद करवू जोइए.
(१५९) मुमुक्षुजनोए कामविकार पेदा थाय एवी कोइ पण चेष्टा करवी न जोइए. स्त्री कथा, स्त्री शय्या, स्वीनां अंगोपांगर्नु नीरीक्षण, स्त्री समीपे स्थिति, पूर्वे करेली कामक्रीडानुं स्मरण, स्निग्ध भोजन तथा प्रमाणातिरक्त भोजन, तथा शरीर विभूषादिक सर्व तजवां जोइए.
(१६०) मुमुक्षुजनोए पूर्वे थयेला महा पुरुपोना पवित्र चारित्रने जाणीने तेमनुं वनतुं अनुकरण करवाने सदा सावधान रहेवू जोइए.
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१७२
श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
(१६१) मुमुक्षुजनोए गमे तेवा संयोगोमां संयमथी चलायमान थर्बु न जोइए. देव, मनुष्य के तिर्यंचे करेला सर्व अनुकूळ के पतिकूळ उपसर्ग परीषहोने अदीनपणे आत्म कल्याणार्थे सहन करवा 'जोइए.
(१६२) मुमुक्षुजनोए मार्गमां चालतां धुसरा प्रमाण भुमीने आगळ जोतां कोइ पण न्हाना के मोटा जीवने जोखम न पहोंचे तेम करुणा नजरथी तपासीने चालवू जाइए.
__ (१६३) मुमुक्षु जनोए जरुर पडतुं बोलता कोइने अप्रीति न __उपजे एवं हित मित मिष्ट अने सत्य धर्मने वाधक न थाय तेवू भा‘षण करवू जोइए. ___ (१६४) मुमुक्षु जनोए संयमना निर्वाह माटे जरुर पडये छते ४२ दोष रहीत आहार पाणी विगेरे गुर्वादिकनी संमतिथी लावीने विधिवत् वापरवां जोइए. __(१६५) मुमुक्षु जनोए कोइपण वस्तु लेतां या मूकतां कोइ पण जीवनी विराधना थइ न जाय तेम संभाळीने ते वस्तु लेवी मूकवी जोइए.
(१६६) मुमुक्षु जनोए लघुनीति वडीनीति विगेरे शरीरना सर्व मळनो त्याग निर्जीव स्थानमां जइने विधिवत करवो जोइए.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
१७३
(१६७) मुमुक्षुजनोए मुख्यपणे मनने गोपवीने धर्म ध्यानमां जोड बुं जोइए. जेम वने तेम तेने विविध विकल्प जालथी मुक्त राखवुं जोइए.
( १६८) मुमुक्षुजनोए मुख्यपणे तथाप्रकारना कारणविना मौन धारण करी रहेवुंज जोइए जरुर जणातां सत्य निर्दोषज भाषण कर जोइए.
(१६९) मुमुक्षुजनोए मुख्यपणे संयमार्थे जवा आववानी ज-रूर न होय तो कायाने काचवानी पेरे गोपवी राखवी जोइए स्थिर आसन करीने पवित्र ज्ञान ध्याननोज अभ्यास करवो जोइए.
( १७० ) मुमुक्षुजनोए चालवानी, वेसवानी, उठवानी, सुवानी खावानी, पीवानी के बोलवानी जे जे क्रिया करवी पडे ते ते कोइ जीवने इजा न थाय तेमज संभाळथीज करवी जोइए.
(१७१) सुमुक्षुजनोए रसमृद्ध नहि थतां परिमितभोजी थवं जोड़ए.
( १७२) मुमुक्षुजनोए संयम अनुष्ठानने समजपूर्वक प्रमाद रहित सेवीने अन्य मुमुक्षुजनोने यथाशक्ति संयममां सहायभूत थवं जोइए. एक क्षण मात्र पण कल्याणार्थीए प्रमाद करवो न जोइए.
(१७३) प्रीय मनोहर अने स्वाधीन भोगने जे जाणी जोइने तजे छे, तेज खरो त्यागी कहेवाय छे.
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१७४
श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. (१७४) वस्त्र, गंध, माल्य अलंकार तथा स्त्री शय्यादिक नहि मळवा मात्रथी भोगवतो नथी. पण मनथी तो तेवा विषयमा सार मानीने मग्न रहे छे ते त्यागी कहेवाय नहीं.
(१७५) जो जळमां मच्छनी पद पंक्ति मालूम पडे के आकाशमां पंखीनी पद पंक्ति जणाय, तोज स्त्रीना गहन चरित्रनी समज पड़ी शके, तात्पर्य के स्त्रीना चरित्रनो पार पामवो अंशक्य छे..
(१७६) प्रियालापथी कोइनी साथ वात करती कामनी कटाक्षवडे कोइ अन्यने सानमां समजावती होय तेम वळी हृदयथी तो कोई वीजानुं ध्यान [चितवन ] करती होय, एवी स्त्रीनी चंचळताने धिक्कार पडो. स्त्रीओ प्रायः कपटनीज पेंटी होय छे.
(१७७) जो मन वैराग्यना रंगथी रंगायलं न होय तो दान, शील, अने तप केवळ कष्टरुपज थाय छे. वैराग्य युक्त करेली सर्व धर्म करणी कल्याणकारी थाय छे. माटे जेम वने तेम वैराग्य भावनी वृद्धि करवी युक्त छे. ते विना अलुणा धान्यनी पेरे धर्म करणीमां ल्हेजत आवती नथी, वैराग्य योगे तेयां भारे मीठाश आवे छे.
(१७८) अभिनव अध्यात्मिक शास्त्रो वांचवाथी सहजे वैराग्यनी वृद्धि थाय छे. __ (१७९) मैत्री, मुदिता, करुणा अने मध्यस्थ एवी चार भावनाओर्नु संयमना कामीए अवश्य सेवन कर जोइए.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
१७५
(८०) जगतना सर्व जंतुओ आपणा मित्र छे, कोइ पण आपणा शत्रु नयी, ते सर्व सुखी थाओ, कोइ दुःखी न थाओ, सर्वे सुखना मार्गे चालो एवी मतिने मैत्रीभावना कहे छे.
(१८१) सद्गुणीना सद्गुणो जोइने चित्तमां राजी थवुं. जेम चंद्रने देखीने चकोर राजी थाय छे, अथवा मेघनो गर्जारव सांभळीने मोर राजी थाय छे; तेम गुणीने देखी प्रभुदित थवं, अंतःकरमां आनंदना उमओ उठे तेनुं नाम मुदिता भावना कहेवाय छे.
(१८२) कोइ पण दुःखीने देखो दयाई दीलथी शक्ति अनुसारे तेने सहाय करवी तेमज धर्म कार्य मां सीदाता साधम भाइने योग्य आलंबन आप तेनुं नाम करुणा भावना कहेवाय छे.
(१८३ ) नेने कोइपण प्रकारे हितोपदेश असर करी शके नहिं एवा अत्यंत कठोर मनवाळा जीव उपर पण द्वेष नहि करतां तेवा - थी दूरज रहेधुं तेनुं नाम मध्यस्थ भावना कहेवाय छे.
(१८४) वीजी पण अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यस्व, अशुचित्व, आश्रय, संवर, निर्जरा, लोक स्वभाव, वोधि दुर्लभ अने स्वतत्वनुं चिंतनरुप द्वादश अनुप्रेक्षा, - भावना कही छे.
(१८५) भावनाभवनाशिनि अर्थात् आवी उत्तम भावनाथी भव संततिनो क्षय थइ जाय छे। अने शांतरसनी वृद्धिथी चित्तनी
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१७६
श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
शांति - प्रसन्नता थाय छे, माटे मोक्षार्थी जनोए अवश्य उक्त भावनाओनो अभ्यास कर्या करवो युक्त छे.
(१८६) गमे तेटली कळा प्राप्त थाय, गमे तेवो आकरो तप तपाय, अथवा निर्मळ किर्त्ति प्रसरे परंतु अंतरमां विवेक कळा जो न प्रगटी तो ते सर्व निष्फळज छे. विवेक कळाथी ते सर्वनी सफलता छे.
(१८७) विवेक ए एक अभिनव सूर्य या अभिनव नेत्र छे. जेथी अंतरमां वस्तु तत्त्वनुं यथार्थ दर्शन थाय एवं अजवाळु थाय छे माटे बीजी बधी जंजाळ तजीने केवळ विवेककळा माटे उद्यम करवो युक्त छे.
(१८८ ) सत् समागम योगे हितोपदेश सांभळवाथी या तो आप्त प्रणीत शाखना चिर परिचयथी विवेक मगटे छे.
(१८९) विवेकवडे सत्यासत्यनो निर्णय करी शकाय छे. ते विना हिताहित कृत्याकृत्य भक्ष्याभक्ष्य पेयापेय, उचितानुचित के गुणदोषनी खात्री थइ शकती नथी. विवेक वडेज असत् वस्तुनो त्याग करीने सद् वस्तुनो स्वीकार करी शकाय छे.
(१९०) जेम निर्मळ आरिसामां सामी वस्तुनुं वरावर प्रतिबिंब पडी रहे छे, तेम निर्मळ विवेकयुक्त हृदयमां वस्तुनुं यथार्थ भान थाय छे. जेम सूक्ष्म दर्शक यंत्रथी सुक्ष्म वस्तु सहेलाइथी देखी श-~
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१७७
श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. काय . तेम विवेकना अधिकाधिक अभ्यासथी सुक्ष्ममा सुक्ष्मने दुरमा दुर रहेला पदार्थनुं यथार्थ भान थइ शके छे माटेज ज्ञानी पुरुषो विवेक रहीतने पशु माने छे.
• (१९१) विवेकी पुरुष आ मनुष्य भवना क्षणने पण लाखेणो (लक्ष मुल्य अथवा अमुल्यं) लेखे छे.
(१९२) जेम राजहंस पक्षी क्षीर नीरने जुदां करीने क्षीर मात्र ग्रहे छे. तेम विवेकी पुरुष दोष मात्रने तजी गुण मात्रने ग्रहण करेछे.
(१९३) मननी क्षुद्रता (पारका छिद्र जोवानी बुद्धि) मटवाथीज गुण ग्राहकता आवे छे. गुण गुणिनो योग्य आदरसत्कार करवारुप विनयगुणथी गुण ग्राहकता वधती जाय छे,
(१९४) विनय सर्व गुणानुं वशीकरण छे. भक्ति या चाह्यसेवा, हृदय प्रेम या बहुमान सद्गुणनी स्तुति अवगुणने ढांकवा अने अवज्ञा, आशातना, हेलना, निंदा, के खिसाथी दूर रहे, एवा विनयना मुख्य पांच प्रकार छे.
(१९५) जेम अणधायेला मेला वस्त्र उपर मेल चडी शकतो नथी. अथवा विषम भुमिमां चित्र उठी शकतुं नथी. तेम विनयादि गुण हिनने सत्य धर्मनी प्राप्ती थइ शकती नथी.
१२
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१७८ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
(१९६) विनयादि सद्गुण संपन्नने सहेजे धर्मनी प्राप्ती थइ
शके छे.
(१९७) विनयादि शून्यने विद्यादिक उलटी अनर्थकारी थाय छे. माटे प्रथम विनयादिकनोज अभ्यास करलो योग्य छे.
(१९८) धर्मनी योग्यता-पात्रता प्राप्त करवी ए प्रथम अवश्यनुं छे. तृण थकी गायने दुध थाय छे अने दुध थकी सर्पने झेर थाय छे. ए उपरयोज पात्रापात्रनो विवेक धारवो प्रगट समजाय छे.
(१९९) धर्मनी योग्यता मेळावा माटे नीचेना २१ गुणोना खूब अभ्यास करवो खास जरुरनो छे.
१ अद्रता-गंभीरता-गुग ग्राहकता. २ सोम्यता-प्रसनता. ३ निरोगता-अंग सौष्टव-सुंदराकृति. ४ जनप्रिय-लोकप्रिय. ५ अक्रुरता-मननी कोमळता-नरमाश. ६ भीरुता पाप या अपवादथी वीवापj.७ अशठता-निष्कपटीपणुं-सरलता. ८ दाक्षिण्यता मोटानी अनुजा पाळवा ते. ९ लजालुता-मर्यादा शीलपणुं-माजा. १० द. यालता-करुणा. ११ समष्टि-मध्यस्थता-निष्पक्षपातपणुं. १२ गुण रागीपणं. १३ सत्यवादीपणुं-सत्यप्रियता. १४ सुपक्ष-धर्मीकुटुंब होवाप'. १५ दीर्घ दर्शिता-लांवी नजर पहोंचाडवापणुं. १६ विशेपज्ञता-लांबी समज. १७ हद्धानुसारीपणुं शिष्टानुसारिता. १८ विनीतना-नम्रता. १९ कृतज्ञता को गुणतुं जाणपणुं. २० परोप
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. १७९ कारता-परहितै पिता. २१ लन्धलक्षता-कार्यदक्षता-सुनिपुणता, कलाकौशल्य.
(२००) पुर्वोक्त गुणना अभ्यास रहित योग्यता बिनाज धर्मनी प्राप्ती थवी वंध्यापुत्र अथवा शशशृंगनी परे अशक्य छे. ___ (२०१) योग्य जीवने पण सत्य धर्मनी प्राप्ति बहुधा श्रमण निग्रंथद्वारा हितोपदेश सांभळवाथीज थाय छे. माटे योग्य जीवोने पण सत् समागमनी खास अपेक्षा रहेछेज.
(२०२) हजारो ग्रंथ वाचवाथी सार न मळे एवो सरस सार क्षण मात्रमा सत्समागमथो भाग्य योगे मळी शके छे.
(२०३) दुर्जनो छते योगे तेवा लाभथी कमनशीवज रहेछे. ___ (२०४) सज्जनोने तो दुर्जनोनी हैयातीथी अभिनव जागृति रहे छे..
(२०५) दुर्जनो सज्जनोना निष्कारण शत्रु छे. पण सज्जनो तो समस्त जगतना निष्कारण मित्र छे.
(२०६) दुर्जनोने द्विजीह सर्प जेवा कह्या छे ते यथार्थज छे. केमके ते एकांत हितकारी सज्जनने पण काटे छे.
(२०७) सज्जनो तो एवा खारीला-मेरीला दुर्जनोने पण दहव्वा इच्छता नथी एज तेमन उदार आशयपणुं सूचवे छे.
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१८. श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
(२०८) कागडाने के कोयलाने गमे तेटलो धोयो होय तोपण ते तेनी काळाश तजेज नहि तेम दुर्जनने पण गमे तेटलं ज्ञान आपो पण ते कदापि कुटिलता तजवानो नहि.
(२०९) सज्जनने तो गमे तेटलं संतापशो तोपण ते तेमनी सज्जनता कदापि तजशेज नहि.
(२१०) सज्जनज सत्य धर्मने लायक छे. माटे बीजी धमाल तजी दइने केवल सज्जनताज आदरवा प्रयत्न करो.
(२११) वीतराग समान कोइ मोक्षदाता देव नथी. (२१२) निग्रंथ साधु समान कोइ सन्मार्ग दर्शक साथी नथी. (२१३) शुद्ध अहिंसा समान कोइ भवदुःखवारक औषध नथी.
(२१४) आत्माना सहज गुणोनो लोप करे एवा रागद्वेष अने मोहादिक दोषोने सेववा समान कोइ प्रवळ हिंसा नथी. ___(२१५) आत्माना ज्ञान दर्शन अने चारित्रादिक सद्गुणोने साचवी राखवा अथवा ते सहज गुणोनुं संरक्षण कर तेना समान कोइ शुद्ध अहिंसा नथी.
(२१६) आत्म हिंसा तज्या विना कदापि आत्म दया पाळी शकवाना नधी. रागद्वेप अने मोह-ममतांदिक दुष्ट दोपोने तीन
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
१८१
सहज-आत्म गुणमां मग्न रहेवू एज खरी आत्म दया छ, वीजी औपचारिक जीवदया पाळवानो पण परमार्थ रागादि दुष्ट दोषोने आवता वारवानो अने ज्ञान दर्शन अने चारित्रादिक सद्गुणोने पोषवानोज छे.
(२२७) सत्यादिक महाव्रतो पाळवानो पण एज महान् उदेश छे. यावत् सकळ क्रियानुष्ठाननो उंडो हेतु शुद्ध अहिंसा व्रतनी दृढ़ता करवानोज छे.
(२२८) एवी शुद्ध समज दीलम धारो संयमक्रियामां सावधान रहेनारा योगीश्वरो अवश्य आत्महित साधी शके छे..
(२२९) एवी शुद्ध समज दीलमां धार्या विना केवळ अंधश्रद्धाथी क्रियाकांडने करनारा साधुओ शीघ्र स्खहित साधी शकता नथी.
(२३०) शुद्ध समजवाळा ज्ञानी पुरुषोनो पूर्ण श्रद्धाथी आश्रय लही संयम पाळनारा प्रमाद रहित साधुओ पण अवश्य आत्महित साधी शके छे. केमके तेमना नियामक (नियंता-नायक) श्रेष्ठ छे.
(२३१) सुविहित साधुजनो मोक्षमार्गना खरा सारथी छे एवी शुद्ध श्रद्धाथी मोक्षार्थी भव्य जनोए, तेमनु दृढ आलंबन कर अने तेमनी लगारे पण अवज्ञा करवी नहि.
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१८२ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
(२३२) ग्रहण करेलां व्रत या महाव्रतने अखंड पाळनार स_ मान कोइ भाग्यशाळी नथी, तेनुंज जीवित सफळ छे.
(२३३) ग्रहण करेलां व्रत के महाव्रतने खंडीने जे जीवे छे तेनी समान कोइ मंदभाग्य नथी. केमके तेवा जीवित करतां तो ग्रहण करेला व्रत के महाव्रतने अखंड राखीने मरवुज सारुं छे.
(२३४) जेने हितकारी वचनो कहेवामां आवतां छतां विलकुल काने धारतो नथी अने नहिं सांभळ्या जेवू करे छे तेने छते काने व्हेरोज लेखवो युक्त छे. केमके ते श्रोत्रने सफळ करी शकतो नथी.
(२३५) जे जाणी जोइने खरो रस्तो तजीने खोटे मार्गे चाले छे, ते छती आंखे आंधळो छे एम समजवू.
(२३६) जे अवसर उचित प्रिय वचन वोली सामानुं समाधान करतो नथी ते छते मुखे मूंगो छे, एम शाणा माणसे समजवं. ' (२३७) मोक्षार्थी जनोए प्रथमपदे आदरवा योग्य सद्गुरुर्नु वचनज छे.
(२३८) जन्म मरणना दुःखनो अंत थाय एवो उपाय विचक्षण पुरुषे शीघ्र करवो युक्त छे केमके ते विना कदापि तत्त्वथी शांति थती नथी.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. १८३ (२३९) तत्त्वज्ञान पूर्वक संयमानुष्ठान सेववाथीज भवनो अंत थाय छे.
(२४०) परभव जतां संवल मात्र धर्मनुज छे माहे तेनो विशेषे खप करवो ते विनाज जीव दुःखनी परंपराने पामे छे.
(२४१) जेनुं मन शुद्ध-निर्मळ छे तेज खरो पवित्र छ एम ज्ञानीयो माने छे.
(२४२) जेना अंतर-घटमां विवेक प्रगट्यो छे, तेज खरो पंडित छ एम मानवू.
(२४३) सद्गुरुनी सुखकारो सेवाने बदले अवज्ञा करवी एज खरुं विष छे. , (२४४) सदा स्वपरहित साधवा उजमाल रहेवू एज मनुष्य जन्मनु खरुं फल छे.
(२४५) जीवने वेभान करी देनार स्नेह रागज खरी मदिरा छ एम समजवं.
(२४६) धोळे दहाडे धाड पाडीने धर्मधनने लूटनारा विषयोज खरा चोर छे.
(२४७) जन्म मरणनां अत्यंत कटुक फळने देनारी तृष्णाज खरी भववेली छे.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
(२४८) अनेक प्रकारनी आपत्तिने आपनार प्रमाद समान कोइ शत्रु नथी.
१८४
(२४९) मरण समान कोई भय नथी अने तेथी मुक्त करनार वैराग्य समान कोई मीत्र नथी, विषयवासना जेथी नाबुद थाय तेज खरो वैराग्य जाणवो.
(२५०) विषयलंपट - कामांसमान कोई अंध नथी केमके ते विवेकशून्य होय छे.
(२५१) खीना नेत्र कटाक्षथी जे न डगे तेज खरो शूरवीर छे.
(२५२) संत पुरुषोना सदुपदेश समान वीजुं अमृत नथी. केमके तेथी भत्र ताप उपशांत थवाथी जन्म मरणनां अनंत दुःखोनो अंत आवे छे.
(२५३) दीनतानो त्याग करवा समान बीजो गुरुतानो सीधो रस्तो नथी.
(२५४) स्त्रीनां ग्रहन चरित्रथी न छेतराय तेना जेवो कोइ चतुर नथी.
(२५५) असंतोषी समान कोइ दुःखी नथी केमके ते मंमण शेठनी जेवो दुःखी रहे छे.
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श्री जैनहितोपदेशं भाग ३ जो.
१८५
( २५६ ) पारकी याचना करवा उपरांत कोइ मोटुं लघुतानुं कारण नथी.
(२५७) निर्दोष - निष्पाप वृत्तिसमान वीजुं सारं जीवितनुं फळ नयी.
(२५८) बुद्धिबळ छतां विद्याभ्यास नहि करवा समान वीजी कोइ जडता नथी.
(२५९) विवेकसमान जागृति अने मूढतासमान निद्रा नथी.
(२६०) चंद्रनी पेरे भव्य लोकने खरी शीतळता करनार आ कलिकाळमां फक्त सज्जनोज छे.
. (२६१ ) परवशता नर्कनी पेरे प्राणीओने पीडाकारी छे. (२६२) संयम या निवृतिसमान कोई सुख नथी.
(२६३) जेयी आत्माने हित थाय तेवुंज वचन वदधुं ते सत्य छे पण जेथो एलडं अहित थाय एवं वचन विचार्या विना वदनुं ते सत्य होय तो पण अप्तत्यज समज. आथीज अंघने पण अंध कदेवान शास्त्रमां निषेध करेलो छे.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
अध्यात्म - गीता.
प्रणमीये विश्व हित' जैनवाणी, महानंद तर सींचवा अमृत पाणी; महा मोहपुर भेदवा वज्र पाणि े, गहन भवफंद छेदन कृपाणि ३. १
द्रव्य अनंत प्रकासक भासक तत्त्व स्वरूप, आतम तत्त्व विवोधक साधक सत् चिद् रुप; नय निक्षेप प्रमाणे जाणे वस्तु समस्त, त्रिकरण जोगे प्रणमुं जैनागम सुप्रशस्त'.
जेणे आत्मा शुद्धताए पिछाण्यो, तेणे लोक अलोकनो भाव जाण्यो; आत्मा रमणी मुनि जगविदिता, उपदिशी तेणे अध्यात्म गीता. ३
द्रव्य सर्वना भावना जाणग पासग एह, ज्ञाता कर्ता भोक्ता रमता परिणति गेह; ग्राहक रक्षक व्यापक धारक धर्म समूह, दान लाभ भोग उपभोग तणो जे व्यूह.
४
संग्रहे एक आया वखाण्यो, नैगमे अंशथी जे प्रमाण्योः दुविध व्यवहार नय वस्तु वर्हेचे, अशुद्ध वळी शुद्ध भासन प्रपंचे. ५
१ सर्वने हितकारी. २ इंद्र. ३ तलवार. ४ अति सुंदर.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
अशुद्धपणे पणसय तेसठ्ठी' भेद प्रमाण, उदय विभेदे द्रव्यना भेद अनंत कहाण; शुद्धपणे चेतनता प्रगटे जीव विभिन्न, क्षयोपशमिक असंख्य क्षायक एक अनुन्न
•
नामथी जीव चेतन प्रबुद्ध, क्षेत्रथी असंख्य देशी विशुद्धः द्रव्यथी स्वगुण पर्याय पिंड, नित्य एकत्व सहज अखंड. उज्जुसुए विकल्प परिणामे जीव स्वभाव, वर्तमान परिणत मय व्यक्त ग्राहक भाव; शब्दनये निज सत्ता जोतो इहतो " धर्म, शुद्ध अरुपी चेतन अणग्रहतो नव कर्म.
5
、
१८७.
समभिरुढ नये निरावरणी ज्ञानादिक गुण मुख्य, क्षायक अनंत चतुष्टयी भोगी मुग्ध अलक्ष्य; एवंभूति निर्मळ सकळ स्वधर्म प्रकास, पूरण पर्याय प्रगटे पूरण शक्ति विलास.
६
इणी पेरे शुद्ध सिद्धात्मरुपी, मुक्त परशक्ति व्यक्त अरुपी; विघिरे साध्य रूपे सदा तत्त्व प्रीति, ९
७
१०
•
१ पांचसो अने त्रेसठ २ संपूर्ण. ३ रुजुसूत्र नये. ४ अनुसारे ५ अभिलषतो, इच्छतो. ६ नवां. ७ अनंतज्ञान, दर्शन, चारित्र अने वीर्य.
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________________
१८८
श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
एम नय भंग संगे सनूरो, साधना सिद्धता रुप पूरो; - साधक भाव त्यां लगें अधूरो, साध्य सिद्धे नहि हेतु सूरो.
काळ अनादि अतीत अनंते जे पर रक्त, संगांगी परिणामे वर्ते मोहासक्त;
पुद्गल भोगे रीझ्यो धारे पुद्गळ खंध, परकर्ता परिणामे बांधे कर्मनो बंध.
3
आतमगुण आवरणे न ग्रहे आतम धर्म, ग्राहक शक्ति प्रयोगे जोडे पुद्गळ शर्म; परलाभे पर भोगने योगे थाये पर कीरतार, ए अनादि प्रवर्ते वाघे पर विस्तार.
११
बंधक वीर्य करणे उदीरे, विपाकी प्रकृति भोगवे दळ विखेरे; कर्म उदयागता स्वगुण रोके', गुण विना जीव भवोभवे ढोके. २ १३
१२
तेहज हिंसादिक द्रव्याश्रव करतो चंचळ चित्त, कटुक विपाके चेतन मेळे, कर्म विचित्त;"
પ
१४
एम उपयोग वीर्यादि लब्धि, परभाव रंगी करे कर्म वृद्धि;
परदयादिक या सुह विकल्पे, तदा पुण्य कर्म तणो बंध कल्पे. १५
१ अटकावे. २ रखडे, ३ मुख, ४ एकठा करे, संचे. ५ विचित्र.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
आतम गुणने हणतो हिंसक भावे थाय, आतमधर्म' नो रक्षक भाव अहिंस कहाय.
आत्मगुण रक्षणा तेह धर्म, स्वगुण विध्वंसणा ते अधर्मः भाव अध्यात्म प्रवृत्ति, तेहथी होय संसार छित्ति'
एह प्रवोधनो कारण तारण सद्गुरु संग, श्रुत उपयोगी चरणानंदी करी गुरु रंग; आतम तत्वालंबी रमता आतम राम, शुद्ध स्वरुपने भोगे योगे जसु विसराम.
सद्गुरु योगथी बहुला जीव, कोइ वळी सहजथी थइ सजीवः आत्म शक्ति करी गंठी भेदी, भेदज्ञानी थयो आत्मवेदी. द्रव्य गुण पर्याय अनंतनी थइ परतीत, जाण्यो आतम कर्ता भोक्ता गइ परभीत; श्रद्धायोगे उपन्यो भासन सुनये सत्य, साध्यालंबी चेतना वळगी आतम तत्त्व.
१८९
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२०
इंद्र चंद्रादि पदवी रोग जाण्यो, शुद्ध निज शुद्धता धन पिछाण्यो; आत्मधन अन्य आपे न चोरे, कोण जग दीन बळी कोण जोरे, २१
१ ज्ञानादिक आत्मगुण. २ छेद. ३ जेने. ४ मोहग्रंथि - रागद्वेपनी गांठ.
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१९० श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
आतम सर्व समान निधान महा सुखकंद, सिद्धतणा साधर्म ? सत्ताए गुण छंद; जेहस्वजाति तेहथी कोण करे वध बंध,
प्रगटयो भाव अहिंसक जाणे शुद्ध प्रबंध. ज्ञाननी तीक्ष्णता चरण तेह, ज्ञान एकत्वता ध्यान गेह; आत्म बादात्म्यता पूर्ण भावे, तदा निर्मळानंद संपूर्ण पावे. २३
चेतन अस्ति स्वभावमां जेहने भासे भाव, तेहथी भिन्न अरोचक रोचक आत्म स्वभाव समकित भावे भावे आतम शक्ति अनंत, कर्म नासनो चिंतन नाणे चिंते ते मतिमंत.
२४. स्वगुण चिंतन रसे बुद्धि घाले, आत्म सत्ता भणी जे निहाळे शुद्ध स्याद्वादपद जे संभाळे, परघरे तेह मति केम वाळे. २५
पुन्य पाप वे पुद्गळ दळ भासे परभाव, परभावे परसंगत पामे दुष्ट विभाव; ते माटे निज भोगी योगीरस सुप्रसन्न, देव नरक तृण मणि सम भासे जेहने मन.
२६
१ तन्मयता, अभेदता-एकता. २ बराबर काळजीथी (वीतरागनी आज्ञाने) पाळे. ३ नकामी वस्तुमां. ४ न्यूनाधिकता रहित.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. १९१ तेह समता रस तत्त्व साधे, निश्चलानंद अनुभव आराधे; तीन घनघाति निज कर्म तोडे, संधि पडिलेहिने ते विछोडे. २७
सम्यग् रत्नत्रयी रस साचो चेतन राय, ज्ञानक्रिया चक्रे चकचूरे सर्व अपाय,४ कारक चक्र स्वभावे साधे पूरण साध्य, कतो कारण कारज एक थया निरबाध.
२८ स्वगुण आयुध थकी कर्म चूरे, असंख्यात गुण निर्जरा तेह पूरे टळे आवरणथी गुण विकासे, साधना शक्ति तेम तेम प्रकासे. २९
प्रगटयो आतम धर्म थया सवि साधन रीत, वाधकभार ग्रहणता भागी जागी नीत; उदय उदीरण ते पण पूरण निर्जरा काज,
अनभिसंधि बंधकता नीरसता आतमराज. देशपति जब थयो नित्य रंगी, तदा कोण थाय कुनय चाल संगी। यदा आतमा आत्मभाव रमाव्यो, तदा वाधक भाव दुरे गमाव्यो. ३१
१ ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनी अने अंतराय कर्म. २ लाग. ३ जोइने. ४ विघ्न. ५ कर्ता, कर्म, करण, संपदान, अपादान, अने अधिकरणरुप षट् ६ अनाउपयोगे वधाता कर्मनी ओछाश.
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१९२ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
सहज क्षमा गुण शक्तिथी छेद्यो क्रोध सुभट, मादेव' भाव प्रभावथी भेद्यो मान मरदः माया आर्जव योगे लोभ ते नि:स्पृह भाव,
मोह महाभड ध्वंसे ध्वंस्यो सर्व विभाव. एम स्वभाविक थयो आत्म वीर, भोगवे आत्म संपदा सुधीर जे उदयागता प्रकृति वळगी, अव्यापक थयो खेरवे तेह अळगी.३३
धर्म ध्यान एक तानमे ध्यावे अरिहा सिद्ध, ते परिणतिथी प्रगटी तात्त्विक सहज समृद्ध: स्व स्वरुप एकत्वे तन्मय गुण पर्याय,
ध्याने ध्याता निरमोहीने विकलप जाय. यदा निर्विकल्पी थयो शुद्ध ब्रह्म, तदा अनुभवे शुद्ध आनंद शर्म; भेद रत्नत्रयी तीक्ष्णताए, अभेद रत्नत्रयी में समाए.
दर्शन ज्ञान चरण गुण सम्यग् एक एकना हेतु, स्व स्व हेतु थया समकाले तेह अभेद भाषेतुः पूर्ण स्वजाति समाधि घनघाति दल छिन्न, क्षायिक भावे प्रगटे आतम धर्म विभिन्न.
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१ नम्रता, लघुता-विनय. २ सरळता. ३ सुभट-वीर. ४ विनाश्यो. ५ समृद्धि-अनर्गल धन.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
पछी योग' रुंधी थयो ते अयोगी, भाव शैले सिताए' अभंगी; पंच लघु अक्षरे कार्यकारी, भवोपग्रही कर्म संतति विडारी. ३७ समश्रेणे एक समये पहोत्या जे लोकांत, असमाण गति निर्मळ चेतन भाव महांत; चरम त्रिभाग विहीन' प्रमाणे जसु अवगाह, आम भेद अरुप अखंडा नंदावाह.
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जीहां एक सिद्धात्म तिहां छे अनंता, अवन्ना अगंधा नहि फासमंता आतमगुण पूर्णतावंत संता, निरावाध अत्यंत सुखास्वाद वंता. ३९ कर्ता कारण कारज निज परिणामिक भाव, ज्ञाता ज्ञायक भोग्य भोग्यता शुद्ध स्वभाव; ग्राहक रक्षक व्यापक तन्मयताए लीन, पूरण आतम धर्म प्रकास रसें लयलीन.
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द्रव्यथी जीव चेतन अलेशी, क्षेत्रथी जे असंख्य प्रदेशी; उत्पाद वळी नास ध्रुव काळधर्म, शुद्ध उपयोग गुण भाव शर्म. स्याद्वाद आम सत्ता रुचि समकित तेह, आतम धर्मनो भासन निर्मळ ज्ञानी जेह;
१ मन, वचन अने काया २ मेरुपर्वतनी जेवी निश्ळता, शैलेशीकरण. ३ अघाति. ४ अस्पर्शमान, ५ . ६ वर्ण गंध अने स्पर्शरहित, अरुपी शुद्ध सहज स्वरुपी.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
आतम रमणी चरणी ध्यांनी आतम लीन, आतम धर्म रमो तेणे' भव्य सदा सुख पीन. अहो भव्य तमे ओळखो जैन धर्म, जेणे पामीये शुद्ध अध्यात्ममर्म; अल्पकाळे टळे दुष्ट कर्म, पामीये सोय आनंद शर्म.
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नय निक्षेप प्रमाणे जाणे जीवा जीव, स्व पर विवेचन करतां थाये लाभ सदैव; निश्चयने व्यवहारे विचरे जे मुनिराज, भवसागरना तारण निर्भय तेह जहाज.
वस्तु-तत्त्वे रम्या ते निग्रंथ, तत्त्व अभ्यास तिहां साधु -पंथ तीणे गीतार्थ चरणे रहीजे, शुद्ध सिद्धान्त रस तो लहीजे.
श्रुत अभ्यासी चोमासी वासी लींमडी ठाम, शासन रागी सोभागी श्रावकनां बहु धाम; खरतर गछ पाठक श्री दीपचंद सु पसाय, देवचंद्र निज हरखे गायो आतम राय
आत्म रमण करवा अभ्यासे, शुद्ध सत्ता रसीने उल्लासे; - देवचंद्रे रची आत्म गीता, आत्म रमणी मुनि सुप्रतीता. अ इति अध्यात्म ग्रीता.
१ वे माटे. २ पुष्ट. ३ सुप्रसिद्ध.
કર
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. . क्षमा छत्रीशी.
आदर जीव क्षमा गुण आदर, म करीश रागने द्वेषजी; समताये शीवसुख पामीजे, क्रोधे कुगति विशेषजी. आ० १ समता संजम सार सुणीजे, कल्पसूत्रनी शाखजी; क्रोध पूर्व क्रोडि चारित्र वाळे, भगवंत एणीपेरे भाखजी. आ० २ कुण कोण जीव तर्या उपशमथी, सांभळ तुं दृष्टांतजी; कुण कोण जीव भम्या भवमांहे, क्रोध तणे विरतंतजी. आ०३ सोमल ससरे शीश प्रजाळ्यो, वांधी माटीनी पाळजी गज सुकमाळ क्षमा मन धरतो, मुक्ति गयो ततकाळजी. आ० ४ कुळ वाळुओ साधु कहातो, कीधो क्रोध अपारजी; कोणिकनी गणिका वश पडियो, रडवडियो संसारजी. आ०५ सोवनकार करी अति वेदन, वाध्रसुं वीटयुं शीशजी; मेतारज मुनि मुगति पहोत्यो, उपशम एह जगीशजी. आ० ६ कुरुड अकुरुड वे साधु कहाता, रह्या कुणाला खाळजी; क्रोध करी कुगते ते पहोत्या, जनम गमायो आळजी. आ० ७ कर्म खपाची मुगते पहोता, खंधक सरिना शिष्यजी; पालक पापीये घाणी पील्या, नाणी मनमां रीशजी. आ०८ अच्छंकारी नारि अछंकी, तोडयो पियुशुं नेहजी वन्बर कुळ सहां दुःख वहोळां, क्रोध तणां फळ एहजी, आ०९,
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१९६ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
वाघणे सर्व शरीर वलूयु, तत्क्षण छोडयां प्राणजी; __ साधु सुकोशळ शिवसुख पाम्या, एह क्षमागुण जाणजी. आ० १०
कुण चंडाळ कहिजे विहुमें, निरती नहि कहे देवजी रुषी चंडाल कहीजे वढतो, टाळे वेढनी टेवजी. आ०११ सातमी नरके गयो ते ब्रह्मदत, काढी ब्राह्मण आंखजी क्रोध तणां फळ कडवा जाणी, रागद्वेष यो नांखजी. आ० १२ खंधक रुषीनी खाल उतारी, सह्यो परीसह जेणजी; गरभावासना दुःखथी छुटयो, सबळ क्षमागुण तेणजी. आ० १३ क्रोध करी खंधक आचारज, हुओ अग्नि कुमारजी; दंडक नृपनो देश प्रजाळ्यो, भमशे भवह मझारजी. आ० १४ चंडरुद्र आचारज चळतां, मस्तक दीध प्रहारजी क्षमा करता केवळ पाम्यो, नव दिक्षीत अणगारजी. आ० १५ पांचवार रुषीने संताप्यो, आणी मनमा द्वेषजी पंचभव सीमदह्यो नंदनादिक, क्रोधतणां फळ देखजी. आ० १६ सागरचंदतुं शीश प्रजाळी, निशि नभसेन नरिंदजी समता भाव धरी सुरलोके, पुहुतो परमानंदजी. आ० १७ चंदना गुरुणीये घेणुं निभ्रंछी, धिर धिम् तुज आचारजी; मृगावती केवळ सिरि पामी, एह क्षमा अधिकारजी. आ० १८ सांब प्रद्युम्न कुमारे संताप्यो, कृष्ण द्वैपायन साहजी क्रोध करी तपन फळ हार्यो, कीधो द्वारिका दाहजी. आ०-१९
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. १९७ भरतने मारण मूठि उपाडी, वाहुवळ वळवंतजी; उपशम रस मनमांहिं आणी, संजम ले मतिमंतजी. आ० २० काउसगमां चडियो अति क्रोधे, प्रसनचंद्र रुषिरायजी; सातमी नरकतणां दल मेळयां, कडुआ तेणें कषायजी. आ० २१ आहारमाहे कोधे रुपि यूँक्यो, आण्यो अमृत भावजी कूरगडुए केवळ पाम्यु, क्षमातणे परभावजी. आ० २२ पार्श्वनाथने उपसर्ग कीधा, कमठ भवांतर धीठजी; नरक तियेचतणां दुःख लाधां, क्रोधतणां फळ दीठजी आ० २३ क्षमावंत दमदंत मुनिश्वर, वनमा रह्यो काउस्सग्गजी; कौरव कटक हण्यो इंटाळे, बोडया कर्मना वर्गनी. आ० २४ सज्या पाळक काने तरुओ, नाम्यो क्रोध उदीरजी; विहुं काने खीला ठोकाणा, नवि छूटा महावीरजी. आ० २५ चार हत्यानो कारक हुँतो, दृढ प्रहारि अतिरेकजी; क्षमा करीने मुक्ति पहोत्यो, उपसर्ग सही अनेकजी. आ० २६ पोहोरमांह उपजंतो हार्यो, क्रोधे केवळ नाणजी; देखो श्रीदमसार मुनीश्वर, मूत्र गुण्यो उठाणजी. · सिंह गुफावासी रुषि कीघो, थूलिभद्र उपर कोपजी%B वेश्या वचनें गयो नेपाळे, कीधो संजम लोपजी. आ० २८ चंद्रावतंसक काउसग रहियो, क्षमातणो भंडारजी; दासी तेल भर्यो निशि दीवों, सुर पैदवी लही सारजी. आ० २९
अणजा.
आ० २७
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१९८ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. एम अनेक तर्या त्रिभुवनमे, क्षमा गुणें भवि जीवजी; . क्रोध करी कुगते ते पहोत्या, पाडता सुख रीवजी. आ० ३० विष हलाहल कहीये विरुओ, ते मारे एकवारजी; पण कषाय अनंती वेळा, आपे मदण अपारजी. आ० ३१ क्रोध करता तप जप कीयां, न पडे कांइ ठामजी% आप तपे परने संतापे, क्रोध शुं केहो कामजी. . आ० ३२ क्षमा करंतां खरच न लागे, भांगे क्रोड कलेशजी; अरिहंत देव आराधक थावे, व्यापे सुयश प्रदेशजी आ० ३३ नगरमांहे नागोर नगीनो, ज्यां जिनवर प्रासादजी श्रावक लोक वसे अति सुखीया, धर्मतणे प्रसादजी. आ. ३४. क्षमा छत्रीशी खाते कीधी, आतम पर उपकारजी; सांभळतां श्रावक पण समज्या, उपशम धर्यो अपारजी. आ० ३५ जुग प्रधान जिणचंद खरिश्वर, सकळचंद तसु शिष्यजी; समय सुंदर तसु शिष्य भणे एम, चतुर्विध संघ जगीसजी. आ० ३६.
इति क्षमा छत्रीशी संपूर्ण.
यति धर्म बत्रिशी.
दोहा. भाव यति तेने कहो, ज्यां दशविध यति धर्म; कपट क्रियामां माल्हता, महीयां वांधे कर्म.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. लोकिक लोकोत्तर क्षमा, दुविध कही भगवंत तेहमां लोकोत्तर क्षमा, प्रथम धर्म छे तंत. वचन धर्म नामे कह्यो, तेहना पण बहु भेद आगम वयणे जे क्षमा, तेह प्रथम अपखेद. धर्म क्षमा निज सहजथी, चंदन गंध प्रकार; निरतिचार ते जाणीये, प्रथम सूक्ष्म अतिचार. उपकारे अपकारथी, लौकिक वळी विवाग; वहु अतिचार भरी क्षमा, नहि संयमने लाग. वार कषाये क्षय करी, जे मुनि धर्म लहाय; वचन धर्म नामे क्षमा, जे वहु तिहां कहाय. मद्दव अज्जव मुत्ति तव, पंच भेद एम जाण; त्यां पण भाव नियंठने, चरम भेद प्रमाण. इह लोकादिक कामना, विण अणसंण मुख जोग; शुद्ध निर्जरा फळ कह्यो, तप शिवमुख संयोग. आश्रव द्वारने रुधिये, इंद्रिय दंड कषाय, सत्तर भेद संयम कह्यो, एहिज मोक्ष उपाय. सत्य सूत्र अविरुद्ध जे, वचन विवेक विशुद्ध आलोयण जळ शुद्धता, शौच धर्म अविरुद्ध. खग उपाय मनमे घरे, धर्मोपगरण जेह; वरजित उपधि न आदरे, भाव अकिंचन तेह. शील विषय मन वृत्ति जे, ब्रह्म तेह सुपवित्त होय अनुत्तर देवने, विषय त्यागनो चित्त.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
ए दसविध यति धर्म जे, आराधे नित्य मेव; मूळ उत्तर गुण यतनधी, तेहनी कीजे सेव. अंतर जतना विण किश्यो, बाह्य क्रियानो लाग; केवळ कंचुकि परिहरे, निर्विष हुए न नाग. दोषरहित आहार ल्ये, मनमां गारव राखि ते केवळ आजीविका, सूयगडांगनी साखि. नाम धरावे चरणनुं, विगर चरण गुण खाण; पाप श्रमण ते जाणीये, उत्तराध्ययन प्रमाण. शुद्ध क्रिया न करी शके, तो तुं शुद्धि भाष; शुद्ध मरुपक होइ करी, जिनशासन स्थिति राख. उसनो पण करम रज, टाळे पाळे बोधः चरण करण अनुमोदता, गच्छाचारे सोध. हीणो पण ज्ञाने अधिक, सुंदर सुरुचि विशाळ; अल्पागम मुनि नहि भलो, वोले उपदेश माळ. ज्ञानवंतने केवळी, द्रव्यादिक अहि नाण; बृहत् कल्प भाषे वळी, सरसा भाष्या जाण. ज्ञानादिक गुण मच्छरी, कष्ट करे ते फोक ग्रंथि भेद पण तस नहीं, भूले भोळा लोक. ज्यां जोहार जवेहरी, ज्ञाने ज्ञानी तेम; हीणाधिक जाणे चतुर, मूरख जाणे केम. आदर कीधे तेहने, उन्मारग थीर होय;
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श्री जैनतितोपदेश भाग ३ जो. वाह्य क्रिया मत राचनो, पंचाशक अवलोय. जेहयी मारग पामीयो, तेहने सामो थाय; प्रत्यनीक ते पापीयो निश्चयें नरके जाय. सुंदर बुद्धि पणे कर्यो, सुंदर सरव न थाय; ज्ञानादिक वचने करी, मारग चाल्यो जाय. ज्ञानादिक वचने रह्या, साधे जे शीव पंथ; आतम ज्ञाने उजळो, तेहु भाव निग्रंथ. निंदक निचे नारकी, वाह्य रुचि मति अंध; आतम ज्ञाने जे रमे, तेहने तो नहिं बंध. आतम साखे धर्म जे, त्यां जनतुं शुं काम; ? जन मन रंजन धर्मनु, मूल न एक बदाम. जगमां जन छे बहु सुखी, रुचि नही को एक निज हित होय तिम कीजीये, ग्रही प्रतिज्ञा टेक. दूर रही जे विषयथी, कीजे श्रुत अभ्यास, संगति कीजे संतनी, हुइये तेहना दास. समतासें लय लाइये, धरि अध्यातम रंग: निंदा तजीये परतणी, भजीये संयम चंग. वाचक यश विजयें कही, ए मुनिने हित वात; एह भाव जे मुनि धरे, ते पामे शीव सात.
इति संयम बत्तीसी संपूर्ण.
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२०२ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ___“जैन कोमना हितनी खातर खास निर्माण करेली
समयानुसारी बहु उपयोगी सूचनाओ."
१. विदेशी भ्रष्ट वस्तुओथी आपणे सदंतर दूर रहेवू अने स्वदेशी पवित्र वस्तुओनोज उपयोग निश्चयपूर्वक करवो अने कराववो.
२. आपणा पवित्र तीर्थोनी रक्षा माटे आपणे विशेषे सावधान रहे.
३. कोइ पण प्रकारना खोटा व्यसनथी सावधानपणे दूर रहे, अने अन्य भाइ बहेनोने दूर रहेवा प्रेरणा कर्या करवी.
४. शांत रसथी भरपूर जिन-प्रतिमाने जिनवत् लेखी तेवी शांत दशा प्रगटाववा प्रतिदिन पूजा अचोदिक करखा कराववा पूरतुं लक्ष राखतुं तथा रखावq.
५. परम सुख शांतिने आपवावाळी श्री जिन वाणीनो स्वाद मेळववा दिवस रात्रीमां थोडो वखत पण जरुर श्रम लेवो, अभ्यास राखवो.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
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६. जैन तरीके आपणुं शुं शुं कर्तव्य छे ते पूरा तोरथी जाणी लेवा अने जाणीने ते प्रमाणे वर्तवा पूरो ख्याल राखवो.
७. शरीर सारुं होय तो धर्म साधन सारी रीते साधी शकाय छे. एवी बुद्धिथी शरुआतथीज शरीरनी संभाळ राखवा सावचेत रहेतुं वळी बाळलग्न, वृद्धविवाह, परस्त्री तथा वेश्यागमन, कुपथ्य भोजन अने कुदरत विरुद्ध वर्तनथी नाहक विर्यनो नाश थवा साथै शरीर कमजोर थायज छे, एम समजी उक्त अनाचारोथी सदंतर दूर रहेवा खास लक्ष राखतां रहे. ८. आवकना प्रमाणमांज खर्च करवा तेमज नकामा उडाउ खर्चों बँध करी बचेला नाणांनो सदु पयोग करवा कराववा पूरतुं लक्ष राखउँ अने रखाववुं.
९. धर्मादा खाते जे रकम खर्चवा धारी होय ते विलंब कर्या विना विवेकथी खर्ची देवी. कारणके सदा काळे सरखा परिणाम रही शकता नथी. वळी लक्ष्मी पण आज छे, अने काले नथी.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. १०. ज्ञान दान समान कोइ दान नथी, एम समजी सहुए तेमां यथाशक्ति सहाय करवी, तत्त्व ज्ञाननो फेलावो थवा पामे तेवो प्रबंध करखो, केम्के शासननी उन्नतिनो खरो आधार तत्त्वज्ञान उपरजछे.
११. जैनी भाइ बहेनोमां पण केटलाक भागे कळा कौशल्यनी खामीथी, प्रमादथी तथा अगमचेतीपणाना अभावथी बहुधा नात वरा विगेरे नकामा खर्चा करवाथी दुःखी हालत थवा पामेल छे. ते दूर थाय तेवी देशकाळने अनुसारे उछरती प्रजाने तालीम (केळवणी) आपवी दरेक स्थळे शरु करवानी पूरी जरुर छे.
१२, वीतराग प्रभुनो उपदेश सारी आलमने उपगारी थइ शके एवो होवाथी तेनो जेम प्रसार थवा पामे तेम प्रयत्न कर्या करखो. जिनेश्वर भगवाने आपेली शिखामणोनुं सार ए छे के.
क. सर्व जीवनुं भलं करखा कराववा बनती काळजी राखवी.
ख. सादाइ अने नरमाश राखवी.
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२०५ .
श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ग. समजु अने सरल (विवेकी) बनवू. घ. निर्लोभी थइ संतोष वृत्तिमांज सुख मानबुं.
ङ. आळस तजी चीवट राखी यथाशक्ति आत्मसाधन कर,.
च. मन, वचन अने कायाने काबुमा राखवा तत्पर रहे.
छ. सत्यनुं स्वरुप समजाने सत्यज बोलवू, हितमित भाषण करवू. . ज. अंतःकरण साफ राखी शुद्ध व्यवहार सेववो कोइ रीते मलीनता आदरखी नहि.
झ. उदार दिलथी आत्मार्पण करवू, स्वार्थता तजी परमार्थ प्रति प्रेम लगाडवो, परार्थ परायण रहे. . अ. उत्तम प्रकारचें सद्वर्तन (आदर) सेवq..
१३. काळ मुख कुसंपने जेम तेम दाटी दइ सुखदायी संपने वधारवा शासन रसिक जनोए भगीस्थ प्रयत्न सेववा तत्पर थवं: .
. १४. हानिकारक रीत रीवाजोने दूर करवा कराववा पूरतुं मथन कर. .
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. १५. सीदाता साधर्मी जनोने विवेकथी सहाय आपवा मेदान पड.
१६. जे उत्तम पुरुषे आपणने उपगार को होय तेनी सामा थइ तेने नुकशान करवानी अगर तेनुं बुर बोलवानी प्रवृत्ति स्वार्थने खातर अगर प्राणांत कष्टं आवे छते पण करवी नहि.
१७. कोइए करेला अपराधथी गुस्से थइ तेनो अनादर करवाने बदले शांतिथी तेनु खरे स्वरुप समजावी ठेकाणे पाडवामांज सार छे...
१८. द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भावने लक्षमा राखीने उचित प्रवृत्ति करतां नम्रता धारण करशे, तेज भव्यजनो स्वपर हितने साधवा समर्थ थइ शुकशे रागद्वेष अने मोहने सर्वथा तजी सर्वज्ञ सर्वदशी थइ आपणने पण एवाज-निर्मळ निदोष थवा जिनेश्वर भगवान उपदिशे छे.
उक्त सूचना मुजब वर्तवा सकळ उपदेशक मुनिमंडळ तथा अन्य उत्साही श्रावक वर्ग खरा जीगरथी प्रयत्न करे तो सारो अने संगीन लाभ स्वल्प समयमा थवा संभवे छे. सुज्ञेषु किंबहुना.
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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
शुद्धिपत्र. जैन हितोपदेश भाग २ जो. लींटी. अशुद्ध. शुद्ध.
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विरहे
विरह त्यजं
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त्यज शत्रू विज्ञेयौ फलप्रदौ मूलम् तेम
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११ ११ १६
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शत्रु विज्ञेयो फलप्रदम् मुलम् तमे वर तथा पासे अनती धमनां फळीमत अघन. वाण उपयोगमा कलीनताने
तेथी पाछळ रहेलं अनंती धर्मना फळीभूत अपने निर्वाण
उपयोग - . कुलीनताने
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२०८
समुद्रोत्थं
श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. जैन हितोपदेश भाग ३ जो. लींटी. अशुद्ध.
शुद्ध. अस्थिर
स्थिर समुद्धोत्थं
दुष्पूर मिनेभ
मीनेभ १२ संज्ञिकं
संज्ञक शरीररुप शरीररूप १६ नीरुपे
नीरूपे १६ रूपीणी
रूपिणी लोकसंज्ञा लोकसंज्ञा ए
एका परेवपि परेश्वपि भेदा पाछली
पाछला योग
योग. करवानां
करवानां
थइ मार्दीकृतं माद्रीकृतं
एवी
१०७
भेदाः
१०८ १०८ १०८ १२९
.१२
-00-WWW
१३६
तद
तज पूर्णानन्दघने
पूर्णान्दघने ‘मोटा धारो .
मोटो धारी
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