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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
॥ अथ परमातम छत्रीशी. 11
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परम देव परमातमा परम ज्योति जगदीस || परमभाव उरआनकें प्रणमत हुं नीस दीस || १ || एक ज्युं चेतन द्रव्य है. तामें तीन प्रकार || बहिरातम अंतर कह्यो, परमातम पद सार ॥ २॥ वहिरातम ताकुं कहै, लखे न ब्रह्म स्वरूप || मगन रहे परद्रव्य है, मिथ्यावंत अनूप || ३ || अंतर आतमा जीव सो, सम्यक् दृष्टि होय. ।। चोथै अरु फुनि बारमै गुणथानक लों सोय ॥ ४ ॥ परमातम परब्रह्मकों, प्रगटयो शुद्ध स्वभाव || लोकालोक प्रमाण सब, झलके तिनमें आय || बाहिर आतम भाव तज, अंतर आतमा होय ॥ परमातम पद भजतु है, परमातम वहे सोय ॥ ६ ॥ परमातम सोइ आतमा, अवर न दुजो कोइ || परमातमकुं ध्यावते, एह परमातम होय ॥ ७ ॥ परमातम परब्रह्म है, परम ज्योति जगदीस || परसु भिन्न निहारीथे, जोइ अलख सोइ इस ॥ ८ ॥ जे परमातम सिद्ध मैं, सोहि आतमा माहिं || मोह मयल इग लगी रह्यो, तामे सूझत नांहि ॥ ९ ॥ मोह मयल रागादिके, जा छिन कीजे नास ॥ ता छिन एह परमातमा, आपहि लहे प्रकास || १० || आतम सो परमातमा, परमात सोइ सिद्ध || विचकी दुविधा मीट गई, प्रगट भइ निज रिद्ध ॥ ११ ॥ मेंहि सिद्ध परमातमा, मेंहि आतमराम ॥ मेंहि ग्याता गेयको, चेतन मेरो नाम ॥ १२ ॥ मेंहि अनंत सुखको धनी, सुखमें मोहि सोहाय || अविनासी आनंदमय, सोऽहं त्रिभुवन
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