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१८६ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. राय ॥ १३ ॥ सुद्ध हमारो रुपहें, शोभित सिद्ध समान ॥ गुण अनंत करी संयुत, चिदानंद भगवान ॥ १४॥ जेसो सिव तहिवे वसे, तेसो या तनमांहि ॥ निश्चय दृष्टि निहारतां. फेर रंच कछ नांहि ॥१५॥ करमनके संजोग ते, भए तीन प्रकार ॥ एक आतमा द्रव्यकुं, करम नटावण हार ॥१६॥ कर्म संघातें अनादिके, जोर न कछु बसाय ॥ पाइ कला विवेककी, राग द्वेष छिन जाय ॥१७॥ कैरमनकी जर राग हे, राग जरे जर जाय॥परम होत परमातमा, भाइ सुगम उपाय ॥ १८ ॥ काहकुं भटकत फारे, सिद्ध होनके काज ॥ राग द्वेषकुं त्याग दे, भाइ सुगम इलाज ॥१९॥ परमातम पदको धनि, रंग भयो विललाय ॥ राग द्वेषकी प्रीति सौ, जनम अकार) जाय ॥ २० ॥राग द्वेषकी प्रीति तुम, भुले करो जन रंच ॥ परमातमपद ढांकके, तुमहि किये तिरयंच ॥ २१॥ जप तप संजम सव भले, राग द्वेष यो नाहि ॥ राग द्वेष जो जागते, ए सव भये ज्यु नाहिं ॥ २२ ॥ राग द्वेषके नासते, परमातम परकास ॥ राग द्वेषके भासते, परमातम पद नास ॥२३॥ जो परमातम पद चहें, तो तुम राग निवार ॥ देखी संजोग स्वामीको, अपने हिये विचार ॥२४॥ लाख वातकी वात इह, जोकु देइ बताय ॥ जो परमातम पद चहे,
१ जेम सिद्ध भगवान सिद्धक्षेत्रमा विराजे छे. २ कर्मनुं मूळ राग छ, राग गये छते निमूळ थये छते कर्मनो अंत आववानो छे अने त्यारेज परमात्मपद प्राप्त थवानुं छे. ३ निष्फळ