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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
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राग द्वेष तज भाइ ॥ २५ ॥ राग द्वेष त्याग विनु, परमातम पद नाहिं ॥ कोटि कोटि जप तय करे, सव अकारथ जाय ॥ २६ ॥ दोष आतमाकुं इह, राग द्वेषको संग ॥ जेसे पास मजीठमें, व और हि रंग || २७ ॥ तेसे आतम द्रव्यकुं, राग द्वेषके पास || कर्म रंग लागत रहे, कैसे लहे प्रकाश ॥ २८ ॥ इण कर मनको जीतवो, कठीन वात हे वीर ॥ जरे खोदे चितुं नहि मिटें, दुष्ट जात वे पीरे ।। २९ ।। लैल्लोपतो के कीयो, ए मिटवे के नाहि || ध्यान अगनी परकाशके, होम देहि ते मांहि ॥ ३० ॥ ज्युं दारु के गंजकुं, नर नहि शके उठाय ॥ तनकें आग संजोग ते, छिन एकमें उड जाय ॥ ३१ ॥ देह सहित परमातमा, एह अचरीजकी बात || राग द्वेषके त्याग ते, करम शक्ति जरी जात || ३२ || परमातम के भेद द्वय, निकल सगल परवान | सुख अनंतमें एकसे कहेवे के द्वय थाय ॥ || ३३ || भाइ एह परमातमा, सोहं तुममें याहि || अपणि भक्ति संभारके लिखा वग देतांहि ॥ ३४ ॥ राग द्वेष कुं त्यागके, धरी परमातम ध्यान || युं पात्रे सुख सास्वत, भाइ इम कल्यान ||३५|| परमातम छत्रीसी को, पढियो प्रीति संभार ॥ चिदानंद तुम प्रति लखी आतम के उद्धार ॥ ३६ ॥ इति.
१ मूळ. २ पीड, आपदा ३ ललोपतो कर्ये, खेद मात्र धारवाथी कंइ वळवानुं नथी, ते माटे तो प्रवळ पुरुषार्थनी. जरुर छे.. ४ वणखो, अल्प मात्र.