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________________ - श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. ६१ दयने देखीने भव्य जीवो अंतरमा आल्हाद पामी उल्लसित थाय ते मुदिता० ३ करुणा-कोइ दीन दुःखीने देखी स्वशक्ति अनुसारे सहाय अर्पि तेनुं देखीतुं दुःख दूर करवा, अने धर्महीन जीवोने यथायोग्य हितोपदेश दइ धर्म सन्मुख करवा उचित सहाय आपी धर्मना अधिकारी वनाववा प्रयत्न करवो ते करुणाभावना कहेवाय छे. , ४ मध्यस्थ-देव गुरु धर्मना निंदक, नास्तिक, निर्दय निष्पतिकार्य (जेने कोइ रीते हितोपदेश लागे नहि एवा अनार्य) जीवो उपर पण द्वेष नहि करतां कर्मनी विचित्रता मात्र विचारी तटस्थ रही स्वकर्तव्य करवू पण नाहक रागद्वेषथी कर्मबंध थाय तेम नहि कर तेनुं नाम मध्यस्थ भावना छे. अथवा भव वैराग्यने करनारी अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व आदि द्वादश भावनाओ भव्य जीवोए निरंतर भाववा योग्य छे. उक्त भावनाओना वळ थकी भरत महाराजा मरुदेवादिक अनेक भावित आत्याओ परमपदना अधिकारी थया छे. तथा दरेक मोक्षार्थी जनोए उक्त भावनाओनों प्रतिदिन परमार्थथी अभ्यास करचो योग्य छे. पूर्वोक्त भावना विना करवामां आवती धर्मकरणी. पण अलूणा.
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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