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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
२६ निर्मळ भावनाओ भाव. निर्मळ मनथी दान, शीळ, के तप विगैरे धर्मकरणी यथाशक्ति करतां अथवा नहि करी शकाय तेने माटे शोच पूर्वक अभ्यास करतां या तो कोइ महाशयने विधिवत् धर्मकरणी करतां देखीने मना जे शुभमाव पेदा थाय ते विगेरे भावना कहेवाय छे. उक्त भावना वडेज करेली करणी सफळ थाय छे, अभिनव भाव पेदा थाय छे अने अंते भव भ्रमणनो अंत आवे छे.
मैत्री, मुदिता, करुणा, अने माध्यस्थ्यरुप भावना चतुष्टय दरेक 'कल्याणार्थी जनोए प्रत्यहं भाववा-आदरवा योग्य छे, तेथी उक्त चारे भावनाओ, स्वरुप कंइक संक्षेपथी पण जाणवानी जरुर छे.
१ मैत्री-सर्व कोइ मारा मित्र छे, कोइ मारा शत्रु छेज नहि. 'सर्व कोइ सुखी थाओ ! कोइ दुःखी नज थाओ! सर्व कोइ सुखना मार्गे चालो ! कोइपण दुःखना मार्गे नहि चालो ! सर्व कोइ सत्य
सर्वज्ञ भाषित धर्मनुज शरण ग्रहो ! कोइपण अधर्म या कुधर्मना पा__ समां नहि पडो ! एवी पवित्र बुद्धि सर्व प्रति राखवी ते मैत्री०
२ मुदिता-या प्रमोद-मेघमाळांने देखी जेम मोर केकारव करे छे, अने चंद्रने देखी जेम चकोर खुशी थाय छे तेम गुण महो