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________________ जैनहितीपर्देर्श भाग ३ जो. ॥ २० ॥ सर्व संमृद्धि अष्टकम् ।। बाह्यदृष्टि प्रचारेषु, मुद्रितेषु महात्मनः॥ अंतरेवावभासन्ते, स्फुटाः सर्वास्समृद्धयः ॥ १ ॥ समाधि नंदनं धैर्य, दंभोलिः समता शची। ज्ञानं महा विमानं च वासवश्रीरियं मुनेः ॥ २ ॥ विस्तारित क्रिया ज्ञान, चर्म छत्री निवारयन् ॥ मोहम्लेच्छ महावृष्टिं, चक्रवर्ती न किं मुनिः ॥ ३ ॥ नवब्रह्मसुधाकुंड, निष्ठाधिष्ठायको मुनिः॥ नागलोकेशवद् भाति, क्षमां रक्षन प्रयत्नतः॥४॥ मुनिरध्यात्म कैलाशे, विवेक वृषभ स्थितः ॥ शोभते विरतिज्ञप्ति, गंगागौरियुतः शिवः ॥ ५॥ ज्ञानदर्शनचंद्रार्क, नेत्रस्य नरकच्छिदः॥ .. सुखसागर ममस्य, किं न्यूनं योगिनो हरेः ॥ ६ ॥ या सृष्टिब्रह्मणो बाह्या, बाह्यापेक्षावलंबिनी ।। मुनेः परान पेक्षांत, गुणसृष्टि स्ततो ऽधिका ||
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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