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________________ ८६ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ज्ञानी तस्माद् भवांभोधे, नित्योदिनो ऽति दारुणात् ॥ तस्य संतरणोपायं, सर्वयत्नेन कांक्षति ॥ ५॥ तैल पात्रधरो यद, द्राधावेधोद्यतो यथा ॥ क्रिया खनन्य चित्तःस्या, द्भवभीत स्तथा मुनिः ॥६॥ विषं विषस्य वन्हेश्च, वन्हिरेव यदौषधं ॥ तत्सत्यं भवभीताना, मुपसर्गेऽपि यत्नभीः ॥७॥ स्थैर्य भवभयादेव, व्यवहारे मुनित्रजेत् ।। स्वात्माराम समाधौ तु, तदप्यंतर्निमज्जति ॥ ८॥ . ॥ रहस्यार्थ ॥ १. कर्म विपाकने सम्यक् चितवतो मुनि भवथी उद्विग्न-उदासी थयो छतो जेने तरी पार जवा प्रतिदिन प्रयत्न कर्या करे छे ते ज भव समुद्रनुं स्वरूप कहे छे.-जेनो मध्य भाग बहु उंडो छे. जन्म मरणादिक जन्य अनंत दुःखरूप जल राशिथी अथाग भरेलो, छे, जेनुं अज्ञान रूप वज्रमय तटुं छे-अज्ञान अविवेक या मिथ्या भ्रमना आधारेज संसारनी स्थिति रहेली छे अज्ञानना जोरथीज चार गति या ८४ लक्ष जीवायोनिमा पुनः पुनः अवतरवा रुपी
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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