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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. १४३ हरुपी सुंढवाळो, राग द्वेषरुपी तीक्ष्ण दीर्घ दांतवाळो, अने दुर्वार कामथी मदोन्मत्त थयेलो, महा मिथ्यात्वरुपी दुष्ट गजने सम्यग् ज्ञान-अंकशना प्रभावथी जेणे वश कयों छे, ते महानुभावेज त्रणे लोकने स्ववश कर्या छे एम जाणवू.
(१७) यशकीर्तिने माटे पोतानुं सर्वस्व आपीदे एवा, अने पोताना स्वामीने माटे प्राण पण आपीदे एवा, बहु जनो मळी आवशे, पण शत्रुमित्र उपर जेमर्नु मन समरस (सरखं) वर्ते छे एवा तो कोइ विरलाज देखाय छे. __ (१८) जेनुं हृदय दयाई छे, वचन सत्यभूषित छे, अने काया परमार्थ साधनारी छे, एवा विवेकवानने कळिकाळ शुं करी शकवानो छ ?
(१९) जे कदापि असत्य बोलतोज नथी, जे रणसंग्राममा पाछी पानी करतो नथी, अने याचकोनो अनादर करतो नथी, तेवा रत्नपुरुषथीज आ पृथ्वी रत्नवती कहेवाय छे. केमके कहेवाय के के-'बहुरना वमुंघरा.'
(२०) सर्व आशारुपी वृक्षने कापवा कुवाडा जेवो काळ, जो सर्वनी पाछळ पडयो न होत तो विविध प्रकारना विषय मुखथी कोइ कदापि विरक्त थातज नहि.