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१४२ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.. अंगीकार कर्या छे; तेवा भाग्यशाली भव्योथीज आ पृथ्वी पावन थयेली छे.
(१२) कामदेवना बंधुभूत वसंतने पामीने सकळ वनराजी पण विविध वर्णवाळी मांजरना मिषयी रोमांचित थयेली लागे छे, तेमां सिद्धांतना सारनुं सतत सेवन करवाथी, जेमर्नु मन विषय तापथी लगारे तप्त थ नथी, एवा संत सुसाधु जनोनेज धन्य छे.
(१३) स्वाध्यायरुपी उत्तम संगीत युक्त, संतोषरुपी श्रेष्ठ पुष्पथी मंडित, सम्यग् ज्ञान विलासरुपी उत्तम मंडपा रही शुभ ध्यान शय्याने सेवी, तत्त्वार्थ वोधरुपी दीपकने प्रगटी, अने समतारुपी श्रेष्ठ स्त्रीनी साथे रमण करी केवल निर्वाण सुखना अभिलाषी महाशयोज रात्रीने समाधिमां गाळे छे.
(१४) शुद्ध ध्यानरुपी महा रसायणमां जे मन मग्न थयु छे; तेने कामिनीना कटाक्ष वगेरे विविध हावभावो शुं करनार छे ? __ (१५) सम्यग् ज्ञानरुपी जेना उंडा मूळ छे, समकितरुपी जेनी मजबूत शाखा छे, एवा व्रत-क्षने जेणे श्रद्धाजळथी सिंच्यु छे तेने अवश्य मोक्षफळ आपे छे, स्वर्गादिकना सुख तो पुष्पादिकनी पेरे प्रासंगिक छे, तेतो सहजमां प्राप्त थइ शके छे. - (१६) क्रोधादिक उग्र कषायरुपी चार चरणवाळो, व्यामो