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________________ ७. श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. यति धर्मनी अनुमोदना पूर्वक यथायोग्य सहाय अर्पनार संविज्ञ पक्षीय साधु या श्रावको पण निर्देभाचरणथी अनुक्रमे संसार समुनो अंत करी अक्षय सुखने साधी शके छे. ३१. धैर्य धारण कर. ( HAVE PATIENCE ) समतानां फळ मीठां छे, अने ते अनुभव गम्य छे. कंइपण सत् कार्य धीमेथी पण दृढताथी करनार अंते अवश्य फतेहमंद नीवडे छे, ते अधीरजथी एकाएक करनार भाग्येज फतेह मेळवे छे. नियम वगरनी उतावळ उलटी नुकसानकारी निवडे छे. दीर्घदृष्टि जनो कोइपण महत्त्वनुं कार्य प्रथम नाना पायाथी शरु करे छे अने अनुकूल सामग्री मळतां तेने उत्साह पूर्वक आगळ वधारे छे. अदीर्घदृष्टि ज़नोने तो तेवो पूर्वापर विवेक नहि होवाथी अनुकूल सामग्रीना विरहे उत्साहभंगथी आरंभेलुं गमे तेवुं महत्त्वनुं कार्य पण छोडी देवुं पडे छे. sma व्यवहारिक कार्यनी पेरे कोइपण धार्मिक कार्यमा पण आत्मार्थी पुरुपे अभ्यास पूर्वक हिंमतथी आगळ वघवानी जरुर छे.
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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