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________________ ६४ जनहितोपदेश भाग ३ जो. समशीलं मनो यस्य, सं मध्यस्थो महायुनिः ॥३॥ स्व स्वकर्म कृतावेशाः, स्व स्वकर्म भुजो नराः॥ नराग नापि च दे, मध्यस्थ स्तषु गच्छति ॥४॥ मनः स्याद् व्यावृतं यावत्, परदोष गुण ग्रहे ॥ कार्य व्यग्रं वरं तावन्, मध्यस्थे नात्मभावने ॥५॥ विभिन्ना अपि पंथानः, समुद्र सरितामिव ॥ मध्यस्थानां परब्रह्म, प्राप्नुवन्त्येकमक्षयम् ॥ ६॥ स्वागमं राग मात्रेण, द्वेषमात्रात्परागमं ॥ न श्रयामस्त्यजामो वा, किंतु मध्यस्थया दृशा ॥णा मध्यस्थया दृशा सर्वे, ध्वपुनबंधकादिषु ॥ चारिसंजीवनी चार, न्यायादाशा स्महे हितं ॥ ८॥ ॥ रहस्यार्थ ॥ १. मध्यस्थता आदरवाीज सद्विवेक प्राप्त थाय छे, अथवा. विवेकवंतज मध्यस्थता आदरे छे, माटे मध्यस्थ रहेवा शास्त्रकार उपदि . जेथी अपवाद पात्र य, न पडे एवी अंतरदृष्टियी मध्य
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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