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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
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स्थता आदरवी युक्त छे. मध्यस्थता सेववाथी सवल युक्तिनो योग्य आदर करवामां आवे छे अने कुतर्क करवारूपी वाल चपलता दूर, करवानुं वने छे.
२. मध्यस्थ मनरुपी वाछरडुं युक्तिरूपी गौने अनुसरीने चाले छे. अर्थात् मध्यस्थ माणसने आपमतिनी खेचाखेंच होती नथी.. परंतु तुच्छ आग्रहीतुं मनरुपी मांकडूं तो युक्ति युक्त वातनुं पण खंडनज करवा तत्पर थइ जाय छे. ते केवल आपमति मुजव वातने खेंची जाय छे, तेथी साची वातने पण खोटी पाडवा प्रयत्न करवा. ते चुकतुं नथी. मध्यस्थ मन तो सत्यनेज सत्य तरीके स्वीकारे छे..
३. स्वइष्ट अर्थ साधवामां कुशल अने अन्य अर्थमां उदासीन. एवा सर्व नयोमा जे समभावे रहे छ, लगारे हठ ताण करताज नथी ते महामुनिने मध्यस्थ जाणवा. मध्यस्थ मुनि सर्व नय वचनोने सा पेक्षपणे विचारी स्वहित साधवामां तत्पर रहे छे.
४. सर्व कोइ पोतपोताना कर्मानुसारे चेष्टा करे छे अन ते. मुजब फल भोगवे छ तेमां मध्यस्थ राग के रोष करतोज नथी. सचत्र साक्षी भावे वर्तता स्वहित सुखे साधी शकाय छे. माटे सर्व अनुकूल या प्रतिकूल संयोगोमां राग द्वेष त्याने सर्वदा समभाव र-- . हेवा सावधान थर्बु युक्त छे.