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मैनहितोपदेश भाग ३ जो. युक्तछे, एवो विवेक कोटिगमै भवोमा भाग्य योगेज थइ शकछे. अविद्यानो नाशथये छते सद्विवेक जागी शकेछ.॥
३. शुद्ध-निर्मल आकाशमां पण चक्षु विकारथी जेम रातुं पील देखायछे, तेम अविवेकथी आत्मामा विविध विकारो प्रतिभासेछे. आत्मा आकाशवत निरंजन छतां उपाधि संबंधथी मलीन- विकारी भासेछे, सर्व उपाधि-संबंध दूरथये छते आत्मा सहज स्वभावमा स्थित थइ रहेछ, निर्मल निष्कषायज आत्मानों सहज स्वभावछे. राग द्वेषादिक उपाधि दूरथवाथी स्फटिक रत्ननी स्वभाविक कांति जेवों निर्मल आत्म धर्म प्रगट थइ जायछे. ॥. . . . .
४. जोके रोजाना योद्धाओ युद्ध करेछे छतां राजाज जीत्यो हार्यों कहेवायछे, तेम शुभाशुंभ कमथीज सुख- दुःख प्राप्त थायछे; छतां आविवेकथी अमुक आत्माए अमुक उपर अनुग्रह या निग्रहकों कहेवायछे. कर्मनी विचित्रेताथी :फलनी विचित्रता थायछे छतां आ कार्य माराथीथयु, मारा, विना आधु काम बनी शकज नहिं,' झुंज सर्व पालन करंछु। मोराविना कोइ-पालंक नथीज एवं क त्व अभिमान करवू ए केवल अविवेकनुंज जोरछे, अविवेकी पुरुषाए मिथ्याभिमान कदापि करताज नथी तेवा प्राज्ञ पुरुषो तो सर्वमा साक्षी पशुज सेवळे.॥ .. . . . .. , ... ... ५. जेम-धंतूरो पीने गांडो-बयेलो आदमी सर्वत्र सोतन देखे
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