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नैनहितोपदेश भाग ३.नो. इच्छन्न परमान भावान्, विवेकाः पतत्यधः॥ परमं भावमन्विच्छन् , नाविवेके निमजति ॥६॥ आत्मन्येवात्मनः कुर्यात् , यः षट्कारक संगतिम् ॥ क्वाविवेकज्वरस्यास्य, वैषम्यं जड मजनात् ॥णा संयमानं विवेकेन, शाणेनोत्तेजितं मुनेः॥ धृतिधारोल्वणं कर्म, शत्रुच्छेद क्षमं भवेत् ॥ ८॥
॥ रहस्यार्थ ॥ १. क्षीरनीरनी पेरे सर्वदा एक मेक मलीने रहेला, कर्म अने जीवने जे व्यक्तपणे जूदा करी नांखे छे. ते मुनि-हंस विवेकवान् ग'णाय छे. सद्विवेक जाग्या विना अनादि अनंत कालथी संयुक्त थइ , रहेला कर्म अने जीवने कोइ कदापि स्पष्ट रीते जूदा करी शकेज नहिं तेम करवाने सद्विवेकनी आवश्यकता रहेज़ छे. ____२. देहज आत्मा छे अथवा आत्मा देहथी जूदों नथी एंवो अविवेक तो जन्म जन्ममा अविद्याना वशथी सुलभज छे. पण आ देह आत्माथी खास जदोज छे, केमके देह तो विनाशी छे अने भात्मा अविनाशी छे, देह तो जब छे अने आत्मा सचेतन-चतन्य