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जैनहितोपदेश भाग ३ जो... अविद्या तिमिरध्वंसे, दृशा विद्याजन स्पृशा ॥ पश्यन्ति परमात्मान, मात्मन्येव हि योगिनः॥८॥
॥ रहस्यार्थ ॥ १. अनित्य, अशुचि, अने अनात्मिक परवस्तुने नित्य पवित्र अने पोतानी लेखपी ए अविद्या लक्षण छे, अने वस्तुने वस्तुगत-यथार्थ जेवा रुपमां होय तेवा रूपमां वरावर समजवी -ए विद्यार्नु लक्षण छे; एम योगाचार्योए शास्त्रमा कयुं छे.
२. आत्मा नित्य अविनाशी छे, तेनी कदापि नास्ति थतीज नथी. सदा सर्वदा तेनी अस्तिता छे, अने आ आत्माने थतो पर संयोग विनाशशील छे, तेनो तो अवश्य वियोग थवानोज छे. एवो जेने निश्चय थयो.छे तेने मोह चोरटो छली शकतो नथी. सद्विचा शुद्धे जपे व्याग्नेि तिमेरी, देखाभिमिश्रतापले छे. पण विका मिश्रता भाति, तथात्मन्य विवेकतः॥३॥ नदे यथा योधैः कृतं युद्धं, स्वामिन्येवोपचर्यते ॥ शुद्धात्मन्य विवेकेन, कर्म स्कंधो ऽर्जितं तथा ॥४॥ इष्टकाद्यपि हि स्वर्ण, पीतोन्मत्तो यथेक्षते ॥ आत्माभेदभ्रमस्तद्ध, देहादावविवेकिनः ॥५॥
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