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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. नथी. जेम परोपकारशील एवा कुशल वैद्यनां निःस्वार्थ वचनानुसारे वर्तन करनार व्याधिग्रस्त जनोना व्याधिनो अंत आवे छे, तेम परमात्म प्रभुनां एकांत हितकारी वचनने परमार्थथी अनुसरनार भव्य जीवोनां भवदुःखनो जरुर अंत आवे छे. . एवी रीते परमशांत, कृतकृत्य, अने सवज्ञ-सर्वदर्शी ? एवा वीतराग परमात्माने सम्यग् भक्ति-भावथी सदा नमस्कार थाओ ! मोह माया तजीने जे प्रसन्नचित्तथी परमात्म प्रभुनी पूजा सेवा करे छे ते सर्व अघन टाळी अंते अनघ एवा अक्षयपदने वरे छे. जे उपर मुजव परमात्मानुं स्वरुप सद्बुद्धिथी विचारीने विवेक पूर्वक तेमनी पवित्र आज्ञाने यथाशक्ति आराधवारुपी उपासना निष्कपटपणे करे छे ते अनुक्रमे दृढ अभ्यासना योगथी सर्व दुःखनो अंत करीने पोतेज परमात्मपदने वरे छे. २४ पात्रापात्रने समजी सुपात्रने दान दे. जे संसारथी उदासीन थइ सर्वज्ञ वीतराग वचनानुसारे सर्व आरंभ परिग्रहनो त्याग करी पांच महाव्रतोने धारण करीने स्व कतेव्य सावधानपणे साधवा उजमाळ रहे छे ते जैनशासनमा सुपात्र कहेवाय छे तेथी विरुद्ध वर्तन करनार प्रमादी, स्वच्छंदी या दंभी
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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