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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
डोळघालुनी कुपात्रमां गणना थाय छे. कल्याणार्थीए कुपात्रनी उपेक्षा करीने प्रतिदिन सुपात्रनीज पोषणा करवी युक्त छे.
सुपात्रमां पण न्यायोपार्जित द्रव्यवडे विवेक पूर्वक क्षेत्र कालादि विचारीने करेलो व्यय अत्यंत हितकारी थाय छे.
सुपात्रने कुपात्र बुद्धिथी के कुपात्रने सुपात्र बुद्धिथी दीधेलुं दान दूषित छे.
पात्रापात्रनी योग्य परीक्षा पूर्वक सुपात्रने स्वल्प पण आपेलुं विवेकवाळु दान अमूल्य थइ पडे छे, विवेक विना तो ते विशेष पण फलीभूत थतुं नथी.
स्वाभाविक प्रेम, उल्लास, उदारता, अने अकुंठित भावना विगेरे विवेक युक्त दाननां भूषण छे, तेथी दाताने अत्यंत लाभ थायंछे.
स्वाति नक्षत्रनुं जळ जेम जूदां जूदां फळ आपे छे, तेम गमे ते सारं द्रव्य पण पात्रताना प्रमाणमांज फळीभत थाय छे. माटेज पात्रापात्र संबंधी विचार प्रथम कर्तव्य छे. सुपात्र दानथी शाळीभ
नी पेरे विशाळ भोग पामी पछी स्वर्ग या मोक्षनां मुखं प्राप्त थाय छे. अरे तेनी अनुमोदना मात्रथी मृगला जेवां मुग्ध प्राणी पण साक्षात् दातारनी पेरे स्वर्ग गति पामे छे. तो पछी परम प्रेम पूर्वक पवित्र चारित्रपात्र साधुजनोने जे सदा उल्लसित भावे दान दे छे,