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श्री जैनहितोपदेशं भाग ३ जो.
|| रहस्यार्थ ॥ १. निश्चित याग (पूजा) ते नियाग कहेवाय छे. तेनुं स्वरूप समजावे छे. जे शुद्ध ब्रह्माग्निमां ध्यान-साधनथी विविध कर्मने होमे छे ते निश्चित यागवडे नियागी कहेवाय छे.
२. पापना क्षय करनार एवा निष्काम (पुद्गलिक कामना रहित) ज्ञान-यज्ञमां रति करवी युक्त छे. वैभवनी इच्छाथी मलीन एवा पापयुक्त कर्म-यज्ञ करवानुं शुं प्रयोजन छे ? जेमने पापनो क्षय करी निष्पाप थवा इच्छा होय तेमने तो पापयुक्त कर्मयज्ञोनो अनादर करी केवलज्ञान-यज्ञनो ज आदर करवो घटे छे. केमके लोही खरडयुं वस्त्र लोहीथी साफ थइ शके नहि, पण शुद्ध जल विगेरेथी ज साफ थइ शके छे. तेम पापथी खरडाएलुं मन पापयुक्त कर्म-यज्ञथी शुद्ध थइ शके नहिं. पण पापरहित एवा ज्ञान यज्ञथी तो ते अवश्य शुद्ध थइ शके. माटे ज निष्काम एवा ज्ञान-यज्ञमां रक्त थq, ज्ञानी-विवेकीने उचित छे. पण पापयुक्त कर्म-यज्ञ करवां तो उचित नथीज.
३. कर्म-यज्ञ पण करवानुं वेदमां कथन होवाथी मननी शुद्धिथी ते पण ज्ञान-यज्ञर्नु फल आपे छे एवं इच्छनारा ब्रह्म-ज्ञानीओ श्येन यागने कम तजे छे ? जो वीजां कर्म-यज्ञथी मननी शुद्धि संभवे छे तो आथी केम नहिं ? एम समजी विवेकी जनोए पाप-युक्त सर्व कर्म-यज्ञोनो परिहार करवो घटे छे.