________________
श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
।। रहस्यार्थ ।। १. संयमी आत्मा शुद्ध उपयोगरूप पितानो तथा धृतिरूपि मातानो आश्रय करी लौकिक मनाता मातापितानो संग निश्चय पूबैंक तनी देछे. ज्या सुपी लौकिक संबंधीओ साथे स्नेह बांध्यो रहे छ, सं सुधी निर्मल ज्ञान, ध्यान तथा समाधिरूप आत्म संयमर्मा रति पडती नथी. शुद्ध संयममा रंग लगाडवा माटे अने सहज आनन्द लुटवा माटे लौकिक स्नेह अवश्य तजवो युक्त छे.
२. संयमार्थी आत्मा स्वार्थी बांधवोनो त्याग करीने शील संतोष मनुख परमार्थी अने निश्चल परिणामवाळा बंधुओनो आश्रय 'करवा उजमाल रहे छे. ज्यां सुधी कृत्रिम स्वार्थी बंधुओमां प्रीति 'छे त्यां मुधी सत्य परमार्थी शीलादिक सद्गुणोमां प्रीति जागे नहि. माटे शीलादिक सत्य बंधुओमां अकृत्रिम प्रेम जगाववा अर्थे अनादि अविवेक योगे लागेलो स्वार्थी लौकिक बंधुओ प्रतिनो कृत्रिम राग अवश्य वनवोज जोइए. कृत्रिम रागनो त्याग करता सहज सात्विक प्रेम अवश्य जागवानो.
३. संयमार्थी पुरुष समतारूपी स्त्रीनो तथा साधर्मीरुपी ज्ञाति जनोनोज आदर करे छे, पण वाकीना मतलवीया लौकिक संबंधीओनो त्यागज करे छे. लौकिक संबंधने विवेकथी छेर्दाने आत्म संयमने साधवाचाळो उत्तम त्यागी कहेवाय छे.